Thursday, April 18, 2019

सामाजिक विज्ञान की शाखा -1. नृविज्ञान या मानवशास्त्र

मानवशास्त्र या नृविज्ञान (Anthropology)


मानवशास्त्र या नृविज्ञान (en:Anthropology) मानव, उसके जेनेटिक्स, संस्कृति और समाज की वैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से अध्ययन है। इसके अंतर्गत मनुष्य के समाज के अतीत और वर्तमान के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन किया जाता है। सामाजिक नृविज्ञान और सांस्कृतिक नृविज्ञान के तहत मानदंडों और समाज के मूल्यों का अध्ययन किया जाता है। भाषाई नृविज्ञान में पढ़ा जाता है कि कैसे भाषा, सामाजिक जीवन को प्रभावित करती है। जैविक या शारीरिक नृविज्ञान में मनुष्य के जैविक विकास का अध्ययन किया जाता है।

नृविज्ञान एक वैश्विक अनुशासन है, जिसमे मानविकी, सामाजिक और प्राकृतिक विज्ञान को एक दूसरे का सामना करने के लिए मजबूर किया जाता है। मानव विज्ञान, प्राकृतिक विज्ञान के समेत मनुष्य उत्पत्ति, मानव शारीरिक लक्षण, मानव शरीर में बदलाव, मनुष्य प्रजातियों में आये बदलावों इत्यादि से ज्ञान की रचना करता है।

सामाजिक-सांस्कृतिक नृविज्ञान, संरचनात्मक और उत्तर आधुनिक सिद्धांतों से बुरी तरह से प्रभावित हुआ है।



शाखाएँ


एंथ्रोपोलाजी यानी नृतत्व विज्ञान की कई शाखाएं हैं। इनमें से कुछ हैं:


  1. सामाजिक सांस्कृतिक नृतत्व विज्ञान,
  2. प्रागैतिहासिक नृतत्व विज्ञान या आर्कियोलाजी,
  3. भौतिक और जैव नृतत्व विज्ञान,
  4. भाषिक नृतत्तव विज्ञान और
  5. अनुप्रयुक्त नृतत्व विज्ञान



सामाजिक-सांस्कृतिक नृतत्व विज्ञान

इसका संबंध सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवहार के विभिन्न पहलुओं, जैसे समूह और समुदायों के गठन और संस्कृतियों के विकास से है। इसमें सामाजिक-आर्थिक बदलावों, जैसे विभिन्न समुदायों और के बीच सांस्कृतिक भिन्नताओं और इस तरह की भिन्नताओं के कारणों; विभिन्न संस्कृतियों के बीच संवाद; भाषाओं के विकास, टेक्नोलाजी के विकास और विभिन्न संस्कृतियों क बीच परिवर्तन की प्रवृत्तियों का अध्ययन किया जाता है।


प्रागैतिहासिक नृतत्व विज्ञान या पुरातत्व विज्ञान

इसमें प्रतिमाओं, हड्डियों, सिक्कों और अन्य ऐतिहासिक पुरावशेषों के आधार पर इतिहास का पुनर्निर्धारण किया जाता है। इस तरह के अवशेषों की खोज से प्राचीन काल के लोगों के इतिहास का लेखन किया जाता है और सामाजिक रीति रिवाजों तथा परम्पराओं का पता लगाया जाता है। पुरातत्व वैज्ञानिक इस तरह की खोजों से उस काल की सामाजिक गतिविधियों का भी विश्लेषण करते हैं। वे अपनी खोज के मिलान समसामयिक अभिलेखों या ऐतिहासिक दस्तावेजों से करके प्राचीन मानव इतिहास का पुनर्निर्माण करते हैं।


भौतिक या जैव नृतत्व विज्ञान

इस शाखा का संबंध आदि मानवों और मानव के पूर्वजों की भौतिक या जैव विशेषताओं तथा मानव जैसे अन्य जीवों, जैसे चिमपैन्जी, गोरिल्ला और बंदरों से समानताओं से है। यह शाखा विकास श्रृंखला के जरिए सामाजिक रीति रिवाजों को समझने का प्रयास करती है। यह जातियों के बीच भौतिक अंतरों की पहचान करती है और इस बात का भी पता लगाती है कि विभिन्न प्रजातियों ने किस तरह अपने आप को शारीरिक रूप से परिवेश के अनुरूप ढाला. इसमें यह भी अध्ययन किया जाता है कि विभिन्न परिवेशों का उनपर क्या असर पड़ा. जैव या भौतिक नृतत्व विज्ञान की अन्य उप शाखाएं और विभाग भी हैं जिनमें और भी अधिक विशेषज्ञता हासिल की जा सकती है। इनमें आदि मानव जीव विज्ञान, ओस्टियोलाजी (हड्डियों और कंकाल का अध्ययन), पैलीओएंथ्रोपोलाजी यानी पुरा नृतत्व विज्ञान और फोरेंसिक एंथ्रोपोलाजी.


अनुप्रयुक्त नृतत्व विज्ञान

इसमें नृतत्व विज्ञान की अन्य शाखाओं से प्राप्त सूचनाओं का उपयोग किया जाता है और इन सूचनाओं के आधार पर संतति निरोध, स्वास्थ्य चिकित्सा, कुपोषण की रोकथाम, बाल अपराधों की रोकथाम, श्रम समस्या के समाधान, कारखानों में मजदूरों की समस्याओं के समाधान, खेती के तौर तरीकों में सुधार, जनजातीय कल्याण और उनके जबरन विस्थापन भूमि अधिग्रहण की स्थिति में जनजातीय लोगों के पुनर्वास के काम में सहायता ली जाती है।


भाषिक नृतत्व विज्ञान

इसमें मौखिक और लिखित भाषा की उत्पत्ति और विकास का अध्ययन किया जाता है। इसमें भाषाओं और बोलियों के तुलनात्मक अध्ययन की भी गुंजाइश है। इसके जरिए यह पता लगाया जाता है कि किस तरह सांस्कृतिक आदान प्रदान से विभिन्न संस्कृतियों भाषाओं पर असर पड़ा है और किस तरह भाषा विभिन्न सांस्कृतिक रीति रिवाजों और प्रथाओं सूचक है। भाषायी नृतत्व विज्ञान सांस्कृतिक नृतत्व विज्ञान से घनिष्ठ रूप से संबद्ध है।


