Tuesday, January 28, 2020

नवजात शिशु का प्रथम तिमाही विकास

नवजात शिशु (0-3 महीना) का विकास

जब घर में नन्हे शिशु की किलकारियां गूंजती हैं, तो पूरा घर खुशियों से भर जाता है। जन्म के बाद उसे इस नए संसार के साथ तालमेल बिठाने में कुछ समय लग सकता है। फिर दिन व-दिन उसका विकास होने लगता है। उसके हाथ-पांव तेजी से चलने लगते हैं। वह मां और घर के अन्य सदस्यों को देखकर चेहरे के तरह- तरह के भावों के साथ अपनी प्रतिक्रिया देता है। इस दौरान उसके साथ खेलना और बाते करना हर किसी को अच्छा लगता है।

जन्म के बाद कुछ माह तक शिशु का काम सिर्फ दूध पीना, सोना, रोना, खेलना और नैपी को गंदा करना होता है। इस दौरान शिशु का शारीरिक विकास सामान्य गति से होता रहता है। महीने-दर-महीने उसका वजन व कद बढ़ता रहता है। यहां हम बता रहे हैं कि पहले माह शिशु का वजन व हाइट कितनी होती है।

पहले महीने में बेबी गर्ल का सामान्य वजन 3.5 से 4.9 किलो के बीच और हाइट 53.8 से.मी. होती है। वहीं, बेबी बॉय का सामान्य वजन 3.7 से 5.3 किलो के बीच और हाइट 54.8 से.मी. हो सकती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की तरफ से यह तय मानक है। हालांकि, वजन व हाइट इससे थोड़ा कम या ज्यादा हो सकती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि शिशु का विकास ठीक तरह से नहीं हो रहा है। हर शिशु का शरीर अलग होता है, तो उसके विकास की गति भी अलग होती है। इस संबंध में बाल चिकित्सक आपको बेहतर बता सकते हैं।


एक महीने के शिशु का विकास- (Ek Mahine Ka Baby)

शिशु के पैदा होने के बाद उसमें कई तरह के बदलाव आते हैं। जहां शुरू के कुछ दिन वह आंखें तक नहीं खोलता, वहीं बाद में उसके मस्तिष्क व शरीर के साथ-साथ सामाजिक विकास भी होता है। इन तीनों प्रकार के विकास के बारे में हम यहां विस्तार से बता रहे हैं :


मस्तिष्क का विकास

1. भूख की समझ :    शुरुआत के कुछ दिन में शिशु को भूख के बारे में इतना पता नहीं चलता। उन्हें आप जब दूध पिलाते हैं, वो पी लेते हैं, लेकिन एक माह के होते ही, वो अपनी भूख को पहचानने लगते हैं। उन्हें जब भी भूख लगती है, रोने लगते हैं। अगर आप नोट करें, तो पता चलेगा कि शिशु भी अपना दूध पीने का समय निश्चित कर लेता है और उस तय समय पर ही रोने लगता है।

2.  स्वाद की पहचान :  इतना छोटा शिशु सिर्फ मां का दूध ही पीता है। फिर भी एक माह का होने के बाद उसे स्वाद की पहचान हो जाती है। अगर मां ऐसा कुछ खा ले, जिससे कि स्तन दूध का स्वाद कुछ बदल जाए, तो शिशु को पता चल जाता है। यहां तक कि शिशु स्तन दूध की गंध तक को पहचाने लगता है।

3.  चेहरे या वस्तु की पहचान :  एक माह के शिशु का दिमाग इतना विकसित हो जाता है कि वह कुछ खास चेहरों व चीजाें को पहचानने लगता है। खासकर, वह मां को तो जरूर पहचानने लगता है। अगर आप उसकी आंखों के आगे कोई चीज कुछ देर तक रखें, तो वह उसे गौर तक देखता है और पहचानने लगता है।

4. चीजों व गंध का अहसास :   आपका शिशु कठोर, कोमल व खुरदरी चीजों के बीच फर्क को महसूस कर सकता है। वह अच्छी और खराब गंध के बीच भी अंतर महसूस कर सकता है।

शारीरिक विकास

5. बांह को झटकना :  वह अपनी बांह को तेजी से हिला सकता है। इससे पता चलता है कि उसकी मांसपेशियों का विकास तेजी से हो रहा है।

6. अंगों में हरकत :  वह अपने शरीर के सभी अंगों को अच्छी तरह से हिलाने-ढुलाने के काबिल हो जाता है।

7. स्पर्श :  एक माह का होने के बाद वह अपने हाथों से अपने चेहरे, मुंह, आंखों व कानों आदि को स्पर्श करने लगता है।

8. सिर का पीछे जाना :  इतना विकसित होने के बाद भी शिशु इतना सक्षम नहीं हो पाता कि अपने सिर को संभाल सके। अगर उसे गोद में लेकर सहारा न दिया जाए, तो उसका सिर झटके के साथ पीछे की ओर चला जाता है। आपको इससे परेशान होने की जरूरत नहीं है। इसका मतलब यह है कि शिशु का विकास अच्छी तरह से हो रहा है।

9. सिर को उठाने की कोशिश :   अगर आप उसे पेट के बल लेटाएंगे, तो वह सिर को ऊपर की ओर उठाने की कोशिश करेगा। ऐसा वह गर्दन की मांसपेशियों व तंत्रिका तंत्र में हो रहे विकास के कारण कर पाता है।

10. मुट्ठी में पकड़ना :    अगर आप उसकी हथेली पर कोई चीज या अपनी उंगली रखेंगे, तो वह उसे कस कर पकड़ने का प्रयास करेगा। इतना ही नहीं वह अपने आसपास की चीजों को खुद भी अपनी मुट्ठी में पकड़ने का प्रयास करेगा।

11. वस्तु पर नजर :   आप उसकी आंखों के आगे कोई चीज रखें, जिससे वह आकर्षित हो जाए, तो आप उस वस्तु को जहां-जहां घुमाएंगे, वह उसे लगातार देखेगा। यहां तक कि वह अपने से 8-12 इंच दूर पड़ी वस्तु को अच्छी तरह देख सकता है।

12. नींद में कमी :  अमूमन एक शिशु दिन में आठ-नौ घंटे और रात में करीब आठ घंटे सो सकता है। वह एक बार में एक-दो घंटे से ज्यादा नहीं सोता। इस प्रकार कह सकते हैं कि पहले माह में शिशु 24 घंटे में करीब 16 घंटे सोता है, लेकिन एक माह का होते-होते यह अवधि करीब आधा घंटा कम हो जाती है।

13. गतिविधियां :  हर शिशु जन्म के समय से ही विभिन्न प्रकार की गतिविधियांं करता है, जो एक माह के होते-होते बढ़ जाती हैं। डॉक्टर इन गतिविधियों को गंभीरता से चेक करते हैं। अगर इसमें कमी देखी जाती है, तो यह चिंता का कारण होता है।


 सामाजिक व भावनात्मक विकास

14. रोकर बात समझाना :  यह तो सभी जानते हैं कि एक माह का शिशु सिर्फ रोकर ही अपनी बात समझा सकता है। फिर चाहे उसे कोई समस्या हो या फिर भूख लगी हो, वह रो कर दूसरों का ध्यान अपनी ओर खींचता है। फिर जब मां उसे गोद में लेकर दूध पिलाती है, तो वह तुरंत चुप हो जाता है।

15. आवाजों को पहचानना :  इस उम्र तक बच्चे घर के सदस्यों खासकर अपनी मां की आवाज पहचानने लगते हैं। इतना ही नहीं, जिस तरफ से आवाज आती है, वहां अपनी गर्दन भी घुमाते हैं।

16. नजरें मिलाना :  आपको जानकर हैरानी हो सकती है कि इस उम्र के बच्चे किसी भी चीज को गौर से देख सकते हैं। अगर आप उसके सामने खड़े होंगे, तो पहले वो आपके चेहरे को देखेंगे और फिर आपकी आंखों में देखेंगे।

