Wednesday, May 22, 2019

समाज में दिव्यांग के प्रति लोगो की जो गलत धारणा हैं उसे खत्म किया जाय

समाज में दिव्यांग के प्रति लोगो की जो गलत धारणा हैं उसे किस तरह खत्म किया जाय ?

दिव्यांग भी कर सकते हैं चमत्कार, उनको प्यार दें और उनका हौसला  बढ़ाए

प्रतिवर्ष 3 दिसंबर का दिन दुनियाभर में दिव्यांगों की समाज में मौजूदा स्थिति, उन्हें आगे बढ़ने हेतु प्रेरित करने तथा सुनहरे भविष्य हेतु भावी कल्याणकारी योजनाओं पर विचार-विमर्श करने के लिए जाना जाता है। दरअसल यह संयुक्त राष्ट्र संघ की एक मुहिम का हिस्सा है जिसका उद्देश्य दिव्यांगजनों को मानसिक रुप से सबल बनाना तथा अन्य लोगों में उनके प्रति सहयोग की भावना का विकास करना है। एक दिवस के तौर पर इस आयोजन को मनाने की औपचारिक शुरुआत वर्ष 1992 से हुई थी। जबकि इससे एक वर्ष पूर्व 1991 में सयुंक्त राष्ट्र संघ ने 3 दिसंबर से प्रतिवर्ष इस तिथि को अन्तरराष्ट्रीय विकलांग दिवस के रूप में मनाने की स्वीकृति प्रदान कर दी थी।

मेडिकल कारणों से कभी-कभी व्यक्ति के विशेष अंगों में दोष उत्पन्न हो जाता है, जिसकी वजह से उन्हें समाज में 'विकलांग' की संज्ञा दे दी जाती है और उन्हें एक विशेष वर्ग के सदस्य के तौर पर देखा जाने लगता है। आमतौर पर हमारे देश में दिव्यांगों के प्रति दो तरह की धारणाएं देखने को मिलती हैं। पहला, यह कि जरूर इसने पिछले जन्म में कोई पाप किया होगा, इसलिए उन्हें ऐसी सजा मिली है और दूसरा कि उनका जन्म ही कठिनाइयों को सहने के लिए हुआ है, इसलिए उन पर दया दिखानी चाहिए। हालांकि यह दोनों धारणाएं पूरी तरह बेबुनियाद और तर्कहीन हैं। बावजूद इसके, दिव्यांगों पर लोग जाने-अनजाने छींटाकशी करने से बाज नहीं आते। वे इतना भी नहीं समझ पाते हैं कि क्षणिक मनोरंजन की खातिर दिव्यांगों का उपहास उड़ाने से भुक्तभोगी की मनोदशा किस हाल में होगी। तरस आता है ऐसे लोगों की मानसिकता पर, जो दर्द बांटने की बजाय बढ़ाने पर तुले होते हैं। एक निःशक्त व्यक्ति की जिंदगी काफी दुख भरी होती है। घर-परिवार वाले अगर मानसिक सहयोग न दें तो व्यक्ति अंदर से टूट जाता है। वास्तव में लोगों के तिरस्कार की वजह से दिव्यांग स्व-केंद्रित जीवनशैली व्यतीत करने को विवश हो जाते हैं। दिव्यांगों का इस तरह बिखराव उनके मन में जीवन के प्रति अरुचिकर भावना को जन्म देता है।

देखा जाये तो भारत में दिव्यांगों की स्थिति संसार के अन्य देशों की तुलना में थोड़ी दयनीय ही कही जाएगी। दयनीय इसलिए कि एक तरफ यहां के लोगों द्वारा दिव्यांगों को प्रेरित कम हतोत्साहित अधिक किया जाता है। कुल जनसंख्या का मुट्ठी भर यह हिस्सा आज हर दृष्टि से उपेक्षा का शिकार है। देखा यह भी जाता है कि उन्हें सहयोग कम मजाक का पात्र अधिक बनाया जाता है। दूसरी तरफ विदेशों में दिव्यांगों के लिए बीमा तक की व्यवस्था है जिससे उन्हें हरसंभव मदद मिल जाती है जबकि भारत में ऐसा कुछ भी नहीं है। हां, दिव्यांगों के हित में बने ढेरों अधिनियम संविधान की शोभा जरूर बढ़ा रहे हैं, लेकिन व्यवहार के धरातल पर देखा जाये तो आजादी के सात दशक बाद भी समाज में दिव्यांगों की स्थिति शोचनीय ही है। जरूरी यह है कि दिव्यांगजनों के शिक्षा, स्वास्थ्य और संसाधन के साथ उपलब्ध अवसरों तक पहुंचने की सुलभ व्यवस्था हो। दूसरी तरफ यह भी देखा जा रहा है कि प्रतिमाह दिव्यांगों को दी जाने वाली पेंशन में भी राज्यवार भेदभाव होता है। मसलन, दिल्ली में यह राशि प्रतिमाह 1500 रुपये है, उत्तराखंड में 1000 रुपए है। तो झारखंड सहित कुछ अन्य राज्यों में विकलांगजनों को महज 400 रुपये रस्म अदायगी के तौर पर दिये जाते हैं। समस्या यह भी है कि इस राशि की निकासी के लिए भी उन्हें काफी भागदौड़ करनी पड़ती है।

  दरअसल, हमारे देश में दिव्यांगों के उत्थान के प्रति सरकारी तंत्र में अजीब-सी शिथिलता नजर आती है। हालांकि, हर स्तर से दिव्यांगों के प्रति दयाभाव जरूर प्रकट किये जाते हैं, लेकिन इससे किसी दिव्यांग का पेट तो नहीं ना भरता है! आलम यह है कि आज दिव्यांग लोगों को ताउम्र अपने परिवार पर आश्रित रहना पड़ता है। इस कारण, वह या तो परिवार के लिए बोझ बन जाता है या उनकी इच्छाएं अकारण दबा दी जाती हैं। वहीं, दूसरी तरफ दिव्यांगों के लिए क्षमतानुसार कौशल प्रशिक्षण जैसी योजनाओं के होने के बावजूद जागरूकता के अभाव में दिव्यांग आबादी का एक बड़ा हिस्सा ताउम्र बेरोजगार रह जाता है। अगर उन्हें शिक्षित कर सृजनात्मक कार्यों की ओर मोड़ा जाता है तो वे भी राष्ट्रीय संपत्ति की वृद्धि में अपना बहुमूल्य योगदान दे सकते हैं। इस तरह स्वावलंबी होने से वह अपने परिवार या आश्रितों पर बोझ नहीं बनेगा और धीरे-धीरे वह उज्ज्वल भविष्य की ओर कदम भी बढ़ाता नजर आएगा। यह अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री ने अगले सात वर्षों में 38 लाख विकलांगों को लक्ष्य बनाकर राष्ट्रीय कौशल नीति पेश की है। इससे पहले भी दीनदयाल विकलांग पुनर्वास योजना आंशिक रूप से प्रचलन में थी। जिसके तहत विकलांग व्यक्तियों के कौशल उन्नयन हेतु व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्र परियोजनाओं को वित्तीय सहायता (परियोजना लागत के 90 प्रतिशत तक) प्रदान की जाती है। यह कौशल 15 से 35 वर्ष की आयु समूह के लिए है ताकि ऐसे व्यक्ति आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे आ सकें। यह पहल सराहनीय है कि सरकार का सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्रालय के अंतर्गत बनाया गया विकलांग सशक्तिकरण विभाग विकलांगों की राष्ट्रीय कार्य योजना और सुगम्य भारत अभियान के माध्यम से एक बेहतर माहौल बनाने की कोशिशें की जा रही हैं।

आंकड़ों के लिहाज से भारत में करीब दो करोड़ लोग शरीर के किसी विशेष अंग से विकलांगता के शिकार हैं। दिव्यांगजनों को मानसिक सहयोग की जरूरत है। परिवार, समाज के लोगों से अपेक्षा की जाती है कि उन्हें आगे बढ़ने को प्रेरित करें। शारीरिक व्याधियों से जूझ रहे लोगों को 'डिजेबल्ड' न कहकर 'डिफरेंटली एबल्ड' कहना ज्यादा अच्छा होगा। अगर उन्हें उनकी वास्तविक शक्ति का अहसास दिलाया जाये तो उनके साधारण से कुछ खास बनने में उन्हें देर नहीं लगेगी। हमारे सामने वैज्ञानिक व खगोलविद स्टीफन हॉकिंग, भारतीय पैराओलंपियन देवेंद्र झांझरिया, धावक ऑस्कर पिस्टोरियस, मशहूर लेखिका हेलेन केलर जैसे लोगों की लंबी फेहरिस्त है, जिन्होंने विकलांगता को कमजोरी नहीं समझा, बल्कि चुनौती के रूप में लिया और आज हम उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए उन्हें याद करते हैं।
यदि समाज में सहयोग का वातावरण बने, लोग किसी दूसरे की शारीरिक कमजोरी का मजाक न उड़ाएं, तो आगे आने वाले दिनों में हमें सकारात्मक परिणाम देखने को मिल सकते हैं।


समाज के इस वर्ग को आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराया जाये तो वे कोयला को हीरा भी बना सकते हैं। समाज में उन्हें अपनत्व-भरा वातावरण मिले तो वे इतिहास रच देंगे और रचते आएं हैं। एक दिव्यांग की जिंदगी काफी दुखों भरी होती है। घर-परिवार वाले अगर मानसिक सहयोग न दें, तो व्यक्ति अंदर से टूट जाता है। वैसे तो दिव्यांगों के पक्ष में हमारे देश में दर्जन भर कानून बनाए गए हैं, यहां तक कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण भी दिया गया है, परंतु ये सभी चीजें गौण हैं, जब तक हम उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करना बंद ना करें। वे भी तो मनुष्य हैं, प्यार और सम्मान के भूखे हैं। उन्हें भी समाज में आम लोगों के साथ प्रतिस्पर्धा करनी है। उनके अंदर भी अपने माता-पिता, समाज व देश का नाम रोशन करने का सपना है। बस स्टॉप, सीढ़ियों पर चढ़ने-उतरने, पंक्तिबद्ध होते वक्त हमें यथासंभव उनकी सहायता करनी चाहिए। आइए, एक ऐसा स्वच्छ माहौल तैयार करें, जहां उन्हें क्षणिक भी अनुभव ना हो कि उनके अंदर शारीरिक रूप से कुछ कमी भी है। इस बार के 'विश्व विकलांग दिवस' पर मेरी यह छोटी-सी अपील है कि दिव्यांगों का मजाक न उड़ाएं, उन्हें सहयोग दें।

 अंत में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस सुझाव को दुहराना चाहूंगा, जिसमें उन्होंने निःशक्तों (विकलांगों) को 'दिव्यांग' कहने का उचित विचार दिया था। यह महज एक औपचारिकता ना रहे, इसलिए इस सुझाव को व्यवहार में लाया जाना चाहिए।



क्या है दिव्यांगता

निशक्त व्यक्ति अधिनियम 1995 के मुताबिक जब शारीरिक कमी का प्रतिशत 40 से अधिक होता है तो वह दिव्यांगता की श्रेणी में आता है.

दिव्यांगता ऐसा विषय है जिस के बारे में समाज और व्यक्ति कभी गंभीरता से नहीं सोचते. क्या आप ने कभी सोचा है कि कोई छात्र या छात्रा अपने पिता के कंधे पर बैठ कर, भाई के साथ साइकिल पर बैठ कर या मां की पीठ पर लद कर या फिर ज्यादा स्वाभिमानी हुआ तो खुद ट्राईसाइकिल चला कर ज्ञान लेने स्कूल जाता है, किंतु सीढि़यों पर ही रुक जाता है, क्योंकि वहां रैंप नहीं है और ऐसे में वह अपनी व्हीलचेयर को सीढि़यों पर कैसे चढ़ाए? उस के मन में एक कसक उठती है, ‘क्या उस के लिए ज्ञान के दरवाजे बंद हैं? क्या शिक्षण संस्था में उस को कोई सुविधा नहीं मिल सकती?’ शौचालय तो दूर उस के लिए एक रैंप वाला शिक्षण कक्ष भी नहीं है जहां वह स्वाभिमान के साथ अपनी व्हीलचेयर चला कर ले जा सके एवं ज्ञान प्राप्त कर सके।

कोई दफ्तर, बैंक एटीएम, पोस्टऔफिस, पुलिस थाना, कचहरी ऐसी नहीं है जहां दिव्यांगों के लिए अलग से सुविधाएं मौजूद हों. सामान्य दिव्यांगों की तो छोडि़ए, यहां के दिव्यांग कर्मचारियों के लिए भी कोई सुविधा नहीं है. अगर दिव्यांगों को बराबर का अधिकार है तो नजर कहां आता है?

ट्रेन की ही बात करते हैं. क्या ट्रेन में दिव्यांग अकेले यात्रा कर सकते हैं? प्लेटफौर्म, अंडरब्रिज यहां तक कि ट्रेन तक पहुंचने के लिए भी दिव्यांगों को दूसरों की सहायता चाहिए. उन के लिए कोई मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं. किसी तरह अगर वे डब्बे में चढ़ भी जाएं तो ट्रेन में उन के लिए अलग से शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं है. घर बैठ कर सभी सामान्य लोग औनलाइन टिकट की बुकिंग कर सकते हैं लेकिन दिव्यांगों को प्लेटफौर्म पर लाइन में लग कर ही टिकट लेना पड़ता है।

यहां तक कि मतदान केंद्रों पर भी दिव्यांगों को कोई अलग से सुविधा नहीं दी जाती, अधिकांश मतदान केंद्रों पर रैंप न होने के कारण वे मताधिकार से वंचित रह जाते हैं. यह तंत्र एवं समाज के लिए शोचनीय और शर्मनाक बात है.

हर साल बजट में दिव्यांगों के लिए भारी सहायता राशि की घोषणा की जाती है. कागज पर योजनाएं एवं सुविधाएं उकेरी जाती हैं, लेकिन अभी तक कोई भी तंत्र उन्हें मौलिक अधिकार एवं सुविधाएं नहीं दे सका है.

समाज से उपेक्षित दिव्यांग

हमारे समाज में दिव्यांगता थोथी संवेदनाओं का केंद्र बन कर रह गई है. दिव्यांगों से तो सभी सहानुभूति रखते हैं लेकिन उन्हें दोयम दर्जे का व्यक्तित्व मानते हैं. बेचारे, पंगु, निर्बल, निशक्त जाने कितने संवेदनासूचक शब्दों से हम उन्हें पुकारते हैं. कितनी सरकारी योजनाएं, विभाग बन गए लेकिन क्या दिव्यांगों को हम सबल बना पाए हैं? क्या उन को राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़ कर राष्ट्र निर्माण में उन का योगदान ले पाए हैं, शायद नहीं. इस के जिम्मेदार हम सभी हैं।

दिव्यांगों के अधिकारों को आवाज देता ‘संयुक्त राष्ट्र दिव्यांगता समझौता’ विश्वव्यापी मानवाधिकार समझौता है. यह समझौता स्पष्ट रूप से दिव्यांगों के अधिकारों एवं विभिन्न देशों की सरकारों द्वारा निर्बाध रूप से दिव्यांगों के पुनर्वास एवं उन्हें बेहतर सुविधाएं प्रदान करने की पैरवी करता है.

देश की संसद ने दिव्यांगों के पुनर्वास एवं उन्हें देश की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए दिव्यांग व्यक्ति (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण, पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995 दिव्यांगता अधिनियम पारित किया. स्वाभाविक तौर पर अशक्त लोगों के अधिकारों को प्रतिपादित करते हुए भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के ‘राइट्स औफ पर्सन्स विद डिस्एबिलिटीज’ कन्वैंशन में कही गई बातों को 2007 में स्वीकार किया और दिव्यांगों के लिए बने अधिनियम 1995 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पारित कन्वैंशन जिस पर 2008 में अमल शुरू हुआ, के आधार पर बदलने की बात कही.

फिलहाल करीब 40 कंपनियां दिव्यांगों को नौकरियां दे रही हैं. गैर सरकारी संस्थानों की यह पहल निश्चित रूप से दिव्यांगों के जीवन में नए रंग भर सकती है. आज आवश्यकता है दिव्यांगों को समान अधिकार देने की व सम्मानपूर्वक जीवन की मुख्यधारा से जोड़ने की ताकि वे देश निर्माण में अपना योगदान दे सकें।

 आंकड़ों की जबानी, उपेक्षा की कहानी

राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के 58 चक्र के अनुसार देश में लगभग 1 करोड़ 85 लाख दिव्यांग हैं, जबकि रजिस्ट्रार जनरल औफ इंडिया की ओर से जारी रिपोर्ट के अनुसार देश में दिव्यांग की संख्या 2 करोड़ 68 लाख है. 75% दिव्यांग ग्रामीण इन क्षेत्रों में हैं, 49% दिव्यांग साक्षर हैं एवं 34% दिव्यांग रोजगार प्राप्त हैं.

उत्तराखंड

 शत्रुघ्न सिंह ने उत्तराखंड के 13वें मुख्य सचिव के रूप में 17 नवम्बर, 2015 को चार्ज संभाल लिया है।

 शत्रुघ्न सिंह का कार्यकाल दिसम्बर 2016 तक रहेगा।

-राज्य में हैं 1 लाख 85 हजार दिव्यांग

डॉ। कमलेश कुमार पांडे आजकल [जुलाई, 2016] उत्तराखंड दौरे पर हैं। जहां वे प्रदेश सरकार के आलाधिकारियों व एनजीओ से दिव्यांगनजों की समस्याओं को लेकर बैठकें और चर्चाएं कर रहे हैं। सोमवार 25 जुलाई को उन्होंने सीएस शत्रुघ्न सिंह से भी मुलाकात की। डॉ। कमलेश पांडे ने सचिवालय में प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा कि उत्तराखंड दिव्यांगजनों को पेंशन देने में आगे है। राज्य में दिव्यांगों को एक हजार रुपये पेंशन दी जाती है।

99 हजार को सर्टिफिकेट

डॉ। पांडे ने कहा कि प्रदेश की यूनिवर्सिटीज में डिसएबिलिटी डिपार्टमेंट खोले जाने पर शासन के अधिकारियों से बात हुई है। जिस पर सहमति मिली है। आधार कार्ड भी पचास प्रतिशत ही बन पाए हैं। दृष्टिबाधितार्थो के लिए हल्द्वानी में ब्लड बैंक खुलने पर भी सरकार ने मंजूरी दी है। राज्य दिव्यांगजन आयुक्त मनोज चंद ने बताया कि प्रदेश में एक लाख 85 हजार दिव्यांगजनों की संख्या है। जिनमें से 99 हजार को सर्टिफिकेट दिए गए हैं। उन्होंने कहा कि पीएचसी सेंटर में अब सर्टिफिकेट बन पाएंगे। सरकारी अस्पतालों में फ्री ओपीडी के सुविधा न मिलने पर राज्य आयुक्त ने कहा कि 1 से 18 साल तक दिव्यांगजनों को फ्री मेडिकल की सुविधा है,
जिन अस्पतालों में सुविधा नहीं मिल रही है, शिकायत मिलने पर सख्ती बरती जाएगी।

-दिव्यांगजन मुख्य आयुक्त कार्यालय ccpd@nic.in पर शिकायत भेज सकते हैं.

