Sunday, May 19, 2019

उत्तराखण्ड विद्यालयी शिक्षा परिषद् (UBSE)


 Uttarakhand Board of Secondary Education  (UBSE)


 उत्तराखण्ड विद्यालयी शिक्षा परिषद्

उत्तराखण्ड विद्यालयी शिक्षा परिषद्, उत्तराखण्ड सरकार के अधीन शिक्षा विभाग की एक संस्था है, जिसका कार्य राज्य के माध्यमिक विद्यालय के छात्रों के लिए पाठ्यक्रम तैयार करना तथा हाई स्कूल एवं इण्टरमीडिएट स्तर की वार्षिक परिषदीय परीक्षाएँ आयोजित कराना है। इसकी स्थापना 2001 में की गयी तथा रामनगर में इसका मुख्यालय है। वर्तमान में 10,000 से अधिक स्कूल परिषद् से संबद्ध हैं। परिषद् प्रतिवर्ष 1300 से अधिक परीक्षा केन्द्रों पर 300,000 से अधिक परीक्षार्थियों के लिए वार्षिक परीक्षाएँ संपन्न कराती है।


उत्तराखण्ड विद्यालयी शिक्षा परिषद्

संक्षेपाक्षर              UBSE
स्थापना                 सितम्बर 22, 2001 (17 वर्ष)
प्रकार                   शासकीय विद्यालयी शिक्षा परिषद्
मुख्यालय              रामनगर
स्थान                    उत्तराखण्ड, भारत
आधिकारिक भाषा   हिन्दी
अध्यक्ष                  राकेश कुमार कुँवर
पैतृक संगठन          शिक्षा विभाग, उत्तराखण्ड सरकार
जालस्थल              आधिकारिक जालपृधर


इतिहास

1. 9 फरवरी, 1996: उत्तराखण्ड क्षेत्र हेतु  उत्तर प्रदेश माध्‍यमिक शिक्षा परिषद् के क्षेत्रीय कार्यालय की स्‍थापना रामनगर (नैनीताल) में हुयी।

2. 1999: उक्‍त क्षेत्रीय कार्यालय  द्वारा प्रथम बार गढ़वाल मण्डल एवं कुमाऊँ मण्‍डल हेतु परीक्षाओं का संचालन हुआ।

3. 2001: कुमाऊँ एवं गढ़वाल मण्‍डलों हेतु परिषदीय परीक्षाएँ माध्‍यमिक शिक्षा परिषद उत्‍तर प्रदेश के तत्‍कालीन क्षेत्रीय कार्यालय रामनगर  द्वारा संचालित की गयीं।

4. 22 सितम्‍बर, 2001: उत्‍तरांचल राज्‍य गठन के उपरान्‍त उत्तरांचल शिक्षा एवं परीक्षा परिषद् की स्‍थापना  हुयी।

5. 2002 में परिषद् द्वारा प्रथम बार परीक्षाओं का स्‍वयं आयोजन किया गया।

6. 22 अप्रैल, 2006: उत्तरांचल विधान सभा द्वारा उत्‍तरांचल विद्यालयी शिक्षा अधिनियम, 2006 का प्राख्‍यापन हुआ तथा उत्‍तरांचल विद्यालयी शिक्षा परिषद् की स्‍थापना हुयी।

7. 11दिसम्‍बर, 2008: उत्‍तराखण्‍ड विदयालयी शिक्षा परिषद् का गठन हुआ।



शिशुशिक्षा
child education


"शिशु" शब्द का अर्थ बहुत व्यापक होता है। कोई जन्म से लेकर ढाई तीन वर्षों तक, कोई पाँच वर्ष तक और कोई छह या सात वर्ष तक के बच्चे को शिशु कहता है। परंतु शिशुशिक्षा के अर्थ "दो से ग्यारह या बारह वर्ष तक की शिक्षा" माना जाता है। इस पर्याप्त लंबी अवधि को प्राय दो भागों में बाँटा जाता है। दो वर्ष से छह वर्ष की शिक्षा को शिशुशिक्षा (इनफंट या नर्सरी एजुकेशन) कहते हैं, जो प्राय: शिशुशालाओं (नर्सरी स्कूलों) में दी जाती है। छह वर्ष के पश्चात् ग्यारह या बारह वर्ष की शिक्षा को बालशिक्षा (चाइल्ड एजुकेशन) या प्रारंभिक शिक्षा (एलीमेंटरी एजुकेशन) कहते हैं। संसार के सभी प्रगतिशील देशों में प्रारंभिक शिक्षा अनिवार्य है। अत: कहीं छह वर्ष के पश्चात् और कहीं सात वर्ष से प्रारंभिक विद्यालयों में शिक्षा आरंभ की जाती है जो प्राय: पाँच वर्षों तक चलती है। तत्पश्चात् बच्चे माध्यमिक शिक्षा में प्रविष्ट होते हैं।

