Saturday, April 20, 2019

3. शिक्षा शास्त्र [Pedagogy]

शिक्षा [Education]

शिक्षा मानव को एक अच्छा इंसान बनाती हैं शिक्षा' में[ज्ञान]], उचित आचरण और तकनीकी दक्षता, शिक्षण और विद्या प्राप्ति आदि समाविष्ट हैं। इस प्रकार यह कौशलों (skills), व्यापारों या व्यवसायों एवं मानसिक, नैतिक और सौन्दर्यविषयक के उत्कर्ष पर केंद्रित है।

शिक्षा, समाज की एक पीढ़ी द्वारा अपने से निचली पीढ़ी को अपने ज्ञान के हस्तांतरण का प्रयास है। इस विचार से शिक्षा एक संस्था के रूप में काम करती है, जो व्यक्ति विशेष को समाज से जोड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है तथा समाज की संस्कृति की निरंतरता को बनाए रखती है। बच्चा शिक्षा द्वारा समाज के आधारभूत नियमों, व्यवस्थाओं, समाज के प्रतिमानों एवं मूल्यों को सीखता है। बच्चा समाज से तभी जुड़ पाता है जब वह उस समाज विशेष के इतिहास से अभिमुख होता है।

शिक्षा व्यक्ति की अंतर्निहित क्षमता तथा उसके व्यक्तित्त्व का विकसित करने वाली प्रक्रिया है। यही प्रक्रिया उसे समाज में एक वयस्क की भूमिका निभाने के लिए समाजीकृत करती है तथा समाज के सदस्य एवं एक जिम्मेदार नागरिक बनने के लिए व्यक्ति को आवश्यक ज्ञान तथा कौशल उपलब्ध कराती है। शिक्षा शब्द संस्कृत भाषा की ‘शिक्ष्’ धातु में ‘अ’ प्रत्यय लगाने से बना है। ‘शिक्ष्’ का अर्थ है सीखना और सिखाना। ‘शिक्षा’ शब्द का अर्थ हुआ सीखने-सिखाने की क्रिया।

जब हम शिक्षा शब्द के प्रयोग को देखते हैं तो मोटे तौर पर यह दो रूपों में प्रयोग में लाया जाता है, व्यापक रूप में तथा संकुचित रूप में। व्यापक अर्थ में शिक्षा किसी समाज में सदैव चलने वाली सोद्देश्य सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का विकास, उसके ज्ञान एवं कौशल में वृद्धि एवं व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है और इस प्रकार उसे सभ्य, सुसंस्कृत एवं योग्य नागरिक बनाया जाता है। मनुष्य क्षण-प्रतिक्षण नए-नए अनुभव प्राप्त करता है व करवाता है, जिससे उसका दिन-प्रतिदन का व्यवहार प्रभावित होता है। उसका यह सीखना-सिखाना विभिन्न समूहों, उत्सवों, पत्र-पत्रिकाओं, दूरदर्शन आदि से अनौपचारिक रूप से होता है। यही सीखना-सिखाना शिक्षा के व्यापक तथा विस्तृत रूप में आते हैं। संकुचित अर्थ में शिक्षा किसी समाज में एक निश्चित समय तथा निश्चित स्थानों (विद्यालय, महाविद्यालय) में सुनियोजित ढंग से चलने वाली एक सोद्देश्य सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा छात्र निश्चित पाठ्यक्रम को पढ़कर अनेक परीक्षाओं को उत्तीर्ण करना सीखता है।


 शिक्षा पर विद्वानों के विचार

समाजशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों व नीतिकारों ने शिक्षा के सम्बन्ध में अपने विचार दिए हैं। शिक्षा के अर्थ को समझने में ये विचार भी हमारी सहायता करते हैं। कुछ शिक्षा सम्बन्धी मुख्य विचार यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैंः -

  • शिक्षा से मेरा तात्पर्य बालक और मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा के सर्वांगीण एवं सर्वोत्कृष्ट विकास से है। (महात्मा गांधी)
  • मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है। (स्वामी विवेकानन्द)
  • शिक्षा व्यक्ति की उन सभी भीतरी शक्तियों का विकास है जिससे वह अपने वातावरण पर नियंत्रण रखकर अपने उत्तरदायित्त्वों का निर्वाह कर सके। (जॉन ड्यूवी)
  • शिक्षा व्यक्ति के समन्वित विकास की प्रक्रिया है। (जिद्दू कृष्णमूर्ति)
  • शिक्षा का अर्थ अन्तःशक्तियों का बाह्य जीवन से समन्वय स्थापित करना है। (हर्बट स्पैन्सर)
  • शिक्षा मानव की सम्पूर्ण शक्तियों का प्राकृतिक, प्रगतिशील और सामंजस्यपूर्ण विकास है। (पेस्तालॉजी)
  • शिक्षा राष्ट्र के आर्थिक, सामाजिक विकास का शक्तिशाली साधन है, शिक्षा राष्ट्रीय सम्पन्नता एवं राष्ट्र कल्याण की कुंजी है। (राष्ट्रीय शिक्षा आयोग, 1964-66)
  • शिक्षा बच्चे की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन है। ('सभी के लिए शिक्षा' पर विश्वव्यापी घोषणा, 1990)
प्राचीन भारत में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ‘मुक्ति’ की चाह रही है (सा विद्या या विमुक्तये / विद्या उसे कहते हैं जो विमुक्त कर दे) बाद में समय के रूप बदलने से शिक्षा ने भी उसी तरह उद्देश्य बदल लिए।


