विशेष आवश्यकता वाले छात्रों की पहचान
सामान्य रूप से कार्य करने के लिए छः क्षेत्र निर्णायक हैं।
ये हैं - दृष्टि, श्रवण शक्ति, गतिशीलता, सम्प्रेषण, सामाजिक-भावनात्मक सम्बन्ध, बुद्धिमत्ता। इसके अतिरिक्त आर्थिक रूप से सुविधावंचित बच्चे भी विशेष हैं क्योंकि गरीबी के कारण वे जीवन के कई अनुभवों से वंचित रह जाते हैं। वे स्कूल नहीं जा स कते क्योंकि उन्हें बचपन से ही काम शुरू करना पड़ता है, ताकि वे परिवार की आय बढ़ा सकें। लड़कियों को अक्सर घर पर ही रोक लिया जाता है ताकि वे छोटे भाई-बहनों (बच्चों) का ध्यान रख सकें और घर के कामकाज कर सकें।
कोई बच्चा अथवा व्यक्ति जो इन क्षेत्रों में से एक या उससे अधिक क्षेत्रों में कोई कठिनाई महसूस करता है, वह विशिष्ट बच्चा/व्यक्ति कहलाता है। उपरोक्त में से किसी एक क्षेत्र में भी कठिनाई व्यक्ति के लिए बाधा उत्पन्न कर सकती है और व्यक्ति को इस असमर्थता से निपटने के लिए अतिरिक्त प्रयास की आवश्यकता होती है।
प्रावधान के तरीके
स्कूलों के छात्रों को विशेष शिक्षा सेवाएं प्रदान करने के लिए अलग अलग दृष्टिकोण का उपयोग करें। इन तरीकों को मोटे तौर पर विशेष जरूरतों के साथ छात्र (उत्तरी अमेरिकी शब्दावली का प्रयोग) गैर विकलांग छात्रों के साथ है कितना संपर्क के अनुसार, चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है:
समावेशन: इस दृष्टिकोण में, विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों के लिए विशेष जरूरतों के लिए नहीं है, जो छात्रों के साथ स्कूल के दिन की सबसे सभी खर्च करते हैं, या। शामिल किए जाने के सामान्य पाठ्यक्रम की पर्याप्त संशोधन की आवश्यकता सकता है, क्योंकि ज्यादातर स्कूलों में एक सबसे अच्छा अभ्यास के रूप में स्वीकार किया जाता है, जो विशेष जरूरतों, उदारवादी हल्के के साथ चयनित छात्रों के लिए ही इस्तेमाल करते हैं। विशेष सेवाओं के अंदर या नियमित रूप से बाहर प्रदान किया जा सकता है कक्षा, सेवा के प्रकार पर निर्भर करता है। छात्र कभी-कभी एक संसाधन कक्ष में छोटे, अधिक गहन शिक्षण सत्र में भाग लेने के लिए नियमित रूप से कक्षा छोड़ सकते हैं, या विशेष उपकरण की आवश्यकता हो सकती है या भाषण और भाषा चिकित्सा, व्यावसायिक रूप में, कक्षा के बाकी के लिए विघटनकारी ऐसे हो सकता है कि अन्य संबंधित सेवाओं को प्राप्त करने के लिए चिकित्सा, भौतिक चिकित्सा, पुनर्वास परामर्श। उन्होंने यह भी इस तरह के एक सामाजिक कार्यकर्ता के साथ सत्र परामर्श के रूप में गोपनीयता की आवश्यकता है कि सेवाओं के लिए नियमित रूप से कक्षा छोड़ सकता है।
मुख्य धारा के लिए अपने कौशल के आधार पर विशिष्ट समय अवधि के दौरान गैर विकलांग छात्रों के साथ कक्षाओं में विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों को शिक्षित करने की प्रथा है। विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों को विशेष रूप से स्कूल के दिन के आराम के लिए विशेष जरूरतों के साथ छात्रों के लिए अलग-अलग वर्गों में अलग कर रहे हैं। एक अलग कक्षा या विशेष जरूरतों के साथ छात्रों के लिए विशेष स्कूल में अलगाव: इस मॉडल में, विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों गैर विकलांग छात्रों के साथ कक्षाओं में भाग लेने नहीं है। अलग-अलग छात्रों नियमित रूप से कक्षाओं प्रदान की जाती हैं, जहां एक ही स्कूल में भाग लेने, लेकिन विशेष जरूरतों के साथ छात्रों के लिए एक अलग कक्षा में विशेष रूप से सभी शिक्षण समय खर्च कर सकते हैं। उनके विशेष वर्ग के एक साधारण स्कूल में स्थित है, तो वे इस तरह के गैर विकलांग छात्रों के साथ भोजन खाने से, के रूप में कक्षा के बाहर सामाजिक एकीकरण के लिए अवसर प्रदान किया जा सकता है।
वैकल्पिक रूप से, इन छात्रों को एक विशेष स्कूल में भाग लेने सकता है। बहिष्करण: किसी भी स्कूल में शिक्षा प्राप्त नहीं है जो एक छात्र को स्कूल से बाहर रखा गया है। अतीत में, विशेष जरूरतों के साथ सबसे अधिक छात्रों को स्कूल से बाहर रखा गया है। इस तरह के बहिष्कार अभी भी विशेष रूप से विकासशील देशों के गरीब, ग्रामीण क्षेत्रों में, दुनिया भर में लगभग 23 लाख विकलांग बच्चों को प्रभावित करता है। एक छात्र है जब यह भी हो सकती है अस्पताल में, या आपराधिक न्याय प्रणाली द्वारा हिरासत में ले लिया। इन छात्रों पर एक-एक निर्देश या समूह शिक्षा प्राप्त हो सकता है। निलंबित या निष्कासित कर दिया गया है, जो छात्रों को इस अर्थ में बाहर रखा नहीं माना जाता है।
सर्व शिक्षा अभियान ने एक साहसिक कदम उठाया, जब उन्होंने अपनी समावेशी शिक्षा परियोजना के तहत 40 से अधिक स्कूलों में विकलांगों के 2,000 से अधिक बच्चों को नामांकित किया, जिसमें विकलांग छात्रों को अन्य छात्रों के साथ एक ही कक्षा में शामिल किया गया। अलग-अलग बच्चों को, जिन्हें अभी भी 'विकलांग' के रूप में माना जाता है कि निर्विवाद रूप से समाज में, उनकी शैक्षिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक जरूरतें विशिष्ट होती हैं।
साथ ही, पूरे भारत में मुख्यधारा के निजी स्कूलों के लिए 'समावेश' बनाना अनिवार्य है, विशेष जरूरतों वाले बच्चों को शिक्षित करने के बारे में जागरूकता स्पष्ट वृद्धि पर है, जिससे भारत में विशेष शिक्षकों की प्राकृतिक मांग बढ़ रही है।
वास्तविकता की जांच
विद्यालयों में स्वीकृत समावेश खोजने के लिए, विशेष रूप से उन बच्चों के साथ माता-पिता के लिए यह एक चुनौती है, जिनकी विशेष आवश्यकताएं हैं। एक विशेष शिक्षक के रूप में सामना की जाने वाली चुनौतियों के बारे में, सर्व शिक्षा अभियान और शिक्षा के अधिकार (मानव संसाधन विकास मंत्रालय के तहत एक कार्यक्रम) के लिए समावेशी शिक्षा के राष्ट्रीय स्तर के एक मुख्य सलाहकार डॉ. अनुप्रिया चढ्ढा ने मीडिया के साथ साझा किया। वे अभी भी एक धारणा पर काम करते हैं कि नियमित स्कूल केवल कुछ प्रकार के बच्चों के लिए हैं। इसके अलावा, इस श्रेणी के छात्रों को संभालने के लिए स्कूलों में आधारभूत संरचना या सुविधाएं नहीं हैं। हालांकि चीजें सुधार पक्ष पर हैं।"