मुख्य आयुक्त ने बताया कि दिव्यांगजनों की सुविधा व अधिकार के लिए नया बिल राज्यसभा में लंबित है। बिल पास होने पर दिव्यांगता के प्रकार 7+2 से 19+2, 21 हो जाएगी, और आरक्षण तीन से बढ़कर पांच प्रतिशत हो जाएगा। आयोग का गठन भी होगा।


RIGHTS OF PERSONS WITH DISABILITIES (RPWD) ACT, 2016


दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार (RPWD) अधिनियम, 2016


2016 में संसद के गर्म शीतकालीन सत्र में व्यवधानों और स्थगन के दिनों के दौरान छह साल की पैरवी, वकालत और प्रतीक्षा के बाद, हमने आखिरकार विकलांगों के बहुप्रतीक्षित अधिकारों के सर्वसम्मति से पारित होने के साथ हमारे सांसदों की अनुकंपा देखी (RPWD) ) १४ दिसंबर, २०१६ को राज्यसभा में और उसके बाद १६ दिसंबर, २०१६ को लोकसभा में विधेयक। वर्ष के अंत से पहले माननीय राष्ट्रपति द्वारा इस विधेयक को और अधिक अनुमोदित और हस्ताक्षरित किया गया और सरकार ने अपने अधिकारी को 'अधिसूचित' किया 28 दिसंबर, 2016 को राजपत्र। इस प्रकार, RPWD बिल 2016 को 'अधिनियमित' किया गया और 'LAW' बन गया।

वास्तव में, एक ऐतिहासिक क्षण और एक पथ तोड़ने वाली उपलब्धि! यह कानून भारत के अनुमानित 70-100 मिलियन विकलांग नागरिकों के लिए गेम चेंजर होगा और इसे लागू करने के प्रावधानों के साथ अधिकारों से दूर प्रवचन को धर्मार्थ से दूर ले जाने में मदद करेगा।

1995 अधिनियम के तहत पिछली 7 श्रेणियों में से 21 श्रेणियों को अक्षम करने के अलावा, यह नया अधिनियम किसी के अधिकारों पर पूरा जोर देता है - समानता और अवसर का अधिकार, विरासत और खुद की संपत्ति का अधिकार, घर और परिवार का अधिकार और दूसरों के बीच प्रजनन अधिकार। । 1995 के अधिनियम के विपरीत, नया अधिनियम सुलभता के बारे में बात करता है - सरकार के लिए दो साल की समय सीमा निर्धारित करने के लिए यह सुनिश्चित करने के लिए कि विकलांग व्यक्तियों को भौतिक बुनियादी ढाँचे और परिवहन प्रणालियों में बाधा रहित पहुँच प्राप्त हो। इसके अतिरिक्त, यह निजी क्षेत्र के लिए भी जवाबदेह होगा। इसमें सरकार द्वारा निजी रूप से स्वामित्व वाले विश्वविद्यालयों और कॉलेजों जैसे शैक्षणिक संस्थानों को 'मान्यता प्राप्त' भी शामिल है। नए अधिनियम की एक पथ-तोड़ विशेषता सरकारी नौकरियों में आरक्षण में 3% से 4% तक की वृद्धि है

नए कानून के साथ, भारतीय विकलांगता आंदोलन को अगले स्तर पर समाप्त कर दिया गया है। इसने हमें विकलांगता अधिकारों, "विकलांगता 2.0" के अगले चरण में प्रवेश किया है ।


दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम-2016 के अन्तर्गत निशक्तता के 21 प्रकार है

1. मानसिक मंदता [Mental Retardation] -
        1.समझने / बोलने में कठिनाई
        2.अभिव्यक्त करने में कठिनाई

2. ऑटिज्म [Autism Spectrum Disorders] -
    1. किसी कार्य पर ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई
    2. आंखे मिलाकर बात न कर पाना
    3. गुमसुम रहना

3. सेरेब्रल पाल्सी [Cerebral Palsy] पोलियो-
    1. पैरों में जकड़न
    2. चलने में कठिनाई
    3. हाथ से काम करने में कठिनाई

4. मानसिक रोगी [Mental illness] -
    1.अस्वाभाविक ब्यवहार,  2. खुद से बाते करना,
    3. भ्रम जाल,  4. मतिभ्रम,  5. व्यसन (नसे का आदी),
    6. किसी से डर / भय,  7. गुमसुम रहना

5. श्रवण बाधित [Hearing Impairment]-
   1. बहरापन
   2. ऊंचा सुनना या कम सुनना

6. मूक निशक्तता [Speech Impairment] -
    1. बोलने में कठिनाई
    2. सामान्य बोली से अलग बोलना जिसे अन्य लोग समझ          नहीं पाते

7. दृष्टि बाधित [Blindness ] -
    1. देखने में कठिनाई
    2. पूर्ण दृष्टिहीन

8. अल्प दृष्टि [Low- Vision ] -
    1. कम दिखना
    2. 60 वर्ष से कम आयु की स्थिति में रंगों की पहचान नहीं          कर पाना

9. चलन निशक्तता  [Locomotor Disability ] -
    1. हाथ या पैर अथवा दोनों की निशक्तता
    2. लकवा
    3. हाथ या पैर कट जाना

10. कुष्ठ रोग से मुक्त  [Leprosy- Cured ] -
     1. हाथ या पैर या अंगुली मैं विकृति
     2. टेढापन
     3. शरीर की त्वचा पर रंगहीन धब्बे
     4. हाथ या पैर या अंगुलिया सुन्न हों जाना

11. बौनापन [Dwarfism ]-
      1. व्यक्ति का कद व्यक्स होने पर भी 4 फुट 10इंच                  /147cm  या इससे कम होना

12. तेजाब हमला पीड़ित [Acid Attack Victim ] -
      1. शरीर के अंग हाथ / पैर / आंख आदि तेजाब हमले की वज़ह से असमान्य / प्रभावित होना

13. मांसपेशी दुर्विक़ार [Muscular Distrophy ] -
     . मांसपेशियों में कमजोरी एवं विकृति

14.स्पेसिफिक लर्निग डिसेबिलिटी[Specific learning]-
     . बोलने, श्रुत लेख, लेखन, साधारण जोड़, बाकी, गुणा,        भाग में आकार, भार, दूरी आदि समझने मैं कठिनाई

15. बौद्धिक निशक्तता [ Intellectual Disabilities]-          1. सीखने, समस्या समाधान, तार्किकता आदि में          कठिनाई
      2. प्रतिदिन के कार्यों में सामाजिक कार्यों में एम  अनुकूल व्यवहार में कठिनाई

16. मल्टीपल स्कलेरोसिस [Miltiple Sclerosis ] -
     1. दिमाग एम रीढ़ की हड्डी के समन्वय में परेशानी

17. पार्किसंस रोग [Parkinsons Disease ]-
     1. हाथ/ पाव/ मांसपेशियों में जकड़न
     2. तंत्रिका तंत्र प्रणाली संबंधी कठिनाई

18. हिमोफिया/ अधी रक्तस्राव [Haemophilia ] -
     1. चोट लगने पर अत्यधिक रक्त स्राव
     2.रक्त बहेना बंद नहीं होना

19. थैलेसीमिया [Thalassemia ] -
      1. खून में हीमोग्लबीन की विकृति
      2. खून मात्रा कम होना

20. सिकल सैल डिजीज [Sickle Cell Disease ] -
     1. खून की अत्यधिक कमी
     2. खून की कमी से शरीर के अंग/ अवयव खराब होना

21. बहू  निशक्तता [Multiple Disabilities ] -
     1. दो या दो से अधिक निशक्तता से ग्रसित


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Sunday, May 19, 2019

उत्तराखण्ड विद्यालयी शिक्षा परिषद् (UBSE)


 Uttarakhand Board of Secondary Education  (UBSE)


 उत्तराखण्ड विद्यालयी शिक्षा परिषद्

उत्तराखण्ड विद्यालयी शिक्षा परिषद्, उत्तराखण्ड सरकार के अधीन शिक्षा विभाग की एक संस्था है, जिसका कार्य राज्य के माध्यमिक विद्यालय के छात्रों के लिए पाठ्यक्रम तैयार करना तथा हाई स्कूल एवं इण्टरमीडिएट स्तर की वार्षिक परिषदीय परीक्षाएँ आयोजित कराना है। इसकी स्थापना 2001 में की गयी तथा रामनगर में इसका मुख्यालय है। वर्तमान में 10,000 से अधिक स्कूल परिषद् से संबद्ध हैं। परिषद् प्रतिवर्ष 1300 से अधिक परीक्षा केन्द्रों पर 300,000 से अधिक परीक्षार्थियों के लिए वार्षिक परीक्षाएँ संपन्न कराती है।


उत्तराखण्ड विद्यालयी शिक्षा परिषद्

संक्षेपाक्षर              UBSE
स्थापना                 सितम्बर 22, 2001 (17 वर्ष)
प्रकार                   शासकीय विद्यालयी शिक्षा परिषद्
मुख्यालय              रामनगर
स्थान                    उत्तराखण्ड, भारत
आधिकारिक भाषा   हिन्दी
अध्यक्ष                  राकेश कुमार कुँवर
पैतृक संगठन          शिक्षा विभाग, उत्तराखण्ड सरकार
जालस्थल              आधिकारिक जालपृधर


इतिहास

1. 9 फरवरी, 1996: उत्तराखण्ड क्षेत्र हेतु  उत्तर प्रदेश माध्‍यमिक शिक्षा परिषद् के क्षेत्रीय कार्यालय की स्‍थापना रामनगर (नैनीताल) में हुयी।

2. 1999: उक्‍त क्षेत्रीय कार्यालय  द्वारा प्रथम बार गढ़वाल मण्डल एवं कुमाऊँ मण्‍डल हेतु परीक्षाओं का संचालन हुआ।

3. 2001: कुमाऊँ एवं गढ़वाल मण्‍डलों हेतु परिषदीय परीक्षाएँ माध्‍यमिक शिक्षा परिषद उत्‍तर प्रदेश के तत्‍कालीन क्षेत्रीय कार्यालय रामनगर  द्वारा संचालित की गयीं।

4. 22 सितम्‍बर, 2001: उत्‍तरांचल राज्‍य गठन के उपरान्‍त उत्तरांचल शिक्षा एवं परीक्षा परिषद् की स्‍थापना  हुयी।

5. 2002 में परिषद् द्वारा प्रथम बार परीक्षाओं का स्‍वयं आयोजन किया गया।

6. 22 अप्रैल, 2006: उत्तरांचल विधान सभा द्वारा उत्‍तरांचल विद्यालयी शिक्षा अधिनियम, 2006 का प्राख्‍यापन हुआ तथा उत्‍तरांचल विद्यालयी शिक्षा परिषद् की स्‍थापना हुयी।

7. 11दिसम्‍बर, 2008: उत्‍तराखण्‍ड विदयालयी शिक्षा परिषद् का गठन हुआ।



शिशुशिक्षा
child education


"शिशु" शब्द का अर्थ बहुत व्यापक होता है। कोई जन्म से लेकर ढाई तीन वर्षों तक, कोई पाँच वर्ष तक और कोई छह या सात वर्ष तक के बच्चे को शिशु कहता है। परंतु शिशुशिक्षा के अर्थ "दो से ग्यारह या बारह वर्ष तक की शिक्षा" माना जाता है। इस पर्याप्त लंबी अवधि को प्राय दो भागों में बाँटा जाता है। दो वर्ष से छह वर्ष की शिक्षा को शिशुशिक्षा (इनफंट या नर्सरी एजुकेशन) कहते हैं, जो प्राय: शिशुशालाओं (नर्सरी स्कूलों) में दी जाती है। छह वर्ष के पश्चात् ग्यारह या बारह वर्ष की शिक्षा को बालशिक्षा (चाइल्ड एजुकेशन) या प्रारंभिक शिक्षा (एलीमेंटरी एजुकेशन) कहते हैं। संसार के सभी प्रगतिशील देशों में प्रारंभिक शिक्षा अनिवार्य है। अत: कहीं छह वर्ष के पश्चात् और कहीं सात वर्ष से प्रारंभिक विद्यालयों में शिक्षा आरंभ की जाती है जो प्राय: पाँच वर्षों तक चलती है। तत्पश्चात् बच्चे माध्यमिक शिक्षा में प्रविष्ट होते हैं।

शिशु मनुष्य का पूर्वरूप है। मनुष्य की संपूर्ण शक्तियाँ और संभावनाएँ शिशु में संनिहित रहती हैं। उसके समुचित पालन पोषण एवं शिक्षादीक्षा पर ही भावी मनुष्य का विकास निर्भर रहता है। अत: मनुष्य की शिक्षा को पूर्ण बनाने की नींव शैशवावस्था में ही पड़ जानी चाहिए। इसी से आज के युग में शिशुशिक्षा को सर्वाधिक महत्व प्रदान किया जाता है।


 इतिहास 

उन्नीसवीं शताब्दी तक शिशु को शिक्षित करने का ढंग बड़ा ही कठोर था। उसके प्रति अध्यापक की सहानुभूति का अभाव था। शिक्षा में शारीरिक दंड का विधान प्रमुख था। शिशु का भी कोई पृथक् व्यक्तित्व है - उसकी अपनी आवश्यकताएँ, स्वतंत्र रुचि एवं आकांक्षाएँ हैं - इसपर अध्यापक का ध्यान नहीं जाता था। शिशु सामान्य (तथाकथित) अपराध पर अध्यापक का क्रुद्ध होना और उसे शारीरिक दंड देना स्वाभाविक था। माता पिता भी "दशवर्षाणि ताडयेत्" को वेदवाक्य मानकर शिक्षा में शिशु के दंड का विधान नतमस्तक होकर स्वीकार करते थे।

 शिशु की स्वतंत्रता का सर्वप्रथम प्रचारक रूसो (1712-1778 ई.) हुआ। तत्पश्चात् पेस्तालीत्सी (1746-1827) ने शिशुशिक्षा को मनोवैज्ञानिक आधार प्रदान किया। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में फ्रोबेल नामक जर्मन शिक्षाशास्त्री ने "बालोद्यान" (किंडरगार्टन) पद्धति द्वारा शिशुशिक्षा में क्रांति उत्पन्न की; परंतु अनेक कारणों से उसका प्रचार मंद गति से हुआ जिससे उन्नीसवीं शताब्दी का अंत होते यह पद्धति यूरोप के अन्य देशों तथा अमरीका में फैली। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में अमरीका के एडवर्ड थार्नडाइक तथा चार्ल्स जुड ने शिशुशिक्षा को सरल, सरस एवं आकर्षक बनाने का प्रयत्न किया। अब शिक्षाशास्त्रियों एव मनावैज्ञानिकों का ध्यान शिशु मनोविज्ञान की ओर विशेष रूप से आकृष्ट हुआ। इटली की प्रसिद्ध महिला शिक्षाशास्त्रिणी मैरिया मांतेस्सोरी ने ज्ञानेंद्रियों की साधना पर विशेष बल दिया जिससे शिशु-शिक्षण-पद्धति में एक नवीन युग आरंभ हुआ और शिशु की शिक्षा सामूहिक से व्यक्तिप्रधान हो गई। प्रत्येक शिशु की पृथक् रुचि एवं मानसिक विकास के अनुरूप उसे शिक्षा देने की व्यवस्था हुई। महात्मा गांधी ने शिशुशिक्षा में उपयोगितावाद का प्रधानता दी और जीवनोपयोगी किसी व्यवसाय (जैसे कताई, बुनाई या कृषि) को शिक्षा का आधार बनाया जिससे यह शिक्षा आधार (बेसिक) शिक्षा कहलाती है।


शिशुशिक्षा की प्रमुख पद्धतियाँ

अधिकांश देशों में शिशुशिक्षा की दो प्रमुख पद्धतियाँ व्यवहार में लाई जाती हैं - एक बालोद्यान की, दूसरी मांतेस्सोरी। बालोद्यान पद्धति में बच्चों को कुछ खिलौनों या क्रीड़ा उपकरणों (जिन्हें फ्रोबेल ने "उपहार" कहा है) तथा शिशु गीतों (नर्सरी सौंग्स) द्वारा सामूहिक शिक्षा दी जाती है। बच्चे शिक्षा को खेल समझकर बड़ी रुचि से आकृष्ट होते हैं और विद्यालय उनके लिए आकर्षण का केंद्र बन जाता है। परंतु शिशुमनोविज्ञान के विकास से पता चला है कि प्रत्येक शिशु दूसरे से भिन्न होता है। अत: उसकी शिक्षा दूसरों से पृथक् ढंग से होनी चाहिए। उस अपनी सहज शक्तियों एवं संभावनाओं का विकास करने के लिए अवसर मिलना चाहिए। केवल सामूहिक शिक्षा देने से उसकी बहुत सी शक्तियाँ अविकसित रह जाती हैं। अत: बालोद्यान का स्थान धीरे धीरे मांतेस्सोरी पद्धति ले रही है। मांतेस्सोरी पद्धति के मूल आधार हैं

ज्ञानेंद्रियों का साधन या विकास तथा शिशु की स्वतंत्रता। इस पद्धति के द्वारा तीन से छह या सात वर्ष के बच्चों का अनेक प्रकार के शैक्षिक यंत्रों (डिडैक्टिक) ऐपैरेटस द्वारा वस्तुओं के रूप, रंग, आकार आदि का ज्ञान कराया जाता है। परंतु प्राय: संपूर्ण ज्ञान बच्चे स्वयं प्राप्त करते हैं। आत्मशिक्षण इस पद्धति का मूल मंत्र है। अध्यापिका दर्शक के रूप में विद्यमान रहकर शिशु के कार्यों का संप्रेक्षण एवं निर्देश करती है। इससे उसे "अध्यापिका" न कहकर "संचालिका" कहते हैं। मांतेस्सोरी विद्यालयों में इंद्रियसाधना के साथ साथ व्यावहारिक जीवन की उपयोगी शिक्षा दी जाती है, जैसे भोजन परसना, कमरा साफ करना, कमरे के सामान व्यवस्थित रूप से सजाकर रखना, इत्यादि। स्वच्छता के साथ ही वेशभूषा धारण करने के ढंग, जैसे बालों में कंघी करना, कपड़ों में बटन लगाना, फीता बाँधना इत्यादि भी सिखाए जाते हैं। इन विद्यालयों में टेबुल, कुर्सी, चौकी इत्यादि सभी आवश्यक सामान हल्के बनवाए जाते हैं जिससे बच्चे सरलता से उन्हें स्थानांतरित कर सकें। इस प्रकार उन्हें अपने सभी कार्य स्वयं करने की शिक्षा दी जाती है।

उक्त दोनों प्रकार की पद्धतियों में शिशु के व्यक्तित्व का महत्व स्वीकार किया जाता है और उसे किसी प्रकार का शारीरिक दंड न देकर प्रेम से शिक्षा देना श्रेयस्कर माना जाता है। शिक्षा में दंड या पुरस्कार के बिना वातावरण से जो प्रेरणा मिलती है वही शिशु के विकास में सहायक होती है। बालोद्यान पद्धति में उपहार का विधान तो है परंतु पुरस्कार का नहीं है। मांतेस्सोरी पद्धति में भी पुरस्कार या प्रलोभन देकर शिक्षा की ओर आकृष्ट करने का कोई विधान नहीं है। दोनों ही पद्धतियों में सक्रियता का सिद्धांत मान्य है। बच्चों में क्रियाशीलता एवं स्फूर्ति की अधिकता होती है जिसका संचालन उपयुक्त दिशा में होना चाहिए। अत: आधुनिक शिक्षा में शिशु को विभिन्न प्रकार की क्रियाओं में व्यस्त रखा जाता है और शिक्षा को खेल का रूप प्रदान किया जाता है जिससे वह शिशु को बोझ न जान पड़े। आधुनिक शिक्षा का एक बहुमान्य सिद्धांत है करके सीखना। इस सिद्धांत के अनुसार ही उक्त दोनों पद्धतियों में व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा दी जाती है। शिशु के शरीर में निरंतर वर्धमान शक्ति एव स्फूर्ति का उपयोग करने के लिए शारीरिक व्यायाम तथा खेल-कूद की पर्याप्त व्यवस्था रखी जाती है। खेलकूद के नियमों के पालन से अनुशासन की शिक्षा मिलती है, साथ ही सहयोग द्वारा कार्य करने एवं आदान प्रदान करने का अभ्यास बढ़ता है।