नृतत्वशास्त्र के सिद्धांत


होमोसैपियंस (मानव) की उत्पत्ति, भूत से वर्तमान काल तक उनके परिवर्तन, परिवर्तन की प्रक्रिया, संरचना, मनुष्यों और उनकी निकटवर्ती जातियों के सामाजिक संगठनों के कार्य और इतिहास, मनुष्य के भौतिक और सामाजिक रूपों के प्रागैतिहासिक और मूल ऐतिहासिक पूर्ववृत्त और मनुष्य की भाषा का - जहाँ तक वह मानव विकास की दिशा निर्धारित करे और सामाजिक संगठन में योग दे - अध्ययन नृतत्वशास्त्र की विषय वस्तु है। इस प्रकार नृतत्वशास्त्र जैविक और सामाजिक विज्ञानों की अन्य विधाओं से अविच्छिन्न रूप से संबद्ध है।

डार्विन ने 1871 में मनुष्य की उत्पत्ति पशु से या अधिक उपयुक्त शब्दों में कहें तो प्राइमेट (वानर) से - प्रामाणिक रूप से सिद्ध की यूरोप, अफ्रीका, दक्षिणी पूर्वी और पूर्वी एशिया में मानव और आद्यमानव के अनेक जीवाश्मों (फासिलों) की अनुवर्ती खोजों ने विकास की कहानी की और अधिक सत्य सिद्ध किया है। मनुष्य के उदविकास की पाँच अवस्थाएँ निम्नलिखित है :-

ड्राईपिथेसीनी अवस्था (Drypithecinae Stage) वर्तमान वानर (ape) और मनुष्य के प्राचीन जीवाश्म अधिकतर यूरोप, उत्तर अफ्रीका और भारत में पंजाब की शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी में पाये गए हैं।

आस्ट्रैलोपिथेसीनी अवस्था (Australopithecinae stage) - वर्तमान वानरों (apes) से अभिन्न और कुछ अधिक विकसित जीवाश्म पश्चिमी और दक्षिणी अफ्रीका में प्राप्त हुए।

पिथेकैंथोपिसीनी अवस्था (Pithecanthropicinae stage) जावा और पेकिंग की जातियों तथा उत्तर अफ्रीका के एटल्थ्रााोंपस (Atlanthropus) लोगों के जीवाश्म अधिक विकसित स्तर के लगते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि उस समय तक मनुष्य सीधा खड़ा होने की शारीरिक क्षमता, प्रारंभिक वाक्शकि और त्रिविमितीय दृष्टि प्राप्त कर चुका था, तथा हाथों के रूप में अगले पैरों का प्रयोग सीख चुका था।

नींडरथैलाइड अवस्था (Neanderthaloid stage) यूरोप, अफ्रीका और एशिया के अनेक स्थानों पर क्लैसिक नींडरथल, प्रोग्रेसिव नींडरथल, हीडेल वर्ग के, रोडेशियाई और सोलोयानव आदि अनेक भिन्न भिन्न जातियों के जीवाश्म प्राप्त हुए। वे सभी जीवाश्म एक ही मानव-वंश के हैं।

होमोसैपियन अवस्था (Homosapien stage) यूरोप, अफ्रीका और एशिया में ऐसे असंख्य जीवाश्म पाऐ गए हैं, जो मानव-विकास के वर्तमान स्तर तक पहुँच चुके थे। उनका ढाँचा वर्तमान मानव जैसा ही है। इनमें सर्वाधिक प्राचीन जीवाश्म आज से 40 हजार वर्ष पुराना है।


जीवाश्म बननेवाली अस्थियाँ चूंकि अधिक समय तक अक्षत रहती हैं, बहुत लम्बे काल से नृतत्वशास्त्रियों ने जीवों की अन्य शरीर पद्धतियों की अपेक्षा मानव और उसकी निकटवर्ती जातियों के अस्थिशास्त्र का विशेष अध्ययन किया है। किंतु माँसपेशियों का संपर्क ऐसा प्रभाव छोड़ता है, जिससे अस्थियों में माँसपेशियों का संपर्क ऐसा प्रभाव छोड़ता है, जिससे अस्थियों की गतिशीलता तथा उनकी अन्य क्रियापद्धतियों के संबंध में अधिक ज्ञान मिलता है। कम से कम इतना तो कह ही सकते हैं कि यह अन्य पद्धति या रचना उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितनी पूर्वोल्लिखित अन्य दो। खोपड़ी की आकृति और रचना से मस्तिष्क के संबंध में विस्तृत ज्ञान उपलब्ध होता है और उसकी क्रियाप्रणाली के कुछ पहलुओं का अनुमान प्रमस्तिष्कीय झिल्ली की वक्रता से लग जाता है।

मानव के अति प्राचीन पूर्वज, जिनके वंशज आज के वानर हैं, तबसे शारीरिक ढाँचे में बहुत अंशों में बदल गऐ हैं। उस समय वे वृक्षवासी थे, अत: शारीरिक रचना उसी प्रकार से विकृत थी। कुछ प्राचीन लक्षण मानव शरीर में आज भी विद्यमान हैं। दूसरी अवस्था में मानव आंशिक रूप से भूमिवासी हो गया था और कभी कभी भद्दे ढंग से पिछले पैरों के बल चलने लगा था। इस अवस्था का कुछ परिष्कृत रूप वर्तमान वानरों में पाया जाता है। जो भी हो, मानव का विकास हमारे प्राचीन पूर्वजों की कुछ परस्पर संबद्ध आदतों के कारण हुआ, उदाहरण के लिए

(1) पैरों के बल चलना, सीधे खड़ा होना

(2) हाथों का प्रयोग और उनसे औजार बनाना

(3) सीधे देखना और इस प्रकार त्रिविमितीय दृष्टि का विकसित होना। इसमें पाशवि मस्तिष्क का अधिक प्रयोग हुआ, जिसे परिणाम-स्वरूप