2015 में, अलग-अलग बच्चों के संघर्ष को देखते हुए केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने सभी संबद्ध स्कूलों के लिए एक विशेष शिक्षक नियुक्त करने के लिए अनिवार्य किया था, ताकि सीखने की अक्षमता वाले बच्चों को अन्य छात्रों के साथ स्वीकृति मिल सके। स्कूलों में "समावेशी प्रथाओं" के केंद्रीय बोर्ड के अलावा, शिक्षा के अधिकार अधिनियम के सख्त दिशानिर्देशों के कारण भी इस निर्देश की आवश्यकता है।
शिक्षक की डिमांड
निर्विवाद रूप से, विशेष शिक्षकों की मांग है। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु सरकार देश में शिक्षक शिक्षा के सभी कॉलेजों के पाठ्यक्रम में विशेष शिक्षा के कुछ घटक शामिल करने के पक्ष में है। यह इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि भारत और अन्य देशों में विशेष शिक्षकों के लिए बहुत सारे अवसर हैं। वर्तमान में, विशेष शिक्षा में बीएड या एमएड की डिग्री रखने वाले परामर्शदाता के रूप में रोजगार की तलाश भी कर सकते हैं।
भारत में व्यावसायिक रूप से प्रशिक्षित विशेष शिक्षकों की तत्काल आवश्यकता पर बोलते हुए, दिल्ली पब्लिक स्कूल के प्रिंसिपल हेक्टर रविंदर दत्त, रोहक और एसोसिएशन ऑफ स्पेशल एजुकेटर एंड अलायड प्रोफेशनल के संस्थापक ने शेयर किया कि, "2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में अक्षमता वाले 2.70 करोड़ से अधिक लोग रहते हैं। इस आकार की आबादी के लिए, भारत को अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए न्यूनतम 15 लाख विशेष शिक्षकों की जरूरत है। साथ ही, हमें आवश्यक कौशल, ज्ञान और पेशेवर नैतिकता को लागू करके उन्हें नियोजित करने के लिए उनके प्रशिक्षण के लिए एक ठोस नीति की आवश्यकता है।"
आगे के रास्ते
आंकड़ों से पता चलता है कि 2016 से, भारत में 25 लाख से अधिक स्कूल के छात्रों की पहचान विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों के रूप में की गई है, जिन्हें ध्यान देने की जरूरत है। हालांकि, अफसोस की बात है कि संबंधित अधिकारी ऐसे छात्रों की जरूरतों को पूरा करने के लिए विभिन्न स्कूलों में विशेष शिक्षकों के लिए एक पद बनाने में नाकाम रहे हैं।
समावेशन को अभी भी मुख्यधारा के प्रधानाचार्यों और प्रशासकों में जाने के लिए बहुत सारी शिक्षा की जरूरत है, जो इस तथ्य को स्वीकार करने से इंकार कर रहे हैं कि वर्तमान में भारत को शारीरिक रूप से विकलांगता या सीखने की अक्षमता के साथ पैदा हुए 5 में से एक बच्चे होने की सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।
शिक्षा की गुणवत्ता के लिये विशेष पहल की जरूरत.
शिक्षक समाज की सर्वाधिक संवदेनशील इकाई है. शिक्षक अपना काम ठीक तरह से नहीं करते- यह आरोप तो सर्वत्र लगाया जाता है. लेकिन यह विचार कोई नहीं करता कि उसे पढ़ाने क्यों नहीं दिया जाता? आए दिन गैर-शैक्षिक कार्यों में इस्तेमाल करता प्रशासन, शिक्षकों की शैक्षिक सोच को, शैक्षिक कार्यक्रमों को पूरी तरह ध्वस्त कर देता है. बच्चों को पढ़ाना-सिखाना सरल नहीं होता और न ही बच्चे फाईल होते हैं. प्रशासनिक कार्यालय और अधिकारीगण शिक्षा और शिक्षकों की लगातार उपेक्षा करते हैं. उन्हें काम भी नहीं करने देते. इसी कारण स्कूली शिक्षा में अपेक्षित सुधार सम्भव नहीं हो पा रहा है.
शिक्षा में सुधार के लिए क्या करें
स्कूली शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए हमें स्कूलों के बारे में अपनी परम्परागत राय को बदलना होगा. अभी स्कूलों को कार्यालय समझकर, शिक्षकों को प्रतिदिन अनेक प्रकार की डाक बनाने और आँकड़े देने के लिए मजबूर किया जाता है. इससे बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान होता रहता है. बच्चे अपने शिक्षकों से सतत् जुड़े रहना चाहते हैं, विशेषकर प्राथमिक स्तर पर. अत: स्कूलों को कार्यालयीन कामकाज से वास्तव में मुक्त कर प्रभावी शिक्षण संस्थान बनाया जाना चाहिए.
डाक कार्य के लिए अलग से डाक सहायक की सुविधा दी जाए, और हर स्कूल में एक टीचर स्पेशल एजुकेटर की सुविधा दी जाए ताकि समस्त बच्चो के साथ-साथ विशेष बच्चो को भी सुविधा मिले।
अभी अधिकांश स्कूल अन्य सरकारी कार्यालयों की तर्ज पर 9 से 4 की अवधि में ही खुलते हैं. इस कारण से रोजगार में जुटे परिवारों के बच्चों के लिए वे अनुपयोगी सिद्ध हो रहे हैं. स्कूल की समयावधि सरकारी नियंत्रण में होने के कारण बच्चों की उपस्थिति और सीखने का समय कमतर होता जा रहा है. स्कूली उम्र पार कर चुके किशोरों, युवाओं, महिलाओं और कामकाजी लोगों के लिए स्कूल के दरवाजे एक तरह से बन्द ही हैं. विद्यालय समाज की लघुतम इकाई के रूप में "सामाजिक शिक्षण केन्द्र" के रूप में कार्य कर सकते हैं. इस परिकल्पना को साकार करने की दिशा में पहल किए जाने का दायित्व स्थानीय " शिक्षक संघ" पूरा कर सकते हैं. अगर समाज की जरूरत के चलते चिकित्सालय और थाने दिन-रात खुले रह सकते हैं, तो यह भी उतना ही आवश्यक है कि विद्यालय कम-से-कम 10-12 घण्टे जरूर खुलें। और टीचरों कि सिप्ट वाइज सुविधा दी जाए।
शिक्षक-छात्र अनुपात ठीक हो
शैक्षणिक सुधार में शिक्षकों की भूमिका महत्वपूर्ण है. पाठयपुस्तकों और पाठयक्रम के अनुरूप प्रभावी शिक्षण, शिक्षकों की योग्यता, सक्रियता और पढ़ाने के कौशल पर निर्भर है. एक शिक्षक, एक साथ कितनी कक्षाओं के कितने बच्चों को भली-भाँति पढ़ा सकेगा, इस बारे में गम्भीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है.
आदर्श रूप में एक शिक्षक अधिकतम 20 बच्चों को ही ठीक प्रकार पढ़ा सकता है. वह भी तब, जब वे भी एक समान स्तर के हों. अभी व्यवस्था यह है कि एक शिक्षक 40 बच्चों को (और वे भी अलग-अलग स्तरों के हैं) पढ़ाएगा. अनेक स्कूलों में तो 70-80 से भी अधिक बच्चों को पढ़ाना पड़ रहा है. ऐसे में शिक्षक मात्र बच्चों को घेरकर ही रख पाते हैं पढ़ाई तो सम्भव ही नहीं. शिक्षक बच्चों को पढ़ा भी पाएँ, इस हेतु शिक्षक-छात्र अनुपात को व्यवहारिक बनाना होगा.