शिशुशिक्षा में कहानी, कविता तथा संगीत को भी प्रमुख स्थान दिया जाता है। यद्यपि श्रीमती मांतेस्सोरी परियों की काल्पनिक कथाओं के विरुद्ध हैं और बच्चों के लिए उन्हें अनुपयुक्त मानती हैं फिर भी व्यवहार में प्राय: देखा जाता है कि ऐसी कथाओं से बच्चों का केवल मनोरंजन ही नहीं होता वरन् उनमें कल्पनाशक्ति का विकास भी होता है। अत: उनके पाठ्यक्रम में इनका होना लाभदायक सिद्ध होता है। बच्चों के लिए कविता एवं संगीत के महत्व को श्रीमती मांतेस्सोरी भी स्वीकार करती हैं। अत: उनके विद्यालयों में बच्चों को कविताएँ - विशेषत: नादसौंदर्यात्मक, लययुक्त एवं अभिनेय कविताएँ सिखाई जाती हैं। प्रयाण गीतों तथा नृत्य के साथ चलनेवाले गीतों को प्रधानता दी जाती है। तात्पर्य यह है कि वर्तमान शिशुशिक्षा पद्धति में शिशु को सब प्रकार की स्वतंत्रता देकर आत्माभिव्यंजन का पूर्ण अवसर प्रदान किया जाता है। इसके लिए अनुकूल वातावरण एवं उपकरण प्रस्तुत करना शिक्षक का मुख्य कर्तव्य होता है।

उपर्युक्त सिद्धांतों के अनुसार शिशुशिक्षा के समुचित प्रसार के लिए निम्नोक्त आवश्यकताओं की पूर्ति अपेक्षित है - दो से छह वर्ष के बच्चों के लिए शिशुशालाओं (नर्सरी स्कूलों) तथा छह से ग्यारह वर्ष के बच्चों के लिए बालोद्यान की स्थापना; सभी शिशुविद्यालयों में जलपान एवं दोपहर के भोजन की व्यवस्था; शिशु छात्रावासों की स्थापना; शिशु छात्रावासों की स्थापना; शिशुशिक्षा के लिए उपयुक्त प्रशिक्षित अध्यापिकाओं की नियुक्ति; बच्चों के क्रीड़ोपकरणों की व्यवस्था; बालसमाजों (चिल्ड्रेंस क्लबों) की स्थापना जहाँ बच्चे एकत्र होकर परस्पर मिल सकें तथा मनोरंजन के साधनों द्वारा जी बहला सकें; शिशुशिक्षा के लिए उपयुक्त साहित्य-आकर्षक पुस्तकें, पत्रपत्रिकाएँ आदि-के अतिरिक्त उपयोगी एवं आकर्षक खिलौने प्रस्तुत करना; विकलांग, विकृतमस्तिष्क एवं अपराधी बच्चों के लिए पृथक् विद्यालयों की स्थापना; शिशुप्रदर्शनियों द्वारा बच्चों के स्वास्थ्य को प्रोत्साहन देना; तथा राज्य द्वारा शिक्षा का संपूर्ण भारवहन जिससे सभी बच्चों का समान अवसर मिले, भोजन, जलपान, आवास आदि नि:शुल्क प्राप्त हों एवं उनके शारीरिक या मानसिक विकास में धनाभाव के कारण कोई त्रुटि न रहने पाए।


बुनियादी शिक्षा

भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के समय गांधीजी ने सबसे पहले बुनियादी शिक्षा की कल्पना की थी। आज जिसे विश्वविद्यालय स्तर पर "फाउंडेशन कोर्स" कहा जाता है, उसकी पृष्ठभूमि में गांधी की बुनियादी यानी बेसिक शिक्षा ही तो थी। इस बुनियादी प्रशिक्षण और प्राथमिक स्तर की शिक्षा के दो स्तर थे- स्कूली बच्चे कक्षा-एक से ही तकली से सूत कातते थे; रूई से पौनी बनाते थे और सूत की गुड़िया बनाकर या तो खादी भंडारों को देते थे या बैठने के आसन, रुमाल, चादर आदि बनाते थे।

शिक्षा के बारे में गांधीजी का दृष्टिकोण वस्तुत: व्यावसायपरक था। उनका मत था कि भारत जैसे गरीब देश में शिक्षार्थियों को शिक्षा प्राप्त करने के साथ-साथ कुछ धनोपार्जन भी कर लेना चाहिए जिससे वे आत्मनिर्भर बन सकें। इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने ‘वर्धा शिक्षा योजना’ बनायी थी। शिक्षा को लाभदायक एवं अल्पव्ययी करने की दृष्टि से सन् १९३६ ई. में उन्होंने ‘भारतीय तालीम संघ’ की स्थापना की।


प्रारंभिक शिक्षा


छह वर्ष के पश्चात् ग्यारह या बारह वर्ष की शिक्षा को 'प्रारंभिक शिक्षा (प्राइमरी एजूकेशन या एलीमेंटरी एजुकेशन) या बालशिक्षा (चाइल्ड एजुकेशन) कहते हैं। संसार के सभी प्रगतिशील देशों में प्रारंभिक शिक्षा अनिवार्य है। अत: कहीं छह वर्ष के पश्चात् और कहीं सात वर्ष से प्रारंभिक विद्यालयों में शिक्षा आरंभ की जाती है जो प्राय: पाँच वर्षों तक चलती है। तत्पश्चात् बच्चे माध्यमिक शिक्षा में प्रविष्ट होते हैं। इसके पहले के शिक्षा के स्तर को शिशुशिक्षा कहते हैं।


 प्राथमिक शिक्षा से जुड़ी योजनायें

  • मध्याह्न भोजन योजना(मिड डे मील) -
इसमें प्राथमिक शिक्षा के अंतर्गत सरकार के मध्याह्न भोजन योजना की जानकारी दी गयी है।

  • महिला समाख्या कार्यक्रम- 
इस भाग में महिला समाख्या कार्यक्रम की जानकारी दी गई है।

  • पढ़े भारत बढ़े भारत 
इसमें प्रारंभिक कक्षाओं में समझ के साथ पढ़ना –लिखना और गणित कार्यक्रम के विषय में अधिक जानकारी दी गई है|

  • क्रमिक अधिगम पुस्तिकाएँ का कक्षाओं में उपयोग हेतु निर्देशक बिंदु -
इसमें बच्चों में आरंभिक शिक्षा की तैयारी हेतु कुछ उपयोगी दिशा- निर्देश दिए गए है।

  • सर्व शिक्षा अभियान -
सर्व शिक्षा अभियान जिला आधारित एक विशिष्ट विकेन्द्रित योजना है।



भारत सरकार प्राथमिक  शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए प्रयासरत है।

देश के विभिन्न राज्यों में सरकारें प्राथमिक शिक्षा में कई स्तरों पर गुणवत्ता के मसले को लेकर न केवल चिंतित हैं, बल्कि प्रयास कर रही हैं। मुख्यतौर पर बच्चों में भाषायी कौशलों मसलन सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना आदि को लेकर दिक्कतें आती हैं। इन कौशलों में भी पढ़ना और लिखना ऐसे कौशल हैं जिनमें बच्चे न केवल बिहार बल्कि अन्य राज्यों में भी पिछड़ रहे हैं। इसका प्रमाण समय समय पर असर और सरकारी दस्तावेज भी देते रहे हैं। हालिया एनसीईआरटी की ओर किए गए अध्ययन में पाया गया कि बच्चों में पढ़ने−लिखने और गणित की दक्षता में खासा परेशानी आती है। यह स्थिति आज से नहीं बल्कि पिछले एक दशक में ज़्यादा संज्ञान में आयी है। विभिन्न रिपोर्ट इस मसले पर अपनी चिंता प्रकट कर चुकी हैं। बिहार सरकार इन्हें गंभीरता से लेते हुए राज्य में प्राथमिक स्कूलों में गणित और भाषायी दक्षता खासकर पढ़ने और लिखने को कक्षा तीसरी और पांचवीं में सुधारने के लिए प्रयास कर रही है।

भारत में प्राथमिक शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए यह प्रयास निश्चित ही सराहनीय है। हालांकि भारत के सभी राज्यों में प्राथमिक स्तर पर बुनियादी कौशलों में बच्चे तय स्तर से नीचे पाए गए हैं। इन्हें कैसे दुरुस्त किया जाए इसके लिए भारत सरकार ने एक योजना का ऐलान किया है। इस योजना के तहत तमाम प्राथमिक स्कूलों में कक्षा तीसरी और पांचवीं के बच्चों में गणित के सामान्य सवालों को हल करने के कौशल पर काम किया जाएगा। साथ ही भाषायी कौशल विकास को लेकर समय समय पर सवाल उठते रहे हैं। इन्हें संज्ञान में लेते हुए भारत सरकार ने घोषणा की है कि प्राथमिक स्कूलों में इन्हीं कक्षाओं के बच्चों में पढ़ने और लिखने के कौशल विकास पर भी सघन कोशिश की जाएगी।

बच्चों में भाषायी कौशल और गणित के सामान्य सवालों को हल करने के कौशल प्रदान करने का प्रयास तो ठीक है किन्तु यह एक अन्य चिंता भी जगाती है कि क्या हमारे शिक्षक और अन्य संसाधन इस योजना को पूरा करने में सक्षम और समर्थ हैं? क्या हमारे पास इस योजना को सफल बनाने के लिए पूरी कार्य योजना और रणनीति तैयार है आदि। क्योंकि इससे पूर्व भी देश भर में इन बुनियादी कौशलों के विकास के लिए विभिन्न योजनाओं की शुरूआत की गई। इसका परिणाम अभी तक पर्याप्त नहीं माना जा सकता। इससे पूर्व देश भर में ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड, सर्व शिक्षा अभियान आदि की भी शुरूआत की गई। इन तमाम अभियानों में जो कमी देखी गई वह इनके कार्यान्वयन स्तर पर थी। ये योजनाएं अपने उद्देश्यों, लक्ष्यों में तो स्पष्ट थीं ही किन्तु इन्हें सही तरीके से रणनीति बनाकर एक्जीक्यूट नहीं किया गया। अब तक का सबसे बड़ा शैक्षिक संघर्ष शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 को बनने में तकरीबन सौ साल का वक़्त लगा। इसे 2010 में अप्रैल देश भर में लागू किया गया। लेकिन इसमें भी खामियां देखीं और निकाली गईं। क्या इस आरटीई में कोई कमी थी या फिर इसे जिस शिद्दत से स्वीकारा जाना चाहिए था या फिर एक्जीक्यूट करने में हमसे कोई चूक रह गई इसे भी समझना होगा। इस संदर्भ में हमें बिहार के इस प्रयास को देखने और समझने की आवश्यकता है।


माध्यमिक शिक्षा आयोग

भारत सरकार ने २३ सितम्बर १९५२ को डॉ॰ लक्ष्मणस्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में माध्यमिक शिक्षा आयोग की स्थापना की। उन्ही के नाम पर इसे मुदलियर आयोग कहा गया। आयोग ने पाठ्यचर्या में विविधता लाने, एक मध्यवर्ती स्तर जोड़ने, त्रिस्तरीय स्नातक पाठ्यक्रम शुरू करने इत्यादि की सिफारिश की।

माध्यमिक शिक्षा आयोग की संस्तुतियाँ-

(१) 4 या 5 वर्ष की प्राइमरी शिक्षा ,
(२) सेकण्डरी शिक्षा के दो भाग होना चाहिए।
(३) वस्तुनिष्ठ (MCQ) परीक्षण-पद्धति को अपनाया जाए।
(४) संख्यात्मक अंक देने के बजाय सांकेतिक अंक दिया जाए।
(५) उच्च तथा उच्चतर माध्यमिक स्तर की शिक्षा के पाठ्यक्रम में एक मूल विषय (core subject) रहे जो अनिवार्य रहे जैसे—गणित, सामान्य ज्ञान, कला, संगीत आदि।

आयोग की नियुक्ति के निम्नलिखित उद्देश्य थे....
1.भारत की तात्कालिन माध्यमिक शिक्षा की स्थिति का अध्ययन करके उस पर प्रकाश डालना।
2.माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य संगठन एवं विषयवस्तु।
3.विभिन्न प्रकार के माध्यमिक विद्यालयों का पारस्परिक संबंध।
4.माध्यमिक शिक्षि का प्राथमिक ,बेसिक तथा उच्च शिक्षा के संबंध में।
5.माध्यमिक शिक्षा से संबंधित अन्य समस्याएँ।



उत्तराखंड में प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था


उत्तराखंड में प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था : उत्तराखंड में नई शिक्षा व्यवस्था के तहत प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा को देखने के लिए ब्लॉक स्तर पर बेसिक शिक्षा अधिकारी (Basic Education Officer) एवं माध्यमिक शिक्षा अधिकारी (Secondary Education Officer) की व्यवस्था है। जिला स्तर (District Level) पर एक जिला शिक्षा अधिकारी (District Education Officer) और उसके अधीन अपर बेसिक शिक्षा अधिकारी (Basic Education Officer) और अपर माध्यमिक शिक्षा अधिकारी (Upper Secondary Education Officer) की व्यवस्था की गई है।


जबकि मंडल स्तर (Board Level) पर अपर शिक्षा निर्देशक (Additional Education Director) और राज्य स्तर (State level) पर शिक्षा निर्देशक (Education Director) की व्यवस्था है।


उत्तराखंड राज्य के उधम सिंह नगर (Udham Singh Nagar) में एक जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान (District Education and Training Institute) तथा रुद्रप्रयाग, बागेश्वर एवं चंपावत में 3 लघु जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थानों (Small District Education and Training Institutions) की स्थापना की गयी है। इसके अलावा एक राज्य शैक्षिक योजना एवं प्रशिक्षण संस्थान (Uttarakhand State Institute of Educational Management and Training) की स्थापना की गयी है।


सरकार द्वारा संचालित प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा कार्यक्रम व योजनायें


स्कूल चलो अभियान (School Chalo Abhiyan/School Chalo Campaign)

राज्य में 1 जुलाई 2001 से संचालित (Operated) इस अभियान का मुख्य उद्देश्य सभी को शिक्षा की और प्रोत्साहित करना है। इस अभियान का मुख्य लक्ष्य 6-14 वर्ष के बच्चों को शत प्रतिशत (100%) नामांकन (Nominations), बच्चों का विद्यालय में शत प्रतिशत ठहराव (100% Stoppage), बालिकाओं तथा ST/SC के लिए शिक्षा पर विशेष बल, जन समुदाय की भागीदारी तथा 2010 तक 1-8 तक की शिक्षा का सार्वजनीकरण करना था।


विशेष छात्रवृति योजना (Special Scholarship Scheme)

पूर्व सैनिकों (Ex-Servicemen) के बच्चों के लिए शुरू की गई यह योजना में हाईस्कूल तथा इंटर (High school and Intermediate) में 80% अंक पाने वाले बच्चों को क्रमशः 12,000 व 15,000 रुपए की वार्षिक छात्रवृत्ति (Annual Scholarship) देने की व्यवस्था है। स्नातक (Graduate) के लिए यह राशि 18,000 होगी ।


तेजस्वी छात्रवृत्ति योजना (Stunning Scholarship Scheme)

BPL परिवारों (गरीबी रेखा से निचे जीवन यापन करने वाले) की बालिकाओं के लिए यह योजना चलाई जा रही है। कक्षा 9 में प्रवेश लेने पर ₹ 1,000 व 10 में प्रवेश करने पर ₹ 2, 000 की राशी दी जाएगी।


शिक्षा आचार्य योजना (Shiksha Aacharya Scheme)

राज्य सरकार द्वारा चलाई जा रही इस योजना का उद्देश्य राज्य के सभी बच्चों को आधारभूत शिक्षा (Basic education) प्रदान करना है। इसके अंतर्गत कक्षा 1-5 तक के बच्चों को नि:शुल्क पुस्तकें (Free Books) दी जाती है।


दिव्यांग (विकलांग) विद्यालय (Disabled Schools)

विकलांगों (Disabled) को आत्मनिर्भर (Self
Dependent) बनाने हेतु समाज के मुख्यधारा (mainstream) से जोडने के लिए राज्य में 13 विकलांग विद्यालयों की स्थापना की गई है। जहां उन्हें व्यावसायिक प्रशिक्षण (Vocational Training) दिया जाता है।


काल्प (CALP)

कंप्यूटर की और कंप्यूटर से शिक्षा देने हेतु, कंप्यूटर एडेड लर्निंग कार्यक्रम (Computer Aided Learning Programs) संचालित है।


ई-क्लास योजना (E-Class Scheme)

इसके तहत राज्य में कक्षा 9 से 12 तक के विद्यार्थियों को विज्ञान (Science) एवं गणित (Maths) की पढ़ाई मल्टीमीडिया (Multimedia) CD द्वारा दी जाने की व्यवस्था है।


कंप्यूटर शिक्षा (Computer Education)

राज्य के समस्त उच्च विद्यालयों एवं माध्यमिक विद्यालयों में अनिवार्य कंप्यूटर शिक्षा (Compulsory Computer Education) उपलब्ध कराने के उद्देश्य से यह योजना चलाई जा रही है। छात्रों की संख्या के आधार पर प्रति विद्यालय  में 3 से 8 तक कंप्यूटर उपलब्ध कराए जाते है।


प्रोजेक्ट शिक्षा (Project Education)

माइक्रोसॉफ्ट कॉरपोरेशन (Microsoft Corporation) के सहयोग से राज्य में शुरू की गई, इस शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थियों एवं शिक्षकों (Students and Teachers) को कंप्यूटर साक्षर बनाना है। इसका मुख्यालय देहरादून में है।


आरोही परियोजना (Aarohi Project)

यह परियोजना अध्यापकों तथा विद्यार्थियों को कंप्यूटर में प्रशिक्षण देने के लिए मई 2002 में शुरू की गई। इस कार्यक्रम में माइक्रोसॉफ्ट और इंटेल (Microsoft and Intel) से सहयोग लिया जा रहा है।


राजीव गांधी नवोदय विद्यालय (Rajiv Gandhi Navodaya School)

राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों (Rural Areas) के प्रतिभाशाली बच्चों (Brilliant Students) को उत्कृष्ट आवासीय शिक्षा (Outstanding Residential Education) को नि:शुल्क उपलब्ध कराने के लिए 8 जनपदों में राज्य सरकार द्वारा अपने संसाधनों से राजीव गांधी नवोदय विद्यालय की स्थापना की गई है। जिसमें 75% स्थान ग्रामीण क्षेत्र के विद्यार्थियों के लिए तथा 50% स्थान बालिकाओं के लिए आरक्षित है।


श्यामा प्रसाद मुखर्जी अभिनव विद्यालय (Shyama Prasad Mukherjee Innovative School)

राजीव गांधी नवोदय विद्यालय (Rajiv Gandhi Navodya School) की तरह यह विद्यालय भी पूर्णत: राज्य सरकार द्वारा वित्त पोषित (Funded) और उसी तरह नि:शुल्क आवासीय है। वर्तमान में राज्य के 5 जिलो में ऐसे विद्यालय है।


शिक्षा बंधु (मित्र) योजना (Shiksha Bandhu Yojna or Education Brothers (Friends) Scheme)

ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों में शिक्षकों की कमी को दूर करने तथा शिक्षितों को रोजगार (Employment) देने के उद्देश्य से ग्राम शिक्षा समिति (Village Education Committee) के द्वारा प्राथमिक स्कूलों (Elementary Schools) में मानदेय वेतन (Salary) पर शिक्षा मित्र नियुक्त करने संबंधी योजना चलाई जा रही है।


मिड-डे मील योजना (Mid-Day Meal Scheme)

प्राथमिक शिक्षा (Primary education) में शत-प्रतिशत नामांकन (100% Enrolment), ठहराव और लिंग भेद (Gender Differences) को समाप्त करने के लिए मिड-डे मील योजना संचालित की जा रही है। इस योजना के अंतर्गत सभी सरकारी एवं सरकारी सहायता से चल रहे स्कूलों में पहली से आठवीं तक के बच्चों को प्रतिदिन नि:शुल्क दोपहर का खाना (Lunch) दिया जाता है।

कस्तूरबा गांधी आवास विकास विद्यालय योजना (Kasturba Gandhi Housing Development School Scheme)