शिक्षा के प्रकार

व्यवस्था की दृष्टि से देखें तो शिक्षा के तीन रूप होते हैं -

(1) औपचारिक शिक्षा (2) निरौपचारिक शिक्षा (3) अनौपचारिक शिक्षा



औपचारिक शिक्षा

वह शिक्षा जो विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में चलती हैं, औपचारिक शिक्षा कही जाती है। इस शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियाँ, सभी निश्चित होते हैं। यह योजनाबद्ध होती है और इसकी योजना बड़ी कठोर होती है। इसमें सीखने वालों को विद्यालय, महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालय की समय सारणी के अनुसार कार्य करना होता है। इसमें परीक्षा लेने और प्रमाण पत्र प्रदान करने की व्यवस्था होती है। इस शिक्षा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। यह व्यक्ति में ज्ञान और कौशल का विकास करती है और उसे किसी व्यवसाय अथवा उद्योग के लिए योग्य बनाती है। परन्तु यह शिक्षा बड़ी व्यय-साध्य होती है। इससे धन, समय व ऊर्जा सभी अधिक व्यय करने पड़ते हैं। 



निरौपचारिक शिक्षा

वह शिक्षा जो औपचारिक शिक्षा की भाँति विद्यालय, महाविद्यालय, और विश्वविद्यालयों की सीमा में नहीं बाँधी जाती है। परन्तु औपचारिक शिक्षा की तरह इसके उद्देश्य व पाठ्यचर्या निश्चित होती है, फर्क केवल उसकी योजना में होता है जो बहुत लचीली होती है। इसका मुख्य उद्देश्य सामान्य शिक्षा का प्रसार और शिक्षा की व्यवस्था करना होता है। इसकी पाठ्यचर्या सीखने वालों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर निश्चित की गई है। शिक्षणविधियों व सीखने के स्थानों व समय आदि सीखने वालों की सुविधानानुसार निश्चित होता है। प्रौढ़ शिक्षा, सतत् शिक्षा, खुली शिक्षा और दूरस्थ शिक्षा, ये सब निरौपचारिक शिक्षा के ही विभिन्न रूप हैं।

इस शिक्षा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके द्वारा उन बच्चों/व्यक्तियों को शिक्षित किया जाता है जो औपचारिक शिक्षा का लाभ नहीं उठा पाए जैसे -

  • वे लोग जो विद्यालयी शिक्षा नहीं पा सके (या पूरी नहीं कर पाए),
  • प्रौढ़ व्यक्ति जो पढ़ना चाहते हैं,
  • कामकाजी महिलाएँ,
  • जो लोग औपचारिक शिक्षा में ज्यादा व्यय (धन समय या ऊर्जा किसी स्तर पर खर्च) नहीं कर सकते।
इस शिक्षा द्वारा व्यक्ति की शिक्षा को निरन्तरता भी प्रदान की जाती है, उन्हें अपने-अपने क्षेत्र के नए-नए अविष्कारों से परिचित कराया जाता है और तत्कालीन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रशिक्षित किया जाता है।



अनौपचारिक शिक्षा (Informal Education)

वह शिक्षा जिसकी कोई योजना नहीं बनाई जाती है; जिसके न उद्देश्य निश्चित होते हैं न पाठ्यचर्या और न शिक्षण विधियाँ और जो आकस्मिक रूप से सदैव चलती रहती है, उसे अनौपचारिक शिक्षा कहते हैं। यह शिक्षा मनुष्य के जीवन भर चलती है और इसका उस पर सबसे अधिक प्रभाव होता है। मनुष्य जीवन के प्रत्येक क्षण में इस शिक्षा को लेता रहता है, प्रत्येक क्षण वह अपने सम्पर्क में आए व्यक्तियों व वातावरण से सीखता रहता है। बच्चे की प्रथम शिक्षा अनौपचारिक वातावरण में घर में रहकर ही पूरी होती है। जब वह विद्यालय में औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने आता है तो एक व्यक्तित्त्व के साथ आता है जो कि उसकी अनौपचारिक शिक्षा का प्रतिफल है।