प्रशिक्षण, शिक्षण और परीक्षण
स्कूली शिक्षा में सुधार के लिए शिक्षण विधियों, प्रशिक्षण और परीक्षण की विधियों में भी सुधार करने की जरूरत है. अभी शिक्षण की विधियाँ राज्य स्तर से तय की जाती हैं. कक्षागत शिक्षण कौशलों को या तो नकार दिया जाता है या उन्हें परिस्थितिजन्य मान लिया जाता है.
अच्छे प्रशिक्षण के लिए प्रशिक्षण का दायित्व कर्तव्यनिष्ठ, योग्य और क्षमतावान प्रशिक्षकों को सौंपा जाना चाहिए. शिक्षकों के प्रशिक्षण को प्रभावी बनाने, शिक्षण में नवाचारी पध्दतियाँ विकसित करने सहित परीक्षण (मूल्यांकन) की व्यापक प्रविधियाँ तय कर उन्हें व्यवहारिक स्वरूप में लागू करने की दिशा में कारगर कदम उठाने की दृष्टि से यह आवश्यक है कि हर प्रदेश में एक "शैक्षिक संदर्भ एवं स्त्रोत केन्द्र" विकसित किया जाए.
शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार मूलक परियोजनाएँ
शिक्षा के क्षेत्र में अनेक संस्थाएँ कार्यरत हैं. रोजगार और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए भी शासकीय स्तर पर परियोजनाएँ और कार्यक्रम लागू किए गए हैं. मानव विकास के बुनियादी सूचकांक होते हुए भी इनमें तालमेल न होने के कारण इनकी गति अपेक्षित नहीं है. धन की गरीबी से ज्ञान की गरीबी का विशेष सम्बंध है. ग्रामीण दूरस्थ अँचलों में ज्ञान की गरीबी पसरी हुई है. जानकारी के अभाव में वे संसाधनों का उपयोग नहीं कर पाते. अनेक परियोजनाओं के बावजूद उनकी प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक चिकित्सा और बुनियादी रोजगार की प्रक्रियाएँ बाधित होती हैं. अब समय आ गया है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए लागू परियोजनाओं को समेकित ढ़ंग से किसी सुनिश्चित क्षेत्र में लागू कर परिणामों की समीक्षा की जाए. अच्छे परिणाम आने पर उन्हें पूरे देश भर में लागू किया जाए. इस प्रकार हम अपने संसाधनों और मानवीय क्षमताओं का बेहतर उपयोग कर सकेंगे जिससे शिक्षा के गुणात्मक विकास की संभावनाएँ बढ़ेंगीं.
पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें
अभी वास्तव में यह ठीक प्रकार तय ही नहीं है कि किस आयु वर्ग के बच्चों को कितना सिखाया जा सकता है और सिखाने के लिए न्यूनतम कितने साधनों और सुविधाओं की आवश्यकता होगी. नई शिक्षा नीति 1986 लागू होने के बाद न्यूनतम अधिगम स्तरों को आधार मानकर पाठ्यपुस्तकें और पाठ्यक्रम तो लगातार बदले गए हैं, लेकिन उनके अनुरूप सुविधाओं और साधनों की पूर्ति ठीक से नहीं की गई है. यह सोच भी बेहद खतरनाक है कि पाठ्यपुस्तकों के जरिए हम भाषायी एवं गणितीय कौशलों और पर्यावरणीय ज्ञान को ठीक प्रकार विकसित कर सकते हैं. यथार्थ में पाठ्यपुस्तकें पढ़ाई का एक छोटा साधन मात्र होती हैं साध्य नहीं. कक्षाओं पर केन्द्रित पाठयपुस्तकों और पाठ्यक्रम को श्रेणीबध्द रूप में निर्धारित करना भी खतरनाक है. बच्चों की सीखने की क्षमता पर उनके पारिवारिक और सामाजिक वातावरण का भी विशेष प्रभाव पड़ता है, अत: सभी क्षेत्रों में एक समान पाठ्यक्रम और एक जैसी पाठ्यपुस्तकें लागू करना बच्चों के साथ नाइन्साफी है.
शैक्षिक उद्देश्य
स्कूली शिक्षा में सुधार के लिए हमें वर्तमान शैक्षिक उद्देश्यों को भी पुनरीक्षित करना होगा. शिक्षा, महज परीक्षा पास करने या नौकरी/रोजगार पाने का साधन नहीं है. शिक्षा विद्यार्थियों के व्यक्तित्व विकास, अन्तर्निहित क्षमताओं के विकास करने और स्वथ्य जीवन निर्माण के लिए भी जरूरी है. शिक्षा प्रत्येक बच्चे को श्रेष्ठ इंसान बनने की ओर प्रवृत्त करे, तभी वह सार्थक सिध्द हो सकती है. कहा भी गया है "सा विद्या या विमुक्तये". अभी पढ़े-लिखे और गैर पढ़े-लिखे व्यक्ति के आचरण और चरित्र में कोई खास अन्तर दिखाई नहीं देता. उल्टे पढ़-लिख लेने के बाद तो व्यक्ति श्रम से जी चुराने लगता है और अनेक प्रकार के दुराचरणों में लिप्त हो जाता है. यह स्थिति एक तरह से हमारी वर्तमान शैक्षिक पध्दति की असफलता सिध्द करती है. अतः यह जरूरी है कि शिक्षा के उद्देश्यों को सामयिक रूप से परिभाषित कर पुनरीक्षित किया जाए.
शिक्षकों को "शिक्षक" के रूप में अवसर मिले
समान कार्य के लिए समान कार्य परिस्थितियाँ और समान वेतन की अनुशंसा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में और मानव अधिकार घोषणा पत्र के अनुच्छेद 21, 22, और 23 में वर्णित होते हुए भी नाना नामधारी शिक्षक मौजूद हैं. एक ही विद्यालय में अनेक प्रकार के शिक्षकों के पदस्थ रहते सभी के मन में घोषित-अघोषित तनावों के कारण पढ़ाई में व्यवधान हो रहा है. इस परिस्थिति को गम्भीरता से समझे बगैर और परिस्थितियों में सुधार किए बगैर भला शिक्षण में सुधार कैसे होगा? शासन को सभी शिक्षण संस्थाओं में कार्यरत शिक्षकों के लिए एक समान कार्यनीति, समान पदनाम, समान वेतनमान देने की नीति तय कर एक निश्चित कार्यावधि के बाद पदोन्नति देने का भी ऐलान करना चाहिए.
श्रेष्ठतम शैक्षिक कार्यकर्ता
शैक्षिक परिवर्तन के लिए शिक्षकों का मनोबल बनाए रखने और उत्साहपूर्वक कार्य करने की इच्छाशक्ति पैदा करने के लिए संगठित प्रयास करने होंगे. अभी शिक्षा व्यवस्था में बालकों और पालकों की भागीदारी न्यूनतम है, इसलिए सभी शैक्षिक कार्यक्रम सफल नहीं हो पाते हैं. स्कूलों में भी जिस प्रकार समर्पित स्वयंसेवकों की आवश्यकता है, वे नहीं हैं. अत: यह आवश्यक है कि श्रेष्ठतम शैक्षिक कार्यकर्ताओं की नियुक्ति की जानी चाहिए.