ST/SC शिक्षा में पिछड़े हुए राज्य के 12 जिलों में कस्तूरबा गांधी विद्यालयों की स्थापना की गयी है। केंद्र सरकार (Central Government) द्वारा घोषित इन विद्यालयों में ST/SC छात्राओं को नि:शुल्क आवास सहित शिक्षा दी जाती
है।


देवभूमि मुस्कान योजना (Dev Bhoomi Smile Scheme)


2009 में शुरू की गई यह योजना समाज के वंचित वर्ग (Deprived Class) के छात्रों को उत्कृष्ट शिक्षा (Excellent Education) दिलाने के लिए शुरू की गई है। इस योजना के तहत नि:शुल्क शिक्षा दी जाती है। खनन कार्य (Mining Operations) से जुड़े लोगों के बच्चों को भी इस योजना में सम्मिलित किया गया है। इस के लिए राज्य में कुल 41 शिक्षा केंद्र चिन्हित है।


आदर्श स्कूल (Ideal School)

प्रत्येक जिले में एक इंटर कॉलेज व प्रत्येक ब्लॉक में एक जूनियर हाईस्कूल को आदर्श स्कूल के रूप में विकसित किया जा रहा है।




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Tuesday, May 14, 2019

विशेष आवश्यकता वाले छात्रों की पहचान करना

 विशेष आवश्यकता वाले छात्रों की पहचान

सामान्य रूप से कार्य करने के लिए छः क्षेत्र निर्णायक हैं।

 ये हैं - दृष्टि, श्रवण शक्ति, गतिशीलता, सम्प्रेषण, सामाजिक-भावनात्मक सम्बन्ध, बुद्धिमत्ता। इसके अतिरिक्त आर्थिक रूप से सुविधावंचित बच्चे भी विशेष हैं क्योंकि गरीबी के कारण वे जीवन के कई अनुभवों से वंचित रह जाते हैं। वे स्कूल नहीं जा स कते क्योंकि उन्हें बचपन से ही काम शुरू करना पड़ता है, ताकि वे परिवार की आय बढ़ा सकें। लड़कियों को अक्सर घर पर ही रोक लिया जाता है ताकि वे छोटे भाई-बहनों (बच्चों) का ध्यान रख सकें और घर के कामकाज कर सकें।

कोई बच्चा अथवा व्यक्ति जो इन क्षेत्रों में से एक या उससे अधिक क्षेत्रों में कोई कठिनाई महसूस करता है, वह विशिष्ट बच्चा/व्यक्ति कहलाता है। उपरोक्त में से किसी एक क्षेत्र में भी कठिनाई व्यक्ति के लिए बाधा उत्पन्न कर सकती है और व्यक्ति को इस असमर्थता से निपटने के लिए अतिरिक्त प्रयास की आवश्यकता होती है।


प्रावधान के तरीके

स्कूलों के छात्रों को विशेष शिक्षा सेवाएं प्रदान करने के लिए अलग अलग दृष्टिकोण का उपयोग करें। इन तरीकों को मोटे तौर पर विशेष जरूरतों के साथ छात्र (उत्तरी अमेरिकी शब्दावली का प्रयोग) गैर विकलांग छात्रों के साथ है कितना संपर्क के अनुसार, चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है:

समावेशन: इस दृष्टिकोण में, विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों के लिए विशेष जरूरतों के लिए नहीं है, जो छात्रों के साथ स्कूल के दिन की सबसे सभी खर्च करते हैं, या। शामिल किए जाने के सामान्य पाठ्यक्रम की पर्याप्त संशोधन की आवश्यकता सकता है, क्योंकि ज्यादातर स्कूलों में एक सबसे अच्छा अभ्यास के रूप में स्वीकार किया जाता है, जो विशेष जरूरतों, उदारवादी हल्के के साथ चयनित छात्रों के लिए ही इस्तेमाल करते हैं। विशेष सेवाओं के अंदर या नियमित रूप से बाहर प्रदान किया जा सकता है कक्षा, सेवा के प्रकार पर निर्भर करता है। छात्र कभी-कभी एक संसाधन कक्ष में छोटे, अधिक गहन शिक्षण सत्र में भाग लेने के लिए नियमित रूप से कक्षा छोड़ सकते हैं, या विशेष उपकरण की आवश्यकता हो सकती है या भाषण और भाषा चिकित्सा, व्यावसायिक रूप में, कक्षा के बाकी के लिए विघटनकारी ऐसे हो सकता है कि अन्य संबंधित सेवाओं को प्राप्त करने के लिए चिकित्सा, भौतिक चिकित्सा, पुनर्वास परामर्श। उन्होंने यह भी इस तरह के एक सामाजिक कार्यकर्ता के साथ सत्र परामर्श के रूप में गोपनीयता की आवश्यकता है कि सेवाओं के लिए नियमित रूप से कक्षा छोड़ सकता है।

मुख्य धारा के लिए अपने कौशल के आधार पर विशिष्ट समय अवधि के दौरान गैर विकलांग छात्रों के साथ कक्षाओं में विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों को शिक्षित करने की प्रथा है। विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों को विशेष रूप से स्कूल के दिन के आराम के लिए विशेष जरूरतों के साथ छात्रों के लिए अलग-अलग वर्गों में अलग कर रहे हैं। एक अलग कक्षा या विशेष जरूरतों के साथ छात्रों के लिए विशेष स्कूल में अलगाव: इस मॉडल में, विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों गैर विकलांग छात्रों के साथ कक्षाओं में भाग लेने नहीं है। अलग-अलग छात्रों नियमित रूप से कक्षाओं प्रदान की जाती हैं, जहां एक ही स्कूल में भाग लेने, लेकिन विशेष जरूरतों के साथ छात्रों के लिए एक अलग कक्षा में विशेष रूप से सभी शिक्षण समय खर्च कर सकते हैं। उनके विशेष वर्ग के एक साधारण स्कूल में स्थित है, तो वे इस तरह के गैर विकलांग छात्रों के साथ भोजन खाने से, के रूप में कक्षा के बाहर सामाजिक एकीकरण के लिए अवसर प्रदान किया जा सकता है।

वैकल्पिक रूप से, इन छात्रों को एक विशेष स्कूल में भाग लेने सकता है। बहिष्करण: किसी भी स्कूल में शिक्षा प्राप्त नहीं है जो एक छात्र को स्कूल से बाहर रखा गया है। अतीत में, विशेष जरूरतों के साथ सबसे अधिक छात्रों को स्कूल से बाहर रखा गया है। इस तरह के बहिष्कार अभी भी विशेष रूप से विकासशील देशों के गरीब, ग्रामीण क्षेत्रों में, दुनिया भर में लगभग 23 लाख विकलांग बच्चों को प्रभावित करता है। एक छात्र है जब यह भी हो सकती है अस्पताल में, या आपराधिक न्याय प्रणाली द्वारा हिरासत में ले लिया। इन छात्रों पर एक-एक निर्देश या समूह शिक्षा प्राप्त हो सकता है। निलंबित या निष्कासित कर दिया गया है, जो छात्रों को इस अर्थ में बाहर रखा नहीं माना जाता है।

 सर्व शिक्षा अभियान ने एक साहसिक कदम उठाया, जब उन्होंने अपनी समावेशी शिक्षा परियोजना के तहत 40 से अधिक स्कूलों में विकलांगों के 2,000 से अधिक बच्चों को नामांकित किया, जिसमें विकलांग छात्रों को अन्य छात्रों के साथ एक ही कक्षा में शामिल किया गया। अलग-अलग बच्चों को, जिन्हें अभी भी 'विकलांग' के रूप में माना जाता है कि निर्विवाद रूप से समाज में, उनकी शैक्षिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक जरूरतें विशिष्ट होती हैं।

साथ ही, पूरे भारत में मुख्यधारा के निजी स्कूलों के लिए 'समावेश' बनाना अनिवार्य है, विशेष जरूरतों वाले बच्चों को शिक्षित करने के बारे में जागरूकता स्पष्ट वृद्धि पर है, जिससे भारत में विशेष शिक्षकों की प्राकृतिक मांग बढ़ रही है।

वास्तविकता की जांच

विद्यालयों में स्वीकृत समावेश खोजने के लिए, विशेष रूप से उन बच्चों के साथ माता-पिता के लिए यह एक चुनौती है, जिनकी विशेष आवश्यकताएं हैं। एक विशेष शिक्षक के रूप में सामना की जाने वाली चुनौतियों के बारे में, सर्व शिक्षा अभियान और शिक्षा के अधिकार (मानव संसाधन विकास मंत्रालय के तहत एक कार्यक्रम) के लिए समावेशी शिक्षा के राष्ट्रीय स्तर के एक मुख्य सलाहकार डॉ. अनुप्रिया चढ्ढा ने मीडिया के साथ साझा किया। वे अभी भी एक धारणा पर काम करते हैं कि नियमित स्कूल केवल कुछ प्रकार के बच्चों के लिए हैं। इसके अलावा, इस श्रेणी के छात्रों को संभालने के लिए स्कूलों में आधारभूत संरचना या सुविधाएं नहीं हैं। हालांकि चीजें सुधार पक्ष पर हैं।"

2015 में, अलग-अलग बच्चों के संघर्ष को देखते हुए केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने सभी संबद्ध स्कूलों के लिए एक विशेष शिक्षक नियुक्त करने के लिए अनिवार्य किया था, ताकि सीखने की अक्षमता वाले बच्चों को अन्य छात्रों के साथ स्वीकृति मिल सके। स्कूलों में "समावेशी प्रथाओं" के केंद्रीय बोर्ड के अलावा, शिक्षा के अधिकार अधिनियम के सख्त दिशानिर्देशों के कारण भी इस निर्देश की आवश्यकता है।

शिक्षक की डिमांड

निर्विवाद रूप से, विशेष शिक्षकों की मांग है। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु सरकार देश में शिक्षक शिक्षा के सभी कॉलेजों के पाठ्यक्रम में विशेष शिक्षा के कुछ घटक शामिल करने के पक्ष में है। यह इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि भारत और अन्य देशों में विशेष शिक्षकों के लिए बहुत सारे अवसर हैं। वर्तमान में, विशेष शिक्षा में बीएड या एमएड की डिग्री रखने वाले परामर्शदाता के रूप में रोजगार की तलाश भी कर सकते हैं।

भारत में व्यावसायिक रूप से प्रशिक्षित विशेष शिक्षकों की तत्काल आवश्यकता पर बोलते हुए, दिल्ली पब्लिक स्कूल के प्रिंसिपल हेक्टर रविंदर दत्त, रोहक और एसोसिएशन ऑफ स्पेशल एजुकेटर एंड अलायड प्रोफेशनल के संस्थापक ने शेयर किया कि, "2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में अक्षमता वाले 2.70 करोड़ से अधिक लोग रहते हैं। इस आकार की आबादी के लिए, भारत को अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए न्यूनतम 15 लाख विशेष शिक्षकों की जरूरत है। साथ ही, हमें आवश्यक कौशल, ज्ञान और पेशेवर नैतिकता को लागू करके उन्हें नियोजित करने के लिए उनके प्रशिक्षण के लिए एक ठोस नीति की आवश्यकता है।"

आगे के रास्ते

आंकड़ों से पता चलता है कि 2016 से, भारत में 25 लाख से अधिक स्कूल के छात्रों की पहचान विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों के रूप में की गई है, जिन्हें ध्यान देने की जरूरत है। हालांकि, अफसोस की बात है कि संबंधित अधिकारी ऐसे छात्रों की जरूरतों को पूरा करने के लिए विभिन्न स्कूलों में विशेष शिक्षकों के लिए एक पद बनाने में नाकाम रहे हैं।

समावेशन को अभी भी मुख्यधारा के प्रधानाचार्यों और प्रशासकों में जाने के लिए बहुत सारी शिक्षा की जरूरत है, जो इस तथ्य को स्वीकार करने से इंकार कर रहे हैं कि वर्तमान में भारत को शारीरिक रूप से विकलांगता या सीखने की अक्षमता के साथ पैदा हुए 5 में से एक बच्चे होने की सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।


शिक्षा की गुणवत्‍ता के लिये विशेष पहल की जरूरत.

शिक्षक समाज की सर्वाधिक संवदेनशील इकाई है. शिक्षक अपना काम ठीक तरह से नहीं करते- यह आरोप तो सर्वत्र लगाया जाता है. लेकिन यह विचार कोई नहीं करता कि उसे पढ़ाने क्यों नहीं दिया जाता? आए दिन गैर-शैक्षिक कार्यों में इस्तेमाल करता प्रशासन, शिक्षकों की शैक्षिक सोच को, शैक्षिक कार्यक्रमों को पूरी तरह ध्वस्त कर देता है. बच्चों को पढ़ाना-सिखाना सरल नहीं होता और न ही बच्चे फाईल होते हैं. प्रशासनिक कार्यालय और अधिकारीगण शिक्षा और शिक्षकों की लगातार उपेक्षा करते हैं. उन्हें काम भी नहीं करने देते. इसी कारण स्कूली शिक्षा में अपेक्षित सुधार सम्भव नहीं हो पा रहा है.


शिक्षा में सुधार के लिए क्या करें

स्कूली शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए हमें स्कूलों के बारे में अपनी परम्परागत राय को बदलना होगा. अभी स्कूलों को कार्यालय समझकर, शिक्षकों को प्रतिदिन अनेक प्रकार की डाक बनाने और आँकड़े देने के लिए मजबूर किया जाता है. इससे बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान होता रहता है. बच्चे अपने शिक्षकों से सतत् जुड़े रहना चाहते हैं, विशेषकर प्राथमिक स्तर पर. अत: स्कूलों को कार्यालयीन कामकाज से वास्तव में मुक्त कर प्रभावी शिक्षण संस्थान बनाया जाना चाहिए.
डाक कार्य के लिए अलग से डाक सहायक की सुविधा दी जाए, और हर स्कूल में एक टीचर स्पेशल एजुकेटर की सुविधा दी जाए ताकि समस्त बच्चो के साथ-साथ विशेष बच्चो को भी सुविधा मिले।

अभी अधिकांश स्कूल अन्य सरकारी कार्यालयों की तर्ज पर 9 से 4 की अवधि में ही खुलते हैं. इस कारण से रोजगार में जुटे परिवारों के बच्चों के लिए वे अनुपयोगी सिद्ध हो रहे हैं. स्कूल की समयावधि सरकारी नियंत्रण में होने के कारण बच्चों की उपस्थिति और सीखने का समय कमतर होता जा रहा है. स्कूली उम्र पार कर चुके किशोरों, युवाओं, महिलाओं और कामकाजी लोगों के लिए स्कूल के दरवाजे एक तरह से बन्द ही हैं. विद्यालय समाज की लघुतम इकाई के रूप में "सामाजिक शिक्षण केन्द्र" के रूप में कार्य कर सकते हैं. इस परिकल्पना को साकार करने की दिशा में पहल किए जाने का दायित्व स्थानीय " शिक्षक संघ" पूरा कर सकते हैं. अगर समाज की जरूरत के चलते चिकित्सालय और थाने दिन-रात खुले रह सकते हैं, तो यह भी उतना ही आवश्यक है कि विद्यालय कम-से-कम 10-12 घण्टे जरूर खुलें। और टीचरों कि सिप्ट वाइज सुविधा दी जाए।


शिक्षक-छात्र अनुपात ठीक हो

शैक्षणिक सुधार में शिक्षकों की भूमिका महत्वपूर्ण है. पाठयपुस्तकों और पाठयक्रम के अनुरूप प्रभावी शिक्षण, शिक्षकों की योग्यता, सक्रियता और पढ़ाने के कौशल पर निर्भर है. एक शिक्षक, एक साथ कितनी कक्षाओं के कितने बच्चों को भली-भाँति पढ़ा सकेगा, इस बारे में गम्भीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है.

आदर्श रूप में एक शिक्षक अधिकतम 20 बच्चों को ही ठीक प्रकार पढ़ा सकता है. वह भी तब, जब वे भी एक समान स्तर के हों. अभी व्यवस्था यह है कि एक शिक्षक 40 बच्चों को (और वे भी अलग-अलग स्तरों के हैं) पढ़ाएगा. अनेक स्कूलों में तो 70-80 से भी अधिक बच्चों को पढ़ाना पड़ रहा है. ऐसे में शिक्षक मात्र बच्चों को घेरकर ही रख पाते हैं पढ़ाई तो सम्भव ही नहीं. शिक्षक बच्चों को पढ़ा भी पाएँ, इस हेतु शिक्षक-छात्र अनुपात को व्यवहारिक बनाना होगा.


प्रशिक्षण, शिक्षण और परीक्षण

स्कूली शिक्षा में सुधार के लिए शिक्षण विधियों, प्रशिक्षण और परीक्षण की विधियों में भी सुधार करने की जरूरत है. अभी शिक्षण की विधियाँ राज्य स्तर से तय की जाती हैं. कक्षागत शिक्षण कौशलों को या तो नकार दिया जाता है या उन्हें परिस्थितिजन्य मान लिया जाता है.

अच्छे प्रशिक्षण के लिए प्रशिक्षण का दायित्व कर्तव्यनिष्ठ, योग्य और क्षमतावान प्रशिक्षकों को सौंपा जाना चाहिए. शिक्षकों के प्रशिक्षण को प्रभावी बनाने, शिक्षण में नवाचारी पध्दतियाँ विकसित करने सहित परीक्षण (मूल्यांकन) की व्यापक प्रविधियाँ तय कर उन्हें व्यवहारिक स्वरूप में लागू करने की दिशा में कारगर कदम उठाने की दृष्टि से यह आवश्यक है कि हर प्रदेश में एक "शैक्षिक संदर्भ एवं स्त्रोत केन्द्र" विकसित किया जाए.


शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार मूलक परियोजनाएँ

शिक्षा के क्षेत्र में अनेक संस्थाएँ कार्यरत हैं. रोजगार और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए भी शासकीय स्तर पर परियोजनाएँ और कार्यक्रम लागू किए गए हैं. मानव विकास के बुनियादी सूचकांक होते हुए भी इनमें तालमेल न होने के कारण इनकी गति अपेक्षित नहीं है. धन की गरीबी से ज्ञान की गरीबी का विशेष सम्बंध है. ग्रामीण दूरस्थ अँचलों में ज्ञान की गरीबी पसरी हुई है. जानकारी के अभाव में वे संसाधनों का उपयोग नहीं कर पाते. अनेक परियोजनाओं के बावजूद उनकी प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक चिकित्सा और बुनियादी रोजगार की प्रक्रियाएँ बाधित होती हैं. अब समय आ गया है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए लागू परियोजनाओं को समेकित ढ़ंग से किसी सुनिश्चित क्षेत्र में लागू कर परिणामों की समीक्षा की जाए. अच्छे परिणाम आने पर उन्हें पूरे देश भर में लागू किया जाए. इस प्रकार हम अपने संसाधनों और मानवीय क्षमताओं का बेहतर उपयोग कर सकेंगे जिससे शिक्षा के गुणात्मक विकास की संभावनाएँ बढ़ेंगीं.


पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें

अभी वास्तव में यह ठीक प्रकार तय ही नहीं है कि किस आयु वर्ग के बच्चों को कितना सिखाया जा सकता है और सिखाने के लिए न्यूनतम कितने साधनों और सुविधाओं की आवश्यकता होगी. नई शिक्षा नीति 1986 लागू होने के बाद न्यूनतम अधिगम स्तरों को आधार मानकर पाठ्यपुस्तकें और पाठ्यक्रम तो लगातार बदले गए हैं, लेकिन उनके अनुरूप सुविधाओं और साधनों की पूर्ति ठीक से नहीं की गई है. यह सोच भी बेहद खतरनाक है कि पाठ्यपुस्तकों के जरिए हम भाषायी एवं गणितीय कौशलों और पर्यावरणीय ज्ञान को ठीक प्रकार विकसित कर सकते हैं. यथार्थ में पाठ्यपुस्तकें पढ़ाई का एक छोटा साधन मात्र होती हैं साध्य नहीं. कक्षाओं पर केन्द्रित पाठयपुस्तकों और पाठ्यक्रम को श्रेणीबध्द रूप में निर्धारित करना भी खतरनाक है. बच्चों की सीखने की क्षमता पर उनके पारिवारिक और सामाजिक वातावरण का भी विशेष प्रभाव पड़ता है, अत: सभी क्षेत्रों में एक समान पाठ्यक्रम और एक जैसी पाठ्यपुस्तकें लागू करना बच्चों के साथ नाइन्साफी है.