(4) मस्तिक के तंतुओं का विस्तार और परस्पर संबंध बढ़ा, जा वाक्‌-शक्ति के विकास का पूर्व दिशा है।

इस क्षेत्र के अध्ययन के हेतु तुलनात्मक शरीररचनाशास्त्र (anatomy) का ज्ञान आवश्यक है। इसिलिए भौतिक नृतत्वशास्त्र में रुचि रखनेवाले शरीरशास्त्रियों ने इसमें बड़ा योग दिया।

वर्तमान मानव के शारीरिक रूपों के अध्ययन ने मानवमिति को जन्म दिया; इसमें शारीरिक अवयवों की नाप, रक्त के गुणों, तथा वंशानुसंक्रमण से प्राप्त होनेवाले तत्वों आदि का अध्ययन सम्मिलित है। अनेक स्थानांतरण के खाके बनाना संभव हो गया है। संसार की वर्तमान जनसंख्या को, एक मत के अनुसार, 5 या 6 बड़े भागों में विभक्त किया जा सकता है। एक अन्य मत के अनुसार, जो कि भिन्न मानदंड का प्रयोग करता है, जातियों की संख्या तीस के आसपास हैं।

मानव आनुवंशिकी ज्ञान की अपेक्षाकृत एक नयी शाखा है, जो इस शती के तीसरे दशक से शुरू हुई। इस शती के प्रारंभ में ही, जब मेंडल का नियम पुन: स्थापित अध्ययन आर.ए. फियर, एस. राइट, जे.बी.एस. हाल्डेन तथा अन्य वैज्ञानिकों द्वारा आनुवंशिकीय सिद्धांतों के गणितीय निर्धारण से आरंभ हुआ। वनस्पति और पयु आनुवंशिकी से भिन्न मानव आनुवंशिकी का अध्ययन अनेक भिन्नता युक्त-वंशपरंपराओं, रक्त के तथा मानव शरीर के अन्य अवयवों के गुण-प्रकृति के ज्ञान से ही संभव है। अबतक जो कुछ अध्ययन हुआ है, उसमें ए-बी-ओ, आर-एच, एम-एम-यस और अन्य रक्तभेद, रुधिर वर्णिका भेद (Haemoglobin Variants) ट्राँसफेरिन भेद, मूत्र के कुछ जैव-रासायनिक गुण, लारस्त्राव, रंग-दृष्टि-भेद, अंगुलि-अंसंगति (digital anomaly) आदि सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं।


मानव के सामाजिक संगठन, विशेषतया इसके जन्म और कार्य प्रणाली का अध्ययन सामाजिक नृतत्वशास्त्री करते हैं। विवाह, वंशागति, उत्तराधिकार, विधि, आर्थिक-संगठन, धर्म आदि के प्राचीन रूपों की खोज के लिए अनुसंधानकारियों ने संसार के कबीलों और आदिम-जातियों में अपनी विश्लेषणात्मक पद्धति का प्रयोग किया है। इस संदर्भ में चार विभिन्न स्थानों - (1) अफ्रीका, (2) उत्तर और दक्षिण अमरीका (3) भारत और (4) आस्ट्रेलिया, मैलेनेशिया, पोलोनेशिया और माइक्रोनीशिया आदि - के कबीलों और मनुष्यों की ओर नृतत्वशास्त्रियों का ध्यान गया है। इन क्षेत्रों के कबीलों और अन्य निवासियों के अध्ययन ने हमें मानव-व्यापार और संगठन का प्राय: संपूर्ण वर्णक्रम प्रदान किया। कुछ भी हो, रक्तसंबंध किसी सामाजिक संगठन को समझने के लिए सूत्र है, जिसके अध्ययन से अनेक मानवसंस्थाओं के व्यवहार स्पष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार रक्तसंबंध कबीलों और ग्रामवासियों के संगठन का लौह पिंजर है।

सामाजिक नृतत्वशास्त्र का प्रारंभिक रूप आर.एच. कार्डिगृन, ई.बी.टेलर, जे.जे. बैचोफेन आदि ने स्थापित किया है, उनका अध्ययन पुस्तकालयों तक ही सीमित था। एल.एच. मार्गन ने सर्वप्रथम कबीलों के क्षेत्रीय अध्ययन पर बल दिया और सामाजिक संगठन को समझने में रक्तसंबंध के महत्व का अनुभव किया। डब्ल्यू.एच. रिवर्स, ए.आर. रेडक्लिफ ब्राउन और अन्य विद्वानों ने वंश अध्ययनपद्धति से रक्त-संबंध के अध्ययन को आगे बढ़ाया। जी.पी. मरडक, एस.एफ. नाडेल और ई.आर. लीच आदि के लेखों तथा ग्रंथों में आज भी रक्तसंबंध के अध्ययन की विशेष चर्चा है।

सामाजिक नृतत्वशास्त्र की उन्नति में भिन्न भिन्न देशों ने भिन्न भिन्न ढंग से योगदान किया है। उदाहरण के लिए अंग्रज नृतत्वशास्त्रियों ने डार्विन के जैव-विकास के सिद्धांत (इसके समस्त गुणदोषों के साथ) से प्रेरणा ग्रहण की। इसलिए उनमें सामाजिक संगठन के विकास पर विशेष आग्रह पाया जाता था, जिससे अनेक रक्तसंबंधी तथा संरचनात्मक सिद्धांतों का जन्म हुआ। विभिन्न जातियों और कबिलों पर औपनिवेशिक प्रशासन किए जाने की आवश्यकता का भी ब्रिटेन के नृतत्वशास्त्रियों के विचारों पर बहुत प्रभाव था।

फ्रांस में सामाजिक नृतत्वशास्त्र का जन्म ई. दुर्खेम, एल. लेवी ब्रुहल आदि सामाजिक दार्शनिकों और समाजशास्त्रियों के साहित्य से हुआ। उन्होंने सामाजिक संगठन के मनोवैज्ञानिक अवयवों को सर्वोपरि माना।