शिक्षकों का मनोबल बढ़ाया जाए
समूची दुनिया के सभी विकसित और विकासशील देशों में प्राथमिक शालाओं के शिक्षकों को आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक और प्रशासनिक दृष्टि से श्रेष्ठ माना जाता है. साथ ही ऐसी शिक्षा नीति बनाई जाती है जिसमें उनका मनोबल सदैव ऊँचा बना रहे. जब तक अनुभव जन्य ज्ञान, और कौशलों को महत्व नहीं दिया जाएगा तब तक "बालकेन्द्रित शिक्षण" की प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकती है. बाल केन्द्रित शिक्षण के लिए कार्यरत शिक्षकों की दक्षता और मनोबल बढ़ाए जाने की आवश्यकता है.
यह आवश्यक है कि शिक्षकों को उनके व्यक्तित्व विकास की प्रक्रियाओं सहित ऐसे प्रशिक्षण संस्थानों में भेजा जाए जहाँ उन्हें अपने अन्दर झाँकने कुछ बेहतर कर गुजरने की प्रेरणा मिल सके. इस प्रशिक्षण उपरान्त उन्हें कार्यरत स्थलों पर "ऑन द जॉब सपोर्ट" के रूप में ऐसे सहयोगी दिए जाएँ जो उनकी वास्तविक मदद करें. किसी ऐसी संस्था को इस दिशा में काम करने की जरूरत है जो सामाजिक बदलाव के लिए व्यापक दूरदृष्टि और दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ काम करने के लिए सहमत हो और उसके पास स्वयं के संसाधन भी उपलब्ध हों.
आज जरूरत इस बात की है कि किसी प्रकार पढ़ने-लिखने की प्रक्रिया में परिवर्तन लाने के लिए विद्यालय प्रशासन, शिक्षकों और शैक्षिक कार्यक्रमों में तालमेल बनाया जाए. समुदाय की शैक्षिक आवश्यकताओं को पहचान कर उनकी जरूरतों के अनुरूप निर्णय लेते हुए ऐसा वातावरण बनाने की आवश्यकता है जिसमें व्यवसायिक योग्यता में वृध्दि सुनिश्चित हो. शिक्षा के प्रशासन एवं प्रबन्धन में उत्तरदायी भूमिका निभाने वाले संस्था प्रधानों की नियुक्ति और प्रशिक्षण हेतु शिक्षा विभाग एवं शिक्षा के क्षेत्र में कार्य कर रहे अन्य संगठनों को शीघ्र कारगर कदम उठाना चाहिए. संस्था प्रधानों की भूमिका को सशक्त बनाए बगैर शिक्षा में सुधार की सम्भावनाएँ अत्यन्त क्षीण रहेंगी.
प्रशासनिक एवं प्रबन्धकीय व्यवस्थागत सुधार
शिक्षा प्रशासन की यह नियति बन गई है कि इसमें उच्च शिक्षा स्तर पर भी स्थायित्व नहीं है. राष्ट्रीय स्तर पर लागू राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 और कार्ययोजना 1992 में स्वीकृत अखिल भारतीय शिक्षा सेवा की स्थापना आज तक नहीं हो पाई है. लगभग हर स्तर पर निर्णायक पदों पर नियुक्त प्रशासनिक सेवा के अधिकारी शिक्षा क्षेत्र में आ रही गिरावट और असफलता के लिए उत्तरदायी नहीं माने जाते. हाँ, किसी छोटी-सी सफलता का श्रेय अवश्य हासिल करते नजर आते हैं. शिक्षा में सुधार के लिए कार्यरत शिक्षकों को समर्थन देने की दृष्टि से यह अत्यंत आवश्यक है कि शिक्षा के प्रबन्धन और प्रशासन को सुधारा जाए. म.प्र. शासन द्वारा वर्ष 2003 में गठित "स्पेशल टास्क फोर्स" की अनुशंसाओं को लागू किए जाने की भी आज महती आवश्यकता है जो एक दस्तावेज में सिमट कर रह गई हैं. म.प्र. देशभर में सर्वप्रथम जन शिक्षा अधिनियम तैयार कर लागू करने वाले प्रदेश के रूप में है. क्रियान्वयन के स्तर पर जरूर अनेक कार्य अभी शेष हैं जिसमें प्रमुख कार्य सभी स्तरों पर कार्यरत शिक्षा केन्द्रों के संचालन हेतु मैनुअल (संचालन मार्गदर्शिकाओं) का सृजन और उन्हें लागू करना है, ताकि कार्यरत स्टाफ बेहतर प्रदर्शन कर सके. प्रदेश के सभी जनशिक्षा केन्द्रों को प्रबन्धन और प्रशासन के प्रति उत्तरदायी भूमिका सौंपते हुए जनशिक्षा केन्द्र प्रभारी को आहरण वितरण अधिकार दिए जाने चाहिए. यह अत्यंत आवश्यक है कि समग्रत: शिक्षा व्यवस्था को नियंत्रित किए जाने हेतु राज्य की शिक्षा नीति तैयार की जानी चाहिए. कार्यरत शिक्षकों की दक्षता का सम्मान और उनकी कार्यदक्षता का उपयोग किए जाने की दृष्टि से विभागीय दक्षता परीक्षा का आयोजन कर सभी को प्रन्नोत किया जाना चाहिए. अंतत: शैक्षिक सुधार के लिए अब हमें विचार करने की बजाय कर्तव्य की ओर बढना होगा।
आज शिक्षा के क्षेत्र में वास्तविक सुधार की दृष्टि से शीघ्र सार्थक कदम उठाते हुए हमें ऐसी शिक्षण पध्दति और कार्यक्रम विकसित करने होंगे जो बच्चों के मन में श्रम के प्रति निष्ठा पैदा करें समग्रत: एक ऐसा प्रभावी शैक्षिक कार्यक्रम बनाना होगा जिसमें-
पाठ्यक्रम लचीला और गतिविधि आधारित हो, साथ ही बच्चों की ग्रहण क्षमता के अनुरूप भी. कक्षागत पाठ्य योजनाएँ, स्वयं शिक्षकों द्वारा तैयार की जाएँ और उन्हें पूरा किया जाए. राज्य की शिक्षा नीति निर्धारण में शिक्षाविदों और कार्यरत शिक्षकों को वास्तव में सहभागी बना कर सभी के विचारों को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाए. जन भागीदारी समितियाँ (पालक शिक्षक संघ) प्रबन्धन का दायित्व स्वीकारें - शैक्षिक प्रशासन तंत्र भी शालाओं में अनावश्यक हस्तक्षेप न करें. शिक्षण का अधिकार शिक्षकों को वास्तव में सौंपा जाए. शिक्षण विधियों में परिवर्तन करने का अधिकार शिक्षकों को हो, प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं. कक्षाओं में शिक्षक-छात्र अनुपात ठीक किया जाए, साथ ही पर्याप्त मात्रा में शैक्षिक सामग्री की पूर्ति और शिक्षकों की भर्ती की जाए. पाठ्यपुस्तकों की रचना स्थापित रचनाकारों की बजाय शिक्षकों और शिक्षा विशेषज्ञों के माध्यम से की जानी चाहिए, जो शैक्षिक दृष्टि से उपयुक्त हो. शैक्षिक सुधारों को लागू करने में संस्था प्रधानों और शिक्षकों की भूमिका को महत्वपूर्ण माना जाए।शिक्षकों के सहयोग हेतु "राज्य शिक्षक सन्दर्भ और स्त्रोत केन्द्र" स्थापित किए जाएँ. विद्यालयों को शिक्षण के लिए उत्तरदायी बनाया जाए.