शिशु मनुष्य का पूर्वरूप है। मनुष्य की संपूर्ण शक्तियाँ और संभावनाएँ शिशु में संनिहित रहती हैं। उसके समुचित पालन पोषण एवं शिक्षादीक्षा पर ही भावी मनुष्य का विकास निर्भर रहता है। अत: मनुष्य की शिक्षा को पूर्ण बनाने की नींव शैशवावस्था में ही पड़ जानी चाहिए। इसी से आज के युग में शिशुशिक्षा को सर्वाधिक महत्व प्रदान किया जाता है।


 इतिहास 

उन्नीसवीं शताब्दी तक शिशु को शिक्षित करने का ढंग बड़ा ही कठोर था। उसके प्रति अध्यापक की सहानुभूति का अभाव था। शिक्षा में शारीरिक दंड का विधान प्रमुख था। शिशु का भी कोई पृथक् व्यक्तित्व है - उसकी अपनी आवश्यकताएँ, स्वतंत्र रुचि एवं आकांक्षाएँ हैं - इसपर अध्यापक का ध्यान नहीं जाता था। शिशु सामान्य (तथाकथित) अपराध पर अध्यापक का क्रुद्ध होना और उसे शारीरिक दंड देना स्वाभाविक था। माता पिता भी "दशवर्षाणि ताडयेत्" को वेदवाक्य मानकर शिक्षा में शिशु के दंड का विधान नतमस्तक होकर स्वीकार करते थे।

 शिशु की स्वतंत्रता का सर्वप्रथम प्रचारक रूसो (1712-1778 ई.) हुआ। तत्पश्चात् पेस्तालीत्सी (1746-1827) ने शिशुशिक्षा को मनोवैज्ञानिक आधार प्रदान किया। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में फ्रोबेल नामक जर्मन शिक्षाशास्त्री ने "बालोद्यान" (किंडरगार्टन) पद्धति द्वारा शिशुशिक्षा में क्रांति उत्पन्न की; परंतु अनेक कारणों से उसका प्रचार मंद गति से हुआ जिससे उन्नीसवीं शताब्दी का अंत होते यह पद्धति यूरोप के अन्य देशों तथा अमरीका में फैली। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में अमरीका के एडवर्ड थार्नडाइक तथा चार्ल्स जुड ने शिशुशिक्षा को सरल, सरस एवं आकर्षक बनाने का प्रयत्न किया। अब शिक्षाशास्त्रियों एव मनावैज्ञानिकों का ध्यान शिशु मनोविज्ञान की ओर विशेष रूप से आकृष्ट हुआ। इटली की प्रसिद्ध महिला शिक्षाशास्त्रिणी मैरिया मांतेस्सोरी ने ज्ञानेंद्रियों की साधना पर विशेष बल दिया जिससे शिशु-शिक्षण-पद्धति में एक नवीन युग आरंभ हुआ और शिशु की शिक्षा सामूहिक से व्यक्तिप्रधान हो गई। प्रत्येक शिशु की पृथक् रुचि एवं मानसिक विकास के अनुरूप उसे शिक्षा देने की व्यवस्था हुई। महात्मा गांधी ने शिशुशिक्षा में उपयोगितावाद का प्रधानता दी और जीवनोपयोगी किसी व्यवसाय (जैसे कताई, बुनाई या कृषि) को शिक्षा का आधार बनाया जिससे यह शिक्षा आधार (बेसिक) शिक्षा कहलाती है।