व्यक्ति की भाषा व आचरण को उचित दिशा देने, उसके अनुभवों को व्यवस्थित करने, उसे उसकी रुचि, रुझान और योग्यतानुसार किसी भी कार्य विशेष में प्रशिक्षित करने तथा जन शिक्षा के प्रचार एवं प्रसार के लिए हमें औपचारिक और निरौपचारिक शिक्षा का विधान करना आवश्यक होता है।



औपचारिक शिक्षा की प्रणालियाँ

शिक्षा प्रणालियों शिक्षा और प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए, अक्सर बच्चों और युवाओं के लिए स्थापित की जाती है एक पाठ्यक्रम छात्रों को क्या पता होना चाहिए, बोध और शिक्षा के परिणाम के रूप में करने के लायक समझ को परिभाषित करता है। अध्यापन का पेशा, सीख प्रदान करता है जो विद्या प्राप्ति और नीतियों की एक प्रणाली, नियमों, परीक्षाओं, संरचनाओं और वित्तपोषण को सक्षम बनाता है और वित्तपोषण शिक्षकों को अपनी प्रतिभा के उच्चतम् क्षमता से पढ़ाने में सहायता करता है। कभी कभी शिक्षा प्रणाली सिद्धांतों या आदर्शों एवं ज्ञान को बढ़ावा देने के लिए प्रयोग की जाती है जिसे सामाजिक अभियंत्रिकी कहा जाता है विशेषतः अधिनायकवादी राज्यों और सरकार में यह वयवस्था के राजनीतिक दुरुपयोग को बढ़ावा दे सकता है।

  • शिक्षा एक व्यापक माध्यम है, जो छात्रों में कुछ सीख सकने के सभी अनुभवों का विकास करता है।
  • अनुदेश शिक्षक अथवा अन्य रूपों द्वारा वितरित शिक्षण को कहते है जो अभिज्ञात लक्ष्य की विद्या प्राप्ति को जान बूझ कर सरल बनने को लिए हो।
  • शिक्षण एक असल उपदेशक की क्रियाओं को कहते है, जो शिक्षण को सुझाने के लिए आकल्पित की गयी हो।
  • प्रशिक्षण विशिष्ट ज्ञान, कौशल, या क्षमताओं की सीख के साथ शिक्षार्थियों को तैयार करने की दृष्टि से संदर्भित है, जो कि तुरंत पूरा करने पर लागू किया जा सकता है।



 Pedagogy [शिक्षाशास्त्र]

प्रस्तावना:- शिक्षा एक सजीव गतिशील प्रक्रिया है। इसमें अध्यापक और शिक्षार्थी के मध्य अन्त:क्रिया होती रहती है और सम्पूर्ण अन्त:क्रिया किसी लक्ष्य की ओर उन्मुख होती है। शिक्षक और शिक्षार्थी शिक्षाशास्त्र के आधार पर एक दूसरे के व्यक्तित्व से लाभान्वित और प्रभावित होते रहते हैं और यह प्रभाव किसी विशिष्‍ट दिशा की और स्पष्ट रूप से अभिमुख होता है। बदलते समय के साथ सम्पूर्ण शिक्षा-चक्र गतिशील है। उसकी गति किस दिशा में हो रही है? कौन प्रभावित हो रहा है? इस दिशा का लक्ष्य निर्धारण शिक्षाशास्त्र करता है।

शिक्षा के उद्देश्यों के निर्माण का आधार:- शिक्षा के उदेश्यों का सम्बन्ध सम्पूर्ण समाज के समस्त बालकों से है। अत: इनके निर्माण का कार्य अत्यन्त उतरदायित्वपूर्ण है। यदि जल्दी से अनुचित प्रथा दोषपूर्ण उदेश्यों का निर्माण करके शिक्षा की प्रक्रिया की संचालित कर दिया गया तो केवल एक अथवा दो बालक को ही नहीं अपितु सम्पूर्ण समाज की आने वाली न जाने कितनी पीढ़ियों को हानि होने का भय है। अत: इस सम्बन्ध में समाज के बालकों तथा शिक्षा के शिधान्तों को दृष्टि में रखते हुए यथेष्ट विचार विनिमय तथा गूढ़ चिन्तन की आवश्यकता है जिससे शिक्षा के वैज्ञानिक तथा लाभप्रद उद्श्यों का निर्माण किया जा सके। वस्तुस्थिति यह है कि शिक्षा समाज का दर्पण है। समाज की उन्नति अथवा अवनित शिक्षा पर ही निर्भर करती है। जिस समाज में जिस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था होती है, वह समाज वैसा ही बन जाता है।