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सामान्य रूप से कार्य करने के लिए छः क्षेत्र निर्णायक हैं।
ये हैं - दृष्टि, श्रवण शक्ति, गतिशीलता, सम्प्रेषण, सामाजिक-भावनात्मक सम्बन्ध, बुद्धिमत्ता। इसके अतिरिक्त आर्थिक रूप से सुविधावंचित बच्चे भी विशेष हैं क्योंकि गरीबी के कारण वे जीवन के कई अनुभवों से वंचित रह जाते हैं। वे स्कूल नहीं जा स कते क्योंकि उन्हें बचपन से ही काम शुरू करना पड़ता है, ताकि वे परिवार की आय बढ़ा सकें। लड़कियों को अक्सर घर पर ही रोक लिया जाता है ताकि वे छोटे भाई-बहनों (बच्चों) का ध्यान रख सकें और घर के कामकाज कर सकें।
कोई बच्चा अथवा व्यक्ति जो इन क्षेत्रों में से एक या उससे अधिक क्षेत्रों में कोई कठिनाई महसूस करता है, वह विशिष्ट बच्चा/व्यक्ति कहलाता है। उपरोक्त में से किसी एक क्षेत्र में भी कठिनाई व्यक्ति के लिए बाधा उत्पन्न कर सकती है और व्यक्ति को इस असमर्थता से निपटने के लिए अतिरिक्त प्रयास की आवश्यकता होती है।
प्रावधान के तरीके
स्कूलों के छात्रों को विशेष शिक्षा सेवाएं प्रदान करने के लिए अलग अलग दृष्टिकोण का उपयोग करें। इन तरीकों को मोटे तौर पर विशेष जरूरतों के साथ छात्र (उत्तरी अमेरिकी शब्दावली का प्रयोग) गैर विकलांग छात्रों के साथ है कितना संपर्क के अनुसार, चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है:
समावेशन: इस दृष्टिकोण में, विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों के लिए विशेष जरूरतों के लिए नहीं है, जो छात्रों के साथ स्कूल के दिन की सबसे सभी खर्च करते हैं, या। शामिल किए जाने के सामान्य पाठ्यक्रम की पर्याप्त संशोधन की आवश्यकता सकता है, क्योंकि ज्यादातर स्कूलों में एक सबसे अच्छा अभ्यास के रूप में स्वीकार किया जाता है, जो विशेष जरूरतों, उदारवादी हल्के के साथ चयनित छात्रों के लिए ही इस्तेमाल करते हैं। विशेष सेवाओं के अंदर या नियमित रूप से बाहर प्रदान किया जा सकता है कक्षा, सेवा के प्रकार पर निर्भर करता है। छात्र कभी-कभी एक संसाधन कक्ष में छोटे, अधिक गहन शिक्षण सत्र में भाग लेने के लिए नियमित रूप से कक्षा छोड़ सकते हैं, या विशेष उपकरण की आवश्यकता हो सकती है या भाषण और भाषा चिकित्सा, व्यावसायिक रूप में, कक्षा के बाकी के लिए विघटनकारी ऐसे हो सकता है कि अन्य संबंधित सेवाओं को प्राप्त करने के लिए चिकित्सा, भौतिक चिकित्सा, पुनर्वास परामर्श। उन्होंने यह भी इस तरह के एक सामाजिक कार्यकर्ता के साथ सत्र परामर्श के रूप में गोपनीयता की आवश्यकता है कि सेवाओं के लिए नियमित रूप से कक्षा छोड़ सकता है।
मुख्य धारा के लिए अपने कौशल के आधार पर विशिष्ट समय अवधि के दौरान गैर विकलांग छात्रों के साथ कक्षाओं में विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों को शिक्षित करने की प्रथा है। विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों को विशेष रूप से स्कूल के दिन के आराम के लिए विशेष जरूरतों के साथ छात्रों के लिए अलग-अलग वर्गों में अलग कर रहे हैं। एक अलग कक्षा या विशेष जरूरतों के साथ छात्रों के लिए विशेष स्कूल में अलगाव: इस मॉडल में, विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों गैर विकलांग छात्रों के साथ कक्षाओं में भाग लेने नहीं है। अलग-अलग छात्रों नियमित रूप से कक्षाओं प्रदान की जाती हैं, जहां एक ही स्कूल में भाग लेने, लेकिन विशेष जरूरतों के साथ छात्रों के लिए एक अलग कक्षा में विशेष रूप से सभी शिक्षण समय खर्च कर सकते हैं। उनके विशेष वर्ग के एक साधारण स्कूल में स्थित है, तो वे इस तरह के गैर विकलांग छात्रों के साथ भोजन खाने से, के रूप में कक्षा के बाहर सामाजिक एकीकरण के लिए अवसर प्रदान किया जा सकता है।
वैकल्पिक रूप से, इन छात्रों को एक विशेष स्कूल में भाग लेने सकता है। बहिष्करण: किसी भी स्कूल में शिक्षा प्राप्त नहीं है जो एक छात्र को स्कूल से बाहर रखा गया है। अतीत में, विशेष जरूरतों के साथ सबसे अधिक छात्रों को स्कूल से बाहर रखा गया है। इस तरह के बहिष्कार अभी भी विशेष रूप से विकासशील देशों के गरीब, ग्रामीण क्षेत्रों में, दुनिया भर में लगभग 23 लाख विकलांग बच्चों को प्रभावित करता है। एक छात्र है जब यह भी हो सकती है अस्पताल में, या आपराधिक न्याय प्रणाली द्वारा हिरासत में ले लिया। इन छात्रों पर एक-एक निर्देश या समूह शिक्षा प्राप्त हो सकता है। निलंबित या निष्कासित कर दिया गया है, जो छात्रों को इस अर्थ में बाहर रखा नहीं माना जाता है।
सर्व शिक्षा अभियान ने एक साहसिक कदम उठाया, जब उन्होंने अपनी समावेशी शिक्षा परियोजना के तहत 40 से अधिक स्कूलों में विकलांगों के 2,000 से अधिक बच्चों को नामांकित किया, जिसमें विकलांग छात्रों को अन्य छात्रों के साथ एक ही कक्षा में शामिल किया गया। अलग-अलग बच्चों को, जिन्हें अभी भी 'विकलांग' के रूप में माना जाता है कि निर्विवाद रूप से समाज में, उनकी शैक्षिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक जरूरतें विशिष्ट होती हैं।
साथ ही, पूरे भारत में मुख्यधारा के निजी स्कूलों के लिए 'समावेश' बनाना अनिवार्य है, विशेष जरूरतों वाले बच्चों को शिक्षित करने के बारे में जागरूकता स्पष्ट वृद्धि पर है, जिससे भारत में विशेष शिक्षकों की प्राकृतिक मांग बढ़ रही है।
वास्तविकता की जांच
विद्यालयों में स्वीकृत समावेश खोजने के लिए, विशेष रूप से उन बच्चों के साथ माता-पिता के लिए यह एक चुनौती है, जिनकी विशेष आवश्यकताएं हैं। एक विशेष शिक्षक के रूप में सामना की जाने वाली चुनौतियों के बारे में, सर्व शिक्षा अभियान और शिक्षा के अधिकार (मानव संसाधन विकास मंत्रालय के तहत एक कार्यक्रम) के लिए समावेशी शिक्षा के राष्ट्रीय स्तर के एक मुख्य सलाहकार डॉ. अनुप्रिया चढ्ढा ने मीडिया के साथ साझा किया। वे अभी भी एक धारणा पर काम करते हैं कि नियमित स्कूल केवल कुछ प्रकार के बच्चों के लिए हैं। इसके अलावा, इस श्रेणी के छात्रों को संभालने के लिए स्कूलों में आधारभूत संरचना या सुविधाएं नहीं हैं। हालांकि चीजें सुधार पक्ष पर हैं।"