शिशुशिक्षा की प्रमुख पद्धतियाँ

अधिकांश देशों में शिशुशिक्षा की दो प्रमुख पद्धतियाँ व्यवहार में लाई जाती हैं - एक बालोद्यान की, दूसरी मांतेस्सोरी। बालोद्यान पद्धति में बच्चों को कुछ खिलौनों या क्रीड़ा उपकरणों (जिन्हें फ्रोबेल ने "उपहार" कहा है) तथा शिशु गीतों (नर्सरी सौंग्स) द्वारा सामूहिक शिक्षा दी जाती है। बच्चे शिक्षा को खेल समझकर बड़ी रुचि से आकृष्ट होते हैं और विद्यालय उनके लिए आकर्षण का केंद्र बन जाता है। परंतु शिशुमनोविज्ञान के विकास से पता चला है कि प्रत्येक शिशु दूसरे से भिन्न होता है। अत: उसकी शिक्षा दूसरों से पृथक् ढंग से होनी चाहिए। उस अपनी सहज शक्तियों एवं संभावनाओं का विकास करने के लिए अवसर मिलना चाहिए। केवल सामूहिक शिक्षा देने से उसकी बहुत सी शक्तियाँ अविकसित रह जाती हैं। अत: बालोद्यान का स्थान धीरे धीरे मांतेस्सोरी पद्धति ले रही है। मांतेस्सोरी पद्धति के मूल आधार हैं

ज्ञानेंद्रियों का साधन या विकास तथा शिशु की स्वतंत्रता। इस पद्धति के द्वारा तीन से छह या सात वर्ष के बच्चों का अनेक प्रकार के शैक्षिक यंत्रों (डिडैक्टिक) ऐपैरेटस द्वारा वस्तुओं के रूप, रंग, आकार आदि का ज्ञान कराया जाता है। परंतु प्राय: संपूर्ण ज्ञान बच्चे स्वयं प्राप्त करते हैं। आत्मशिक्षण इस पद्धति का मूल मंत्र है। अध्यापिका दर्शक के रूप में विद्यमान रहकर शिशु के कार्यों का संप्रेक्षण एवं निर्देश करती है। इससे उसे "अध्यापिका" न कहकर "संचालिका" कहते हैं। मांतेस्सोरी विद्यालयों में इंद्रियसाधना के साथ साथ व्यावहारिक जीवन की उपयोगी शिक्षा दी जाती है, जैसे भोजन परसना, कमरा साफ करना, कमरे के सामान व्यवस्थित रूप से सजाकर रखना, इत्यादि। स्वच्छता के साथ ही वेशभूषा धारण करने के ढंग, जैसे बालों में कंघी करना, कपड़ों में बटन लगाना, फीता बाँधना इत्यादि भी सिखाए जाते हैं। इन विद्यालयों में टेबुल, कुर्सी, चौकी इत्यादि सभी आवश्यक सामान हल्के बनवाए जाते हैं जिससे बच्चे सरलता से उन्हें स्थानांतरित कर सकें। इस प्रकार उन्हें अपने सभी कार्य स्वयं करने की शिक्षा दी जाती है।

उक्त दोनों प्रकार की पद्धतियों में शिशु के व्यक्तित्व का महत्व स्वीकार किया जाता है और उसे किसी प्रकार का शारीरिक दंड न देकर प्रेम से शिक्षा देना श्रेयस्कर माना जाता है। शिक्षा में दंड या पुरस्कार के बिना वातावरण से जो प्रेरणा मिलती है वही शिशु के विकास में सहायक होती है। बालोद्यान पद्धति में उपहार का विधान तो है परंतु पुरस्कार का नहीं है। मांतेस्सोरी पद्धति में भी पुरस्कार या प्रलोभन देकर शिक्षा की ओर आकृष्ट करने का कोई विधान नहीं है। दोनों ही पद्धतियों में सक्रियता का सिद्धांत मान्य है। बच्चों में क्रियाशीलता एवं स्फूर्ति की अधिकता होती है जिसका संचालन उपयुक्त दिशा में होना चाहिए। अत: आधुनिक शिक्षा में शिशु को विभिन्न प्रकार की क्रियाओं में व्यस्त रखा जाता है और शिक्षा को खेल का रूप प्रदान किया जाता है जिससे वह शिशु को बोझ न जान पड़े। आधुनिक शिक्षा का एक बहुमान्य सिद्धांत है करके सीखना। इस सिद्धांत के अनुसार ही उक्त दोनों पद्धतियों में व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा दी जाती है। शिशु के शरीर में निरंतर वर्धमान शक्ति एव स्फूर्ति का उपयोग करने के लिए शारीरिक व्यायाम तथा खेल-कूद की पर्याप्त व्यवस्था रखी जाती है। खेलकूद के नियमों के पालन से अनुशासन की शिक्षा मिलती है, साथ ही सहयोग द्वारा कार्य करने एवं आदान प्रदान करने का अभ्यास बढ़ता है।