चूँकि शिक्षा के उदेश्यों का जीवन के उदेश्यों से सम्बन्ध होता है, इसीलिए शिक्षा के उदेश्यों का निर्माण करना भी ठीक ऐसे ही है जैसे जीवन के उदेश्यों को निर्धारित करना। इस सम्बन्ध में यह खेद का विषय है कि शिक्षा के उदेश्यों का निर्माण अब तक उन लोगों ने किया है जिनका शिक्षा से कोई सम्बन्ध ही न रहा है। दुसरे शब्दों में, शिक्षा के उदेश्यों का निर्माण अब तक केवल माता-पिता, दार्शनिकों, शासकों, राजनीतिज्ञों तक विचारकों ने ही किया है, शिक्षकों ने नहीं। इन शभी उदेश्यों की प्रकृति में अन्तर है। इनमें से कुछ उद्देश्य तो सनातन, निश्चित तथा अपरिवर्तनशील है और कुछ लचीले, अनुकूलन योग्य एवं परिवर्तनशील। पाठकों के मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि शिक्षा के उदेश्यों की प्रकृति में अन्तर क्यों है ? इसका उत्तर केवल यह है कि शिक्षा के मुख्य आधार चार हैं। वे हैं – (1) आदर्शवाद (2)प्रकृतिवाद, (3) प्रयोजनवाद तथा (4) यथार्थवाद। इन्ही चारो आधारों के अनुसार शिक्षा में उक्त सभी प्रकार के उदेश्यों की रचना हुई हैं, हो रही है तथा होती रहेगी। जब तक हम शिक्षा के विभिन्न आधारों का अध्ययन नहीं करेंगे तब तक हमको शिक्षा के उदेश्यों के विषय में पूरी जानकारी नहीं हो सकेगी।



शिक्षण के सिद्धान्त

प्रत्येक अध्यापक की हार्दिक इच्छा होती है कि उसका शिक्षण प्रभावपूर्ण हो। इसके लिये अध्यापक को कई बातों को जानकर उन्हे व्यवहार में लाना पड़ता है, यथा - पाठ्यवस्तु का आरम्भ कहां से किया जाय, किस प्रकार किया जाय, छात्र इसमें रुचि कैसे लेते रहें, अर्जित ज्ञान को बालकों के लिये उपयोगी कैसे बनाया जाय, आदि। शिक्षाशात्रियों ने अध्यापकों के लिये इन आवश्यक बातों पर विचार करके अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-

(१) क्रिया द्वारा सीखने का सिद्धान्त

बालक स्वभावतः ही क्रियाशील होते हैं। निष्क्रिय बैठे रहना उनकी प्रकृति के विपरीत है। उन्हे अपने हाथ, पैर व अन्य इन्द्रियों को प्रयोग में लाने में अत्यन्त आनन्द की प्राप्ति होती है। स्वयं करने की क्रिया द्वारा बालक सीखता है। इस प्रकार से प्राप्त किया हुआ ज्ञान अथवा अनुभव उसके व्यक्तित्व का स्थाई अंग बन कर रह जाता है। अतः अध्यापक का अध्यापन इस प्रकार होना चाहिए जिससे बालक को 'स्वयं करने द्वार सीखने' के अधिकाधिक अवसर मिलें।

(२) जीवन से सम्बद्धता का सिद्धान्त

अपने जीवन से सम्बन्धित वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करना बालकों की स्वाभाविक रुचि होती है। अतः पाठ्यवस्तु में जीवन से सम्बन्धित तथ्यों को ही शामिल करना चाहिये अर्थात् वास्तविक जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से लिये गये तथ्यों को ही शामिल करना चाहिये। यदि अध्यापक काल्पनिक अथवा जीवन से असम्बन्धित तथ्यों को ही पढ़ाना चाहेगा तो छात्रों की रुचि उससे हट जायेगी।

(३) हेतु प्रयोजन का सिद्धान्त

जब तक बालकों को पाठ का हेतु अथवा उद्देश्य पूर्णतया ज्ञात नहीं होता है, वे उसमे, पूर्ण ध्यान नहीं दे सकते। केवल पाठ का उद्देश्य जान लेने से भी काम नहीं चलता। यदि पाठ का उद्देश्य बालकों की रुचि को प्रेरणा देने वाला हुआ तो उनका पूरा ध्यान उस पाठ को सीखने में लगता है।

(4) चुनाव का सिद्धान्त

मनुष्य का जीवनकाल अत्यन्त कम है और् ज्ञान का विस्तार असीम है। अतः पाठ्य सामग्री में संसार की अपार ज्ञानराशि में से अत्यन्त उपयोगी वस्तुओं को चुनकर रखा जाना चाहिये।

(५) विभाजन का सिद्धान्त

सम्पूर्ण पाठ्यवस्तु बालक के सम्मुख एकसाथ नहीं प्रस्तुत की जा सकती। उसे उचित खण्डों, अन्वितियों अथवा इकाइयों में विभक्त किया जाना चाहिये। अन्वितियां ऐसी हों जैसी कि सीढ़ियां होती हैं। इन्हें जैसे-जैसे बाल पार करता जाये, वह उन्नति करता जाये।