अमरीकी नृतत्वशास्त्रियों में अनेक प्रवृत्तियाँ दृष्टिगत होती हैं।

(1) सामाजिक विकास के संदर्भ में व्यक्तित्व और उसके विकास के पहलू की विवेचना सर्वप्रथम ए.एल. क्रोबर ने की। एम.मीड और सी. क्ल्युखोन आदि ने उसका विस्तृत अध्ययन किया। किसी समूह की क्रिया और क्रियाक्षमता की रचना में समाज के भाषा शास्त्रीय अवयव का अध्ययन हुआ।

(2) समाज के संस्कृति-मूल के निर्धारित और निर्देशक रूप में भाषा के महत्व पर एफ. बोस और ई. सैपियर ने ध्यान दिया। किंतु नृतत्वशास्त्रीय भाषा संबंधी अध्ययन पर जोर देने वालों में बी.एल. वोर्फ का सर्वाधिक महत्व है

(3) अद्यतन प्रवृत्ति सांस्कृतिक और सामाजिक प्रकार विज्ञान की ओर है जिसका सूत्रपात जे.स्टेवार्ड ने किया। आर. रेडफील्ड ने जिसने समाजों को संक्रमण की भिन्न भिन्न स्थितियाँ माना है, उपर्युंक्त प्रवृत्तियों को एक अर्थपूर्ण रूप दिया है।

सामाजिक नृतत्वशास्त्र प्राय: आंकड़ों के प्रयोग से अछूता रहा। आज जब कि सामाजिक विज्ञानों के अंतर्गत समाजमिति, मनोमिति और अर्थमिति (Econometrics) आदि जैसी शाखाएँ हैं, सामाजिक नृतत्वशास्त्री अपनी प्रदत्त सामग्री केवी वर्णनात्मक रूप में ही प्रस्तुत करना पसंद करते हैं। सामाजिक नृतत्वशास्त्र पर स्थान विज्ञानीय गणित का भी कोई प्रभाव नहीं दिखाई देता। समाजशास्त्र में गतिशील समूह  के अध्ययन के लिए स्थानविज्ञान (Topology) ने एक नयी दिशा दी है। किंतु नृतत्वशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत व्यक्तित्व और संस्कृति के दिग्विन्यास संबंधी अध्ययन में स्थानविज्ञान, गणित और तर्कशास्त्र के प्रयोग की अभी प्रतीक्षा ही की जा रही है।

भौतिक और सामाजिक पहलुओं के अतिरिक्त नृतत्वशास्त्र में मनुष्य की प्रागैतिहासिक काल की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थितियों का अध्ययन भी, जो प्रागैतिहासिक पुरातत्व से प्राप्त होता है, सम्मिलित है।



मानव का विकास


चार्ल्स डार्विन की "ओरिजिन ऑव स्पीशीज़" नामक पुस्तक के पूर्व साधारण धारणा यह थी कि सभी जीवधारियों को किसी दैवी शक्ति (ईश्वर) ने उत्पन्न किया है तथा उनकी संख्या, रूप और आकृति सदा से ही निश्चित रही है। परंतु उक्त पुस्तक के प्रकाशन (सन् 1859) के पश्चात् विकासवाद ने इस धारणा का स्थान ग्रहण कर लिया और फिर अन्य जंतुओं की भाँति मनुष्य के लिये भी यह प्रश्न साधारणतया पूछा जाने लगा कि उसका विकास कब और किस जंतु अथवा जंतुसमूह से हुआ। इस प्रश्न का उत्तर भी डार्विन ने अपनी दूसरी पुस्तक "डिसेंट ऑव मैन" (सन् 1871) द्वारा देने की चेष्टा करते हुए बताया कि केवल वानर (विशेषकर मानवाकार) ही मनुष्य के पूर्वजों के समीप आ सकते हैं। दुर्भाग्यवश धार्मिक प्रवृत्तियोंवाले लोगों ने डार्विन के उक्त कथन का त्रुटिपुर्ण अर्थ (कि वानर स्वयं ही मानव का पूर्वज है) लगाकर, न केवल उसका विरोध किया वरन् जनसाधारण में बंदरों को ही मनुष्य का पूर्वज होने की धारणा को प्रचलित कर दिया, जो आज भी अपना स्थान बनाए हुए है। यद्यपि डार्विन मनुष्य विकास के प्रश्न का समाधान न कर सके, तथापि इन्होंने दो गूढ़ तथ्यों की ओर प्राणिविज्ञानियों का ध्यान आकर्षित किया :

(1) मानवाकार कपि ही मनुष्य के पूर्वजों के संबंधी हो सकते हैं और

(2) मानवाकार कपियों तथा मनुष्य के विकास के बीच में एक बड़ी खाईं है, जिसे लुप्त जीवाश्मों (fossils) की खोज कर के ही कम किया जा सकता है।

यह प्रशंसनीय है कि डार्विन के समय में मनुष्य के समान एक भी जीवाश्म उपलब्ध न होते हुए भी, उसने भूगर्भ में छिपे ऐसे अवशेषों की उपस्थिति की भविष्यवाणी की जो सत्य सिद्ध हुई। अभी तक की खोज के अनुसार होमो सेपियन्स का उद्धव 2 लाख साल पहले पूर्वी अफ्रीका का माना जाता रहा है, लेकिन नई खोज के मुताबिक 3 लाख साल पहले ही ही होमो सेपिन्यस के उत्तर अफ्रीका में विकास के सबूत मौजूद है।



विकासकाल का निर्धारण


पृथ्वी के 4.6 अरब साल इतिहास को भू-वैज्ञानिक कई खंडों में बांट कर देखते हैं। इन्हें कल्प (इयॉन), संवत (एरा), अवधि (पीरियड) और युग (ईपॉक) कहते हैं। इनमें सबसे छोटी इकाई है ईपॉक। मौजूदा ईपॉक का नाम होलोसीन ईपॉक है, जो 11700 साल पहले शुरू हुआ था। इस होलोसीन ईपॉक को तीन अलग-अलग कालों में बांटा गया है- अपर, मिडल और लोअर। इनमें तीसरे यानी लोअर काल को मेघालयन नाम दिया गया है।