 शैक्षिक उद्देश्य

स्कूली शिक्षा में सुधार के लिए हमें वर्तमान शैक्षिक उद्देश्यों को भी पुनरीक्षित करना होगा. शिक्षा, महज परीक्षा पास करने या नौकरी/रोजगार पाने का साधन नहीं है. शिक्षा विद्यार्थियों के व्यक्तित्व विकास, अन्तर्निहित क्षमताओं के विकास करने और स्वथ्य जीवन निर्माण के लिए भी जरूरी है. शिक्षा प्रत्येक बच्चे को श्रेष्ठ इंसान बनने की ओर प्रवृत्त करे, तभी वह सार्थक सिध्द हो सकती है. कहा भी गया है "सा विद्या या विमुक्तये". अभी पढ़े-लिखे और गैर पढ़े-लिखे व्यक्ति के आचरण और चरित्र में कोई खास अन्तर दिखाई नहीं देता. उल्टे पढ़-लिख लेने के बाद तो व्यक्ति श्रम से जी चुराने लगता है और अनेक प्रकार के दुराचरणों में लिप्त हो जाता है. यह स्थिति एक तरह से हमारी वर्तमान शैक्षिक पध्दति की असफलता सिध्द करती है. अतः यह जरूरी है कि शिक्षा के उद्देश्यों को सामयिक रूप से परिभाषित कर पुनरीक्षित किया जाए.


शिक्षकों को "शिक्षक" के रूप में अवसर मिले

समान कार्य के लिए समान कार्य परिस्थितियाँ और समान वेतन की अनुशंसा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में और मानव अधिकार घोषणा पत्र के अनुच्छेद 21, 22, और 23 में वर्णित होते हुए भी नाना नामधारी शिक्षक मौजूद हैं. एक ही विद्यालय में अनेक प्रकार के शिक्षकों के पदस्थ रहते सभी के मन में घोषित-अघोषित तनावों के कारण पढ़ाई में व्यवधान हो रहा है. इस परिस्थिति को गम्भीरता से समझे बगैर और परिस्थितियों में सुधार किए बगैर भला शिक्षण में सुधार कैसे होगा? शासन को सभी शिक्षण संस्थाओं में कार्यरत शिक्षकों के लिए एक समान कार्यनीति, समान पदनाम, समान वेतनमान देने की नीति तय कर एक निश्चित कार्यावधि के बाद पदोन्नति देने का भी ऐलान करना चाहिए.


श्रेष्ठतम शैक्षिक कार्यकर्ता

शैक्षिक परिवर्तन के लिए शिक्षकों का मनोबल बनाए रखने और उत्साहपूर्वक कार्य करने की इच्छाशक्ति पैदा करने के लिए संगठित प्रयास करने होंगे. अभी शिक्षा व्यवस्था में बालकों और पालकों की भागीदारी न्यूनतम है, इसलिए सभी शैक्षिक कार्यक्रम सफल नहीं हो पाते हैं. स्कूलों में भी जिस प्रकार समर्पित स्वयंसेवकों की आवश्यकता है, वे नहीं हैं. अत: यह आवश्यक है कि श्रेष्ठतम शैक्षिक कार्यकर्ताओं की नियुक्ति की जानी चाहिए.

शिक्षकों का मनोबल बढ़ाया जाए

समूची दुनिया के सभी विकसित और विकासशील देशों में प्राथमिक शालाओं के शिक्षकों को आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक और प्रशासनिक दृष्टि से श्रेष्ठ माना जाता है. साथ ही ऐसी शिक्षा नीति बनाई जाती है जिसमें उनका मनोबल सदैव ऊँचा बना रहे. जब तक अनुभव जन्य ज्ञान, और कौशलों को महत्व नहीं दिया जाएगा तब तक "बालकेन्द्रित शिक्षण" की प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकती है. बाल केन्द्रित शिक्षण के लिए कार्यरत शिक्षकों की दक्षता और मनोबल बढ़ाए जाने की आवश्यकता है.

 यह आवश्यक है कि शिक्षकों को उनके व्यक्तित्व विकास की प्रक्रियाओं सहित ऐसे प्रशिक्षण संस्थानों में भेजा जाए जहाँ उन्हें अपने अन्दर झाँकने कुछ बेहतर कर गुजरने की प्रेरणा मिल सके. इस प्रशिक्षण उपरान्त उन्हें कार्यरत स्थलों पर "ऑन द जॉब सपोर्ट" के रूप में ऐसे सहयोगी दिए जाएँ जो उनकी वास्तविक मदद करें. किसी ऐसी संस्था को इस दिशा में काम करने की जरूरत है जो सामाजिक बदलाव के लिए व्यापक दूरदृष्टि और दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ काम करने के लिए सहमत हो और उसके पास स्वयं के संसाधन भी उपलब्ध हों.

आज जरूरत इस बात की है कि किसी प्रकार पढ़ने-लिखने की प्रक्रिया में परिवर्तन लाने के लिए विद्यालय प्रशासन, शिक्षकों और शैक्षिक कार्यक्रमों में तालमेल बनाया जाए. समुदाय की शैक्षिक आवश्यकताओं को पहचान कर उनकी जरूरतों के अनुरूप निर्णय लेते हुए ऐसा वातावरण बनाने की आवश्यकता है जिसमें व्यवसायिक योग्यता में वृध्दि सुनिश्चित हो. शिक्षा के प्रशासन एवं प्रबन्धन में उत्तरदायी भूमिका निभाने वाले संस्था प्रधानों की नियुक्ति और प्रशिक्षण हेतु शिक्षा विभाग एवं शिक्षा के क्षेत्र में कार्य कर रहे अन्य संगठनों को शीघ्र कारगर कदम उठाना चाहिए. संस्था प्रधानों की भूमिका को सशक्त बनाए बगैर शिक्षा में सुधार की सम्भावनाएँ अत्यन्त क्षीण रहेंगी.

 प्रशासनिक एवं प्रबन्धकीय व्यवस्थागत सुधार

शिक्षा प्रशासन की यह नियति बन गई है कि इसमें उच्च शिक्षा स्तर पर भी स्थायित्व नहीं है. राष्ट्रीय स्तर पर लागू राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 और कार्ययोजना 1992 में स्वीकृत अखिल भारतीय शिक्षा सेवा की स्थापना आज तक नहीं हो पाई है. लगभग हर स्तर पर निर्णायक पदों पर नियुक्त प्रशासनिक सेवा के अधिकारी शिक्षा क्षेत्र में आ रही गिरावट और असफलता के लिए उत्तरदायी नहीं माने जाते. हाँ, किसी छोटी-सी सफलता का श्रेय अवश्य हासिल करते नजर आते हैं. शिक्षा में सुधार के लिए कार्यरत शिक्षकों को समर्थन देने की दृष्टि से यह अत्यंत आवश्यक है कि शिक्षा के प्रबन्धन और प्रशासन को सुधारा जाए. म.प्र. शासन द्वारा वर्ष 2003 में गठित "स्पेशल टास्क फोर्स" की अनुशंसाओं को लागू किए जाने की भी आज महती आवश्यकता है जो एक दस्तावेज में सिमट कर रह गई हैं. म.प्र. देशभर में सर्वप्रथम जन शिक्षा अधिनियम तैयार कर लागू करने वाले प्रदेश के रूप में है. क्रियान्वयन के स्तर पर जरूर अनेक कार्य अभी शेष हैं जिसमें प्रमुख कार्य सभी स्तरों पर कार्यरत शिक्षा केन्द्रों के संचालन हेतु मैनुअल (संचालन मार्गदर्शिकाओं) का सृजन और उन्हें लागू करना है, ताकि कार्यरत स्टाफ बेहतर प्रदर्शन कर सके. प्रदेश के सभी जनशिक्षा केन्द्रों को प्रबन्धन और प्रशासन के प्रति उत्तरदायी भूमिका सौंपते हुए जनशिक्षा केन्द्र प्रभारी को आहरण वितरण अधिकार दिए जाने चाहिए. यह अत्यंत आवश्यक है कि समग्रत: शिक्षा व्यवस्था को नियंत्रित किए जाने हेतु राज्य की शिक्षा नीति तैयार की जानी चाहिए. कार्यरत शिक्षकों की दक्षता का सम्मान और उनकी कार्यदक्षता का उपयोग किए जाने की दृष्टि से विभागीय दक्षता परीक्षा का आयोजन कर सभी को प्रन्नोत किया जाना चाहिए. अंतत: शैक्षिक सुधार के लिए अब हमें विचार करने की बजाय कर्तव्य की ओर बढना होगा।

आज शिक्षा के क्षेत्र में वास्तविक सुधार की दृष्टि से शीघ्र सार्थक कदम उठाते हुए हमें ऐसी शिक्षण पध्दति और कार्यक्रम विकसित करने होंगे जो बच्चों के मन में श्रम के प्रति निष्ठा पैदा करें समग्रत: एक ऐसा प्रभावी शैक्षिक कार्यक्रम बनाना होगा जिसमें-

पाठ्यक्रम लचीला और गतिविधि आधारित हो, साथ ही बच्चों की ग्रहण क्षमता के अनुरूप भी. कक्षागत पाठ्य योजनाएँ, स्वयं शिक्षकों द्वारा तैयार की जाएँ और उन्हें पूरा किया जाए. राज्य की शिक्षा नीति निर्धारण में शिक्षाविदों और कार्यरत शिक्षकों को वास्तव में सहभागी बना कर सभी के विचारों को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाए. जन भागीदारी समितियाँ (पालक शिक्षक संघ) प्रबन्धन का दायित्व स्वीकारें - शैक्षिक प्रशासन तंत्र भी शालाओं में अनावश्यक हस्तक्षेप न करें. शिक्षण का अधिकार शिक्षकों को वास्तव में सौंपा जाए. शिक्षण विधियों में परिवर्तन करने का अधिकार शिक्षकों को हो, प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं. कक्षाओं में शिक्षक-छात्र अनुपात ठीक किया जाए, साथ ही पर्याप्त मात्रा में शैक्षिक सामग्री की पूर्ति और शिक्षकों की भर्ती की जाए. पाठ्यपुस्तकों की रचना स्थापित रचनाकारों की बजाय शिक्षकों और शिक्षा विशेषज्ञों के माध्यम से की जानी चाहिए, जो शैक्षिक दृष्टि से उपयुक्त हो. शैक्षिक सुधारों को लागू करने में संस्था प्रधानों और शिक्षकों की भूमिका को महत्वपूर्ण माना जाए।शिक्षकों के सहयोग हेतु "राज्य शिक्षक सन्दर्भ और स्त्रोत केन्द्र" स्थापित किए जाएँ. विद्यालयों को शिक्षण के लिए उत्तरदायी बनाया जाए.



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Saturday, May 11, 2019

दिव्यांग व्यक्तियों के लिए शिक्षा

 दिव्यांग व्यक्तियों के लिए शिक्षा


दिव्यांग व्यक्तियों के लिए शिक्षा एक महतवपूर्ण संसाधन हैं
जिसके तहत दिव्यांग व्यक्तियों को शिक्षा के साथ साथ व्यावसायिक शिक्षा की भी व्यवस्था की जाती है।जिसके कुछ विंदू निम्न है।


1. सामाजिक तथा आर्थिक सशक्तीकरण के लिए शिक्षा सबसे प्रभावी माध्यम होता है। संविधान के अनुच्छेद 21ए के तहत, जहां शिक्षा को मौलिक अधिकार माना गया है और विकलांग अधिनियम 1995 के अनुच्छेद 26 में विकलांग बच्चों को 18 वर्षों की उम्र तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का प्रावधान किया गया है । जनगणना 2001 के मुताबिक, 51% विकलांग व्यक्ति निरक्षर हैं। यह एक बहुत बड़ी प्रतिशतता है। विकलांग लोगों को सामान्य शिक्षा प्रणाली की मुख्यधारा में लाने की जरूरत है।

2. सरकार द्वारा चलाया गया सर्व शिक्षा अभियान (SSA) का 8 वर्षों तक बच्चों के प्राथमिक स्कूलिंग प्रदान करने का लक्ष्य है, जिसमें 6 से 14 वर्ष के बच्चे भी शामिल हैं। विकलांग बच्चों के लिए समेकित शिक्षा के तहत 15 से 18 वर्षों तक की उम्र के विकलांग बच्चों को मुफ्त शिक्षा प्रदान की जाएगी।

3. सर्व शिक्षा अभियान के तहत शिक्षा विकल्पों का एक सातत्य, सीखने वाले यंत्र औजार, गत्यात्मकता सहायता, सहायक सेवाएं इत्यादि विकलांग छात्रों को उपलब्ध कराई जा रही हैं। इसमें शामिल है मुक्त शिक्षण प्रणाली, ओपन स्कूल, वैकल्पिक स्कूलिंग, दूर शिक्षा, विशेष स्कूल, जहां भी आवश्यक हो घर आधारित शिक्षा, भ्रमणकारी शिक्षक मॉडल, उपचार वाली शिक्षा, पार्ट टाइम कक्षाएं, समुदाय आधारित पुनर्वास व व्यावसायिक शिक्षा के जरिए शिक्षा प्रदान करने का कार्य।

4. राज्य सरकारों, स्वायत्त निकायों तथा स्वयंसेवी संगठनों के जरिए क्रियान्वित आईईडीसी योजना विशेष शिक्षकों, पुस्तक व लेखन सामग्रियों, यूनिफॉर्म, परिवहन, दृष्टि से कमजोर व्यक्तियों के लिए पाठक भत्ता, हॉस्टल भत्ता, उपकरण लागत, वास्तु अवरोधों को हटाता/सुधार करना, निर्देशात्मक सामग्रियों की खरीद/उत्पादन के लिए वित्तीय सहायता, सामान्य शिक्षकों के लिए प्रशिक्षण व संसाधन कमरों के लिए यंत्र-उपकरण जैसी सुविधाओं के लिए सौ फीसदी वित्तीय सहायता प्रदान करती है।

5. नियमित सर्वेक्षणों, उचित स्कूलों में उनकी उपस्थिति और शिक्षा पूरी करने तक उनकी निरंतरता के जरिए बच्चों में विकलांगता की पहचान हेतु सरकार की ओर से केंद्रित प्रयास किया जाएगा। सरकार विकलांग बच्चों को सही प्रकार की शिक्षण सामग्रियों तथा पुस्तक प्रदान करने, शिक्षकों व स्कूलों को सही रूप से प्रशिक्षण व सुग्राही बनाने के लिए प्रयास करेगी, जो पहुंच में आने योग्य तथा विकलांग हितैषी हो।

6. भारत सरकार ऐसे विकलांग छात्रों को छात्रवृत्ति प्रदान करती है ताकि स्कूल के बाद के स्तर पर पढ़ाई में उन्हें मदद मिल सके। सरकार यह छात्रवृत्ति जारी रखेगी व इसके कवरेज का विस्तार करेगी।

7. विभिन्न प्रकार की उत्पादक गतिविधियों के लिए उपयुक्त योग्यता निर्माण के लिए तकनीकी तथा व्यावसायिक शिक्षा सुविधा प्रदान की जाएगी। जिसके लिए मौजूदा संस्थान या कार्यरत या अछूते क्षेत्रों के अधिकृत संस्थानों का अनुकूलन किया जाएगा। गैर सरकारी संगठनों को भी व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।

8. विकलांग व्यक्तियों को उच्च शिक्षा व व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने के लिए विश्व विद्यालयों, तकनीकी संस्थानों तथा उच्च शिक्षा के अन्य संस्थानों में पहुंच प्रदान की जाएगी।


 विकलांग व्यक्तियों के लिए आर्थिक पुनर्वास

9. विकलांग व्यक्तियों के आर्थिक पुनर्वास में संगठित क्षेत्र में दिहाड़ी रोजगार तथा स्व-रोजगार भी शामिल है। सेवाओं को इस प्रकार बढ़ावा दिया जाए कि व्यावसायिक पुनर्वास केंद्र तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्रों को विकसित किया जा सके, ताकि ग्रामीण व शहरी दोनों क्षेत्रों के विकलांगों को उत्पादक तथा लाभकारी रोजगार मुहैया कराया जा सके। विकलांगों के आर्थिक सशक्तीकरण हेतु रणनीतियां निम्नानुसार होंगी:

(i) सरकारी महकमों में रोजगार

विकलाँग व्यक्ति अधिनियम, 1995 सरकारी महकमों तथा सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में 3% का आरक्षण का प्रावधान करता है। विभिन्न मंत्रालयों/विभागों में समूह ए, बी, सी तथा डी के लिए सरकार के आरक्षण की स्थिति क्रमशः 3.07%, 4.41%, 3.76% तथा 3.18% है। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में यह स्थिति क्रमशः 2.78%, 8.54%, 5.04% तथा 6.75% है। सरकार विकलाँग व्यक्ति अधिनियम, 1995 के प्रावधानों के अनुरूप चिह्नित पदों के लिए सरकारी क्षेत्र में (सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों समेत) आरक्षण सुनिश्चित करेगी। चिह्नित पदों की सूची को वर्ष 2001 में अधिसूचित किया गया है, जिसकी समीक्षा की जाएगी और अद्यतन किया जाएगा।

(ii) निजी क्षेत्र में दिहाड़ी रोजगार

निजी क्षेत्र में विकलाकों को रोजगार के लिए सक्षम बनाने के लिए उनकी योग्यता का विकास किया जाएगा। विकलांग व्यक्तियों के बीच उचित योग्यता के विकास हेतु संचालित व्यावसायिक पुनर्वास तथा प्रशिक्षण केंद्र को उनकी सेवाओं के विस्तार के लिए बढ़ावा दिया जाएगा। सेवा क्षेत्र में रोजगार अवसरों के तीव्र विकास को देखते हुए विकलांगता से ग्रस्त व्यक्तियों को बाजार की जरूरतों के मुताबिक योग्यता निर्माण के लिए बढ़ावा दिया जाएगा। इनसेंटिव, पुरस्कार, कर में छूट इत्यादि जैसे सक्रिय उपायों द्वारा निजी क्षेत्रों में विकलांग व्यक्तियों को रोजगार सृजन के लिए बढ़ावा दिया जाएगा।

(iii) स्व-रोजगार

संगठित क्षेत्र में विकलांग लोगों के रोजगार के अवसरों के विकास की धीमी दर को देखते हुए, स्व-रोजगार के अवसरों को बढ़ावा दिया जाएगा। ऐसा व्यावसायिक शिक्षा तथा प्रबंधन प्रशिक्षण के जरिए किया जाएगा। इसके अलावा एनएचएफडीसी से आसानी से ऋण मुहैय्या कराने की मौजूदा प्रणालियों से यह काफी पारदर्शक और दक्ष प्रक्रिया बन गई है। सरकार इंसेंटिव, कर से छूट, ड्यूटी से छूट, विकलांगों के लिए सेवा देने वाले तथा सामान बनाने वाले उपक्रमों को सरकार द्वारा बढ़ावा देकर, सरकार स्व-रोजगार को प्रोत्साहित करेगी। विकलांगों द्वारा बनाए स्वयं-सहायता समूह के लिए वित्तीय सहायता को प्राथमिकता दी जाएगी।