शिशुशिक्षा में कहानी, कविता तथा संगीत को भी प्रमुख स्थान दिया जाता है। यद्यपि श्रीमती मांतेस्सोरी परियों की काल्पनिक कथाओं के विरुद्ध हैं और बच्चों के लिए उन्हें अनुपयुक्त मानती हैं फिर भी व्यवहार में प्राय: देखा जाता है कि ऐसी कथाओं से बच्चों का केवल मनोरंजन ही नहीं होता वरन् उनमें कल्पनाशक्ति का विकास भी होता है। अत: उनके पाठ्यक्रम में इनका होना लाभदायक सिद्ध होता है। बच्चों के लिए कविता एवं संगीत के महत्व को श्रीमती मांतेस्सोरी भी स्वीकार करती हैं। अत: उनके विद्यालयों में बच्चों को कविताएँ - विशेषत: नादसौंदर्यात्मक, लययुक्त एवं अभिनेय कविताएँ सिखाई जाती हैं। प्रयाण गीतों तथा नृत्य के साथ चलनेवाले गीतों को प्रधानता दी जाती है। तात्पर्य यह है कि वर्तमान शिशुशिक्षा पद्धति में शिशु को सब प्रकार की स्वतंत्रता देकर आत्माभिव्यंजन का पूर्ण अवसर प्रदान किया जाता है। इसके लिए अनुकूल वातावरण एवं उपकरण प्रस्तुत करना शिक्षक का मुख्य कर्तव्य होता है।

उपर्युक्त सिद्धांतों के अनुसार शिशुशिक्षा के समुचित प्रसार के लिए निम्नोक्त आवश्यकताओं की पूर्ति अपेक्षित है - दो से छह वर्ष के बच्चों के लिए शिशुशालाओं (नर्सरी स्कूलों) तथा छह से ग्यारह वर्ष के बच्चों के लिए बालोद्यान की स्थापना; सभी शिशुविद्यालयों में जलपान एवं दोपहर के भोजन की व्यवस्था; शिशु छात्रावासों की स्थापना; शिशु छात्रावासों की स्थापना; शिशुशिक्षा के लिए उपयुक्त प्रशिक्षित अध्यापिकाओं की नियुक्ति; बच्चों के क्रीड़ोपकरणों की व्यवस्था; बालसमाजों (चिल्ड्रेंस क्लबों) की स्थापना जहाँ बच्चे एकत्र होकर परस्पर मिल सकें तथा मनोरंजन के साधनों द्वारा जी बहला सकें; शिशुशिक्षा के लिए उपयुक्त साहित्य-आकर्षक पुस्तकें, पत्रपत्रिकाएँ आदि-के अतिरिक्त उपयोगी एवं आकर्षक खिलौने प्रस्तुत करना; विकलांग, विकृतमस्तिष्क एवं अपराधी बच्चों के लिए पृथक् विद्यालयों की स्थापना; शिशुप्रदर्शनियों द्वारा बच्चों के स्वास्थ्य को प्रोत्साहन देना; तथा राज्य द्वारा शिक्षा का संपूर्ण भारवहन जिससे सभी बच्चों का समान अवसर मिले, भोजन, जलपान, आवास आदि नि:शुल्क प्राप्त हों एवं उनके शारीरिक या मानसिक विकास में धनाभाव के कारण कोई त्रुटि न रहने पाए।


बुनियादी शिक्षा

भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के समय गांधीजी ने सबसे पहले बुनियादी शिक्षा की कल्पना की थी। आज जिसे विश्वविद्यालय स्तर पर "फाउंडेशन कोर्स" कहा जाता है, उसकी पृष्ठभूमि में गांधी की बुनियादी यानी बेसिक शिक्षा ही तो थी। इस बुनियादी प्रशिक्षण और प्राथमिक स्तर की शिक्षा के दो स्तर थे- स्कूली बच्चे कक्षा-एक से ही तकली से सूत कातते थे; रूई से पौनी बनाते थे और सूत की गुड़िया बनाकर या तो खादी भंडारों को देते थे या बैठने के आसन, रुमाल, चादर आदि बनाते थे।

शिक्षा के बारे में गांधीजी का दृष्टिकोण वस्तुत: व्यावसायपरक था। उनका मत था कि भारत जैसे गरीब देश में शिक्षार्थियों को शिक्षा प्राप्त करने के साथ-साथ कुछ धनोपार्जन भी कर लेना चाहिए जिससे वे आत्मनिर्भर बन सकें। इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने ‘वर्धा शिक्षा योजना’ बनायी थी। शिक्षा को लाभदायक एवं अल्पव्ययी करने की दृष्टि से सन् १९३६ ई. में उन्होंने ‘भारतीय तालीम संघ’ की स्थापना की।