मानवाकार सभी जीवाश्म भूगर्भ के विभिन्न स्तरों से प्राप्त हुई हैं। अतएव मानव विकास काल का निर्धारण इन स्तरों (शैल समूहों) के अध्ययन के बिना नहीं हो सकता। ये स्तर पानी के बहाव द्वारा मिट्टी और बालू से एकत्रित होने और दीर्घ काल बीतने पर शिलाभूत होने से बने हैं। इन स्तरों में जो भी जीव फँस गए, वो भी शिलाभूत हो गए। ऐसे शिलाभूत अवशेषों को जीवाश्म कहते हैं। जीवाश्मों की आयु स्वयं उन स्तरों की, जिनमें वे पाए जाते हैं, आयु के बराबर होती है। स्तरों की आयु को भूविज्ञानियों ने मालूम कर एक मापसूचक सारणी तैयार की है, जिसके अनुसार शैलसमूहों को 5 बड़े खंडों अथवा महाकल्पों में विभाजित किया गया :


  • हेडियन (Hadean)
  • आद्य (Archaean)
  • पुराजीवी (Palaeozoic)
  • मध्यजीवी (Mesozoic)
  • नूतनजीवी (Cenozoic) महायुग।



इन महाकल्पों को कल्पों में विभाजित किया गया है तथा प्रत्येक कल्प एक कालविशेष में पाए जानेवाले स्तरों की आयु के बराबर होता है। इस प्रकार आद्य महाकल्प एक "कैंब्रियन पूर्व" (Pre-cambrian), पुराजीवी महाकल्प छह 'कैंब्रियन' (Cambrian), ऑर्डोविशन, (Ordovician), सिल्यूरियन (Silurian), डिवोनी (Devonian), कार्बोनी (Carbniferous) और परमियन (Permian), मध्यजीवी महाकल्प तीन ट्राइऐसिक (Triassic), जूरैसिक (Jurassic) और क्रिटैशस (Cretaceous) और नूतनजीव महाकल्प पाँच आदिनूतन (Eocene), अल्प नूतन (Oligocene), मध्यनूतन (Miocene), अतिनूतन (Pliocene) और अत्यंत नूतन (pleistocene) कल्पों में विभाजित हैं।



जीवाश्म की आयु का निर्धारण

शैल समूहों से जीवाश्मों की केवल समीपतर्वी आयु का ही पता चल पाता है। अतएव उसकी आयु की और सही जानकारी के लिये अन्य साधनों का उपयोग किया जाता है। इनमें रेडियोऐक्टिव कार्बन, (C14), की विधि विशेष महत्वपूर्ण है जो इस प्रकार है :

सभी जीवधारियों (पौधे हों या जंतु) के शरीर में दो प्रकार के कार्बन कण उपस्थित होते हैं, एक साधारण, (C12) और दूसरा रेडियाऐक्टिव, (C14)! इनका आपसी अनुपात सभी जीवों में (चाहे वे जीवित स्थित हों या मृत) (constant) रहता है। कार्बन_14, वातावरण में उपस्थित नाइट्रोजन_14 के अंतरिक्ष किरणों (cosmic rays) द्वारा परिवर्तित होने से, बनता है। यह कार्बन_14 वातावरण के ऑक्सीजन से मिलकर रेडियाऐक्टिव कार्बन डाइऑक्साइड (C14O2) बनाता हैं, जो पृथ्वी पर पहुँचकर प्रकाश संश्लेषण द्वारा पौधों में अवशोषित हो जाता है और इनसे उनपर आश्रित जंतुओं में पहुँच जाता है। मृत्यु के बाद कार्बन_14 का अवशोषण बंद हो जाता है तथा उपस्थित कार्बन_14 पुन: नाइट्रोजन_14 में परिवर्तित होकर वातावरण में लौटने लगता है। यह मालूम किया जा चुका है कि कार्बन_14 का आधा भाग 5,720 वर्षों में नाइट्रोजन_14 में बदल पाता है। अतएव जीवाश्म में कार्बन_14 की उपस्थित मात्रा का पता लगाकर, किसी जीवाश्म की आयु का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इस विधि में कमी यह है कि इसके द्वारा केवल 50 हजार वर्ष तक की आयु जानी जा सकती है।


विकास क्रम

होमोहैबिलिस (Homohabilis) के सह आविष्कर्ता जॉन नेपियर (John Napier) के मतानुसार (1964 ई) मनुष्य का विकास पॉच अवस्थाओं से होकर गुजरा है :

(1) प्रांरभिक पूर्वमानव (early prehuman), कीनियापिथीकस (अफ्रीका से प्राप्त) और (भारत से प्राप्त) रामापिथीकस (Ramapithecus) के जीवाश्मों द्वारा जाना जाता है। ये मानव संभवत: मनुष्य के विकास के अति प्रारंभिक अवस्थाओं में थे।

(2) बाद के पूर्व मानव (late prehuman), का प्रतिनिधित्व अफ्रीका से प्राप्त ऑस्ट्रैलोपिथीकस (Australopithecus) करता है,

(3) प्रारंभिक मनुष्य को अफ्रीका से ही प्राप्त होमोइहैबिलिस द्वारा जाना जाता है,

(4) उत्तरभावी मनुष्य (late human), के अंतर्गत होमोइरेक्टस (Homo-erectus), अथवा जावा और चीन के मानव, आते हैं और

(5) आधुनिक मानव / होमो सेपियन्स (modern human), का प्रथम उदाहरण क्रोमैग्नॉन मानव में प्राप्त होता है।

आधुनिक मानव अफ़्रीका में 2 लाख साल पहले , सबके पूर्वज अफ़्रीकी थे।

होमो इरेक्टस के बाद विकास दो शाखाओं में विभक्त हो गया। पहली शाखा का निएंडरथल मानव में अंत हो गया और दूसरी शाखा क्रोमैग्नॉन मानव अवस्था से गुजरकर वर्तमान मनुष्य तक पहुंच पाई है। संपूर्ण मानव विकास मस्तिष्क की वृद्धि पर ही केंद्रित है। यद्यपि मस्तिष्क की वृद्धि स्तनी वर्ग के अन्य बहुत से जंतुसमूहों में भी हुई, तथापि कुछ अज्ञात कारणों से यह वृद्धि प्राइमेटों में सबसे अधिक हुई। संभवत: उनका वृक्षीय जीवन मस्तिष्क की वृद्धि के अन्य कारणों में से एक हो सकता है।