17. हाथों का स्पर्श :  आप बच्चे को कठोर हाथ लगाएं या मुलायम तरीके से पकड़ें, वो इन दोनों तरह के स्पर्श को महसूस कर सकते हैं। इतना ही नहीं उसी के अनुसार रोकर या मुस्कुराकर प्रतिक्रिया भी देते हैं। अगर आप उन्हें नाजुकता के साथ और अच्छी तरह हाथ लगाएंगे या गोद में लेकर झूला झुलाएंगे, तो वो इसका आनंद लेंगे।


एक महीने के बच्चे का टीकाकरण

हर शिशु को निश्चित समयावधि पर जरूरी टीके लगाए जाते हैं। भारत में ये सभी टीके केंद्र सरकार की ओर से चलाए जा रहे राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम के तहत लगाए जाते हैं। सरकारी अस्पतालों, स्वास्थ्य केंद्रों व आंगबाड़ी में ये टीके मुफ्त लगाए जाते हैं, जबकि निजी अस्पतालों में इसके लिए कुछ कीमत चुकानी पड़ती है। जन्म से लेकर छह हफ्ते तक के शिशु को निम्नलिखित टीके लगाए जाते हैं :

1.बीसीजी
2.हेपेटाइटिस बी 1
3.ओपीवी
4.डीटी डब्ल्यू पी 1
5.आईपीवी 1
6.हेप-बी 2
7.हिब 1
8.रोटावायरस 1
9.पीसीवी 1

अब हम शिशु की एक दिन की खुराक पर चर्चा करेंगे।

एक महीने के शिशु के लिए कितना दूध आवश्यक है?

शुरुआत में शिशु का पाचन तंत्र कमजोर होता है और वह एक समय में कम ही दूध पीता है। ध्यान रहे कि मां के दूध और फॉर्मूला दूध में अंतर होता है। यहां हम उसी के आधार पर बताएंगे कि एक माह का शिशु एक दिन में कितना मां का दूध या फॉर्मूला दूध पी सकता है।

मां का दूध :  नवजात शिशु का पेट छोटा होता है, इसलिए जन्म के बाद अगले एक हफ्ते तक वह सिर्फ 30-60ml तक ही दूध पीता है। वहीं, एक माह का होते-होते उसके पेट का आकार बढ़ने लगता है और पाचन तंत्र भी पहले से बेहतर काम करता है। अब शिशु हर दो-चार घंटे में एक बार में 90-120ml तक दूध पी सकता है। इस तरह से वह दिनभर में करीब 900ml तक दूध पी सकता है

 एक महीने के बच्चे के लिए कितनी नींद आवश्यक है?

शिशु के जन्म लेने के बाद उसके सोने का कोई समय निर्धारित नहीं होता। वह 24 घंटे में से करीब 16 घंटे सोता है। दिन में वह चार-पांच बार सोता है और हर बार सोने की समयावधि एक-दो घंटे हो सकती है। इसी तरह वह रात को भी करीब आठ घंटे सोता है, लेकिन बीच-बीच में उठता रहता है, जिस कारण आपकी नींद खराब होती है। वहीं, एक माह का होने के बाद वह करीब आधा घंटा कम सोता है । आगे चलकर धीरे-धीरे उसका भी सोने का रूटीन बनने लगता है।


एक माह के शिशु के खेल व गतिविधियां।

हालांकि, इतना छोटा शिशु खुद से बैठ नहीं सकता और न ही घुटनों के बल चल सकता है। इसलिए, वह पीठ के बल ही लेटकर अपने हाथ-पांव चलता है और विभिन्न आवाजों पर प्रतिक्रिया देता है। वहीं, जब आप उसे पेट के बल लेटाते हैं, तो वह गर्दन उठाकर इधर-उधर देखने का प्रयास करता है और पैरों के बल खुद को आगे धकेलने का प्रयास करता है। शिशु को पेट के बल लेटना उसकी मांसपेशियों के विकास के लिए जरूरी भी है।


माता-पिता छोटी-छोटी बातों को ध्यान में रखकर अपने शिशु के विकास में मदद कर सकते हैं।


यहां हम कुछ जरूरी टिप्स दे रहे हैं, जिनकी मदद से माता-पिता अपने शिशु के बेहतर विकास में मदद कर सकते हैं :

आप समय-समय पर शिशु के शरीर में हो रहे बदलावों पर नजर रखें। अगर कुछ अजीब लगे, तो तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें।

समय-समय पर डॉक्टर से चेकअप करवाते रहें।

उसके वजन व हाइट को नोट करते रहें।

निश्चित समयांतराल पर टीकाकरण कराना न भूलें। यह उसके बेहतर भविष्य के लिए जरूरी है।

शिशु को कुछ देर पेट के बल जरूर लेटाएं। बाल रोग विशेषज्ञ भी कहते हैं कि शिशु को रोज पांच बार पेट के बल लेटाना चाहिए और हर बार उसे दो-तीन मिनट तक ऐसे ही रहने देना चाहिए। जैसे-जैसे शिशु बड़ा होता है, इस समयावधि को भी बढ़ाना चाहिए। इससे शिशु का विकास तेज गति से होता है। इस दौरान आप उसके सामने कोई खिलौना रख दें, ताकि वह उसे पकड़ने के लिए तेज-तेज हाथ-पांव मारे।

कुछ समय आप उसके साथ खेलने में बिताएं। इससे एक तो वह एक्टिव रहेगा और दूसरा आपके साथ भावनात्मक रूप से जुड़ाव महसूस करेगा।

हर समय उसे कमरे में बंद न रखें, कुछ देर के लिए उसे पार्क आदि जगह घुमाने ले जाएं।

 एक महीने के शिशु के विकास के बारे में माता-पिता को कब चिंतित होना चाहिए?

यहां हम कुछ लक्षण बता रहे हैं, जिनकी पहचान कर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि शिशु का स्वास्थ्य ठीक नहीं है :

1. अगर शिशु सही प्रकार से दूध नहीं पी रहा है।

2. अगर अपने आसपास पड़ी चीजों को हिलाने या उसके सामने लाने पर भी उस पर ध्यान नहीं देता है।

3. आंखोंं में रोशनी मारने पर भी पलकों को नहीं झपकाता है।

4. किसी भी प्रकार की आवाज पर प्रतिक्रिया नहीं देता है।

5. अगर शिशु के शरीर व मांसपेशियों में सूजन हो और वह अपने अंगों को न हिलाए।

6. अगर शिशु के बिल्कुल स्थिर होने पर भी उसके जबड़े में कंपन महसूस हो।


बच्चे की सुनने की क्षमता, दृष्टि और अन्य इंद्रियां

क्या मेरा बच्चा देख सकता है : एक माह का शिशु इतना विकसित हो चुका होता है कि वह अपने आसपास की चीजों, व्यक्तियों व घटनाओं को देख सकता है। अगर उसकी आंखों पर हल्की-सी फ्लैश मारी जाए या अचानक से कोई रोशनी पड़े, तो वह अपनी पलके झपकाता है।

क्या मेरा बच्चा सुन सकता है : इतने छोटे शिशु के कान काफी विकसित हो जाते हैं। इसका पता आप इससे लगा सकते हैं कि वो आपकी आवाज पर प्रतिक्रिया कर सकता है। जिस दिशा से तेज आवाज आती है, वह उस तरफ देखने का प्रयास करता है।

क्या मेरा बच्चा स्वाद व गंध को पहचान सकता है : ऐसा माना जाता है कि एक माह का शिशु स्वाद व गंध की पहचान कर सकता है। वह मां के दूध का स्वाद बदलने को अच्छी तरह पहचान सकता है। अगर उसे मां के दूध के टेस्ट में जरा भी अंतर पता चलता है, तो वह दूध पीने से मना कर सकता है। साथ ही वह मां की गंध को भी पहचान सकता है।



एक महीने की चेकलिस्ट


  • तय समय पर शिशु को चेकअप के लिए डॉक्टर के पास लेकर जाएं।आ
  • डॉक्टर से पूछ सकती हैं कि आपको विटामिन-डी के सप्लीमेंट्स लेने की जरूरत है या नहीं।
  • शिशु के जन्म से लेकर छह हफ्ते के बीच कई टीके लगते हैं। इनकी लिस्ट बनाएं और कौन सा टीका कब लगना है, उनकी डेट जरूर लिखें, ताकि आपके नन्हे को कोई टीका लगने से रह न जाए।
  • डिलीवर के छह हफ्ते बाद आप अपना भी चेकअप जरूर करवाएं।
  • शिशु के एक माह पूरा होने पर उसकी फोटो जरूर खींचें।



शिशु का दूसरा माह का विकास

इस महीने का सबसे बड़ा घटनाक्रम संभवतया शिशु की पहली खूबसूरत मुस्कान होगी। इस यादगार लम्हे को कैद करने के लिए अपना कैमरा तैयार रखें!