विकलांग महिलाएं

10. जनगणना -2001 के मुताबिक, देश में 93.01 लाख विकलांग महिलाएं हैं जो कुल विकलांग आबादी का 42.46% हिस्सा निर्मित करती हैं। विकलांग महिलाओं को शोषण व दुर्व्यवहार से बचाने की जरूरत है। विकलांग महिलाओं की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए शिक्षा, रोजगार तथा अन्य पुनर्वास सेवाओं के विकास के लिए विशेष कार्यक्रम चलाए जाएंगे। विशेष शिक्षा तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण सुविधाओं की स्थापना की जाएगी। परित्यक्त विकलांग महिलाओं/लड़कियों के पुनर्वास के लिए कार्यक्रम चलाए जाएंगे, जहां परिवारों द्वारा उन्हें स्वीकार करने, उनके निवास में मदद करने और लाभप्रद रोजगार योग्यताओं को हासिल कराने के प्रयास किए जाएंगे। सरकार उन परियोजनाओं को प्रोत्साहित करेगी जहां विकलांग महिलाओं के प्रतिनिधि को कम से कम कुल लाभ का 25% तक प्रदान किया जा सके।

11. विकलांग महिलाओं के लिए कम समय के लिए रहने के लिए घर, नौकरी-पेशा महिला के लिए हॉस्टल तथा बुजुर्ग विकलांग महिलाओं के लिए घर प्रदान करने के लिए कदम उठाए जाएंगे।

12. यह देखा गया है कि विकलांगता से ग्रस्त महिलाओं में उनके बच्चों की देखभाल की गंभीर समस्या होती है। सरकार ऐसी विकलांग महिलाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करेगी, ताकि वे अपने बच्चों के परवरिश के लिए आवश्यक सेवाओं को उपलब्ध करा सके। ऐसी सहायता अधिकतम दो सालों तक 2 बच्चों के लिए मुहैय्या कराई जाएगी।


विकलांग बच्चे

13. विकलांगता के शिकार बच्चे सबसे अधिक संवेदनशील समूह के होते हैं और उन्हें विशेष देखभाल की जरूरत होती है। इसके लिए सरकार निम्नांकित कदम उठाएगी:


  • विकलांग बच्चों की देखभाल, सुरक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करेगी;
  • गरिमा तथा समानता के लिए विकास के अधिकार को सुनिश्चित किया जाएगा, ताकि एक सक्षम वातावरण का निर्माण किया जाए जहां विक्लांग बच्चे अपने अधिकार की पूर्ति कर सके और विभिन्न कानूनों के अनुरूप समान अवसरों का लाभ उठाकर पूर्ण भागीदारी प्रदर्शित कर सके।
  • विकलांग बच्चों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यावसायिक प्रशिक्षण के साथ विशेष पुनर्वास सेवाओं को शामिल किया जाएगा।
  • गंभीर विकलांगता के शिकार बच्चों के लिए विकास के अधिकार तथा विशेष आवश्यकताओं व देखभाल, सुरक्षा को सुनिश्चित किया जाएगा।


 अवरोध मुक्त वातावरण

14. अवरोध-मुक्त वातावरण से विकलांग व्यक्ति सुरक्षित तथा आसानीपूर्वक चल-फिर सकते हैं। अवरोधमुक्त डिजाइन का उद्देश्य है कि विकलांग लोगों को ऐसा वातावरण प्रदान किया जाए जहां वे अपनी दैनिक गतिविधियों में बिना किसी सहायता के गमन कर सकें। इसलिए जितना अधिक संभव हो, सार्वजनिक भवनों, स्थानों, परिवहन प्रणालियों को अवरोध मुक्त रखा जाएगा।

विकलांगता प्रमाणपत्र जारी करना

15. भारत सरकार ने विकलांगता के मूल्यांकन व प्रमाणपत्र के लिए दिशा-निर्देश जारी किये हैं। इसके तहत सरकार सुनिश्चित करेगी कि विकलांग व्यक्ति कम से कम समय में बिना किसी परेशानी के विकलांगता प्रमाणपत्र प्राप्त कर सके, जिसके लिए सरल, पारदर्शक व ग्राहकोन्मुख प्रक्रियाओं को लागू किया जाएगा।

सामाजिक सुरक्षा

16. विकलांग व्यक्तियों, उनके परिवार तथा उनकी देखभाल करने वालों को पर्याप्त अतिरिक्त व्यय राशि दी जाएगी ताकि वे दैनिक कार्यों, मेडिकल देखभाल, परिवहन, सहायक उपकरणों को खरीद सकें। इसलिए उन्हें सामाजिक सुरक्षा देने की आवश्यकता है। केंद्र सरकार विकलांग व्यक्तियों व उनके अभिभावकों को करों में छूट दे रही है। राज्य सरकार/ केंद्र शासित प्रदेशों  को बेरोजगार भत्ता या विकलांगता पेंशन मुहैया कराया जा रहा है। राज्य सरकारों को विकलांगों के लिए एक व्यापक सामाजिक सुरक्षा नीति के विकास के लिए बढ़ावा दिया जाएगा।

17. ऑटिज्म, सेरीब्रल पाल्सी, मानसिक मंद तथा बहु-विकलांगता के शिकार बच्चों के माता-पिता अपनी मृत्यु के बाद ऐसे बच्चों की देखभाल को लेकर काफी असुरक्षित महसूस करते हैं। ऑटिज्म, सेरीब्रल पाल्सी, मानसिक मंद तथा बहु-विकलांगता के लिए राष्ट्रीय ट्रस्ट स्थानीय स्तर की समिति द्वारा कानूनी अभिभावकत्व प्रदान करता आ रहा है। वे सहायता प्राप्त अभिभावकत्व योजना का भी क्रियान्वयन कर रहे हैं, ताकि दरिद्र तथा परित्यक्त व्यक्ति जिनमें उपरोक्त गंभीर विकलांगता हो, उन्हें वित्तीय मदद की जा सके। यह योजना मौजूदा समय में कुछ जिलों में लागू की जा रही है, अब इसे योजनाबद्ध तरीके से अन्य क्षेत्रों में भी प्रसारित किया जाएगा।

गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) को प्रोत्साहन

18. राष्ट्रीय नीति गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) को एक काफी अहम संस्थानिक प्रणाली के रूप में मानती है, जो सरकार के प्रयासों को लागू करने का एक सस्ता माध्यम है।

एनजीओ सेक्टर गतिशील व उदयीमान क्षेत्र है। विकलांग व्यक्ति को सेवा देने के प्रावधान में इसने एक अहम भूमिका निभाई है। कुछ एनजीओ मानव संसाधन विकास तथा अनुसंसाधन कार्य संचालित कर रहे हैं। सरकार भी उन्हें सक्रिय रूप से नीति के सूत्रीकरण, योजना, क्रियान्वयन, निगरानी में शामिल किया है और विकलांगता से जुड़े कई मुद्दे पर उनसे परामर्श प्राप्त कर रही है। एनजीओ के साथ कार्य-व्यवहार को विकलांगता से जुड़े योजना, नीति सूत्रीकरण तथा क्रियान्वयन के क्षेत्र में बढ़ाया जाएगा। नेटवर्किंग, सूचनाओं के आदान-प्रदान तथा एनजीओ के बीच अच्छे कार्य पद्धतियों को साझा करने की प्रयास को प्रोत्साहित किया जाएगा। इसके लिए निम्न कार्यक्रम संचालित किए जाएंगे:

i.     विकलांगता के क्षेत्र में काम करने वाले एनजीओ का एक निर्देशिका तैयार किया जाएगा, जहां उनके प्रमुख कार्यों के साथ उनके कार्य क्षेत्र का भी उल्लेख किया जाएगा। केंद्र/राज्य सरकारों द्वारा समर्थित एनजीओ के लिए उनके संसाधन स्थिति, वित्तीय तथा मानव बल की भी सूचना दी जाएगी। विकलांग व्यक्तियों के संगठन, पारिवारिक संघों तथा उनके माता-पिता का समर्थन करने वाले समूह को भी इस निर्देशिका में शामिल किया जाएगा, जहां उनका अलग से उल्लेख किया जाएगा।
ii.     एनजीओ के कार्यों के विकास में क्षेत्रीय/राज्य असुंतलन मौजूद है। अनारक्षित तथा सुदूर इलाकों में इस दिशा में काम करने वाले एनजीओ को प्रोत्साहित किया जाएगा तथा उनका संदर्भ प्रस्तुत किया जाएगा। प्रतिष्ठित एनजीओ को भी ऐसे इलाकों में काम करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।
iii.     एनजीओ को न्यूनतम मानक, आचार संहिता तथा नैतिकता के विकास के लिए बढ़ावा दिया जाएगा।
iv.     एनजीओ को उनके कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण तथा जानकारी प्रदान करने के अवसर प्रदान किए जाएंगे। प्रबंधन क्षमता की प्रशिक्षण पहले से दी जा रही है, इसे और भी मजबूत बनाया जाएगा। पारदर्शिता, जिम्मेदारी, प्रक्रिया की सरलता इत्यादि एनजीओ-सरकार के सहयोग के दिशा-निर्देशक कारक होंगे।

v . एनजीओ को उनके संसाधन को विकास करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा ताकि सरकार से मिलने वाली वित्तीय सहायता पर उनकी निर्भरता कम की जा सके तथा इस क्षेत्र में फंड की उपलब्धता में भी सुधार किया जा सके। एक योजनाबद्ध तरीके से एनजीओ को मिलने वाली सहायता में कमी करना होगा ताकि उपलब्ध संसाधनों के भीतर मदद की जाने वाली एनजीओ की संख्या अधिकतम हो। इस दिशा में एनजीओ को संसाधन के एकत्रण के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा

विकलांग व्यक्तियों से जुड़ी जानकारी का नियमित संग्रह

19. विकलांग व्यक्तियों के सामाजिक दशा से जुड़े आंकड़ों का नियमित संग्रह, प्रकाशन तथा विश्लेषण की आवश्यकता है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन वर्ष 1981 से नियमित रूप से हर दस साल पर एक बार विकलांग व्यक्तियों की सामाजिक दशा से जुड़े आंकड़ों का नियमित संग्रह, प्रकाशन तथा विश्लेषण करता है। जनगणना-2001 से भी जनगणना में विकलांग व्यक्ति की सूचनाओं को एकत्र किया जाने लगा है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन को पांच साल में एक बार विकलांगता के शिकार व्यक्तियों की सूचनाएं एकत्र करनी होगी। दोनों एजेंसियों के आंकड़ों के बीच के अंतर को मिलाया जाएगा।

20. सामाजिक न्याय तथा अधिकारिता मंत्रालय के तहत विकलांग व्यक्तियों के लिए एक व्यापक वेबसाइट का निर्माण किया जाएगा। सार्वजनिक तथा निजी क्षेत्र के संगठनों को ऐसी वेबसाइट बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा, जिसे दृष्टि विकलांग व्यक्ति स्क्रीन रीडिंग तकनीक के जरिए पढ़ सकता है।



मानसिक रूप से मंद व्यक्तियों की माता पिता की एसोसिएशन के लिए योजना

उद्देश्य -

इस स्कीम का उद्देश्य मानसिक रुप से विकलांग व्याक्तियों के माता-पिता के संघों को ऋण मुहैया कराना है जिससे मानसिक रुप से विकलांग व्यक्तियों के लाभार्था आय सृजन के क्रियाकलाप  स्थापित किया जा सके। इस आय सृजन क्रियाकलाप की प्रकृति ऐसी होनी चाहिए जिसमे मानसिक रुप से विकलांग व्यक्ति प्रत्यक्ष रुप से इसमें शामिल होने चाहिए और आय ऐसे व्यक्तियों के बीच बराबर-बराबर बंटनी चाहिए। आय सृजन क्रियाकलाप का प्रबंधन माता-पिता संघ द्वारा किया जायेगा जो अपनी सेवाए स्वैच्छिक रुप से मुहैया कराएँगे।


 पात्रता-

क) ऐसे व्यक्तियों के माता-पिता के संघ कम से कम 3 वर्ष से पंजीकृत होने चाहिए।
ख) इसमे न्यूनतम 05 माता-पिताओं की सदस्यता होनी चाहिए ।
ग) कोई भी केंद्रीय सरकार, राज्य सरकार, निजी उपक्रम के किसी अन्य वित्तीय संस्थान, बैंको आदि का वित्तीय बकायादार नहीं होना चाहिए।

छूट-

1% की छूट सहायक पर विकलांग महिला के लिए ब्याज.

ऋण की प्रमात्रा -

प्रत्येक गैर-सरकारी संगठन के लिए ऋण प्रमात्रा 5-00 लाख रुपये तक सीमित है। गैर-सरकारी संगठन का शेयर परियोजना लागत का 5 % होगा। गैर-सरकारी संगठन ऋण का उपयोग एकल अथवा बहुल क्रियाकलाप परियोजना के क्रियान्वयन में लगायेगी तथा जिसमें लाभभोगियों की अधिकतम सम्भव भागीदारी सुनिश्चित की जाएगी।

ब्याज दर -

ऋण धनराशि पर ब्याज निम्नलिखित अनुसार लिया जाएगा -
क) 50,000/-रुपये तक - 5 प्रतिशत प्रति वर्ष।
ख) 50,000/-रुपये से अधिक किन्तु 5-00 लाख से कम - 6 प्रतिशत प्रति वर्ष।


अदायगी अवधि -

ब्याज सहित ऋण 10 वर्ष के भीतर बराबर तिमाही किश्तों में अदा की जाएगी।.

ऋण प्राप्त करने की प्रक्रिया -

स्कीम के अन्तर्गत गैर-सरकारी संगठन द्वारा ऋण आवेदन सीधे राष्ट्रीय विकलांग वित्त एवं विकास निगम को प्रस्तुत करना होगा। तथापि, गैर-सरकारी संगठन को अपनी प्रबंधन समिति/न्यास बोर्ड द्वारा इस संबंध में एक संकल्प पारित करवाना होगा। इसका प्रमाण आवेदन सहित भेजना अनिवार्य होगा।



छावनी परिषद में दिव्यांग बच्चों के लिए शुरू हुआ स्कूल ‘उड़ान


सोमवार को छावनी परिषद में विशेष बच्चों के लिए शुरू हुए स्कूल का उद्घाटन करते मेजर जनरल एसके सिंह और अन्य अतिथिगण।  इलाहाबाद में श्रवण बधिर, मानसिक रूप से मंद जैसी विभिन्न कटेगरी के दिव्यांग बच्चों को अब नई दिशा मिल सकेगी। छावनी परिषद ने ऐसे बच्चों के लिए एक नया स्कूल ‘उड़ान’ शुरू किया है। यहां बच्चों को स्पीच थेरेपी, फिजियोथेरेपी, ऑक्यूपेशनल थेरेपी काउंसलिंग, मनोचिकित्सकीय जांच मेडिकल सुविधा, स्पोर्ट्स समेत वोकेशनल ट्रेनिंग बहुत ही मामूली शुल्क में दी जाएगी। सोमवार को स्कूल का उद्घाटन मुख्य अतिथि जीओसी पूर्व यूपी एंड एमपी सब एरिया के मेजर जनरल एसके सिंह एवं आवा की अध्यक्ष बाला सिंह ने संयुक्त रूप से किया। मेजर जनरल ने कहा कि ऐसे बच्चों की क्षमताओं को विकसित करने के लिए बड़े ही धैर्य की जरूरत है। अध्यक्ष बाला सिंह ने बच्चों को गिफ्ट बांटे।



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Thursday, May 9, 2019

व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम [VTP]

व्यावसायिक प्रशिक्षण


 Vocational training programs

व्यावसायिक प्रशिक्षण का उपयोग एक निश्चित व्यापार या शिल्प की तैयारी के लिए किया जाता है। दशकों पहले, यह केवल ऐसे क्षेत्रों को संदर्भित करता था जो वेल्डिंग और ऑटोमोटिव सेवा हैं, लेकिन आज यह हाथ के व्यापार से लेकर खुदरा तक पर्यटन प्रबंधन तक हो सकते हैं। व्यावसायिक प्रशिक्षण केवल शिक्षा के प्रकार में एक व्यक्ति को आगे बढ़ाने के लिए पारंपरिक शिक्षाविदों को आगे बढ़ाने के लिए शिक्षा है।

व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम छात्रों को विशिष्ट करियर के लिए तैयार होने की अनुमति देते हैं। कुछ उच्च विद्यालय व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान करते हैं; उत्तर-पूर्व स्तर पर, भावी छात्र स्टैंडअलोन पाठ्यक्रम, प्रमाणपत्र / डिप्लोमा-अनुदान कार्यक्रम, सहयोगी की डिग्री कार्यक्रम और प्रशिक्षुता पर विचार कर सकते हैं।

व्यावसायिक प्रशिक्षण अवलोकन
व्यावसायिक प्रशिक्षण, जिसे व्यावसायिक शिक्षा और प्रशिक्षण (वीईटी) और कैरियर और तकनीकी शिक्षा (सीटीई)) के रूप में भी जाना जाता है, ट्रेडों में काम के लिए नौकरी-विशिष्ट तकनीकी प्रशिक्षण प्रदान करता है। ये कार्यक्रम आम तौर पर छात्रों को हाथों से निर्देश प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, और प्रमाणन, डिप्लोमा या प्रमाणपत्र के लिए नेतृत्व कर सकते हैं। छात्र नौकरियों के लिए तैयारी कर सकते हैं जैसे:


  • अपने आप ठीक होना
  • पाइपलाइन
  • खुदरा

व्यावसायिक प्रशिक्षण भी आवेदकों को नौकरी की तलाश में एक बढ़त दे सकता है, क्योंकि उनके पास पहले से ही प्रमाणित ज्ञान है जो उन्हें क्षेत्र में प्रवेश करने की आवश्यकता है। एक छात्र व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त कर सकता है या तो हाई स्कूल, एक सामुदायिक कॉलेज या वयस्कों के लिए व्यापार स्कूलों में।




व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम / पाठ्यक्रम सूची

  • वोकेशन ट्रेनिंग ( MEANING ) क्या है
  • वोकेशनल स्टडी क्या है
  • व्यावसायिक कौशल
  • एक व्यावसायिक कार्यक्रम क्या है
  • वोकेशनल स्कूल क्या है?


व्यावसायिक पाठ्यक्रम जो अच्छी तरह से भुगतान करते हैं
व्यावसायिक प्रशिक्षण को कैरियर और तकनीकी शिक्षा (CTE) या तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा और प्रशिक्षण (TVET) के रूप में भी जाना जाता है।

शिक्षा हमें ज्ञान प्राप्त करने और सुविधा प्रदान करने में मदद करती है: ज्ञान, कौशल, मूल्य, विश्वास और आदतें एक शिक्षक की मदद से या उसके बिना।

शिक्षा को अक्सर सफलता के लिए एक शर्त के रूप में देखा जाता है।

लेकिन, स्कूल और शिक्षण संस्थान हमेशा एक व्यक्ति की शिक्षा को समायोजित करने के लिए एक सेतु होते हैं।

हालाँकि, शिक्षार्थी उन्हें ऑटोडिडेक्टिक लर्निंग नामक प्रक्रिया में स्वयं को शिक्षित कर सकते हैं।


शिक्षा किसी के जीवन में एक महत्वपूर्ण लाभ उठाती है, यह सामान्य रूप से महानता का द्वार है, यह आपको ज्ञान और जागरूकता प्राप्त करने का आश्वासन देता है जिसमें आप धन और विश्वसनीयता अर्जित करने के लिए उपयोग कर सकते हैं।


वोकेशनल ट्रेनिंग क्या है

व्यावसायिक प्रशिक्षण क्या है?