आद्य मानव उद्योग

जिस प्रकार उपर्युक्त जीवाश्मों द्वारा मानव शरीर (अस्थियों) के विकास का अध्ययन किया जाता है, उसी प्रकार विभिन्न मानवों द्वारा छोड़े करणों (औजारों, implements) द्वारा उनकी सभ्यता के विकास का अध्ययन किया जा सकता है। ये औजार मानव जीवाश्म के साथ, या आस पास, पाए गए हैं और मानव-मस्तिष्क के विकास के साथ इनमें भी विकास हुआ है। प्रारंभिक औजार भोंडे (crude) और पत्थर के टुकड़े मात्र थे, परंतु बाद में ये सुदृढ़ और उपयोगी होते गए।

ये औजार केवल अत्यंतनूतन युग में ही मिलते है, अतएव इनके काल का ज्ञान उन हिमनदी कल्पों से भी लगाया जाता है जो इस (अत्यंतनूतन) युग में पड़ चुके हैं। भिन्न भिन्न समय पर पाए गए उपकरणों को एक उद्योग का नाम देते हैं। यह नाम किसी यूरोपीय स्थान के नाम पर आधारित है। औजार उद्योग के आधार पर अत्यंतनूतन युग को तीन कालों में विभक्त कर सकते हैं :

(1) पुराप्रस्तर काल, (2) मध्यप्रस्तर काल तथा (3) नवप्रस्तर काल।


पुराप्रस्तर काल

पुराप्रस्तर काल को चार अन्य कालों में विभक्त कर सकते हैं

(1) प्रारंभिक काल--अत्यंतनूतन युग के प्रारंभ में जो औजार प्राप्त होते हैं, वे पत्थरों के भोंडे टुकड़ों के रूप में हैं। बहुधा यह संदेहमय जान पड़ता है कि ये मनुष्य द्वारा ही गढ़े गए होंगे।

(2) निचला काल--इस काल में निम्नलिखित उद्योग पाए गए हैं :


  • ऐबिविलियन (Abbevillian) उद्योग--यह उद्योग प्रथम हिमनदीय कल्प से प्रथम अंतराहिमनदीय कल्प (interglacial period) तक पाया जाता है तथा इसमें बड़ी और भोंडी कुल्हाड़ियाँ बनाई जाती थीं।
  • एक्यूलियन (Acheulian) उद्योग--एक्यूलियन उद्योग अंतिम अंतराहिमनदीय कल्प तक फैला था और इसमें हाथ से काम में लाई जानेवाली कुल्हाड़ियाँ अधिक कौशल से बनाई जाती थीं।
  • लेवैलिओसियन (Levalliosian) उद्योग--यह उद्योग तीसरे हिमनदीय कल्प में स्थापित हुआ और इसमें औजार पूरे पत्थरों से नहीं, वरन् उनसे चिप्पड़ उतारकर बनाए जाने लगे। इस उद्योग के काल में चीन के और संभवत: जावा के, मानव रहा करते थे।


 अतिनूतन (Pliocene) यूग के, संभवत: मानव निर्मित, ये प्रस्तर अवशेष इंग्लैंड के केंट प्रदेश में प्राप्त हुए थे।


(3) मध्य काल--इस काल का उद्योग इस प्रकार है :

मूस्टीरियन (Mousterian) उद्योग--यह उद्योग तृतीय हिमनदीय कल्प से अंतिम, अर्थात् चतुर्थ हिमनदीय कल्प, के प्रारंभिक काल तक फैला था। इस उद्योग में हस्त कुल्हाड़ियों का स्थान अन्य औजारों ने ले लिया था, जो पत्थरों के बड़े बड़े चिप्पड़ उतार कर बड़े कौशल से बनाए जाते थे। यह उद्योग काल निर्येडरथाल मानव काल माना जाता है।

(4) उत्तर काल--यह काल अंतिम हिमनदीय कल्प के अंतिम चरण में पाया जाता है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित उद्योग संमिलित हैं :


  1. ऑरिग्नेशियन (Aurignacian) उद्योग--ऑरिग्नेशियन उद्योग उत्कृष्ट नमूनों तथा उच्च कला कौशल का परिचायक है। पत्थर के अतिरिक्त इस काल में हड्डी, सींग, हाथीदाँत आदि का उपयोग गले के हार तथा अन्य शारीरिक आभूषण निर्माण के लिये किया जाता था। गुफा चित्रकारी तथा शिल्प कला इस काल में प्रारंभ हो चुकी थी।
  2. सोलूट्रियन (Solutrean) उद्योग--इस उद्योग के समय पत्थरों से चिप्पड़ काटकर नहीं, वरन् उन्हें दबाकर, निकाले जाते थे। इनसे उत्कृष्ट भाला फलक बनाए जाते थे।
  3. मैग्डेलिनियन (Magdalenian) उद्योग--इस उद्योग काल में पत्थरों के औजारों के साथ साथ बारहसिंघों के सींग से अन्यान्य प्रकार के औजार बनाए जाते थे, जैसे हारपून (तिमि भेदने के लिये), बरछों के फलक तथा भाला फेंकनेवाले उपकरण आदि। चित्रकारी में विभिन्न रंगों का उपयोग कर जंतुओं के चित्र बनाए जाते थे। यूरोप झ्र् फ्रांस और पाइरेनीज (Pyreness) में ऐसी अनेक कला कृतियाँ अब भी मौजूद हैं।



 मध्यप्रस्तर काल

अंतिम हिमनदीप कल्प के अंत होने या गरम जलवायु के वापस आने तक के काल को मध्यप्रस्तर काल कहा जाता है। यह अल्पकालीन (transitory) युग कहा जाता है। इस समय तक मनुष्य सभ्य हो चला था। यद्यपि कृषि तथा पशुपालन का प्रारंभ अभी नहीं हुआ था और मानव अब भी घूम घूमकर पशुओं का शिकार किया करता था। शीतकाल में पाए जानेवाले अधिकांश जंतु इस काल में या तो नष्ट हो गए थे, या प्रवास कर गए थे। अमरीका में आनेवाले प्रथम मानव इसी युग के थे। पत्थर के औजार सूक्ष्म तथा विचित्र आकार के थे।