हालांकि, शिशु का पूरी रात सोना शायद अभी संभव न हो, अब वह एक बार में थोड़े लंबे समय के लिए सोएगा। इससे आपको भी एक लंबी झपकी लेने का अवसर मिल सकता है!

मेरा शिशु पहली बार कब मुस्कुराएगा?

इस महीने आपको अपने सभी प्रयासों का इनाम शिशु की शानदार बिना दांतों वाली मुस्कान के रूप में मिलेगा। आपके शिशु की पहली वास्तविक मुस्कान, उसकी दिल को छू लेने वाली उपलब्धियों में से एक होगी। इस मुस्कान को सामाजिक मुस्कान के रूप में भी जाना जाता है।

एक तरीके से यह आपकी मेहनत का फल मिलने का समय है। आप इतने समय से शिशु की नैपी बदलना, उसे दूध पिलाना, नहलाना, प्यार करना, लपेटना (स्वोडलिंग ) और गले से लगाना आदि सभी कार्य कर रही थीं, लेकिन अपने लाडले से आपको कुछ खास प्रतिक्रिया नहीं मिल रही थी।

मगर, एक दिन जवाब मिलता है। आपका शिशु मुस्कुराता है और आप यकीनन यह कह सकती हैं कि वह मुस्कुराया है, न कि गैस पास करने के लिए मुंह बना रहा है। आपकी पिछली रात कितनी भी बुरी क्यों ना गुजरी हो, शिशु की एक मुस्कान आपको अवश्य आनंदित कर देगी।

आप शिशु के सामने मजाकिया चेहरे बनाकर और आवाजें निकालकर उसे हंसाने का प्रयास कर सकते हैं। जैसे-जैसे आपका शिशु बड़ा होगा, वह भी आपकी नकल करने लगेगा।


मेरा दो महीने का बच्चा कितनी अच्छी तरह देख सकता है?

आपके शिशु को पहले दो रंगों की चीजें पसंद आती थीं। अब दो महीने का होने पर वह और अधिक विस्तृत और जटिल डिजाइन, रंगों और आकारों को पसंद करने लगेगा।

शिशु को विभिन्न तरह की वस्तुओं को देखने और छूने का अवसर दें। प्लास्टिक के खिलौने और मुलायम गेंद आदि अच्छे विकल्प हो सकते हैं।

मेरा शिशु पूरी रात सोना कब शुरु करेगा?

अगर, आपका शिशु अब पूरी रात सोता है, तो आप कुछ एक भाग्यशाली लोगों में से हैं। अधिकांश शिशुओं को अभी भी रात में दूध पीने की जरुरत होती है, जिससे आपकी नींद में खलल पड़ता है। मगर, अच्छी बात यह है कि अब आपका शिशु  धीरे-धीरे एक बार में लंबे समय के लिए सोएगा और लंबे समय के लिए ही जगा रहेगा।

अपने दो महीने के शिशु को फुर्तीला बनने के लिए कैसे प्रोत्साहित किया जा सकता है?

आपके शिशु को ऐसे खिलौने बहुत पसंद आएंगे जो ठीक उसके ऊपर लटकते और हिलते रहते हों, और हो सकता है मंत्रमुग्ध होकर वह एकटक उन्हें देखता रहे। वह अपनी बंद मुट्ठी से उन पर हाथ मारने का प्रयास भी कर सकता है। अपनी खुशी जाहिर करने के लिए वह अपनी बाजू व टांगे भी मारना शुरु कर सकता है।


इस समय तक आपका शिशु अपनी गतिविधियों में बेहतर समन्वय कर पा रहा होगा। आप पाएंगी कि नवजात के तौर पर उसकी बाजू और टांग की झटकेदार हरकतें अब काफी सहज होती जा रही हैं।

आपके दो महीने के शिशु की पकड़ काफी मजबूत है, मगर पकड़ने के बाद किसी चीज को छोड़ना अभी उसने नहीं सीखा है। शिशु यदि आपके बालों को पकड़ ले, तो उसकी मजबूत पकड़ से अपने बाल छुड़ा पाना आपके लिए काफी मुश्किल साबित हो सकता है!

शिशु की डॉक्टरी जांच के दौरान क्या होगा?

शिशु की डॉक्टरी जांच शायद उसके छह से आठ सप्ताह का हो जाने पर होगी। यह जांच उसी तरह की होगी, जिस तरह जन्म के समय नवजात शिशु के परीक्षण और जांच की जाती है।

शिशु को जब जांच के लिए ले जाएं तो साथ में उसकी रिकॉर्ड बुक या अस्पताल से मिली कोई अन्य मेडिकल रिपोर्ट अवश्य ले जाए। आमतौर पर जांच में होगा:

शिशु का वजन और उसकी लंबाई की जांच और यह ग्रोथ चार्ट में दर्ज की जाएगी

सिर के घेरे का माप
शिशु की आंखें, कूल्हे, दिल और जननांगों की सामान्य जांच
आपसे पूछेंगे कि शिशु सही से दूध पी रहा है या नहीं और आपके हिसाब से उसका विकास सही हो रहा है या नहीं

इस समय शिशु के लिए नियत टीके लगाए जाएंगे। 

यदि आप किसी भी चीज को लेकर चिंतित हों, तो इस बारे में डॉक्टर से बात करें।

डॉक्टर आपको भविष्य की जांचों और टीकाकरण की समय-सारणी भी देंगे। आप शिशु को जब डॉक्टर के पास ले जाती हैं, खासकर टीकाकरण के लिए, तो यह शिशु का चेकअप ही होता है, जहां डॉक्टर बच्चे के विकास को देखते हैं।

शिशु की नियमित जांच करवाना जरुरी है ताकि पता चल सके कि वह अनुमान के मुताबिक सही विकास कर रहा है या नहीं। यह आपको मन की तसल्ली देगा और साथ ही शिशु के विकास को प्रभावित करने वाली यदि को समस्या हो तो उसकी भी समय से पहचान हो सकेगी।

क्या मेरा दो माह का शिशु सामान्य ढंग से बढ़ रहा है?