2015 में, अलग-अलग बच्चों के संघर्ष को देखते हुए केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने सभी संबद्ध स्कूलों के लिए एक विशेष शिक्षक नियुक्त करने के लिए अनिवार्य किया था, ताकि सीखने की अक्षमता वाले बच्चों को अन्य छात्रों के साथ स्वीकृति मिल सके। स्कूलों में "समावेशी प्रथाओं" के केंद्रीय बोर्ड के अलावा, शिक्षा के अधिकार अधिनियम के सख्त दिशानिर्देशों के कारण भी इस निर्देश की आवश्यकता है।
शिक्षक की डिमांड
निर्विवाद रूप से, विशेष शिक्षकों की मांग है। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु सरकार देश में शिक्षक शिक्षा के सभी कॉलेजों के पाठ्यक्रम में विशेष शिक्षा के कुछ घटक शामिल करने के पक्ष में है। यह इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि भारत और अन्य देशों में विशेष शिक्षकों के लिए बहुत सारे अवसर हैं। वर्तमान में, विशेष शिक्षा में बीएड या एमएड की डिग्री रखने वाले परामर्शदाता के रूप में रोजगार की तलाश भी कर सकते हैं।
भारत में व्यावसायिक रूप से प्रशिक्षित विशेष शिक्षकों की तत्काल आवश्यकता पर बोलते हुए, दिल्ली पब्लिक स्कूल के प्रिंसिपल हेक्टर रविंदर दत्त, रोहक और एसोसिएशन ऑफ स्पेशल एजुकेटर एंड अलायड प्रोफेशनल के संस्थापक ने शेयर किया कि, "2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में अक्षमता वाले 2.70 करोड़ से अधिक लोग रहते हैं। इस आकार की आबादी के लिए, भारत को अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए न्यूनतम 15 लाख विशेष शिक्षकों की जरूरत है। साथ ही, हमें आवश्यक कौशल, ज्ञान और पेशेवर नैतिकता को लागू करके उन्हें नियोजित करने के लिए उनके प्रशिक्षण के लिए एक ठोस नीति की आवश्यकता है।"
आगे के रास्ते
आंकड़ों से पता चलता है कि 2016 से, भारत में 25 लाख से अधिक स्कूल के छात्रों की पहचान विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों के रूप में की गई है, जिन्हें ध्यान देने की जरूरत है। हालांकि, अफसोस की बात है कि संबंधित अधिकारी ऐसे छात्रों की जरूरतों को पूरा करने के लिए विभिन्न स्कूलों में विशेष शिक्षकों के लिए एक पद बनाने में नाकाम रहे हैं।
समावेशन को अभी भी मुख्यधारा के प्रधानाचार्यों और प्रशासकों में जाने के लिए बहुत सारी शिक्षा की जरूरत है, जो इस तथ्य को स्वीकार करने से इंकार कर रहे हैं कि वर्तमान में भारत को शारीरिक रूप से विकलांगता या सीखने की अक्षमता के साथ पैदा हुए 5 में से एक बच्चे होने की सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।
शिक्षा की गुणवत्ता के लिये विशेष पहल की जरूरत.
शिक्षक समाज की सर्वाधिक संवदेनशील इकाई है. शिक्षक अपना काम ठीक तरह से नहीं करते- यह आरोप तो सर्वत्र लगाया जाता है. लेकिन यह विचार कोई नहीं करता कि उसे पढ़ाने क्यों नहीं दिया जाता? आए दिन गैर-शैक्षिक कार्यों में इस्तेमाल करता प्रशासन, शिक्षकों की शैक्षिक सोच को, शैक्षिक कार्यक्रमों को पूरी तरह ध्वस्त कर देता है. बच्चों को पढ़ाना-सिखाना सरल नहीं होता और न ही बच्चे फाईल होते हैं. प्रशासनिक कार्यालय और अधिकारीगण शिक्षा और शिक्षकों की लगातार उपेक्षा करते हैं. उन्हें काम भी नहीं करने देते. इसी कारण स्कूली शिक्षा में अपेक्षित सुधार सम्भव नहीं हो पा रहा है.
शिक्षा में सुधार के लिए क्या करें
स्कूली शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए हमें स्कूलों के बारे में अपनी परम्परागत राय को बदलना होगा. अभी स्कूलों को कार्यालय समझकर, शिक्षकों को प्रतिदिन अनेक प्रकार की डाक बनाने और आँकड़े देने के लिए मजबूर किया जाता है. इससे बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान होता रहता है. बच्चे अपने शिक्षकों से सतत् जुड़े रहना चाहते हैं, विशेषकर प्राथमिक स्तर पर. अत: स्कूलों को कार्यालयीन कामकाज से वास्तव में मुक्त कर प्रभावी शिक्षण संस्थान बनाया जाना चाहिए.
डाक कार्य के लिए अलग से डाक सहायक की सुविधा दी जाए, और हर स्कूल में एक टीचर स्पेशल एजुकेटर की सुविधा दी जाए ताकि समस्त बच्चो के साथ-साथ विशेष बच्चो को भी सुविधा मिले।
अभी अधिकांश स्कूल अन्य सरकारी कार्यालयों की तर्ज पर 9 से 4 की अवधि में ही खुलते हैं. इस कारण से रोजगार में जुटे परिवारों के बच्चों के लिए वे अनुपयोगी सिद्ध हो रहे हैं. स्कूल की समयावधि सरकारी नियंत्रण में होने के कारण बच्चों की उपस्थिति और सीखने का समय कमतर होता जा रहा है. स्कूली उम्र पार कर चुके किशोरों, युवाओं, महिलाओं और कामकाजी लोगों के लिए स्कूल के दरवाजे एक तरह से बन्द ही हैं. विद्यालय समाज की लघुतम इकाई के रूप में "सामाजिक शिक्षण केन्द्र" के रूप में कार्य कर सकते हैं. इस परिकल्पना को साकार करने की दिशा में पहल किए जाने का दायित्व स्थानीय " शिक्षक संघ" पूरा कर सकते हैं. अगर समाज की जरूरत के चलते चिकित्सालय और थाने दिन-रात खुले रह सकते हैं, तो यह भी उतना ही आवश्यक है कि विद्यालय कम-से-कम 10-12 घण्टे जरूर खुलें। और टीचरों कि सिप्ट वाइज सुविधा दी जाए।
शिक्षक-छात्र अनुपात ठीक हो
शैक्षणिक सुधार में शिक्षकों की भूमिका महत्वपूर्ण है. पाठयपुस्तकों और पाठयक्रम के अनुरूप प्रभावी शिक्षण, शिक्षकों की योग्यता, सक्रियता और पढ़ाने के कौशल पर निर्भर है. एक शिक्षक, एक साथ कितनी कक्षाओं के कितने बच्चों को भली-भाँति पढ़ा सकेगा, इस बारे में गम्भीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है.
आदर्श रूप में एक शिक्षक अधिकतम 20 बच्चों को ही ठीक प्रकार पढ़ा सकता है. वह भी तब, जब वे भी एक समान स्तर के हों. अभी व्यवस्था यह है कि एक शिक्षक 40 बच्चों को (और वे भी अलग-अलग स्तरों के हैं) पढ़ाएगा. अनेक स्कूलों में तो 70-80 से भी अधिक बच्चों को पढ़ाना पड़ रहा है. ऐसे में शिक्षक मात्र बच्चों को घेरकर ही रख पाते हैं पढ़ाई तो सम्भव ही नहीं. शिक्षक बच्चों को पढ़ा भी पाएँ, इस हेतु शिक्षक-छात्र अनुपात को व्यवहारिक बनाना होगा.