(६) पुनरावृत्ति का सिद्धान्त

बालक किसी पाठ्यवस्तु अथवा ज्ञान को अपने मस्तिष्क में ठोस प्रकार से तभी जमा कर सकता है जब बार-बार उसकी आवृत्ति करायी जाय।



शिक्षण-सूत्र


(1) ज्ञात से अज्ञात की ओर चलो

बालक के पूर्व ज्ञान से सम्बन्धित करते हुए यदि नया ज्ञान प्रदान किया जाता है तो बालक को उसे सीखने में रुचि व प्रेरणा प्राप्त होती है। मनुष्य सामान्यतया इसी क्रम से सीखता है। इसलिये अध्यापक को अपनी पाठ्य सामग्री इस क्रम में प्रस्तुत करना चाहिये।

(२) सरल से कठिन की ओर चलो

पाठ्यवस्तु को इस प्रकार प्रस्त्तुत करना चाहिये कि उसके सरल भागों का ज्ञान पहले करवाया जाय तथा धीरे-धीरे कठिन भागों को प्रस्तुत किया जाय।

(3) स्थूल से सूक्ष्म की ओर चलो

सूक्ष्म तथा अमूर्त विचारों को सिखाते समय उनका प्रारम्भ आसपास की स्थूल वस्तुओं तथा स्थूल विचारों से करना चाहिये। बालक की शिक्षा सदैव स्थूल वस्तुओं तथा तथ्यों से होनी चाहिये; शब्दों, परिभाषाओं तथा नियमों से नहीं।

(4) विशेष से सामान्य की ओर चलो

किसी सिद्धान्त की विशेष बातों को पहले रखे, फिर उनका सामान्यीकरण करना चाहिये। गणित, विज्ञान, व्याकरण्, छन्द व अलंकारशास्त्र की शिक्षा देते समय इसी क्रम को अपनाना चाहिये। आगमन प्रणाली में भी इसी का उपयोग होता है।

(5) अनुभव से तर्क की ओर चलो

ज्ञानेन्द्रियों द्वारा बालक यह तो जान लेता है कि अमुक वस्तु कैसी है किन्तु वह यह नहीं जानता कि वह ऐसी क्यों है। बार-बार निरीक्षण व परीक्षण से वह इन कारणों को भी जान जाता है। अर्थात् वह अनुभव से तर्क की ओर बढ़ता है। बालक के अनुभूत तथ्यों को आधार बनाकर धीरे-धीरे निरीक्षण व परीक्षण द्वारा उनकी तर्कशक्ति का विकास करने का प्रयत्न करना चाहिये।

(6) पूर्ण से अंश की ओर चलो

बालक के सम्मुख उसकी समझ में आने योग्यपूर्ण वस्तु या तथ्य को रखना चाहिये। इसके बाद उसके विभिन्न अंशों के विस्तृत ज्ञान की ओर अग्रसर होना चाहिये। यदि एक पेड़ का ज्ञान प्रदान करना है तो पहले उसका सम्पूर्ण चित्र प्रस्तुत किया जायेगा तथा बाद में उसकी जड़ों, पत्तियों, फलों आदि का परिचय अलग अलग करवाया जायेगा।

(7) अनिश्चित से निश्चित की ओर चलो

इस सूत्र के अंतर्गत अस्पष्ट एवं अनियमित ज्ञान को स्पष्ट एवं नियमित करना होता है। छात्र अपनी संवेदनाओ द्वारा अनेक अष्पष्ट एवं अनियमित वस्तुओं की जानकारी करता है, परंतु शिक्षक को चाहिए कि वह उसे स्पष्ट करे।

(8) विश्लेषण से संश्लेषण की ओर चलो

यह सूत्र पूर्ण से अंश की ओर सूत्र का विपरीत है, इसके अंतर्गत छात्र को पूर्व ज्ञान प्रदान किया जाय तत्पश्चात इस पूर्ण का विभिन्न अंशो में विश्लेषण किया जाय और इसके उपरांत फिर उसे पूर्णता की और संश्लेषित किया जाय।

(9) तर्क पूर्ण विधि का त्याग व मनोवैज्ञानिक विधि का अनुसरण करो

वर्तमान समय में मनोविज्ञान के प्रचार के कारण इस बात पर जोर दिया जाता है कि शिक्षण विधि व क्रम में बालकों की मनोवैज्ञानिक विशेषताओं, रुचियों, जिज्ञासा और ग्रहण शक्ति को ध्यान में रखा जाय।

(10) इन्द्रियों के प्रशिक्षण द्वारा शिक्षा दो

(11) प्रकृति का आधार

बालक को शिक्षा इस प्रकार मिलनी चाहिये कि वह उसके प्राकृतिक विकास में बाधा न बने बल्कि सहायक हो।