हर शिशु अलग होता है और शारीरिक क्षमताएं अपनी ही गति से विकसित करता है। विकास के ये दिशा निर्देश केवल यह बताते हैं कि शिशु में क्या सिद्ध करने की संभावना है। अभी नहीं, तो कुछ समय बाद शिशु इन्हे जरुर हासिल कर लेगा।

अगर, आपके शिशु का जन्म समय से पहले (गर्भावस्था के 37 सप्ताह से पहले) हुआ है, तो आप देखेंगे कि उसे वही सब चीजें करने में ज्यादा समय लगता है, जो समय से जन्मे बच्चे जल्दी करते हैं। यही कारण है कि समय से पहले पैदा होने वाले शिशुओं को उनके डॉक्टरों द्वारा दो उम्र दी जाती हैं:
कालानुक्रमिक (क्रोनोलॉजिकल) उम्र, जिसकी गणना शिशु के जन्म की तारीख से की जाती है

समायोजित उम्र (एडजस्टेड/करेक्टेड ऐज), जिसकी गणना आपके शिशु के पैदा होने की तय तारीख (ड्यू डेट) से की जाती है

आप अपने प्रीमैच्योर शिशु के विकास को उसकी समायोजित उम्र से देखें, उसके जन्म की वास्तविक तिथि से नहीं। अधिकांश डॉक्टर समय से पहले जन्मे बच्चे का विकास उसकी संभावित जन्म तिथि से आंकलित करते हैं और उसी अनुसार उसकी कुशलता का मूल्यांकन करते हैं।



शिशु का तीसरे माह में विकास

 तीन महीने का होने पर शिशु क्या कर सकता है?

आपका शिशु अब आपसे बड़बड़ा कर बातें करना शुरु कर सकता है। आप दिन भर शिशु से बातें करें, इससे उसकी भाषा का कौशल विकसित होने में मदद मिलेगी। जो भी काम आप कर रही हों, शिशु को उसके बारे में बताएं, फिर चाहे वह पौधों में पानी डालना ही हो।

हो सकता है आप देखें कि शिशु उत्साह में आकर अपनी भुजाओं को हिला रहा है और टांगों से लाते मार रहा है। अगर आप शिशु के पैर जमीन पर टिका कर उसे पकड़कर खड़ा करें, तो वह अपनी टांगों पर नीचे की तरफ झुकने का दबाव डालेगा।

आपका शिशु अब अपने दोनों हाथ एक साथ ला सकता है, मुट्ठियां खोल सकता है और अपनी उंगलियों के साथ खेल सकता है। वह अपनी बंद मुट्ठी से लटकते हुए खिलौनों पर हाथ भी मार सकता है। शिशु के सामने कोई खिलौना लेकर बैठें, और देखें कि क्या वह उसे पकड़ने का प्रयास करता है। इस तरह उसके हाथ और आंख के बीच तालमेल विकसित होने में मदद मिलेगी।


मेरा शिशु स्थिरता से अपना सिर कब उठा सकेगा?

आपका शिशु अब बलिष्ठ हो रहा है। इस महीने वह पेट के बल लेटे हुए अपना सिर उठा सकता है और कुछ मिनटों तक इसी स्थिति में रह भी सकता है। अगर शिशु सहारे से बैठा हुआ हो, तो हो सकता है वह अपना सिर स्थिर और सीधा रख सके।

जब शिशु पेट के बल लेटा हो तो आप शायद पाएंगी कि वह अपना सिर और छाती ऊपर की तरफ उठाता है, जैसे कि वह पुश-अप करने वाला हो। सिर उठाने के लिए शिशु को प्रोत्साहित करने के लिए आप उसके सामने बैठकर ऊपर की तरफ कोई खिलौना हिलाएं और देखें कि क्या वह ऊपर देखने का प्रयास करता है। शिशु को पेट के बल लेटने का पर्याप्त समय देने से उसके सिर और गर्दन की मांसपेशियां विकसित और मजबूत होती हैं।

मेरा बच्चा पलटना कब शुरु करेगा?

अगर आप शिशु को पेट के बल लिटाएं, तो वह पलटकर पीठ के बल आकर आपको चौंका सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि उसके कूल्हे, घुटने और कोहनी के जोड़ मजबूत व और अधिक लचीले हो रहे हैंं। इसी वजह से शिशु के लिए खुद को ऊपर की तरफ उठा पाना आसान हो जाता है।

आपका शिशु बिना कोई संकेत दिए खुद ही पलटना सीख जाएगा, और इससे न केवल आप बल्कि वह स्वयं भी आश्चर्यचकित होगा! इसलिए शिशु को ऊंची सतह पर कभी भी अकेला न छोड़ें। अगर आप बिस्तर पर लिटाकर शिशु की लंगोट बदल रही हैं, तो अपना एक हाथ हमेशा शिशु के ऊपर ही रखें।


 शिशु पूरी रात सोना कब शुरु करेगा?

नींद से वंचित माता-पिता अंतत: अब से कुछ राहत की उम्मीद कर सकते हैं। तीन से चार महीने के बाद से शिशु की नींद की दिनचर्या संभवतया स्थिर होना शुरु हो जाती है। इस उम्र के कुछ शिशु पूरी रात भी सो सकते हैं, हालांकि, अधिकांश शिशु अभी भी कुछ महीनों तक रात में स्तनपान करने के लिए जागते हैं।

यदि आपका शिशु भी आपको रात में जगाता है, तो फिक्र न करें। याद रखें कि ऐसा हमेशा नहीं रहेगा! शिशु की नींद की दिनचर्या का पालन करना जारी रखें, ताकि शिशु अपने सोने के समय को समझ सके। आप हमारी लोरियों को सुन सकती हैं और उनके बोल याद करके शिशु को सुना भी सकती हैं।
क्या शिशु को मेरे प्रति कोई लगाव पैदा हुआ है?

तीन महीने का होने पर या फिर इससे पहले से ही शिशु यह जानता है कि आप उसके लिए खास हैं। संभवतया अभी भी वह अनजान लोगों को देखकर मुस्कुराएगा, खासकर कि यदि वे सीधे उसकी आंखों में देखे और उससे प्यार से बोले व बातें करें तो।

मगर, शिशु अब यह पहचानना शुरु कर देता है कि उसकी जिंदगी में किसका स्थान क्या है और वह कुछ लोगों को अवश्य ही दूसरों की तुलना में विशेष दर्जा देता है।

दिमाग का जो हिस्सा हाथ और आंखों के समन्वय को नियंत्रित करता है और शिशु की चीजों को पहचानने में मदद करता है (पार्श्विका पालि, पेराइटल लोब), वह अब तेजी से विकसित हो रहा है। और दिमाग का जो हिस्सा जो सुनने, भाषा ज्ञान और सूंघने में सहायता करता है (टेम्पोरल लोब), वह भी अब अधिक सक्रिय हो रहा है।

इसलिए अब जब आपका शिशु आपकी आवाज सुनता है, वह सीधे आपकी तरफ देख सकता है। प्यार भरी मधुर आवाज निकालता है या बात करने का प्रयास कर सकता है।


तीन माह के बच्चे को किताबें पढ़कर सुनाना फायदेमंद है?

आपका शिशु अभी कहानियों को समझने के लिए बहुत छोटा है, मगर शिशु को कहानियां पढ़कर सुनाना उसके साथ बंधन मजबूत बनाने का अच्छा तरीका है। साथ है यह भविष्य में उसका भाषा कौशल विकसित करने में मदद करेगा।

अलग उच्चारणों और लहजों से अपनी आवाज के लय को बदलने का प्रयास करें, ताकि शिशु की रुचि बनी रहे। अगर, शिशु का मन कहानी से हटने लगे और वह किसी दूसरी तरफ देखने लगे, तो कुछ और आजमा कर देखें। या फिर आप उसे कुछ समय का आराम भी दे सकती हैं।

अगर, आपने अभी तक शिशु को कहानी सुनाना शुरु नहीं किया है, तो सोने के समय शिशु को कहानी सुनाना शुरु करने का यह सही समय है। ऐसी बहुत सी किताबें हैं जिन्हें आप शिशु को पढ़कर सुना सकती हैं। आप कपड़े या गत्ते (बोर्ड) की किताबें ले सकती हैं जिनमें बड़े, चमकीले रंग की तस्वीरें हों, जिनके बारे में आप बात कर सकें।