प्रारंभिक शिक्षा


छह वर्ष के पश्चात् ग्यारह या बारह वर्ष की शिक्षा को 'प्रारंभिक शिक्षा (प्राइमरी एजूकेशन या एलीमेंटरी एजुकेशन) या बालशिक्षा (चाइल्ड एजुकेशन) कहते हैं। संसार के सभी प्रगतिशील देशों में प्रारंभिक शिक्षा अनिवार्य है। अत: कहीं छह वर्ष के पश्चात् और कहीं सात वर्ष से प्रारंभिक विद्यालयों में शिक्षा आरंभ की जाती है जो प्राय: पाँच वर्षों तक चलती है। तत्पश्चात् बच्चे माध्यमिक शिक्षा में प्रविष्ट होते हैं। इसके पहले के शिक्षा के स्तर को शिशुशिक्षा कहते हैं।


 प्राथमिक शिक्षा से जुड़ी योजनायें

  • मध्याह्न भोजन योजना(मिड डे मील) -
इसमें प्राथमिक शिक्षा के अंतर्गत सरकार के मध्याह्न भोजन योजना की जानकारी दी गयी है।

  • महिला समाख्या कार्यक्रम- 
इस भाग में महिला समाख्या कार्यक्रम की जानकारी दी गई है।

  • पढ़े भारत बढ़े भारत 
इसमें प्रारंभिक कक्षाओं में समझ के साथ पढ़ना –लिखना और गणित कार्यक्रम के विषय में अधिक जानकारी दी गई है|

  • क्रमिक अधिगम पुस्तिकाएँ का कक्षाओं में उपयोग हेतु निर्देशक बिंदु -
इसमें बच्चों में आरंभिक शिक्षा की तैयारी हेतु कुछ उपयोगी दिशा- निर्देश दिए गए है।

  • सर्व शिक्षा अभियान -
सर्व शिक्षा अभियान जिला आधारित एक विशिष्ट विकेन्द्रित योजना है।



भारत सरकार प्राथमिक  शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए प्रयासरत है।

देश के विभिन्न राज्यों में सरकारें प्राथमिक शिक्षा में कई स्तरों पर गुणवत्ता के मसले को लेकर न केवल चिंतित हैं, बल्कि प्रयास कर रही हैं। मुख्यतौर पर बच्चों में भाषायी कौशलों मसलन सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना आदि को लेकर दिक्कतें आती हैं। इन कौशलों में भी पढ़ना और लिखना ऐसे कौशल हैं जिनमें बच्चे न केवल बिहार बल्कि अन्य राज्यों में भी पिछड़ रहे हैं। इसका प्रमाण समय समय पर असर और सरकारी दस्तावेज भी देते रहे हैं। हालिया एनसीईआरटी की ओर किए गए अध्ययन में पाया गया कि बच्चों में पढ़ने−लिखने और गणित की दक्षता में खासा परेशानी आती है। यह स्थिति आज से नहीं बल्कि पिछले एक दशक में ज़्यादा संज्ञान में आयी है। विभिन्न रिपोर्ट इस मसले पर अपनी चिंता प्रकट कर चुकी हैं। बिहार सरकार इन्हें गंभीरता से लेते हुए राज्य में प्राथमिक स्कूलों में गणित और भाषायी दक्षता खासकर पढ़ने और लिखने को कक्षा तीसरी और पांचवीं में सुधारने के लिए प्रयास कर रही है।

भारत में प्राथमिक शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए यह प्रयास निश्चित ही सराहनीय है। हालांकि भारत के सभी राज्यों में प्राथमिक स्तर पर बुनियादी कौशलों में बच्चे तय स्तर से नीचे पाए गए हैं। इन्हें कैसे दुरुस्त किया जाए इसके लिए भारत सरकार ने एक योजना का ऐलान किया है। इस योजना के तहत तमाम प्राथमिक स्कूलों में कक्षा तीसरी और पांचवीं के बच्चों में गणित के सामान्य सवालों को हल करने के कौशल पर काम किया जाएगा। साथ ही भाषायी कौशल विकास को लेकर समय समय पर सवाल उठते रहे हैं। इन्हें संज्ञान में लेते हुए भारत सरकार ने घोषणा की है कि प्राथमिक स्कूलों में इन्हीं कक्षाओं के बच्चों में पढ़ने और लिखने के कौशल विकास पर भी सघन कोशिश की जाएगी।