प्रशिक्षण, शिक्षण और परीक्षण
स्कूली शिक्षा में सुधार के लिए शिक्षण विधियों, प्रशिक्षण और परीक्षण की विधियों में भी सुधार करने की जरूरत है. अभी शिक्षण की विधियाँ राज्य स्तर से तय की जाती हैं. कक्षागत शिक्षण कौशलों को या तो नकार दिया जाता है या उन्हें परिस्थितिजन्य मान लिया जाता है.
अच्छे प्रशिक्षण के लिए प्रशिक्षण का दायित्व कर्तव्यनिष्ठ, योग्य और क्षमतावान प्रशिक्षकों को सौंपा जाना चाहिए. शिक्षकों के प्रशिक्षण को प्रभावी बनाने, शिक्षण में नवाचारी पध्दतियाँ विकसित करने सहित परीक्षण (मूल्यांकन) की व्यापक प्रविधियाँ तय कर उन्हें व्यवहारिक स्वरूप में लागू करने की दिशा में कारगर कदम उठाने की दृष्टि से यह आवश्यक है कि हर प्रदेश में एक "शैक्षिक संदर्भ एवं स्त्रोत केन्द्र" विकसित किया जाए.
शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार मूलक परियोजनाएँ
शिक्षा के क्षेत्र में अनेक संस्थाएँ कार्यरत हैं. रोजगार और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए भी शासकीय स्तर पर परियोजनाएँ और कार्यक्रम लागू किए गए हैं. मानव विकास के बुनियादी सूचकांक होते हुए भी इनमें तालमेल न होने के कारण इनकी गति अपेक्षित नहीं है. धन की गरीबी से ज्ञान की गरीबी का विशेष सम्बंध है. ग्रामीण दूरस्थ अँचलों में ज्ञान की गरीबी पसरी हुई है. जानकारी के अभाव में वे संसाधनों का उपयोग नहीं कर पाते. अनेक परियोजनाओं के बावजूद उनकी प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक चिकित्सा और बुनियादी रोजगार की प्रक्रियाएँ बाधित होती हैं. अब समय आ गया है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए लागू परियोजनाओं को समेकित ढ़ंग से किसी सुनिश्चित क्षेत्र में लागू कर परिणामों की समीक्षा की जाए. अच्छे परिणाम आने पर उन्हें पूरे देश भर में लागू किया जाए. इस प्रकार हम अपने संसाधनों और मानवीय क्षमताओं का बेहतर उपयोग कर सकेंगे जिससे शिक्षा के गुणात्मक विकास की संभावनाएँ बढ़ेंगीं.
पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें
अभी वास्तव में यह ठीक प्रकार तय ही नहीं है कि किस आयु वर्ग के बच्चों को कितना सिखाया जा सकता है और सिखाने के लिए न्यूनतम कितने साधनों और सुविधाओं की आवश्यकता होगी. नई शिक्षा नीति 1986 लागू होने के बाद न्यूनतम अधिगम स्तरों को आधार मानकर पाठ्यपुस्तकें और पाठ्यक्रम तो लगातार बदले गए हैं, लेकिन उनके अनुरूप सुविधाओं और साधनों की पूर्ति ठीक से नहीं की गई है. यह सोच भी बेहद खतरनाक है कि पाठ्यपुस्तकों के जरिए हम भाषायी एवं गणितीय कौशलों और पर्यावरणीय ज्ञान को ठीक प्रकार विकसित कर सकते हैं. यथार्थ में पाठ्यपुस्तकें पढ़ाई का एक छोटा साधन मात्र होती हैं साध्य नहीं. कक्षाओं पर केन्द्रित पाठयपुस्तकों और पाठ्यक्रम को श्रेणीबध्द रूप में निर्धारित करना भी खतरनाक है. बच्चों की सीखने की क्षमता पर उनके पारिवारिक और सामाजिक वातावरण का भी विशेष प्रभाव पड़ता है, अत: सभी क्षेत्रों में एक समान पाठ्यक्रम और एक जैसी पाठ्यपुस्तकें लागू करना बच्चों के साथ नाइन्साफी है.
शैक्षिक उद्देश्य
स्कूली शिक्षा में सुधार के लिए हमें वर्तमान शैक्षिक उद्देश्यों को भी पुनरीक्षित करना होगा. शिक्षा, महज परीक्षा पास करने या नौकरी/रोजगार पाने का साधन नहीं है. शिक्षा विद्यार्थियों के व्यक्तित्व विकास, अन्तर्निहित क्षमताओं के विकास करने और स्वथ्य जीवन निर्माण के लिए भी जरूरी है. शिक्षा प्रत्येक बच्चे को श्रेष्ठ इंसान बनने की ओर प्रवृत्त करे, तभी वह सार्थक सिध्द हो सकती है. कहा भी गया है "सा विद्या या विमुक्तये". अभी पढ़े-लिखे और गैर पढ़े-लिखे व्यक्ति के आचरण और चरित्र में कोई खास अन्तर दिखाई नहीं देता. उल्टे पढ़-लिख लेने के बाद तो व्यक्ति श्रम से जी चुराने लगता है और अनेक प्रकार के दुराचरणों में लिप्त हो जाता है. यह स्थिति एक तरह से हमारी वर्तमान शैक्षिक पध्दति की असफलता सिध्द करती है. अतः यह जरूरी है कि शिक्षा के उद्देश्यों को सामयिक रूप से परिभाषित कर पुनरीक्षित किया जाए.
शिक्षकों को "शिक्षक" के रूप में अवसर मिले
समान कार्य के लिए समान कार्य परिस्थितियाँ और समान वेतन की अनुशंसा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में और मानव अधिकार घोषणा पत्र के अनुच्छेद 21, 22, और 23 में वर्णित होते हुए भी नाना नामधारी शिक्षक मौजूद हैं. एक ही विद्यालय में अनेक प्रकार के शिक्षकों के पदस्थ रहते सभी के मन में घोषित-अघोषित तनावों के कारण पढ़ाई में व्यवधान हो रहा है. इस परिस्थिति को गम्भीरता से समझे बगैर और परिस्थितियों में सुधार किए बगैर भला शिक्षण में सुधार कैसे होगा? शासन को सभी शिक्षण संस्थाओं में कार्यरत शिक्षकों के लिए एक समान कार्यनीति, समान पदनाम, समान वेतनमान देने की नीति तय कर एक निश्चित कार्यावधि के बाद पदोन्नति देने का भी ऐलान करना चाहिए.
श्रेष्ठतम शैक्षिक कार्यकर्ता
शैक्षिक परिवर्तन के लिए शिक्षकों का मनोबल बनाए रखने और उत्साहपूर्वक कार्य करने की इच्छाशक्ति पैदा करने के लिए संगठित प्रयास करने होंगे. अभी शिक्षा व्यवस्था में बालकों और पालकों की भागीदारी न्यूनतम है, इसलिए सभी शैक्षिक कार्यक्रम सफल नहीं हो पाते हैं. स्कूलों में भी जिस प्रकार समर्पित स्वयंसेवकों की आवश्यकता है, वे नहीं हैं. अत: यह आवश्यक है कि श्रेष्ठतम शैक्षिक कार्यकर्ताओं की नियुक्ति की जानी चाहिए.