अगर, आप यह नहीं समझ पाती कि शिशु से क्या बात की जाए, तो उसे अपने और परिवार के सदस्यों के बारे में ही बताना शुरु कर सकती हैं। आप घर के सबसे अरुचिकर काम को करते हुए, उसके बारे में भी शिशु को बता सकती हैं।

बहूत से लोगों को छोटे बच्चे से बातें करना अजीब लगता है, मगर चिंता न करें, शिशु को यह सब अच्छा लगता है।

अगर, बड़े बच्चों की किताबों में साफ, स्पष्ट तस्वीरें और चमकीले रंग हैं, तो आप उन किताबों का भी इस्तेमाल कर सकती हैं। ये किताबें भी शिशु का ध्यान आकर्षित करने में अवश्य मदद करेंगी। यहां तक कि आप शिशु को अपनी पसंदीदा मैगजीन पढ़कर भी सुना सकती हैं। शिशु को आपके बोलने का लहजा फिर भी अच्छा लगेगा, फिर चाहे वह आपके शब्दों को न समझे।

या फिर आप शिशु को कविताएं भी पढ़कर सुना सकती हैं, फिर चाहे वे शेक्सपीयर की हों या तुलसीदास की। चाहे आपका शिशु इन्हें समझता न हो, मगर इन्हें संगीतमय तरीके से सुनना शिशु को बहुत पसंद आता है। इस तरह शिशु के साथ आपका भी मनोरंजन हो जाएगा!


 मेरे तीन महीने के बच्चे में स्पर्श का अहसास किस तरह विकसित हो रहा है?

आप पाएंगी कि शिशु अपने पास रखी चीजों तक पहुंचने और उन्हें छूने का प्रयास कर रहा है। आप अलग-अलग तरह के कपड़ों या सामान से शिशु के स्पर्श के अहसास को प्रेरित करने का प्रयास कर सकती हैं। टिशू, मखमल (वैल्वेट), रोएंदार वस्त्र (फर) और तौलिये का इस्तेमाल आप कर सकती हैं। या फिर ऐसी किताबों को लें, जिन्हें पढ़ते समय शिशु छू भी सकता है।

आपके शिशु को आपका स्पर्श बेहद पसंद है। शिशु को सहलाना, गोद में उठाना, मालिश करना या फिर गोद में लेकर झुलाना, उसे राहत दे सकता है। इससे शिशु की सतर्कता और ध्यान की अवधि भी बढ़ सकती है।

जब तक शिशु को मजा आ रहा हो, आप और आपके पति शिशु के साथ त्वचा से त्वचा का संपर्क रख सकती हैं। यदि आप शिशु को स्तनपान करवाती हैं तो हर बार आपको शिशु के साथ नजदीकी समय गुजारने को मौका मिलेगा।

यदि आप या आपके पति शिशु को फॉर्मूला दूध पिलाते हैं, तो उसे गोद में लेकर छाती से सटाकर त्वचा से त्वचा का संपर्क रखें। इस तरह शिशु और आपको त्वचा से त्वचा के संपर्क के फायदे मिलेंगे। आप शिशु के साथ के ये प्यार और दुलार के लम्हों का आनंद उठा सकते हैं।


मेरा शिशु सामान्य ढंग से विकसित हो रहा है?

हर शिशु अलग होता है और शारीरिक क्षमताएं अपनी ही गति से विकसित करता है। यहां सिर्फ साधारण मार्गदर्शक दिए गए हैं, जिन्हें करने की क्षमता आपके शिशु में होती है। अभी नहीं, तो कुछ समय बाद शिशु उन्हें जरुर हासिल कर लेगा।

अगर, आपके शिशु का जन्म समय से पहले (गर्भावस्था के 37 सप्ताह से पहले) हुआ है, तो आप देखेंगे कि उसे वे सब चीजें करने में ज्यादा समय लगता है, जो समय से जन्मे बच्चे जल्दी करते हैं। यही कारण है कि समय से पहले पैदा होने वाले शिशुओं को उनके डॉक्टरों द्वारा दो उम्र दी जाती हैं:
कालानुक्रमिक (क्रोनोलॉजिकल) उम्र, जिसकी गणना शिशु के जन्म की तारीख से की जाती है

समायोजित उम्र (एडजस्टेड/करेक्टेड ऐज), जिसकी गणना आपके शिशु के पैदा होने की तय तारीख (ड्यू डेट) से की जाती है

आप अपने प्रीमैच्योर शिशु के विकास को उसकी समायोजित उम्र से देखें, उसके जन्म की वास्तविक तिथि से नहीं। अधिकांश डॉक्टर समय से पूर्व जन्म लिए बच्चे का विकास उसकी संभावित जन्म तिथि से आंकलित करते हैं और उसी अनुसार उसकी कुशलता का मूल्यांकन करते हैं।

बच्चे की सुरक्षा के लिए प्रथम 6 माह केवल मा का दूध ही देना चाहिए। उसके अतिरिक्त मा का दूध 2-3 वर्ष तक जारी रखना चाहिए।



शिशु को लेकर माता-पिता की स्वास्थ्य संबंधी चिंताएं।

जहां एक तरफ शिशु का विकास तेज गति से होता है, वहीं कुछ स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी हो सकती हैं। एक माह से तीन माह का शिशु अपनी समस्याओं को रोकर बताता है। शिशु को होने वाली समस्याओं को माता-पिता कुछ इस प्रकार पहचान सकते हैं :

1. कब्ज :  जब शिशु मल त्याग करने में 10-15 मिनट लगाए और इस दौरान उसका चेहरा लाल हो जाए, तो समझ जाना चाहिए कि उसे कब्ज है। ऐसे में उसे तुरंत डॉक्टर के पास ले जाएं।

2. खांसी :  शिशु को सर्दी-जुकाम के कारण खांसी हो सकती है। साथ ही उसे सांस लेने में दिक्कत हो व हल्का बुखार भी हो।

3. क्रैडल कैप :  इसमें शिशु के सिर पर पपड़ीदार पैच बन जाते हैं। आमतौर पर यह सिर को धोने से या फिर अपने आप ठीक हो जाते हैं। अगर ऐसा नहीं होता है, तो डॉक्टर से सलाह लेनी चाहिए।

4. डायरिया :  अगर शिशु का मल पानी की तरह पतला है और मल लगातार हो रहा है, तो इससे शिशु में पानी की कमी हो सकती है। इसलिए, शिशु को तुरंत डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए।

5. उल्टी :  अगर शिशु कुछ भी खाने के बाद करीब दो घंटे में उल्टी कर रहा है, तो यह चिंता का विषय हो सकता है। साथ ही उसे बुखार व डायरिया है, तो बिना देरी किए उसे डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए।

6. मुंहासे :  पहले माह में शिशु के चेहरे पर छोटे-छोटे मुंहासे नजर आ सकते हैं। ऐसा गर्भावस्था के दौरान प्लेसेंटा में तैलीय ग्रंथियों के सक्रिय होने पर हार्मोंस में असंतुलन के कारण हो सकता है। ऐसी अवस्था में अगर आप शिशु का ध्यान अच्छी तरह से रखेंगी, तो ये मुंहासे कुछ समय में अपने आप खत्म हो जाएंगे।

7. गैस :  अगर शिशु जरूरत से ज्यादा रो रहा है, तो हो सकता है उसे गैस हो। वहीं, अगर गैस डिस्चार्ज करते हुए रोता है, तो यह गंभीर समस्या है। उसे आप पेट के बल लेटाएं, इससे उसे राहत मिल सकती है या फिर डॉक्टर से संपर्क करें।

8. एलर्जी :  स्तनपान करने वाले शिशुओं को कुछ खास चीजों से एलर्जी हो सकती हैं, जिन्हें उनकी मां खाती है। इससे उन्हें असुविधा हो सकती है।

9. कोलिक :  इसमें भी शिशु के पेट में गैस बनती है और वह असहज महसूस करते हुए ऊंची आवाज में रोता है।