नवप्रस्तर काल

यह अंतिम और वर्तमान युग है। पत्थर के औजार यद्यपि इस युग (के प्रारंभ) में भी बनाए जाते थे, परंतु कृषि और पशुपालन इस युग की विशेष घटनाएँ थीं। अनाज रखने के लिये मिट्टी के बरतन बनाए जाते थे, जिनकी आयु का अनुमान उनकी बनावट और उनके भागों के अनुपात की भिन्नता से सरलता से जाना जा सकता है। सूअर, गाय, भेड़ और बकरी का पालन प्रारंभ हो चुका था। इस युग के प्रारंभ काल का निश्चित पता नहीं चलता, परंतु यह निश्चित है कि 4,000 वर्ष ईसा से पूर्व इस युग की स्थापना भलीभाँति हो चुकी थी। संभवत: इस युग की सभ्यता का श्रीगणेश मिस्र, मेसोपोटामिया, उत्तरी पश्चिमी भारत तथा इन भागों की बृहत् नदियों, जैसे नील, दजला (Tigris), फरात (Euphrates) और सिंध की घाटियों में हुआ।

वनस्पति और जंतु का पूर्ण उपयोग करने के पश्चात् मनुष्य का ध्यान खनिज पदार्थों की ओर गया। सर्वप्रथम ताँबे का उपयोग किया गया, परंतु शीघ्र ही यह मालूम हो गया कि धातुओं के मिश्रण से वस्तुएँ अधिक कड़ी बनाई जा सकती हैं। लगभग 3,000 वर्ष ईसा पूर्व काँसे (ताँबे और टिन के मिश्रण) का प्रयोग प्रारंभ हुआ। 1,400 वर्ष ईसा पूर्व इस्पात का उपयोग होने लगा, जो अब तक चला आ रहा है।


मनुष्य के जीवित संबंधी

 मनुष्य के पूर्वजों की अन्य कोई जाति अब जीवित नहीं है। वर्तमान जंतुओं में जो समूह उनके निकट संबंधी होने का दावा कर सकता है, उसे प्राइमेटीज़ (primates, नरवानर-गण) कहते हैं। यह स्तनियों का एक समूह है। मानव विकास के अध्ययन में प्राइमेटीज़ का संक्षिप्त विवरण आवश्यक हो जाता है। प्रख्यात जीवाश्म विज्ञानी, जी जी सिंपसन (G. G. Simpson), के अनुसार प्राइमेटीज का वर्गीकरण इस प्रकार कर सकते हैं :

प्रोसिमिई

टार्सियर - टार्सियर की केवल एक जाति होती है, जो पूर्वी एशिया के द्वीपों में पाई जाती है, परंतु इसके जीवाश्म यूरोप और अमरीका में भी पाए जाते हैं, जो इनके विस्तृत वितरण के द्योतक हैं।

लीमर - ये मैडागैस्कर द्वीप पर ही पाए जाते हैं और वृक्षवासी होते हैं। भोजन की खोज में ये बहुधा भूमि पर भी आ जाते हैं। ये सर्वभक्षी (omnivorous) होते हैं।

लोरिस - ये उष्ण कटिबंधीय अफ्रीका और एशिया में पाए जाते हैं। छोटे और समूर-दार (furry) होने के कारण ये लोकप्रिय, पालतू जंतु माने जाते हैं।


ऐंथ्रोपॉइडिया

नवीन संसार के वानर - इनमें निम्नलिखित जातियाँ हैं :

मार्मोसेट - मार्मोसेट उष्णकटिबंधीय अमरीका में पाया जाता है। यह वृक्षवासी और सर्वभक्षी होता है।

सीबस - ये उष्णकटिबंधीय अमरीका में पाए जानेवाले वृक्षवासी वानर हैं, जो मानवाकार कपियों की भाँति साधनों या करण का उपयोग करते हैं।

एलूएटा - एलूएटा मध्य अमरीका के पनामा नहर के समीप बैरो कोलैरैडो (Barrow Colorado) नामक द्वीप पर पाए जाते हैं। ये वानर संसार में सबसे अधिक शोर मचानेवाले जंतु हैं। इनमें कुछ सामाजिक प्रवृत्तियाँ भी पाई जाती हैं।

प्राचीन संसार के वानर - इनमें नीचे लिखी जातियाँ हैं :

बैबून - बैबून अफ्रीका और दक्षिणी एशिया में रहते हैं। ये माप में भेड़ियें के बराबर होते हैं। इनकी थूथन लंबी और कुछ छोटी होती है। मकाक--मकाक की विभिन्न जातियाँ जिब्राल्टर, उत्तरी अफ्रीका, भारत, मलाया, चीन और जापान में पाई जाती हैं। ये वृक्षवासी, चतुर और परिश्रमी जंतु होते हैं।


मानवाकार कपिगण - मानवाकार कपि के अंतर्गत चार बृहत् कपि, गिब्बन, ओरांग, ऊटान, गोरिल्ला और चिंपैंज़ी, आते हैं।

यद्यपि बृहत् कपियों और मनुष्य में अनेक समानताएँ अवश्य पाई जाती हैं, फिर भी इन्हें मनुष्य का पूर्वज कहना सर्वथा त्रुटिपूर्ण होगा, क्योंकि जहाँ मनुष्य तथा इन कपियों में समानताएँ मिलती हैं, वहाँ उनमें और पूर्व वानरों में भी कुछ मिलता हैं। इतना ही नहीं, बृहत् कपि अपने अनेक गुणों में मनुष्य से अधिक विशिष्ट हैं। अतएव हम समानताओं के आधार पर केवल इतना ही कह सकते हैं कि बृहत् कपि और मनुष्य के पूर्वज प्राचीन काल में एक रहे होंगे।