शिक्षकों का मनोबल बढ़ाया जाए
समूची दुनिया के सभी विकसित और विकासशील देशों में प्राथमिक शालाओं के शिक्षकों को आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक और प्रशासनिक दृष्टि से श्रेष्ठ माना जाता है. साथ ही ऐसी शिक्षा नीति बनाई जाती है जिसमें उनका मनोबल सदैव ऊँचा बना रहे. जब तक अनुभव जन्य ज्ञान, और कौशलों को महत्व नहीं दिया जाएगा तब तक "बालकेन्द्रित शिक्षण" की प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकती है. बाल केन्द्रित शिक्षण के लिए कार्यरत शिक्षकों की दक्षता और मनोबल बढ़ाए जाने की आवश्यकता है.
यह आवश्यक है कि शिक्षकों को उनके व्यक्तित्व विकास की प्रक्रियाओं सहित ऐसे प्रशिक्षण संस्थानों में भेजा जाए जहाँ उन्हें अपने अन्दर झाँकने कुछ बेहतर कर गुजरने की प्रेरणा मिल सके. इस प्रशिक्षण उपरान्त उन्हें कार्यरत स्थलों पर "ऑन द जॉब सपोर्ट" के रूप में ऐसे सहयोगी दिए जाएँ जो उनकी वास्तविक मदद करें. किसी ऐसी संस्था को इस दिशा में काम करने की जरूरत है जो सामाजिक बदलाव के लिए व्यापक दूरदृष्टि और दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ काम करने के लिए सहमत हो और उसके पास स्वयं के संसाधन भी उपलब्ध हों.
आज जरूरत इस बात की है कि किसी प्रकार पढ़ने-लिखने की प्रक्रिया में परिवर्तन लाने के लिए विद्यालय प्रशासन, शिक्षकों और शैक्षिक कार्यक्रमों में तालमेल बनाया जाए. समुदाय की शैक्षिक आवश्यकताओं को पहचान कर उनकी जरूरतों के अनुरूप निर्णय लेते हुए ऐसा वातावरण बनाने की आवश्यकता है जिसमें व्यवसायिक योग्यता में वृध्दि सुनिश्चित हो. शिक्षा के प्रशासन एवं प्रबन्धन में उत्तरदायी भूमिका निभाने वाले संस्था प्रधानों की नियुक्ति और प्रशिक्षण हेतु शिक्षा विभाग एवं शिक्षा के क्षेत्र में कार्य कर रहे अन्य संगठनों को शीघ्र कारगर कदम उठाना चाहिए. संस्था प्रधानों की भूमिका को सशक्त बनाए बगैर शिक्षा में सुधार की सम्भावनाएँ अत्यन्त क्षीण रहेंगी.
प्रशासनिक एवं प्रबन्धकीय व्यवस्थागत सुधार
शिक्षा प्रशासन की यह नियति बन गई है कि इसमें उच्च शिक्षा स्तर पर भी स्थायित्व नहीं है. राष्ट्रीय स्तर पर लागू राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 और कार्ययोजना 1992 में स्वीकृत अखिल भारतीय शिक्षा सेवा की स्थापना आज तक नहीं हो पाई है. लगभग हर स्तर पर निर्णायक पदों पर नियुक्त प्रशासनिक सेवा के अधिकारी शिक्षा क्षेत्र में आ रही गिरावट और असफलता के लिए उत्तरदायी नहीं माने जाते. हाँ, किसी छोटी-सी सफलता का श्रेय अवश्य हासिल करते नजर आते हैं. शिक्षा में सुधार के लिए कार्यरत शिक्षकों को समर्थन देने की दृष्टि से यह अत्यंत आवश्यक है कि शिक्षा के प्रबन्धन और प्रशासन को सुधारा जाए. म.प्र. शासन द्वारा वर्ष 2003 में गठित "स्पेशल टास्क फोर्स" की अनुशंसाओं को लागू किए जाने की भी आज महती आवश्यकता है जो एक दस्तावेज में सिमट कर रह गई हैं. म.प्र. देशभर में सर्वप्रथम जन शिक्षा अधिनियम तैयार कर लागू करने वाले प्रदेश के रूप में है. क्रियान्वयन के स्तर पर जरूर अनेक कार्य अभी शेष हैं जिसमें प्रमुख कार्य सभी स्तरों पर कार्यरत शिक्षा केन्द्रों के संचालन हेतु मैनुअल (संचालन मार्गदर्शिकाओं) का सृजन और उन्हें लागू करना है, ताकि कार्यरत स्टाफ बेहतर प्रदर्शन कर सके. प्रदेश के सभी जनशिक्षा केन्द्रों को प्रबन्धन और प्रशासन के प्रति उत्तरदायी भूमिका सौंपते हुए जनशिक्षा केन्द्र प्रभारी को आहरण वितरण अधिकार दिए जाने चाहिए. यह अत्यंत आवश्यक है कि समग्रत: शिक्षा व्यवस्था को नियंत्रित किए जाने हेतु राज्य की शिक्षा नीति तैयार की जानी चाहिए. कार्यरत शिक्षकों की दक्षता का सम्मान और उनकी कार्यदक्षता का उपयोग किए जाने की दृष्टि से विभागीय दक्षता परीक्षा का आयोजन कर सभी को प्रन्नोत किया जाना चाहिए. अंतत: शैक्षिक सुधार के लिए अब हमें विचार करने की बजाय कर्तव्य की ओर बढना होगा।
आज शिक्षा के क्षेत्र में वास्तविक सुधार की दृष्टि से शीघ्र सार्थक कदम उठाते हुए हमें ऐसी शिक्षण पध्दति और कार्यक्रम विकसित करने होंगे जो बच्चों के मन में श्रम के प्रति निष्ठा पैदा करें समग्रत: एक ऐसा प्रभावी शैक्षिक कार्यक्रम बनाना होगा जिसमें-
पाठ्यक्रम लचीला और गतिविधि आधारित हो, साथ ही बच्चों की ग्रहण क्षमता के अनुरूप भी. कक्षागत पाठ्य योजनाएँ, स्वयं शिक्षकों द्वारा तैयार की जाएँ और उन्हें पूरा किया जाए. राज्य की शिक्षा नीति निर्धारण में शिक्षाविदों और कार्यरत शिक्षकों को वास्तव में सहभागी बना कर सभी के विचारों को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाए. जन भागीदारी समितियाँ (पालक शिक्षक संघ) प्रबन्धन का दायित्व स्वीकारें - शैक्षिक प्रशासन तंत्र भी शालाओं में अनावश्यक हस्तक्षेप न करें. शिक्षण का अधिकार शिक्षकों को वास्तव में सौंपा जाए. शिक्षण विधियों में परिवर्तन करने का अधिकार शिक्षकों को हो, प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं. कक्षाओं में शिक्षक-छात्र अनुपात ठीक किया जाए, साथ ही पर्याप्त मात्रा में शैक्षिक सामग्री की पूर्ति और शिक्षकों की भर्ती की जाए. पाठ्यपुस्तकों की रचना स्थापित रचनाकारों की बजाय शिक्षकों और शिक्षा विशेषज्ञों के माध्यम से की जानी चाहिए, जो शैक्षिक दृष्टि से उपयुक्त हो. शैक्षिक सुधारों को लागू करने में संस्था प्रधानों और शिक्षकों की भूमिका को महत्वपूर्ण माना जाए।शिक्षकों के सहयोग हेतु "राज्य शिक्षक सन्दर्भ और स्त्रोत केन्द्र" स्थापित किए जाएँ. विद्यालयों को शिक्षण के लिए उत्तरदायी बनाया जाए.
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U.d.Lसिद्धांत क्या है
ReplyDeleteThank you apki help se mera project pura Ho paya thank you so much
ReplyDeleteWELCOME JI
ReplyDeleteHii I am pooja arya me chatihu apke sath judna so please yrr ap ager ego celatehai to mujhe is ego me Samir kre but delhi se kyuki I live delhi so please
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