शिक्षण विधियाँ


जिस ढंग से शिक्षक शिक्षार्थी को ज्ञान प्रदान करता है उसे शिक्षण विधि कहते हैं। "शिक्षण विधि" पद का प्रयोग बड़े व्यापक अर्थ में होता है। एक ओर तो इसके अंतर्गत अनेक प्रणालियाँ एवं योजनाएँ सम्मिलित की जाती हैं, दूसरी ओर शिक्षण की बहुत सी प्रक्रियाएँ भी सम्मिलित कर ली जाती हैं। कभी-कभी लोग युक्तियों को भी विधि मान लेते हैं; परंतु ऐसा करना भूल है। युक्तियाँ किसी विधि का अंग हो सकती हैं, संपूर्ण विधि नहीं। एक ही युक्ति अनेक विधियों में प्रयुक्त हो सकती है।


शिक्षण की विविध विधियाँ

1. निगमनात्मक तथा आगमनात्मक

पाठ्यविषय को प्रस्तुत करने के दो ढंग हो सकते हैं। एक में छात्रों को कोई सामान्य सिद्धांत बताकर उसकी जाँच या पुष्टि के लिए अनेक उदाहरण दिए जाते हैं। दूसरे में पहले अनेक उदाहरण देकर छात्रों से कोई सामान्य नियम निकलवाया जाता है। पहली विधि को निगमनात्मक विधि और दूसरी को आगमनात्मक विधि कहते हैं। ये विधि व्याकरण शिक्षण के लिए सबसे उपयुक्त मानी जाती है।


2. संश्लेषणात्मक तथा विश्लेषणात्मक

दूसरे दृष्टिकोण से शिक्षण विधि के दो अन्य प्रकार हो सकते हैं। पाठ्यवस्तु को उपस्थित करने का ढंग यदि ऐसा हैं कि पहले अंगों का ज्ञान देकर तब पूर्ण वस्तु का ज्ञान कराया जाता है तो उसे संश्लेषणात्मक विधि कहते हैं। जैसे हिंदी पढ़ाने में पहले वर्णमाला सिखाकर तब शब्दों का ज्ञान कराया जाता है। तत्पश्चात् शब्दों से वाक्य बनवाए जाते हैं। परंतु यदि पहले वाक्य सिखाकर तब शब्द और अंत में वर्ण सिखाए जाएँ तो यह विश्लेषणात्मक विधि कहलाएगी क्योंकि इसमें पूर्ण से अंगों की ओर चलते हैं।


3. वस्तुविधि

शिक्षण का एक प्रसिद्ध सूत्र हैं - "मूर्त से अमूर्त की ओर"। वास्तव में हमें बाह्य संसार का ज्ञान अपनी ज्ञानेंद्रियों के द्वारा होता है जिनमें नेत्र प्रमुख हैं। किसी वस्तु पर दृष्टि पड़ते ही हमें उसका सामान्य परिचय मिल जाता है। अत: मूर्त वस्तु ज्ञान प्रदान करने का सबसे सरल साधन है। इसीलिये आरंभ से वस्तुविधि का सहारा लिया जाता है अर्थात् बच्चों को पढ़ाने के लिए वस्तुओं का प्रदर्शन करके उनके विषय में ज्ञान प्रदान किया जाता है। यहाँ तक कि अमूर्त को भी मूर्त बनाने का प्रयास किया जाता है। जैसे, तीन और दो पाँच को समझाने के लिए पहले छात्रों के सम्मुख तीन गोलियाँ रखी जाती हैं। फिर उनमें दो गोलियाँ और मिलाकर सबको एक साथ गिनाते हैं तब तीन और दो पाँच स्पष्ट हो जाता है।

4. दृष्टांतविधि

वस्तुविधि का एक दूसरा रूप है - दृष्टांतविधि। वस्तुविधि में जिस प्रकार वस्तुओं के द्वारा ज्ञान प्रदान किया जाता है दृष्टांतविधि में उसी प्रकार दृष्टांतों के द्वारा। दृष्टांत दृश्य भी हो सकते हैं और श्रव्य भी। इसमें चित्र, मानचित्र, चित्रपट आदि के सहारे वस्तु का स्पष्टीकण किया जाता है। साथ ही उपमा, उदाहरण, कहानी, चुटकुले आदि के द्वारा भी विषय का स्पष्टीकरण हो सकता है।

5. कथनविधि एवं व्याख्यानविधि

वस्तु एवं दृष्टांतविधियों से ज्ञान प्राप्त करते करते जब बच्चों को कुछ कुछ अनुमान करने तथा अप्रत्यक्ष वस्तु को भी समझने का अभ्यास हो जाता है तब, कथनविधि का सहारा लिया जाता है। इसमें वर्णन के द्वारा छात्रों को पाठ्यवस्तु का ज्ञान दिया जाता है। परंतु इस विधि में छात्र अधिकतर निष्क्रिय श्रोता बने रहते हैं और पाठन प्रभावशाली नहीं होता। इसी से प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री हर्बर्ट स्पेंसर ने कहा है- "बच्चों को कम से कम बतलाना चाहिए, उन्हें अधिक से अधिक स्वत: ज्ञान द्वारा सीखना चाहिए"। व्याख्यानविधि इसी की सहचरी है। उच्च कक्षाओं में प्राय: व्याख्यानविधि का ही प्रयोग लाभदायक समझा जाता है।