मानव विकास में सहायक विशेष गुण

वे विशेष गुण, जिन्होंने मनुष्य के विकास को प्रोत्साहित किया, निम्नलिखित हैं :

खड़े होकर चलना - यद्यपि कुछ बृहत् कपि भी बहुधा खड़े हो लेते हैं, परंतु स्वभावत: खड़ा होकर चलनेवाला केवल मनुष्य ही है। इस गुण के फलस्वरूप मनुष्य के हाथ अन्य कार्यों के लिये स्वतंत्र हो जाते हैं। खड़े होकर चलने के लिये उसकी अस्थियों की बनावट और स्थिति आंतरिक अंगों की स्थितियों में फेर बदल हुए। पैर की अस्थियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। अँगूठा अन्य उँगलियों की सीध में आ गया तथा पैरों ने चापाकार (arched) होकर थल पर चलने और दौड़ने की विशेष क्षमता प्राप्त कर ली। ये गुण मनुष्य की सुरक्षा और भोजन खोजने की क्षमता में विशेष रूप से सहायक सिद्ध हुए।

त्रिविम दृष्टि (Stereoscopic Vision) - चेहरे पर आँखों का सामने की ओर अग्रसर होना टार्सियर जैसे पूर्व वानरों में प्रारंभ हो चुका था, पर इसका पूर्ण विकास मनुष्य में ही हो पाया। इसके द्वारा वह दोनों आँख एक ही वस्तुपर केंद्रित कर न केवल उसका एक ही प्रतिबिंब देख पाता है, वरन् उसके त्रिविम आकार (three dimensional view) की विवेचना भी कर सकता है। इस विशेष दृष्टि द्वारा उसे वस्तु की दूरी और आकार का ही सही अनुमान लग पाता है तथा वह अधिक दूर तक भी देख पाता है।

संमुख अंगुष्ठ (Opposible Thumb)--संमुख अंगुष्ठ का अर्थ है, अंगुष्ठ को अन्य उंगलियों की प्रतिकूल स्थिति में लाया जा सकना। इस स्थिति में अंगुष्ठ अन्य उंगलियों के सामने आकर और साथ मिलकर वस्तुओं में पकड़ सकने में सफल हो पाता है। यह गुण जंतु समूह में केवल प्राइमेट गणों में, वस्तुओं की परीक्षण हेतु मुख के समुख लाने से, प्रारंभ हुआ तथा मनुष्य में उसका इतना अधिक विकास हुआ कि आज मनुष्य का हाथ एक अत्यंत संवेदनशील और सूक्ष्मग्राही यंत्र बन गया है। ऐसे हाथ की सहायता से मनुष्य अपनी मानसिक शक्तियों को कार्य रूप सृष्टि का सबसे प्रतिभाशाली प्राणी बन पाने में सफल हुआ है। यह कहना कि संमुख अंगुष्ठ ने ही मानव मस्तिष्क के संवर्धन में योगदान किया है, अतिशयोक्ति ने होगी।

इस प्रकार विकास की दिशा में जो पहला परिवर्तन मनुष्य में हुआ वह प्रथम पैरों पर सीधा खड़े होने के लिये तथा द्वितीय हाथों से वस्तुओं को भली प्रकार पकड़ सकने के लिये रहा होगा। हाथ में हुए परिवर्तन ने उसे उपकरण बनाने की ओर प्रोत्साहित किया होगा और उपकरणों ने आक्रमण कर शिकार करने, या अपनी सुरक्षा करने, की भावना उसमें उत्पन्न की होगी। आक्रमण के बाह्य साधन की उपलब्धि के फलस्वरूप उसके आक्रमणकारी अंगों (दाँत, जबड़े और संबंधित मुख या गर्दन की मांसपेशियों) में ह्रास और स्वयं हाथों में विशेषताएँ प्रारंभ हुई होंगी। हाथ के अधिक क्रियाशील होने पर, मस्तिष्क संवर्धन स्वाभाविक ही हुआ होगा। संक्षेप में, मानव विकास में तीन मुख्य क्रम रहे होंगे : पहला पैरों का, दूसरा हाथों का और तीसरा मस्तिष्क का विकास।


मनुष्य का भविष्य

स्पष्ट है कि मस्तिष्क की वृद्धि पर ही मनुष्य के संपूर्ण विकास का बल रहा है। यह वृद्धि अब भी हो रही है या नहीं, यह कहना कठिन है, परंतु जितना कुछ विकास हो चुका है उसके आधार पर मानव और लुप्त सरीसृपों (डाइनोसॉरिया, इक्थियोसॉरिया आदि) के विकास से तुलनात्मक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। लुप्त सरीसृपों का शरीर भीमकाय (भार 40-60 टन तक) हो गया था। फलस्वरूप बृहत् शरीर की आवश्यकताओं को अपेक्षाकृत छोटा मस्तिष्क पूरा न कर सका और ये जंतु क्रमश: लुप्त होते गए। इसके प्रतिकूल मनुष्य में शरीर के अनुपात में अपेक्षाकृत मस्तिष्क कहीं बड़ा हो गया है, अतएव मनुष्य के मस्तिष्क की अधिकांश शक्ति शारीरिक आवश्यकताओं (भोजन, सुरक्षा आदि) को पूरा कर लेने के बाद भी शेष रह जाती है।

यह शक्ति मनुष्य अपने सुख साधनों को एकत्रित करने तथा विज्ञान और तकनीकी उपलब्धियों को प्राप्त करने में लगा रहा है। इनमें विनाश के भी बीज निहित हैं। मनुष्य का भविष्य, अर्थात वह रहेगा अथवा सरीसृपियों की भाँति पृथ्वी रूपी रंगमंच पर अपना अभिनय समाप्त करके सदा के लिये लुप्त हो जाएगा, यह उसके विनाशकारी औजारों की शक्ति और उनके उपयोग पर निर्भर करता है। यदि उसका लोप हुआ, तो वह इस निष्कर्ष की पूर्ति करेगा कि प्रकृति में किसी जंतु के शरीर और मस्तिष्क विकास में समन्वय होना आवश्यक है। ऐसा न होने पर उस जंतु का भविष्य में अस्तित्व सदा अनिश्चित ही रहेगा।



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