व्यावसायिक प्रशिक्षण को एक प्रशिक्षण के रूप में वर्णित किया जा सकता है जो एक विशिष्ट व्यापार, शिल्प या नौकरी समारोह के लिए आवश्यक ज्ञान और कौशल पर जोर देता है।

इससे पहले, यह प्रशिक्षण कुछ ट्रेडों जैसे वेल्डिंग, ऑटोमोटिव सेवाओं और बढ़ईगीरी तक ही सीमित था लेकिन व्यावसायिक प्रशिक्षण का क्षितिज समय के विकास के साथ विस्तारित हुआ है।

आज, खुदरा प्रशिक्षण, पर्यटन प्रबंधन, पैरालीगल प्रशिक्षण, संपत्ति प्रबंधन, खाद्य और पेय प्रबंधन, कंप्यूटर नेटवर्क प्रबंधन और पुष्प डिजाइन जैसे नौकरी कार्यों की एक विस्तृत श्रृंखला भी इस श्रेणी के तहत शामिल की जा रही है।


सिद्धांत और व्यावहारिक अनुप्रयोग के बीच जोड़ने वाली कड़ी


व्यावसायिक प्रशिक्षण जिसे व्यावसायिक शिक्षा और प्रशिक्षण (वीईटी) के रूप में भी जाना जाता है, मूल रूप से सीखे गए या हासिल किए गए कौशल के व्यावहारिक अनुप्रयोगों पर केंद्रित है और यह एक विशिष्ट व्यापार में बहुत आवश्यक हाथों पर शिक्षा प्रदान करता है।

छात्र अधिकांश पोस्ट-माध्यमिक कार्यक्रमों से जुड़े सामान्य शिक्षा पाठ्यक्रमों में भाग लेने से बच सकते हैं और इसीलिए यह कहा जा सकता है कि वीईटी मूल रूप से सिद्धांत या पारंपरिक शैक्षणिक कौशल के साथ असंबद्ध है।

यह सैद्धांतिक शिक्षा और वास्तविक काम के माहौल के बीच एक जोड़ने की कड़ी के रूप में काम करता है और, छात्र स्कूल स्तर या बाद के माध्यमिक स्तर पर भी इस प्रकार के कार्यक्रमों में शामिल हो सकते हैं।

व्यावसायिक प्रशिक्षण और व्यापार संस्थान प्रमुखता से विकसित होते रहे हैं, इससे हमारे वर्तमान तेज-तर्रार समाज में समस्याओं को हल करने के लिए अधिक नवीन और उच्च कुशल श्रमिकों का कारण बनता है।

व्यावसायिक प्रशिक्षण एक तरह का सीखने का अनुभव है जो विभिन्न स्तरों पर शिल्प, व्यापार और करियर के क्षेत्रों में विशेषज्ञता रखता है। यह प्रशिक्षुता सीखने से भी संबंधित है।


व्यावसायिक प्रशिक्षण को समझना

वीईटी को कैरियर और तकनीकी शिक्षा (सीटीई) नाम से भी जाना जाता है और यह उम्मीदवारों को नौकरी की तलाश में एक स्पष्ट बढ़त प्रदान करता है क्योंकि उनके पास विशिष्ट क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए ज्ञान और व्यावहारिक अनुभव होता है।

प्रशिक्षण हाई स्कूल स्तर पर शुरू होता है और छात्र व्यावसायिक स्कूलों से अपने सहयोगी की डिग्री कार्यक्रम भी पूरा कर सकते हैं।

ये पाठ्यक्रम उन्हें अत्यधिक पुरस्कृत, कुशल नौकरियों को लेने के लिए बेहतर तैयार करते हैं।

चूंकि एक स्वतंत्र संगठन प्रमाणित करता है कि छात्रों के पास एक विशिष्ट व्यवसाय करने के लिए आवश्यक कौशल हैं, इसलिए इस प्रकार के कार्यक्रमों की विश्वसनीयता को चुनौती नहीं दी जा सकती है।



व्यावसायिक प्रशिक्षण के प्रकार (व्यापार कौशल)
निर्माण क्षेत्र:


  • वास्तुकला ग्लास और धातु तकनीशियन
  • ईंट और पत्थर मेसन
  • सीमेंट (कंक्रीट) फिनिशर
  • सीमेंट मेसन
  • कंक्रीट पंप ऑपरेटर
  • निर्माण Boilermaker
  • निर्माण शिल्प कार्यकर्ता
  • निर्माण मिलराइट
  • ड्राईवाल, ध्वनिक और लाथिंग ऐप्लिकेटर
  • ड्राईवाल फिनिशर और प्लास्टरर
  • इलेक्ट्रीशियन - निर्माण और रखरखाव *
  • इलेक्ट्रीशियन - घरेलू और ग्रामीण *
  • बाहरी अछूता खत्म सिस्टम मैकेनिक
  • फर्श कवरिंग इंस्टॉलर
  • सामान्य बढ़ई
  • खतरनाक सामग्री कार्यकर्ता
  • हीट और फ्रॉस्ट इंसुलेटर
  • भारी उपकरण ऑपरेटर - डोजर
  • भारी उपकरण ऑपरेटर - खुदाई
  • भारी उपकरण ऑपरेटर - ट्रैक्टर लोडर बेकहो
  • उत्थापन अभियंता - मोबाइल क्रेन ऑपरेटर 1 *
  • उत्थापन अभियंता - मोबाइल क्रेन ऑपरेटर 2 *
  • होज़िंग इंजीनियर - टॉवर क्रेन ऑपरेटर *
  • आयरनवर्क - जनरलिस्ट
  • आयरनवर्क - संरचनात्मक और सजावटी
  • मूल निवासी निर्माण श्रमिक
  • पेंटर और डेकोरेटर - वाणिज्यिक और आवासीय
  • पेंटर और डेकोरेटर - औद्योगिक
  • प्लम्बर *
  • पावरलाइन तकनीशियन
  • प्रीकास्ट कंक्रीट इरेक्टर
  • प्रीकास्ट कंक्रीट फिनिशर
  • आग रोक मेसन
  • प्रशीतन और एयर कंडीशनिंग सिस्टम मैकेनिक *
  • रॉडवर्कर को फिर से लागू करना
  • आवासीय एयर कंडीशनिंग सिस्टम मैकेनिक *
  • आवासीय (कम वृद्धि) शीट मेटल इंस्टॉलर
  • बहाली मेसन
  • Roofer
  • शीट मेटल कर्मचारी *
  • स्प्रिंकलर और फायर प्रोटेक्शन इंस्टॉलर
  • स्टीमफिटर *
  • Terrazzo, टाइल और संगमरमर सेटर


 विभिन्न प्रकार के व्यावसायिक स्कूल और प्रशिक्षण कार्यक्रम
व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों को विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है और इनमें प्रमाणपत्र, डिप्लोमा कार्यक्रम और सहयोगी डिग्री कार्यक्रम भी शामिल हैं।

हाई स्कूल सीटीई कार्यक्रमों में सामान्य रूप से शैक्षणिक अध्ययन के साथ-साथ पाठ्यक्रमों और कार्य अनुभव कार्यक्रमों की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल होती है, जो छात्रों को विभिन्न ट्रेडों से परिचित कराने के लिए डिज़ाइन की जाती हैं। हाई स्कूल के साथ-साथ अलग-अलग व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र इस प्रकार के पाठ्यक्रम प्रदान करते हैं और छात्रों के लिए अंशकालिक पाठ्यक्रम भी हैं।

सामुदायिक कॉलेज, तकनीकी स्कूल और कैरियर कॉलेज भी विभिन्न छात्रों की बदलती आवश्यकताओं के अनुरूप VET पाठ्यक्रमों की एक विस्तृत श्रृंखला की पेशकश करते हैं और इस प्रकार के पाठ्यक्रम हाथों पर प्रशिक्षण को अत्यधिक महत्व देते हैं क्योंकि अधिकांश छात्र जो इस प्रकार के कार्यक्रमों में भाग लेते हैं, उनके पास हाई स्कूल डिप्लोमा या GEDs।

छात्रों को इंटरनेट आधारित व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों की एक विस्तृत श्रृंखला मिल सकती है।

 एक कार्यक्रम के रूप में, यह किसी दिए गए राज्य के भीतर सभी क्षेत्रों में विकास लाने में बहुत मदद करता है।

यह एक महान कार्यक्रम है जो समाज को आगे बढ़ने के लिए और युवा लोगों के कौशल को आकार देने के लिए अत्यधिक प्रभावित कर सकता है जो प्रतिस्पर्धी बाजार में शामिल होने और एक सार्थक भविष्य बनाने की आशा कर रहे हैं।

व्यावसायिक स्कूल, जिसे कभी-कभी ट्रेड स्कूल, तकनीकी स्कूल, व्यावसायिक कॉलेज या कैरियर केंद्र कहा जाता है, एक प्रकार का स्कूल / कॉलेज है जो मुख्य रूप से शैक्षिक कार्यक्रम प्रदान करता है जो आपको नौकरी-बाजार में आवश्यक विशिष्ट पेशे देने के लिए निर्धारित होते हैं।


इन स्कूलों को अकादमिक डिग्री प्रदान करने के बजाय माध्यमिक, उत्तर-माध्यमिक और कुशल ट्रेडों को प्रदान करने के लिए डिज़ाइन किया गया था।

कुछ स्कूलों में पूर्ण डिग्री कार्यक्रम होते हैं और कुछ ने व्यावसायिक स्कूलों के रूप में भी शुरुआत की और समय के साथ वे कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी और कार्नेगी मेलन यूनिवर्सिटी जैसे अकादमिक कार्यक्रमों की पेशकश करते गए।


व्यावसायिक स्कूलों में पेश किए जाने वाले कार्यक्रमों के लिए शिक्षा की आवश्यकताएं कम हैं, जिसका अर्थ है कि व्यावसायिक स्कूल में प्रवेश आमतौर पर विश्वविद्यालय की तुलना में आसान होता है।


विभिन्न ट्रेडों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम

विभिन्न क्षेत्रों में व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम पेश किए जाते हैं जिनमें कुशल ट्रेड, हेल्थकेयर, कॉस्मेटोलॉजी, कंप्यूटर नेटवर्किंग, रचनात्मक क्षेत्र और भोजन तैयार करना शामिल है।

छात्र ऑटो मैकेनिक, प्लंबर, हीटिंग और एयर कंडीशनिंग ( HVAC ) तकनीशियन, इलेक्ट्रीशियन, बुककीपर, कारपेंटर, डेकेयर मैनेजमेंट स्पेशलिस्ट, कुक, डेंटल असिस्टेंट, फ्लोरल डिज़ाइनर, होम इंस्पेक्टर, इंटीरियर डिज़ाइनर, लॉकस्मिथ बनने के लिए इस प्रकार के कार्यक्रमों में भाग ले सकते हैं। चिकित्सा सहायक, मेडिकल ट्रांसक्रिप्शनिस्ट, पैरालीगल तकनीशियन, फार्मेसी तकनीशियन, फार्मासिस्ट, फोटोग्राफर, निजी अन्वेषक, संपत्ति प्रबंधन विशेषज्ञ, रियल एस्टेट मूल्यांकक, पशु चिकित्सा तकनीशियन, ट्रैवल एजेंट, कंप्यूटर नेटवर्क प्रबंधन विशेषज्ञ, खाद्य और पेय प्रबंधन विशेषज्ञ, कॉस्मेटोलॉजी तकनीशियन और कई अन्य।


जॉब साक्षात्कार और लागत प्रभावशीलता में बेहतर प्रदर्शन
आज, जीवन बहुत तेजी से पुस्तक बन गया है और युवा लोग इस कठिन प्रतिस्पर्धात्मक दुनिया में एक अच्छी नौकरी खोजने के लिए वास्तव में कठिन हो रहे हैं।

यह वही है जहाँ व्यावसायिक प्रशिक्षण का महत्व है।

वीईटी या सीटीई कार्यक्रम व्यावहारिक कौशल प्रदान करते हैं जो छात्र नौकरी में उपयोग करने के लिए रख सकते हैं और विभिन्न अध्ययनों से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि जिन छात्रों ने वीईटी कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक पूरा किया है, वे सामान्य शैक्षणिक पृष्ठभूमि वाले छात्रों की तुलना में नौकरी के साक्षात्कार में बेहतर प्रदर्शन करते हैं।

इस प्रकार के कार्यक्रम पारंपरिक शैक्षणिक शैक्षिक कार्यक्रमों की तुलना में कम खर्चीले होते हैं और वे हाथों से प्रशिक्षण सीखने की शैली को बढ़ावा देकर पारंपरिक शिक्षण से जुड़ी निष्क्रिय गतिविधियों के नुकसान को खत्म करते हैं।




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Tuesday, May 7, 2019

सतत पुनर्वास शिक्षा कार्यक्रम [CRE]

Continuing  Rehabilitation Education Program


 सतत पुनर्वास शिक्षा कार्यक्रम


सतत पुनर्वास शिक्षा कार्यक्रम भारतीय पुनर्वास परिषद नई दिल्ली द्वारा एक 3-5 दिनों के लिए चलाया जाने वाला कार्यक्रम है जिसके अंतर्गत समस्थ विशेष शिक्षा प्रशिक्षित शिक्षक भाग ले सकते हैं इसका उद्देश्य समस्त विशेष शिक्षकों को नई शिक्षा से जोड़ना है। इस कार्यक्रम को संचालित करने के लिए विशेष शिक्षा से संबंधित विशेष अधिकारियों को आमंत्रित किया जाता है। इस कार्यक्रम के पूरा होने के उपरान्त विशेष शिक्षकों को कुछ अंक दिए जाते है। और CRE प्रमाण पत्र दिया जाता है।

सतत शिक्षा कार्यक्रम' को साक्षरता अभियान के तीसरे चरण के रूप में बुनियादी साक्षरता और प्राथमिक शिक्षा प्राप्‍‍त कर चुके सभी व्‍यक्‍त‌ियों को आजीवन शिक्षा के लिए अवसर प्रदान करने के माध्यम के रूप में चलाया जाता है। सामान्यत: ' सतत शिक्षा कार्यक्रमों को उन सभी नवसाक्षरों, जिन्‍होंने संपूर्ण साक्षरता अभियान अथवा उत्तर साक्षरता कार्यक्रम के अंतर्गत कार्यात्‍मक साक्षरता/उत्तर साक्षरता पूरी कर ली हो, को केंद्रित किया जाता है। नवसाक्षरों के अतिरिक्‍त यह कार्यक्रम उन सभी व्‍‍यक्‍त‌ियों के लिए भी है, जिन्होंने अनेक कारणों से शिक्षा पूरी नहीं की तथा कुछ कक्षाओं में पढ़कर बीच में ही शिक्षा छोड़ दी। यह कार्यक्रम समुदाय के उन सभी व्‍यक्‍त‌ियों की जरूरतें भी पूरी करता है, जो आजीवन शिक्षा में रुचि रखते हों। सतत शिक्षा कार्यक्रम के अंतर्गत क्षेत्र में छूट गए निरक्षरों को साक्षर बनाने की प्रक्रिया पर निरंतर बल दिया जाता है। निरक्षरों को साक्षर बनाने की प्रक्रिया तब तक चलती रहेगी जब तक क्षेत्र विशेष में सभी सामान्य निरक्षर व्यक्‍ति, विशेष रूप से पंद्रह से पैंतीस वर्ष तक की आयु वर्ग के, साक्षर न हो जाएँ।



 सतत पुनर्वास शिक्षा का उद्देश्य निम्न प्रकार से है

1. बुनियादी साक्षरता और प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर चुके सभी व्यक्तियों को आजीवन शिक्षा के लिए अवसर प्रदान करना।

 2. सतत शिक्षा कार्यक्रम के अंतर्गत क्षेत्र में छूट गए निरक्षरों को साक्षर बनाने की प्रक्रिया पर निरंतर बल देता है।

3. नया ज्ञान का अर्जन जैसे विशेष शिक्षा में क्या - क्या चेंजेज किए गए हैं।

4. शिक्षा में नया ज्ञान और विशेष चेजो की जानकारी के लिए।

5. विशेष शिक्षा में किए गए नया पाठयक्रमों की जानकारी के लिए।

6. समय - समय पर  शिक्षा में किए गए नई परिवर्तनों से जोड़ना।

7. वर्तमान शिक्षा की नई तकनीकियों से जोड़ना।

8. नई शिक्षा में किए गए संशोधनों से अवगत कराना आदि।





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Sunday, May 5, 2019

आकलन और मूल्यांकन [Assessment and Evaluation]

आकलन और मूल्यांकन

[Assessment and Evaluation]

आकलन और मूल्यांकन दोनों का उद्देश्य बच्चों की अभिव्यक्ति, क्षमता, अनुभूति, आदि का मापन करना है। आकलन एक संक्षिप्त प्रक्रिया है और मूल्यांकन एक व्यापक प्रक्रिया है। मूल्यांकन किसी भी शैक्षिक कार्यक्रम में किसी भी पक्ष के विपक्ष में विषय में सूचना एकत्र करना उसका विया करना श्लेषण करना और व्याख्या करना है।

सीसी रोस के अनुसार :- मूल्यांकन का प्रयोग बच्चे के संपूर्ण व्यक्तित्व तथा किसी की समूची स्थितियों की जांच प्रक्रिया के लिए किया जाता है। “

कवालेंन तथा हन्ना के अनुसार :- विद्यालय में हुए छात्र  के व्यवहार परिवर्तन के संबंध में प्रदत्त के संकलन तथा उनकी व्याख्या करने की प्रक्रिया को मूल्यांकन कहते हैं। “

एडम्स के अनुसार :- मूल्यांकन करना किसी वस्तु या प्रक्रिया के महत्व को निर्धारित करता है।

J W Raiston के अनुसार :-  मूल्यांकन में शिक्षा कार्यों में बल दिया जाता है और व्यापक व्यक्तित्व से संबंधित परिवर्तनों पर भी विशेष रुप से ध्यान दिया जाता है।

डांडेकर के अनुसार :- मूल्यांकन हमें बताता है कि बालक ने किस सीमा तक किन उद्देश्यों को प्राप्त किया है।”

मूल्यांकन :- छात्र व्यवहार का परिमाणात्मक अध्ययन मापन + मूल्य निर्धारण।

मूल्यांकन :- छात्र व्यवहार का गुणात्मक अध्ययन + मूल्य निर्धारण।

मूल्य निर्धारण में छात्र को बताया जाता है कि उसके अंको के आधार पर सभी छात्रों के मध्य उसका रैंक (Rank) कहां पर है।  अतः मूल्यांकन के अंतर्गत छात्र व्यवहार का परिमाणात्मक तथा गुणात्मक व्यवहार का अध्ययन एवं उसके मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया मूल्यांकन कहलाती है।


मूल्यांकन के उद्देश्य (Objectives of Evaluation)

  1. बच्चों में अपेक्षित व्यवहार एवं आचरण परिवर्तन की जांच करना।
  2. यह जांचना कि बच्चों ने कुशलताओं, योग्यता, आदि को कितना ग्रहण किया है।
  3. बालकों की सभी कठिनाइयों का निर्धारण करने तथा दोषो को जानना।
  4. उपचारात्मक शिक्षण प्रदान करना।
  5. बालकों की चहुमुखी विकास को निरंतर गति प्रदान करना।
  6. इससे अध्ययन और अध्यापन दोनों का मापन कर सकते हैं।
  7. मूल्यांकन द्वारा प्रयोजन, शिक्षण विधियों की उपयोगिता एवं विद्यालय की समस्त क्रियाओं का अंकन करना।


मूल्यांकन का महत्व (Importance of Evaluation)


  • छात्रों को अध्ययन की ओर अग्रसित करता है।
  • छात्रों के व्यक्तिगत मार्गदर्शन में सहायता करता है।
  • शिक्षण के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक है।
  • बच्चों की कमजोरियों को जानने में सहायक होता है।
  • बच्चों की प्रगति में सहायक है।
  • शैक्षिक व व्यवसायिक मार्गदर्शन में सहायक है।



 मूल्यांकन प्रक्रिया या मूल्यांकन के पद (Steps of Evaluation Process)
  • मूल्यांकन के उद्देश्यों का चयन व निर्धारण।

  • उद्देश्यों का निर्धारण विश्लेषण (व्यवहारगत परिवर्तन के संदर्भ में) ।
  •  मूल्यांकन प्रविधियों का चयन करना।
  • मूल्यांकन प्रविधियों का प्रयोग एवं परिणाम निकालना।
  • परिणामो की व्याख्या सामान्यकरण करना।

मूल्यांकन की प्रकृति (Nature of Evaluation)