कथनविधि में प्राय: हर्बर्ट के पाँच सोपानों का प्रयोग किया जाता है। वे हैं

(1) प्रस्तावना, (2) प्रस्तुतीकरण, (3) तुलना या सिद्धांतस्थापन, (4) आवृत्ति, (5) प्रयोग।
परंतु केवल ज्ञानार्जन के पाठों में ही पाँचों सोपानों का प्रयोग होता है। कौशल तथा रसास्वादन के पाठों में कुछ सीमित सोपानों का ही प्रयोग होता है।

6. प्रश्नोत्तर विधि (सुकराती विधि)

प्रश्न यद्यपि एक युक्ति है फिर भी सुकरात ने प्रश्नोत्तर को एक विधि के रूप में प्रयोग करके इसे अधिक महत्व प्रदान किया है। इसी से इसे सुकराती विधि कहते हैं। इसमें प्रश्नकर्ता से ही प्रश्न किए जाते हैं और उसके उत्तरों के आधार पर उसी से प्रश्न करते-करते अपेक्षित उत्तर निकलवा लिया जाता है।

7. करके सीखना

जब से बाल मनोविज्ञान के विकास ने यह सिद्ध कर दिया है कि शिक्षा का केंद्र न तो विषय है, न अध्यापक, वरन् छात्र है, तब से शिक्षण में सक्रियता को अधिक महत्व दिया जाने लगा है। करके सीखना (learning by doing) अर्थात् स्वानुभव द्वारा ज्ञान प्राप्त करना, आजकल का सर्वाधिक व्यापक शिक्षणसिद्धांत है। अत: रूसों से लेकर मांटेसरी और ड्यूबी तक शिक्षाशास्त्रियों ने बच्चों की ज्ञानेंद्रियों को अधिक कार्यशील बनाने तथा उनके द्वारा शिक्षा देने पर अधिक बल दिया है। महात्मा गांधी ने भी इसी सिद्धांत के आधार पर बेसिक शिक्षा को जन्म दिया। अत: सक्रिय विधि के अंतर्गत अनेक विधियाँ सम्मिलित की जा सकती हैं जैसे- शोधविधि (ह्यूरिस्टिक), योजना (प्रोजेक्ट) विधि, डाल्टन प्रणाली, बेसिक-शिक्षा-विधि, इत्यादि।

8. शोधविधि

जर्मनी के प्रोफेसर आर्मस्ट्रौंग द्वारा शोधविधि का प्रतिपादन हुआ था। इस विधि में छात्रों को उपयुक्त वातावरण में रखकर स्वयं किसी तथ्य को ढूढ़ने के लिए प्रेरित किया जाता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि अध्यापक कुछ नहीं करता और छात्रों को मनमाना काम करने को छोड़ देता है। सच पूछिए तो वह छात्र का पथप्रदर्शन करता तथा उसे गलत रास्ते से हटाकर सीधे रास्ते पर लाता रहता है। उसका लक्ष्य यह रहता है कि जो ज्ञान छात्र अपने निरीक्षण अथवा प्रयोग द्वारा प्राप्त कर सकता है उसे बताया न जाए। इस विधि का प्रयोग पहले तो विज्ञान की शिक्षा में किया गया। फिर धीरे-धीरे गणित, भूगोल तथा अन्य विषयों में भी इसका प्रयोग होने लगा।

9. प्रोजेक्ट विधि

अमरीका के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री ड्यूवी, किलपैट्रिक, स्टीवेंसन आदि के सम्मिलित प्रयास का फल योजना (प्रोजेक्ट) विधि है। इसके अनुसार ज्ञानप्राप्ति के लिए स्वाभाविक वातावरण अधिक उपयुक्त होता है। इस विधि से पढ़ाने के लिए पहले कोई समस्या ली जाती है, जो प्राय: छात्रों के द्वारा उठाई जाती है और उस समस्या का हल करने के लिए उन्हीं के द्वारा योजना बनाई जाती है और योजना को स्वाभाविक वातावरण में पूर्ण किया जाता है। इसी से इसकी परिभाषा इस प्रकार की जाती है कि योजना वह समस्यामूलक कार्य है जो स्वाभाविक वातावरण में पूर्ण किया जाए।