शिशु की स्वच्छता

बेशक नन्हे शिशु की देखभाल करने का आपका यह पहला अनुभव है, लेकिन यहां बताए गए टिप्स की मदद से आप यह काम आसानी से कर सकते है।

1. डायपर :  आप समय-समय पर शिशु का डायपर चेक करते रहें। अगर डायपर गीला है, तो उसे तुरंत बदलें। बदलते समय शिशु को अच्छी तरह साफ करें। इसके लिए आप खास बेबी वाइप्स या लोशन इस्तेमाल कर सकते हैं। अगर डायपर के वजह से शिशु को रैशेज हो गए हैं, तो डाॅक्टर से पूछकर अच्छी डायपर रैशेज क्रीम का इस्तेमाल कर सकते हैं। साथ ही दिन में कम से कम एक या दो बार शिशु को बिना डायपर के रहने दें, ताकि उसकी त्वचा पर प्राकृतिक मॉइस्चराइजर बना रहे।

2. स्नान :  आप शिशु को हल्के गुनगुने पानी से नहलाएं। आप उसे एक दिन छोड़कर नहला सकती हैं। उसे नहलाने से पहने अपने हाथों को अच्छी तरह धो लें। नहलाते समय उसकी आंखों, कानों व नाक को अच्छी तरह साफ करें।

3. सफाई :  बच्चा जब भी दूध पीता है, तो कई बार ज्यादा पी लेता और फिर बाद में उसे निकाल देता है। अगर आपका शिशु भी ऐसा करे, तो तुरंत उसे साफ करें। साथ ही जैसे ही आपको लगे कि उसके पैर व हाथों के नाखुन बड़े हो गए हैं, तो उसे काट दें। इससे एक तो वह खुद को चोट नहीं पहुंचाएगा और दूसरा नाखुनों में गंदगी जमा नहीं होगी।


आयु टीकाकरण सूची

जन्म पर बीसीजी, ओपीवी-0, हेपेटाइटिस-बी
6 हफ्ते (सवा महीने) : ओपीवी-1, रोटा-1, एफआईपीवी-1, पेंटावेलेंट-1
10 हफ्ते (सवा दो महीने) : ओपीवी-2, रोटा-2, पेंटावेलेंट-2
14 हफ्ते (सवा तीन महीने) : ओपीवी-3, रोटा-3, एफआईपीवी-2, पेंटावेलेंट-3
9 महीने : एमसीवी-1, विटामिन-ए
16-24 महीने : डीपीटी-बी, ओपीवी-बी, एमसीवी-2, विटामिन-ए
5-6 साल : डीपीटी-बी 2
10 साल : टीटी
16 साल : टीटी-1 व टीटी-2



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Friday, January 17, 2020

स्तनपान एक अमृत

 स्तनपान एक अमृत

मां द्वारा अपने शिशु को अपने स्तनों से आने वाला प्राकृतिक दूध पिलाने की क्रिया को स्तनपान कहते हैं। यह सभी स्तनपाइयों में आम क्रिया होती है। स्तनपान शिशु के लिए संरक्षण और संवर्धन का काम करता है। नवजात शिशु में रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति नहीं होती। मां के दूध से यह शक्ति शिशु को प्राप्त होती है। मां के दूध में लेक्टोफोर्मिन नामक तत्व होता है, जो बच्चे की आंत में लौह तत्त्व को बांध लेता है और लौह तत्त्व के अभाव में शिशु की आंत में रोगाणु पनप नहीं पाते। मां के दूध से आए साधारण जीवाणु बच्चे की आंत में पनपते हैं और रोगाणुओं से प्रतिस्पर्धा कर उन्हें पनपने नहीं देते। मां के दूध में रोगाणु नाशक तत्त्व होते हैं। वातावरण से मां की आंत में पहुंचे रोगाणु, आंत में स्थित विशेष भाग के संपर्क में आते हैं, जो उन रोगाणु-विशेष के खिलाफ प्रतिरोधात्मक तत्व बनाते हैं। ये तत्व एक विशेष नलिका थोरासिक डक्ट से सीधे मां के स्तन तक पहुंचते हैं और दूध से बच्चे के पेट में। इस तरह बच्चा मां का दूध पीकर सदा स्वस्थ रहता है।

अनुमान के अनुसार 820,000 बच्चों की मौत विश्व स्तर पर पांच साल की उम्र के तहत वृद्धि हुई जिसे स्तनपान के साथ हर साल रोका जा सकता है। दोनों विकासशील और विकसित देशों में स्तनपान से श्वसन तंत्र में संक्रमण और दस्त के जोखिम को कमी पाई गयी है। स्तनपान से संज्ञानात्मक विकास में सुधार और वयस्कता में मोटापे का खतरा कम हो सकती है।

जिन बच्चों को बचपन में पर्याप्त रूप से मां का दूध पीने को नहीं मिलता, उनमें बचपन में शुरू होने वाले डायबिटीज की बीमारी अधिक होती है। उनमें अपेक्षाकृत बुद्धि विकास कम होता है। अगर बच्चा समय पूर्व जन्मा (प्रीमेच्योर) हो, तो उसे बड़ी आंत का घातक रोग, नेक्रोटाइजिंग एंटोरोकोलाइटिस हो सकता है। अगर गाय का दूध पीतल के बर्तन में उबाल कर दिया गया हो, तो उसे लीवर का रोग इंडियन चाइल्डहुड सिरोसिस हो सकता है। इसलिए आठ-बारह महीने तक बच्चे के लिए मां का दूध श्रेष्ठ ही नहीं, जीवन रक्षक भी होता है।


 स्तनपान के लाभ

मां का दूध केवल पोषण ही नहीं, जीवन की धारा है। इससे मां और बच्चे के स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। शिशु को पहले छह महीने तक केवल स्तनपान पर ही निर्भर रखना चाहिए। यह शिशु के जीवन के लिए जरूरी है, क्योंकि मां का दूध सुपाच्य होता है और इससे पेट की गड़बड़ियों की आशंका नहीं होती। मां का दूध शिशु की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में भी सहायक होता है। स्तनपान से दमा और कान की बीमारी पर नियंत्रण कायम होता है, क्योंकि मां का दूध शिशु की नाक और गले में प्रतिरोधी त्वचा बना देता है। कुछ शिशु को गाय के दूध से एलर्जी हो सकती है। इसके विपरीत मां का दूध शत-प्रतिशत सुरक्षित है। शोध से प्रमाणित हुआ है कि स्तनपान करनेवाले बच्चे बाद में मोटे नहीं होते। यह शायद इस वजह से होता है कि उन्हें शुरू से ही जरूरत से अधिक खाने की आदत नहीं पड़ती। स्तनपान से जीवन के बाद के चरणों में रक्त कैंसर, मधुमेह और उच्च रक्तचाप का खतरा कम हो जाता है। स्तनपान से शिशु की बौद्धिक क्षमता भी बढ़ती है। इसका कारण यह है कि स्तनपान करानेवाली मां और उसके शिशु के बीच भावनात्मक रिश्ता बहुत मजबूत होता है। इसके अलावा मां के दूध में कई प्रकार के प्राकृतिक रसायन भी मौजूद होते हैं।


मां को स्तनपान के लाभ

नयी माताओं द्वारा स्तनपान कराने से उन्हें गर्भावस्था के बाद होनेवाली शिकायतों से मुक्ति मिल जाती है। इससे तनाव कम होता है और प्रसव के बाद होनेवाले रक्तस्राव पर नियंत्रण पाया जा सकता है। मां के लिए दीर्घकालिक लाभ हृदय रोग, और रुमेटी गठिया का खतरा कम किया है। स्तनपान करानेवाली माताओं को स्तन या गर्भाशय के कैंसर का खतरा न्यूनतम होता है। स्तनपान एक प्राकृतिक गर्भनिरोधक है। स्तनपान सुविधाजनक, मुफ्त (शिशु को बाहर का दूध पिलाने के लिए दुग्ध मिश्रण, बोतल और अन्य खर्चीले सामान की जरूरत होती है) और सबसे बढ़ कर माँ तथा शिशु के बीच भावनात्मक संबंध मजबूत करने का सुलभ साधन है। मां के साथ शारीरिक रूप से जुड़े होने का एहसास शिशुओं को आरामदायक माहौल देता है।