  • मूल्यांकन एक सतत प्रक्रिया है मूल्यांकन शिक्षण प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है।
  • इसका सीधा संबंध शिक्षा के उद्देश्य से होता है।
  • यह बालकों के परिणामों की गुणवत्ता मूल्य और प्रभाव प्रभाव एकता के आधार पर उनके भावी कार्यक्रमों का निर्धारण करता है।
  • मूल्यांकन का प्रमुख प्रयोजन व्यवहारगत परिवर्तन की दिशा प्रकृति एवं स्तर के संबंध में निर्णय करना है यह शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति की सीमा का निर्धारण करने वाली प्रक्रिया है।



सतत एवं व्यापक मूल्यांकन (Continuous and Comprehensive Evaluation)


बच्चों के अधिगम का जब हम लगातार व्यापक रुप से मूल्यांकन करते हैं तो उसे सतत एवं व्यापक मूल्यांकन कहते हैं। इस मूल्यांकन में हम प्रश्नों को गहराई से पूछते हैं।

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (NCERT) के अनुसार –

सतत एवं व्यापक मूल्यांकन में यह तथ्य सम्मिलित होने चाहिए :-

निर्धारित शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति किस सीमा तक हो रही है।
कक्षा में प्रदान किए गए अधिगम अनुभव कितने प्रभावशाली रहे हैं।

व्यवहार परिवर्तन की प्रक्रिया कितने अच्छे ढंग से पूर्ण हो रही है।

 हम किसी भी बच्चे का शैक्षणिक मूल्यांकन प्रश्न पत्र द्वारा कर सकते हैं।

जब हम प्रश्नपत्र प्यार करते हैं तो उसमें हम प्रश्नों को आधार बनाते हैं।


प्रश्नों के प्रकार (Types of Questions)
  • मुक्त अंत / मुक्त उत्तरीय प्रश्न
  • बंद अंत / सीमित उत्तर वाले प्रश्न

मुक्त अंत (Open Ended) :-  मुक्त अंत प्रश्नों में हमें अपने विचार प्रस्तुत करने की स्वतंत्रता होती है। हम अपने विचारों को अपने तरीकों से प्रस्तुत कर सकते हैं। उदाहरणार्थ – लघु उत्तरआत्मक प्रश्न, निबंधात्मक प्रश्न।

बंद – अंत (Close Ended) :- बंद अंत प्रश्नों में हमें अपने विचारों को प्रस्तुत करने की स्वतंत्रता नहीं होती। हमें प्रश्न के विकल्प में से एक को छांटना होता है।


बंद अंत प्रश्नों के प्रकार (Types of Close Ended Questions)
  • बहु विकल्प प्रश्न – कई विकल्प में से एक को चुनना।
  • सत्य = असत्य  –  हां और ना में उत्तर देना।
  • मिलान – सही विकल्प का मिलान करना।
  • खाली स्थान – खाली जगह के स्थान पर सही विकल्प।
  • वर्गीकृत प्रश्न – पांच छह शब्दों के एक समूह में से अलग शब्द निकालना।
  • व्यवस्थितकरण प्रश्न – शब्दों को व्यवस्थित रुप से लगाना।


मूल्यांकन के गुण (Characteristics of Evaluation) :-

वैधता (Validity) :- जिस उद्देश्य का मूल्यांकन करना हो उस उद्देश्य का मूल्यांकन हो जाता है तो उन साधनों, उपकरणों को वैध का जाता है।

विश्वसनीयता (Reliablity) :- विश्वसनीयता का अर्थ है विश्वास के पात्र अर्थात जब अंको का बदलाव न हो दोबारा से चेक करने पर भी अंक समान रहे वस्तुनिष्ट प्रश्न विश्वसनीय होते हैं।  निबंधात्मक प्रश्न विश्वसनीय नहीं होते।

वस्तुनिष्ठता Objectivity) :- मूल्यांकन पक्षपात रहित होता है। उत्तर के लिखित आधार पर ही मूल्यांकन होता है ना की परीक्षा की दृष्टि के आधार पर होता है। वस्तुनिष्ठता में प्रश्न का अर्थ स्पष्ट होता है उसमें कोई भी भ्रांति नहीं होती है।


व्यापकता (Comprehensiveness) :- मूल्यांकन का क्षेत्र व्यापक होता है अर्थात गहराई में मूल्यांकन करते समय किसी भी विषय की गहराई से प्रश्न पूछना आवश्यक है।

उपयोगिता (Usefulness):- अच्छा मूल्यांकन हमेशा जीवन के लिए उपयोगी होता है। यह व्यवहारिक होता है तो प्रशिक्षण एवं जीवन में उपयोग किया जा सकता है।

विभेदीकरण (Differentiaton) :- मूल्यांकन में बच्चो में विभेद कर सकने की क्षमता होनी चाहिए जिससे की मूल्यांकन की निष्पक्षता बनी रहे।


मूल्यांकन के प्रकार (Types of Evaluation)

  • निर्माणात्मक / रचनात्मक मूल्यांकन (Formative Evaluation)
  • योगात्मक / संकलनात्मक / अंतिम मूल्यांकन (Summative Evaluation)
  • निदानात्मक मूल्यांकन (Diagnostic Evaluation)


1. निर्माणात्मक रचनात्मक मूल्यांकन (Formative Evaluation) :- बच्चों की लगातार प्रतिपुष्टि के लिए निर्माणात्मक मूल्यांकन सहायक है। निर्माणात्मक मूल्यांकन के अध्यापक पढ़ाते समय यह जांच करते हैं कि बच्चे ने  अनुभूतियां-अभिव्यक्तियां और ज्ञान को कितना ग्रहण किया है। निर्माणात्मक मूल्यांकन पाठ के बीच बीच में से किया जाता है।

2. योगात्मक / संकलनात्मक / अंतिम मूल्यांकन (Summative Evaluation) :- योगात्मक मूल्यांकन सत्र के अंत में होता है। अध्यापक द्वारा पढ़ाने के बाद यह देखना कि बच्चों ने ज्ञान को किस हद तक ग्रहण किया है।  उदाहरणार्थ – किसी पाठ को पढ़ाने के बाद जब अध्यापक बच्चों से प्रश्न करता है तो वह योगात्मक मूल्यांकन कहलाता है।

3. निदानात्मक मूल्यांकन (Diagnostic Evaluation) :- वह जो बच्चे असफल हो रहे हैं उन बच्चों के असफलता का कारण ढूंढना निदानात्मक मूल्यांकन कहलाता है।



शैक्षिक उद्देश्यों का वर्गीकरण (Taxonomy of Educational Objectives)

शैक्षिक उद्देश्य से हम मूल्यांकन का तीन भागों में वर्गीकरण कर सकते हैं :-

1. ज्ञानात्मक / संज्ञानात्मक संकल्पना (Cognitive Domain) :- ज्ञानात्मक पक्ष ज्ञान को अर्जित करने से है। उदाहरण :- प्रत्यास्मरण,पहचानना, आत्मसात करना।

2. भावात्मक संकल्पना (Affective Domain) :- भावात्मक पक्ष का अर्थ भाव से अर्थात छात्र किसी काम को करने के लिए कितना धनात्मक महसूस करता है। उदाहरणार्थ – अभिप्रेरणा, पूछना, स्वीकार करना।

3. क्रियात्मक / गत्यात्मक संकल्पना (Psychomotor/Conative Domain) :- गत्यात्मक पक्ष का अर्थ क्रियाओं के करने से है।  उदाहरणार्थ – करना, पर प्रश्नावली हल करना।


 ब्लूम के अनुसार शैक्षिक उद्देश्यों का वर्गीकरण
(Bloom Taxonomy of Educational Objectives)

ब्लूम के अनुसार व्यवहार के तीन पक्ष है :-
  • ज्ञानात्मक पक्ष
  • भावात्मक पक्ष
  • क्रियात्मक पक्ष

प्रथम ज्ञानात्मक पक्ष का वर्गीकरण ब्लूम ने 1956 में, दूसरे पक्ष का वर्गीकरण ब्लूम में उसके सहयोगी कथवाल  मारिया ने 1965 में और तीसरे क्रियात्मक पक्ष का वर्गीकरण सिंपसन तथा हैरो ने प्रस्तुत किया।


ज्ञानात्मक पक्ष के उद्देश्यों का वर्गीकरण (Taxonomy of Objectives in the Cognitive Domain)

ब्लूम ने ज्ञानात्मक पक्ष के उद्देश्यों को सरल से कठिन और शिक्षण अधिगम के निम्न स्तर से शुरू करके ऊँचे से ऊँचे स्तर तक ले जाने के दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए 6 भागों में विभाजित किया है :-

(i) ज्ञान (Knowledge) :- इस वर्ग में विद्यार्थियों को पाठ्यवस्तु के विशिष्ट तथ्य पदों, परंपराओं, प्रचलनों, वर्गो, कसौटियों का प्रत्यय विज्ञान और प्रत्यास्मरण कराने का प्रयास किया जाता है।  उदाहरण – परिभाषा देना, सूची देना, मापन करना, प्रत्यास्मरण, पहचानना, पुनरुत्पादन आदि।

(ii) बोध (Comprehension) :- ज्ञान वर्ग में बच्चों को जो ज्ञान कराया जाता है।  बोध में उसके बारे में समझ विकसित की जाती है।  ज्ञान के बिना अवबोध करना आसान नहीं है।  उदाहरणार्थ – वर्गीकरण, भेद करना, व्याख्या, प्रतिपादन करना, उदाहरण देना, संकेत करना, सारांश, रुपांतरण करना आदि।

(iii) प्रयोग (Application) :- आत्मसात किए हुए ज्ञान को परिस्थितियों के अनुसार प्रयोग करना।  उदाहरण जांच करना, प्रदर्शित करना, संचालित करना, गणना करना, संशोधित करना, पूर्व कथन देना, परिपालन करना।

(iv) विश्लेषण (Analysis) :- आत्मसात किये हुए ज्ञान में से अलग – अलग करने की क्षमता।  उदाहरण – विश्लेषण करना, संबंधित करना, तुलना करना, आलोचना, विभेद, इंगित करना, अलग – अलग करना।

(v) संश्लेषण (Synthesis) :- पाठ्यवस्तु में दिए हुए संप्रत्यय, नियमों के आधार पर उनमें से अपने अनुसार संप्रत्य निकालना।  उदाहरण – तर्क देना, निष्कर्ष देना, निकालना, वाद – विवाद करना, संगठित करना, सिद्ध करना।

(vi) मूल्यांकन (Evaluation) :- सीखे हुए ज्ञान का मूल्यांकन करना कि ज्ञान को कितनी हद तक आत्मसात किया है उदाहरण – चुनना, बचाव करना, निश्चित करना, निर्णय लेना आदि।


 भावात्मक पक्ष (Affective Domain)

ब्लूम ने भावात्मक पक्ष को पांच भागों में बांटा :-

1. आग्रहण या ध्यान देना (Receving or Attending) :- बच्चों को अभिप्रेरित करना ताकि बच्चे अध्यापक द्वारा पढ़ाई गई सामग्री में  इच्छित हो। बच्चों को इस प्रकार से अभी प्रेरित करना कि विद्यार्थियों में मानवीय मूल्यों को भली भांति ग्रहण करने के लिए पर्याप्त इच्छा जागृत हो जाए। उदाहरण – पूछना, स्वीकार करना, ध्यान देना, अनुसरण करना, प्रत्यक्षीकरण।

2. अनुक्रिया (Responding) :- दिए हुए उद्देश्य के प्रति काम करना। उदाहरण – उत्तर देना, मदद करना, पूर्ण करना, पूरा करना, विकसित करना, लेबल देना, आज्ञा पालन करना अभ्यास करना।

3. आकलन (Value) :- इस स्तर पर विद्यार्थियों में किसी विशेष मूल्य को स्वीकार करने व किसी विशेष मूल्य के प्रति अधिक लगाव या अभिरुचि प्रकट करते हुए उसके पालन के लिए वचनबद्ध होने की योजना को विकसित करने का प्रयास किया जाता है।  उदाहरण :- अभिरुचि को कर्म देना वृद्धि करना संकेत करना।

4. संगठन (Organization) :- पूर्व अनुभव को संगठित करना।  उदाहरण – जोड़ने से संबंध स्थापित करना, पाना बनाना, सामान्यीकरण करना, योजना बनाना , व्यवस्थित करना।

5. मूल्यों का चरित्रीकरण / विशेषीकरण करना (Characterization by a value or Value
Complex) :-  इसमें विद्यार्थियों के व्यक्तिगत और सामाजिक मूल्यों के समन्वय से उत्पन्न जिस मूल्य प्रणाली अथवा चरित्र की भूमिका बन चुकी होती है उसे विशेष रूप से प्रदान करने का प्रयत्न  किया जाता है।  उदाहरण – चरित्रकरण, निश्चय करना, प्रयोग करना, सामना करना, पुष्टिकरण करना, हल करना आदि।


क्रियात्मक पक्ष / मनोगत्यात्मक पक्ष (Psychomotor)
ब्लूम ने क्रियात्मक पक्ष को 6 भागों में बांटा है :-

1. सहज क्रियात्मक अंगसंचालन (Reflex Movement) :- सहज क्रियात्मक अंग संचालन में बच्चा अपने चारों ओर फैले किसी उद्दीपन के संपर्क में आता है तो वह कोई ना कोई प्रतिक्रिया अनजाने में ही व्यक्त करता है।  जैसे हाथ पर चींटी गिरते ही हाथ झटक देना।
उदाहरण – काटना, झटका देना, ढीला करना, छोटा करना आदि।

2. आधारभूत अंगसंचालन (Basic Fundamental Movement) :- किसी प्रकार का आदेश मिलने पर अंग संचालन करना आधारभूत अंग संचालन कहलाता है। जैसे उछलना, कूदना, पकड़ना, रेंगना, पहुंचना, दौड़ना आदि।

3. शारीरिक योग्यताएं (Physical Ability) :- अंग संचालन क्रियाओं को करने के लिए काम करने की क्षमता को बढ़ाना। उदाहरण – शुरू करना, सहन करना, झुकना, व्यवहार करना, सुधारना, रोकना, टुकड़े टुकड़े करना आदि।

4. प्रत्यक्षीकरण योग्यताएं (Perceptual Ability) :- प्रत्यक्षीकरण योग्यताएं बच्चों के ज्ञानेन्द्रियो व कमेन्द्रिओ के सामंजस्य पर निर्भर करती है।वह वातावरण में फैले उद्दीपन को पहचानने व समझते हुए उनके साथ समायोजन करने में सफल होता है।  उदाहरण –  सूंघकर या सुनकर पहचान करना, स्मृतिचित्रण करना, लिखना, फेंकना आदि।

5. कौशलयुक्त अंगसंचालन (Skilled Movement) :- अभ्यास के द्वारा किसी काम में पूर्ण होना।  उदाहरण- नृत्य करना, खोदना, चलाना, गोता लगाना, नाव खेना, तैरना, निशाना लगाना आदि।

6. सांकेतिक संप्रेषण (Non Discursive Communication) :- बिना बोले भावों को प्रदर्शित करना। उदाहरण – नकल उतारना, भाव-भंगिमा बनाना, चित्रांकन करना, मुस्कुराना, चिढ़ाना आदि।



मूल्यांकन की विधियां (Techniques of Evaluation)

1. मनोवैज्ञानिक परीक्षण (Psychlogical Test) :- यह व्यक्ति की मानसिक तथा व्यवहारात्मक विशेषताओं का वस्तुनिष्ठ तथा मानवीकृत मापक होता है।

2. साक्षात्कार (Interview) :- साक्षात्कार की विधि में परीक्षणकर्ता आदमी से बातचीत करके सूचनाएं एकत्र करता है।  उदाहरण – एक विक्रेता घर-घर जाकर किसी विशिष्ट उत्पाद की उपयोगिता के संबंध में सर्वेक्षण करता है।

3. व्यक्ति अध्ययन (Case Study) :- इस विधि में किसी आदमी के मनोवैज्ञानिक गुणों तथा मनोसामाजिक और भौतिक पर्यावरण के संदर्भ में उसके मनोवैज्ञानिक इतिहास आदि का गहनता से अध्ययन किया जाता है।

4. प्रेक्षण (Observation) :- इसमें व्यक्ति की स्वाभाविक दशा में घटित होने वाली ताक्षणिक व्यवहारगत घटनाओं तथा व्यवस्थित,  तथा वस्तुनिष्ठ ढंग से अभिलेखों पर तैयार किया जाता है।

5. आत्म – प्रतिवेदन (Self Report) :- इस विधि में व्यक्ति स्वयम अपने विश्वासों, मतों आदि के बारे में तथ्यात्मक सूचनाएं प्रदान करता है।

6. संचित अभिलेख पत्र (Cumulative Record) :- छात्रों के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों में आए व्यवहार परिवर्तनों एवं उपलब्धियों को एक ही प्रपत्र में लिखकर सुरक्षित रखा जाता है यह संचित अभिलेख पत्र कहलाता है।  उदाहरण – बच्चों का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, नैतिक, मनोवैज्ञानिक अभिलेख तैयार करना। दूसरे शब्दों में बच्चों का सर्वांगीण अभिलेख।

7. घटनावृत्त (Anecdotal Record) :- स्कूल में घटित होने वाली दैनिक घटनाओं का विवरण भी बालकों के व्यवहार परिवर्तन का मूल्यांकन करने में सहायता करता है।  उन घटनाओं में किस छात्र की क्या उपलब्धि हुई उस बात का विवरण बच्चों विवरण बच्चों की भाषागत उपलब्धियों को मापने में सहायता करता है।  उदाहरणार्थ – किसी प्रतिस्पर्धा या घटना में अभिलेख तैयार करना, क्या सभी बच्चे संयुक्त वाक्य और मिश्रित वाक्य बना सकते हैं इसका अभिलेख तैयार करना।

8. निर्धारण मापनी (Rating Scale) :- बच्चों की योग्यताओं व उपलब्धि को इस तरह जांचना कि वह किस स्तर की है। इस बात का निर्धारण करने के लिए निर्धारण मापनी का प्रयोग किया जाता है। उदाहरणार्थ – ग्रेड देना।

9. पोर्टफोलियो (Portfolio) :- समय की एक निश्चित अवधि में विद्यार्थियों द्वारा किए गए कार्यों का संग्रह। ये रोजमर्रा के काम भी हो सकते हैं या फिर शिक्षार्थी के कार्यों के उत्कृष्ट नमूने भी हो सकते हैं। उदाहरण -बच्चों के भाषा विकास – कर्मिक प्रगति का रिकॉर्ड रखना।


मूल्यांकन के प्रतिमान (Pattern of Evaluation)

1. अधिगम के लिए मूल्यांकन / आकलन (Evaluation/Assessment for Learning):- अधिगम के लिए मूल्य मूल्यांकन निर्माणात्मक मूल्यांकन पर आधारित होता है अर्थात जब हम किसी काम को करते समय उसके बीच में ही जांच करते हैं कि हम कितना सीख रहे हैं।  उदाहरण – जब हम खाना बनाते समय अगर बीच में ही चखते हैं तो हम खाने की जांच कर रहे हैं कि हमने कैसा खाना बनाना सीखा है।


 2. अधिगम का मूल्यांकन / आकलन (Evaluation/Assessmentof Learning) :-

अधिगम का मूल्यांकन योगात्मक योगात्मक मूल्यांकन पर आधारित होता है। अर्थात हम काम को खत्म करके उसकी जांच करते हैं कि हमने कितना सीखा। उदाहरण – जब कोई अध्यापक बच्चों को किसी भ्रमण के लिए लेकर जाता है और बाद में स्कूल वापस आने पर प्रश्न करता है तो वह जांच रहा है कि बच्चों ने वहां क्या-क्या सीखा परंतु इसमें काम के बीच में न कर अंत में मूल्यांकन करते हैं।


3. आकलन / अधिगम के रूप में मूल्यांकन (Assessment/Evaluation as Learning) :-

अधिगम के रूप में मूल्यांकन नैदानिक मूल्यांकन पर आधारित होता है। छात्र आपने अधिगम और अन्य लोगों के अधिगम के बारे में गुणवत्तापूर्ण सूचना उत्पन्न करने के लिए अधिक दायित्व लेते हैं।




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