10. डाल्टन योजना

अमरीका के डाल्टन नामक स्थान में 1912 से 1915 के बीच कुमारी हेलेन पार्खर्स्ट्र ने शिक्षा की एक नई विधि प्रयुक्त की जिसे डाल्टन योजना कहते हैं। यह विधि कक्षाशिक्षण के दोषों को दूर करने के लिए आविष्कृत की गई थी। डाल्टन योजना में कक्षाभवन का स्थान प्रयोगशाला ले लेती है। प्रत्येक विषय की एक प्रयोगशाला होती है, जिसमें उस विषय के अध्ययन के लिए पुस्तकें, चित्र, मानचित्र तथा अन्य सामग्री के अतिरिक्त सन्दर्भग्रंथ भी रहते हैं। विषय का विशेषज्ञ अध्यापक प्रयोगशाला में बैठकर छात्रों की सहायता करता है, उनके कार्यों की जाँच तथा संशोधन करता है। वर्ष भर का कार्य 9 या 10 भागों में बाँटक निर्धारित कार्य (असाइनमेंट) के रूप में प्रत्येक छात्र को लिखित दिया जाता है। छात्र उस निर्धारित कार्य को अपनी रुचि के अनुसार विभिन्न प्रयोगशालाओं में जाकर पूरा करता है। कार्य अन्वितियों में बँटा रहता है। जितनी अन्विति का कार्य पूरा हो जाता है उतनी का उल्लेख उसके रेखापत्र (ग्राफकार्ड) पर किया जाता है। एक मास का कार्य पूरा हो जाने पर ही दूसरे मास का निर्धारित कार्य दिया जाता है। इस प्रकार छात्र की उन्नति उसके किए हुए कार्य पर निर्भर रहती है। इस योजना में छात्रों को अपनी रुचि और सुविधा के अनुसार कार्य करने की छूट रहती है। मूल स्रोतों से अध्ययन करने के कारण उनमें स्वावलंबन भी आ जाता है। इस योजना के अनेक रूपांतर हुए जैसे- बटेविया, विनेटका आदि योजनाएँ। डेक्रौली योजना यद्यपि इससे पूर्व की है, फिर भी उसके सिद्धांतों में डाल्टन योजना के आधार पर परिवर्तन किए गए।

11. वर्धा योजना या बुनियादी तालीम

महात्मा गांधी की वर्धा योजना या बेसिक शिक्षा (बुनियादी तालीम) भी अपने ढंग की एक शिक्षाविधि है। गांधी जी ने देश की तत्कालीन स्थिति को देखते हुए शिक्षा में 'हाथ के काम' को प्रधानता दी। उनका विश्वास था कि जब तक छात्र हाथ से काम नहीं करता तब तक उसे श्रम का महत्व नहीं ज्ञात होता। सैद्धांतिक ज्ञान मनुष्य को अहंकारी एवं निष्क्रिय बना देता है। अत: बच्चों को आरंभ से ही किसी न किसी हस्तकौशल के द्वारा शिक्षा देनी चाहिए। हमारे देश में कृषि एवं कताई-बुनाई बुनियादी धंधे हैं जिनमें देश की तीन चौथाई जनता लगी हुई है। अत: उन्होंने इन्हीं दोनों को मूल हस्तकौशल मानकर शिक्षा में प्रमुख स्थान दिया। बेसिक शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ हैं :-

(1) मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा,
(2) हस्तकौशल केंद्रित शिक्षा,
(3) सात से 14 वर्ष तक निःशुल्क अनिवार्य शिक्षा,
(4) शिक्षा स्वावलंबी हो, अर्थात् कम से कम अध्यापकों का वेतन छात्रों के किए हुए कार्यों की बिक्री से आ जाए।
अंतिम सिद्धांत का बड़ा विरोध हुआ और बेसिक शिक्षा में से हटा दिया गया।

अंग्रेजी शिक्षा ने देश के अधिकांश शिक्षित वर्ग को ऐसा पंगु बना दिया है कि वे हाथ से काम करना हेय मानते हैं। यही कारण है कि संपन्न तथा उच्च वर्ग के लोगों ने बुनियादी शिक्षा के प्रति उदासीनता दिखाई जिससे यह शिक्षा केवल निर्धन वर्ग के लिए रह गई है। अत: यह धीरे-धीरे असफल होती जा रही है।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि शिक्षणविधियाँ अनेक हैं। सबका प्रवर्तन किसी न किसी विशेष परिस्थिति में किसी शिक्षाशास्त्री के द्वारा हुआ है। वास्तव में प्रत्येक अध्यापक की अपनी शिक्षाविधि होती है जिससे व छात्रों को उनकी रुचि तथा योग्यता के अनुरूप ज्ञान प्रदान करता है। जो विधि जिसके लिए अधिक उपयोगी हो वही उसके लिए सर्वश्रेष्ठ विधि है।



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9 comments:

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    1. आपने बहुत मेहनत की है सर ऐसे ही और
      नये तथ्य बताते रहते

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  2. Sir ji eske sopan ya charn ki bhi aawsaykta he

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  3. Top class ,, its very helpful...
    Thanks a lot

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  4. बहुत लाभदायक पोस्ट। धन्यवाद शेयर करने हेतू।👏🏼👏🏼👏🏼

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