स्तनपान  कराने की प्रतिक्रिया

शिशु के जन्म के फौरन बाद स्तनपान शुरू कर देना चाहिए। जन्म के तत्काल बाद नग्न शिशु को (उसके शरीर को कोमलता से सुखाने के बाद) उसकी मां की गोद में देना चाहिए। मां उसे अपने स्तन के पास ले जाये, ताकि त्वचा से संपर्क हो सके। इससे दूध का बहाव ठीक होता है और शिशु को गर्मी मिलती है। इससे मां और शिशु के बीच भावनात्मक संबंध विकसित होता है। स्तनपान जल्दी आरंभ करने के प्रारंभिक कारण निम्न हैं।


1.शिशु पहले 30 से 60 मिनट के दौरान सर्वाधिक सक्रिय रहता है।

2.उस समय उसके चूसने की शक्ति सबसे अधिक रहती है।

3.जल्दी शुरू करने से स्तनपान की सफलता की संभावना बढ़ जाती है। स्तन से निकलने वाला पीले रंग का द्रव, जिसे कोलोस्ट्रम कहते हैं, शिशु को संक्रमण से बचाने और उसकी प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करने का सबसे अच्छा उपाय है। यह एक टीका है।

4.स्तनपान तत्काल शुरू करने से स्तनों में सूजन या प्रसवोत्तर रक्तस्राव की शिकायत नहीं होती।

5.शल्यचिकित्सा से शिशु जन्म देनेवाली माताएं भी स्तनपान करा सकती हैं। यह शल्य क्रिया आपकी सफल स्तनपान की क्षमता पर असर नहीं डालती है।

6.शल्य क्रिया के चार घंटे बाद या एनीस्थीसिया के प्रभाव से बाहर आने के बाद आप स्तनपान करा सकती हैं।

7.स्तनपान कराने के लिए आप अपने शरीर को एक करवट में झुका सकती हैं या फिर अपने शिशु को अपने पेट पर लिटा कर स्तनपान करा सकती हैं।

8.सीजेरियन विधि से शिशु को जन्म देनेवाली माताएँ पहले कुछ दिन तक नर्स की मदद से अपने शिशु को सफलतापूर्वक स्तनपान करा सकती हैं।


स्तनपान कब तक

साधारणतया कम से कम 12 महीने तक शिशु को स्तनपान कराना चाहिए और उसके बाद दो साल या उसके बाद तक भी स्तनपान कराया जा सकता है। माता के बीमार होनेपर भी शिशु को स्तनपान कराना जरूरी होता है। आमतौर पर साधारण बीमारियों से स्तनपान करनेवाले शिशु को कोई नुकसान नहीं पहुंचता। यहां तक कि टायफायड, मलेरिया, यक्ष्मा, पीलिया और कुष्ठ रोग में भी स्तनपान पर रोक लगाने की सलाह नहीं दी जाती है।


 स्तनपान के फायदे – Breast Feeding Benefits 


स्तनपान के बारे में कुछ माताओं को मन में कई प्रकार की शंका उत्पन्न हो सकती है। जैसे बीमारी आदि की अवस्था में स्तनपान कराना चाहिए या नहीं या स्तन की बनावट को लेकर शंका और स्तन की सुंदरता बिगड़ने को लेकर शंका।

किसी भी स्थिति में स्तनपान कराना श्रेष्ठ ही होता है। इसका विकल्प नहीं हो सकता है। आइये देखें स्तनपान कराने के क्या लाभ होते हैं  –

स्तनपान breast Feeding प्रकृति का सर्वोत्तम उपहार है। जहाँ शिशु को पहले आहार के रूप में सर्वश्रेष्ठ भोजन प्राप्त होता है , वही माँ और बच्चे में भावनात्मक रिश्ता भी बनता है।

इससे दोनों को ही अमूल्य संतुष्टि हासिल होती है। WHO के अनुसार शिशु को छः महीने तक सिर्फ स्तनपान देना चाहिए तथा इसके बाद दो साल की उम्र तक अन्य आहार के साथ स्तनपान कराना चाहिए।



स्तनपान कराने के फायदे (Benefits of breast feeding) निम्न हैं


1.  शिशु के लिए प्राकृतिक सर्वश्रेष्ठ आहार 

माँ का दूध नवजात शिशु के कोमल अंगों तथा पाचन क्रिया के अनुरूप प्रकृति द्वारा निर्मित होता है। इसमें बच्चे की जरुरत के सभी पोषक तत्व उचित मात्रा में होते हैं। इन्हे शिशु आसानी से हजम कर लेता है।

माँ के दूध में मौजूद प्रोटीन और वसा गाय के दूध की तुलना में भी अधिक आसानी से पच जाता है। इससे शिशु के पेट में गैस बनने , कब्ज , दस्त आदि होने या दूध उलटने की सम्भावना बहुत कम होती है।

माँ का दूध नुकसान करने वाले माइक्रो ऑर्गनिज़्म को नष्ट करके आँतो में लाभदायक तत्वों की वृद्धि करता है।

2. शिशु में जरूरत के अनुसार अपने आप बदलाव

माँ के दूध में शिशु की जरूरत के हिसाब से परिवर्तन होते रहते हैं। दिन में , रात में , कुछ सप्ताह में और कुछ महीनो में शिशु को पोषक तत्वों की जरूरत बदल जाती है। उसी के अनुसार माँ के दूध में भी बदलाव अपने आप हो जाते हैं।


3. शिशु को एलर्जी नहीं

स्तनपान करने से शिशु को एलर्जी नहीं होती है। खान पान में बदलाव के अनुसार माँ के दूध के स्वाद या गंध में परिवर्तन हो सकता है लेकिन यह एलर्जी का कारण या नुकसान का कारण नहीं होता है। जबकि अन्य प्रकार के दूध या आहार से शिशु एलर्जी का शिकार हो सकता है।

4. शिशु की प्रतिरोधक क्षमता अधिक

स्तनपान करने वाले बच्चों की प्रतिरोधक क्षमता तुलनात्मक रूप से अधिक होती है। माँ का दूध उन्हें सर्दी , जुकाम , खांसी या अन्य संक्रमण से बचाने में सहायक होता है। अन्य प्रकार की बीमारी की सम्भावना भी स्तनपान करने वाले शिशुओं में कम होती है।

5. मोटापा कम

स्तनपान करने वाले शिशु के शरीर पर अनावश्यक चर्बी नहीं चढ़ती। माँ के दूध से पेट भरते ही तृप्ति मिल जाने के कारण शिशु आवश्यकता से अधिक दूध नहीं पीता। जबकि बोतल आदि से दूध पीने से शिशु जरूरत से ज्यादा दूध पी जाता है जो मोटापे का कारण बन जाता है। बड़े होने के बाद भी बचपन में मिला स्तनपान मोटापे तथा कोलेस्ट्रॉल आदि से बचाता है।

6. शिशु का दिमाग तेज

स्तन से मिलने वाले दूध से शिशु को डी एच ए मिलता है जो दिमाग को तेज बनाता है। स्तनपान की प्रक्रिया भी शिशु को मानसिक रूप से सुदृढ़ बनाने में सहायक होती है। इससे शिशु को भावनात्मक सुरक्षा का अहसास मिलता है जो मस्तिष्क के उचित विकास में मददगार होता है।