बच्चों में भाषायी कौशल और गणित के सामान्य सवालों को हल करने के कौशल प्रदान करने का प्रयास तो ठीक है किन्तु यह एक अन्य चिंता भी जगाती है कि क्या हमारे शिक्षक और अन्य संसाधन इस योजना को पूरा करने में सक्षम और समर्थ हैं? क्या हमारे पास इस योजना को सफल बनाने के लिए पूरी कार्य योजना और रणनीति तैयार है आदि। क्योंकि इससे पूर्व भी देश भर में इन बुनियादी कौशलों के विकास के लिए विभिन्न योजनाओं की शुरूआत की गई। इसका परिणाम अभी तक पर्याप्त नहीं माना जा सकता। इससे पूर्व देश भर में ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड, सर्व शिक्षा अभियान आदि की भी शुरूआत की गई। इन तमाम अभियानों में जो कमी देखी गई वह इनके कार्यान्वयन स्तर पर थी। ये योजनाएं अपने उद्देश्यों, लक्ष्यों में तो स्पष्ट थीं ही किन्तु इन्हें सही तरीके से रणनीति बनाकर एक्जीक्यूट नहीं किया गया। अब तक का सबसे बड़ा शैक्षिक संघर्ष शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 को बनने में तकरीबन सौ साल का वक़्त लगा। इसे 2010 में अप्रैल देश भर में लागू किया गया। लेकिन इसमें भी खामियां देखीं और निकाली गईं। क्या इस आरटीई में कोई कमी थी या फिर इसे जिस शिद्दत से स्वीकारा जाना चाहिए था या फिर एक्जीक्यूट करने में हमसे कोई चूक रह गई इसे भी समझना होगा। इस संदर्भ में हमें बिहार के इस प्रयास को देखने और समझने की आवश्यकता है।


माध्यमिक शिक्षा आयोग

भारत सरकार ने २३ सितम्बर १९५२ को डॉ॰ लक्ष्मणस्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में माध्यमिक शिक्षा आयोग की स्थापना की। उन्ही के नाम पर इसे मुदलियर आयोग कहा गया। आयोग ने पाठ्यचर्या में विविधता लाने, एक मध्यवर्ती स्तर जोड़ने, त्रिस्तरीय स्नातक पाठ्यक्रम शुरू करने इत्यादि की सिफारिश की।

माध्यमिक शिक्षा आयोग की संस्तुतियाँ-

(१) 4 या 5 वर्ष की प्राइमरी शिक्षा ,
(२) सेकण्डरी शिक्षा के दो भाग होना चाहिए।
(३) वस्तुनिष्ठ (MCQ) परीक्षण-पद्धति को अपनाया जाए।
(४) संख्यात्मक अंक देने के बजाय सांकेतिक अंक दिया जाए।
(५) उच्च तथा उच्चतर माध्यमिक स्तर की शिक्षा के पाठ्यक्रम में एक मूल विषय (core subject) रहे जो अनिवार्य रहे जैसे—गणित, सामान्य ज्ञान, कला, संगीत आदि।

आयोग की नियुक्ति के निम्नलिखित उद्देश्य थे....
1.भारत की तात्कालिन माध्यमिक शिक्षा की स्थिति का अध्ययन करके उस पर प्रकाश डालना।
2.माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य संगठन एवं विषयवस्तु।
3.विभिन्न प्रकार के माध्यमिक विद्यालयों का पारस्परिक संबंध।
4.माध्यमिक शिक्षि का प्राथमिक ,बेसिक तथा उच्च शिक्षा के संबंध में।
5.माध्यमिक शिक्षा से संबंधित अन्य समस्याएँ।



उत्तराखंड में प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था


उत्तराखंड में प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था : उत्तराखंड में नई शिक्षा व्यवस्था के तहत प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा को देखने के लिए ब्लॉक स्तर पर बेसिक शिक्षा अधिकारी (Basic Education Officer) एवं माध्यमिक शिक्षा अधिकारी (Secondary Education Officer) की व्यवस्था है। जिला स्तर (District Level) पर एक जिला शिक्षा अधिकारी (District Education Officer) और उसके अधीन अपर बेसिक शिक्षा अधिकारी (Basic Education Officer) और अपर माध्यमिक शिक्षा अधिकारी (Upper Secondary Education Officer) की व्यवस्था की गई है।


जबकि मंडल स्तर (Board Level) पर अपर शिक्षा निर्देशक (Additional Education Director) और राज्य स्तर (State level) पर शिक्षा निर्देशक (Education Director) की व्यवस्था है।


उत्तराखंड राज्य के उधम सिंह नगर (Udham Singh Nagar) में एक जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान (District Education and Training Institute) तथा रुद्रप्रयाग, बागेश्वर एवं चंपावत में 3 लघु जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थानों (Small District Education and Training Institutions) की स्थापना की गयी है। इसके अलावा एक राज्य शैक्षिक योजना एवं प्रशिक्षण संस्थान (Uttarakhand State Institute of Educational Management and Training) की स्थापना की गयी है।


सरकार द्वारा संचालित प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा कार्यक्रम व योजनायें


स्कूल चलो अभियान (School Chalo Abhiyan/School Chalo Campaign)

राज्य में 1 जुलाई 2001 से संचालित (Operated) इस अभियान का मुख्य उद्देश्य सभी को शिक्षा की और प्रोत्साहित करना है। इस अभियान का मुख्य लक्ष्य 6-14 वर्ष के बच्चों को शत प्रतिशत (100%) नामांकन (Nominations), बच्चों का विद्यालय में शत प्रतिशत ठहराव (100% Stoppage), बालिकाओं तथा ST/SC के लिए शिक्षा पर विशेष बल, जन समुदाय की भागीदारी तथा 2010 तक 1-8 तक की शिक्षा का सार्वजनीकरण करना था।


विशेष छात्रवृति योजना (Special Scholarship Scheme)

पूर्व सैनिकों (Ex-Servicemen) के बच्चों के लिए शुरू की गई यह योजना में हाईस्कूल तथा इंटर (High school and Intermediate) में 80% अंक पाने वाले बच्चों को क्रमशः 12,000 व 15,000 रुपए की वार्षिक छात्रवृत्ति (Annual Scholarship) देने की व्यवस्था है। स्नातक (Graduate) के लिए यह राशि 18,000 होगी ।


तेजस्वी छात्रवृत्ति योजना (Stunning Scholarship Scheme)

BPL परिवारों (गरीबी रेखा से निचे जीवन यापन करने वाले) की बालिकाओं के लिए यह योजना चलाई जा रही है। कक्षा 9 में प्रवेश लेने पर ₹ 1,000 व 10 में प्रवेश करने पर ₹ 2, 000 की राशी दी जाएगी।


शिक्षा आचार्य योजना (Shiksha Aacharya Scheme)

राज्य सरकार द्वारा चलाई जा रही इस योजना का उद्देश्य राज्य के सभी बच्चों को आधारभूत शिक्षा (Basic education) प्रदान करना है। इसके अंतर्गत कक्षा 1-5 तक के बच्चों को नि:शुल्क पुस्तकें (Free Books) दी जाती है।


दिव्यांग (विकलांग) विद्यालय (Disabled Schools)

विकलांगों (Disabled) को आत्मनिर्भर (Self
Dependent) बनाने हेतु समाज के मुख्यधारा (mainstream) से जोडने के लिए राज्य में 13 विकलांग विद्यालयों की स्थापना की गई है। जहां उन्हें व्यावसायिक प्रशिक्षण (Vocational Training) दिया जाता है।


काल्प (CALP)

कंप्यूटर की और कंप्यूटर से शिक्षा देने हेतु, कंप्यूटर एडेड लर्निंग कार्यक्रम (Computer Aided Learning Programs) संचालित है।


ई-क्लास योजना (E-Class Scheme)

इसके तहत राज्य में कक्षा 9 से 12 तक के विद्यार्थियों को विज्ञान (Science) एवं गणित (Maths) की पढ़ाई मल्टीमीडिया (Multimedia) CD द्वारा दी जाने की व्यवस्था है।


कंप्यूटर शिक्षा (Computer Education)

राज्य के समस्त उच्च विद्यालयों एवं माध्यमिक विद्यालयों में अनिवार्य कंप्यूटर शिक्षा (Compulsory Computer Education) उपलब्ध कराने के उद्देश्य से यह योजना चलाई जा रही है। छात्रों की संख्या के आधार पर प्रति विद्यालय  में 3 से 8 तक कंप्यूटर उपलब्ध कराए जाते है।


प्रोजेक्ट शिक्षा (Project Education)

माइक्रोसॉफ्ट कॉरपोरेशन (Microsoft Corporation) के सहयोग से राज्य में शुरू की गई, इस शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थियों एवं शिक्षकों (Students and Teachers) को कंप्यूटर साक्षर बनाना है। इसका मुख्यालय देहरादून में है।


आरोही परियोजना (Aarohi Project)

यह परियोजना अध्यापकों तथा विद्यार्थियों को कंप्यूटर में प्रशिक्षण देने के लिए मई 2002 में शुरू की गई। इस कार्यक्रम में माइक्रोसॉफ्ट और इंटेल (Microsoft and Intel) से सहयोग लिया जा रहा है।


राजीव गांधी नवोदय विद्यालय (Rajiv Gandhi Navodaya School)

राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों (Rural Areas) के प्रतिभाशाली बच्चों (Brilliant Students) को उत्कृष्ट आवासीय शिक्षा (Outstanding Residential Education) को नि:शुल्क उपलब्ध कराने के लिए 8 जनपदों में राज्य सरकार द्वारा अपने संसाधनों से राजीव गांधी नवोदय विद्यालय की स्थापना की गई है। जिसमें 75% स्थान ग्रामीण क्षेत्र के विद्यार्थियों के लिए तथा 50% स्थान बालिकाओं के लिए आरक्षित है।


श्यामा प्रसाद मुखर्जी अभिनव विद्यालय (Shyama Prasad Mukherjee Innovative School)

राजीव गांधी नवोदय विद्यालय (Rajiv Gandhi Navodya School) की तरह यह विद्यालय भी पूर्णत: राज्य सरकार द्वारा वित्त पोषित (Funded) और उसी तरह नि:शुल्क आवासीय है। वर्तमान में राज्य के 5 जिलो में ऐसे विद्यालय है।


शिक्षा बंधु (मित्र) योजना (Shiksha Bandhu Yojna or Education Brothers (Friends) Scheme)

ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों में शिक्षकों की कमी को दूर करने तथा शिक्षितों को रोजगार (Employment) देने के उद्देश्य से ग्राम शिक्षा समिति (Village Education Committee) के द्वारा प्राथमिक स्कूलों (Elementary Schools) में मानदेय वेतन (Salary) पर शिक्षा मित्र नियुक्त करने संबंधी योजना चलाई जा रही है।


मिड-डे मील योजना (Mid-Day Meal Scheme)

प्राथमिक शिक्षा (Primary education) में शत-प्रतिशत नामांकन (100% Enrolment), ठहराव और लिंग भेद (Gender Differences) को समाप्त करने के लिए मिड-डे मील योजना संचालित की जा रही है। इस योजना के अंतर्गत सभी सरकारी एवं सरकारी सहायता से चल रहे स्कूलों में पहली से आठवीं तक के बच्चों को प्रतिदिन नि:शुल्क दोपहर का खाना (Lunch) दिया जाता है।

कस्तूरबा गांधी आवास विकास विद्यालय योजना (Kasturba Gandhi Housing Development School Scheme)

ST/SC शिक्षा में पिछड़े हुए राज्य के 12 जिलों में कस्तूरबा गांधी विद्यालयों की स्थापना की गयी है। केंद्र सरकार (Central Government) द्वारा घोषित इन विद्यालयों में ST/SC छात्राओं को नि:शुल्क आवास सहित शिक्षा दी जाती
है।


देवभूमि मुस्कान योजना (Dev Bhoomi Smile Scheme)


2009 में शुरू की गई यह योजना समाज के वंचित वर्ग (Deprived Class) के छात्रों को उत्कृष्ट शिक्षा (Excellent Education) दिलाने के लिए शुरू की गई है। इस योजना के तहत नि:शुल्क शिक्षा दी जाती है। खनन कार्य (Mining Operations) से जुड़े लोगों के बच्चों को भी इस योजना में सम्मिलित किया गया है। इस के लिए राज्य में कुल 41 शिक्षा केंद्र चिन्हित है।


आदर्श स्कूल (Ideal School)

प्रत्येक जिले में एक इंटर कॉलेज व प्रत्येक ब्लॉक में एक जूनियर हाईस्कूल को आदर्श स्कूल के रूप में विकसित किया जा रहा है।




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4 comments:

  1. सर बहुत अच्छी जानकारी हैं।

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  2. क्या आप मुझे डी.एड विशेष शिक्षा इन VI किस शासकीय आशासकीय संस्थाओ से होता है और वहा का फीस स्ट्रक्चर और हॉस्टल सुविधा केसी है

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    1. बिल्कुल सर, आप कौन से स्टेट से करना चाहते है

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