7. शिशु के मुँह और दांत का सही विकास

शिशु का मुंह स्तन से दूध पीने के लिए सर्वाधिक अनुकूल होता है। स्तनपान की प्रक्रिया से बच्चे का मुँह सही तरीके से विकसित होता है तथा दांत निकलने में भी यह प्रक्रिया सहायक होती है। इससे बच्चे के जबड़े मजबूत बनते हैं।

8. अधिक सुविधाजनक

जब भी बच्चे को भूख लगे तो स्तनपान कराने के लिए किसी प्रकार की कोई तैयारी नहीं करनी पड़ती। घर से बाहर जाने पर भी शिशु का आहार हमेशा माँ के साथ होता है। जबकि अन्य प्रकार के दूध या आहार के लिए  गर्म , ठंडा , सफाई आदि का बहुत ध्यान रखना होता है।


9. मां का गर्भाशय सामान्य होना

स्तनपान कराने से माँ के गर्भाशय को अपने उचित आकार में आने में मदद मिलती है। यह रक्तस्राव में कमी लाता है। माहवारी शुरू होने की प्रक्रिया देर से शुरू होने में सहायक होता है। स्तनपान वापस जल्दी प्रेग्नेंट होने की सम्भावना को कम करता है।

10. मां को गंभीर बीमारी से बचाव

स्तनपान कराने से माँ को गर्भाशय , ओवरी तथा स्तन के कैंसर जैसी गंभीर बीमारी होने का खतरा कम होता है।

11. माँ को आराम

शिशु को जन्म देने के बाद माँ के शरीर को आराम की आवश्यकता होती है। स्तनपान कराते समय सब काम छोड़कर बैठना पड़ता है। इससे माँ के शरीर को आराम मिल जाता है।

12. मां का डिप्रेशन दूर

डिलीवरी एक बाद कभी कभी माँ को डिप्रेशन की समस्या होने लगती है जिसे पोस्ट नेटल डिप्रेशन कहते हैं। स्तनपान इस प्रकार के डिप्रेशन को दूर रखता है और मन को संतुष्टि देता है।



आवृत्ति

एक नवजात एक बहुत छोटे से पेट की क्षमता है। एक दिन की उम्र में यह 5 से 7 मिलीलीटर, एक संगमरमर के आकार के बराबर होता है,तीन दिन में यह 0.75-1 आस्ट्रेलिया, एक "शूटर" संगमरमर के आकार का और सात दिन में यह है 1.5-2 या एक पिंगपांग की गेंद के आकार तक विकसित हो जाता है।मां के दूध का उत्पादन पहले दूध, कोलोस्ट्रम, केंद्रित होता है,शिशु की जरूरतों को पूरा करने के लिए मुखय भूमिका निभाता है, जो केवल बहुत कम मात्रा में धीरे-धीरे शिशु के पेट क्षमता के विस्तार के आकार के साथ बढ़ता जाता है।स्तनपान दिन के समय दोनों स्तनों से कम से कम 10-15 मिनट तक हर दो या तीन घन्टे के बाद कराना चाहिए। दिन में हो सकता है कि बच्चे को जगाना पड़े (डॉयपर बदलने या बच्चे को सीधा करने अथवा उससे बातें करने से बच्चे को जगाने में मदद मिलती है)। जब बच्चे की पोषण परक जरूरतें दिन के समय ठीक से पूरी हो जाती हैं तो फिर वह रात को बार बार नहीं जगता। कभी कभी ऐसा भी होता है कि स्तन रात को भर जाते हैं और शिशु सो रहा होता है, तब मां चाहती हैं कि उसे जगाकर दूध पिला दें। जैसे जैसे बच्चा बड़ा होता है, दूध पिलाने की अवधि बढ़ती जाती है।


स्तनपान कराने की स्थितियां


स्थिति और latching आवश्यक तकनीक से निपल व्यथा कि रोकथाम और बच्चे को पर्याप्त दूध प्राप्त करने के लिए स्तनपान कराने की स्थितियां महतवपूर्ण है।

"पक्ष पलटा" बच्चे की स्वाभाविक प्रवृत्ति मुंह खुला के साथ स्तन की ओर मोड़ करने के लिए है; माताओं कभी कभी धीरे उनकी निप्पल के साथ बच्चे के गाल या होंठ पथपाकर एक स्तनपान सत्र के लिए स्थिति में ले जाते हैं, तो जल्दी से स्तन पर ले जाती है,बच्चे को प्रेरित करने के द्वारा इस का उपयोग करते हैं जबकि उसके मुंह खुला हुआ है।निपल व्यथा को रोकने और बच्चे को पर्याप्त दूध प्राप्त करने के लिये स्तन और परिवेश का बड़ा हिस्सा बच्चे के मुह के अन्दर होना ज़रुरी है।विफलता अप्रभावी स्तनपान मुख्य कारणों में से एक है और शिशु स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं को जन्म दे सकते है।इसलिये चिकित्सक का परामर्श आवश्यक लें।


स्तनों में लंप

स्तनपान के दौरान स्तनों में लम्प सामान्य बात है जो कि किसी छिद्र के बन्द होने से बन जाता है। दूध पिलाने से पहले (गर्म पानी से स्नान या सेक) सेक और स्तनों की मालिश करें (छाती से निप्पल की ओर गोल गोल कोमलता से अंगुली के पोरों से करें या पम्प द्वारा निकाल दें। बन्द छिद्र या नली को खोल लेना महत्वपूर्ण है नहीं तो स्तनों में इन्फैक्शन हो सकता है। यदि इस सब से लम्प न निकले या फ्लू के लक्षण दिखाई दें तो चिकित्सक का परामर्श लें।


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Thursday, October 24, 2019


अपगार स्कोर (Apgar)


अपगार स्कोर डॉक्टरों द्वारा जन्म के समय नवजात शिशु के स्वास्थ्य का आकलन करने के लिए उपयोग किया जाता है यानी यह जन्म के बाद बच्चे की स्थिति के आकलन करने का एक उपाय है. इस परीक्षण का उपयोग बच्चे की हृदय गति, मांसपेशीयों और अन्य संकेतों को देखने के लिए किया जाता है ताकि यह पता लगाया जा सके कि बच्चे को अतिरिक्त चिकित्सा देखभाल या आपातकालीन देखभाल की आवश्यकता है या नहीं.


इस जांच से पता चलता है कि बच्चा जन्म के समय कैसा है, बच्चे को दवाओं की जरुरत है या नहीं आदि. क्या आपको पता है कि यह परीक्षण बच्चे को दो बार दिया जाता है: जन्म के 1 मिनट बाद और फिर जन्म के 5 मिनट बाद. यह बच्चे की स्थिति पर भी निर्भर करता है, यदि आवश्यक हो तो यह परीक्षण दोबारा भी दिया जा सकता है.

अपगर (Apgar) शब्द का क्या मतलब होता है

अप्गर शब्द में ही पता चल जाता है की क्या जांच हो रही है. इस परिक्षण में पांच चीजें बच्चों के स्वास्थ्य की जांच के लिए उपयोग की जाती हैं. प्रत्येक विशेषता को 0 से 2 तक रेट किया जाता है यानी बच्चे की दिखावट, धड़कन, मसल एक्टिविटी और सांस लेने को 0 से लेकर 2 तक रेट किया जाता है.
A से appearance यानी दिखावट (त्वचा का रंग)
P से पल्स (pulse) (दिल की धड़कन)
G से ग्रिमेन्स प्रतिक्रिया है (grimace response)
A से गतिविधि (activity) (मस्ल टोन)
R से श्वसन (respiration) (श्वास दर)

 अपगार स्कोर का अर्थ


Source: www.ucbaby.ca.com

पहले परिक्षण में अगर अप्गर स्कोर 7 या उससे अधिक है तो इसे सामान्य माना जाता है. 1 मिनट में यदि स्कोर 6 या उससे कम होता है और 5 मिनट पर स्कोर 7 या उससे अधिक होता है, तो बच्चे को जन्म के बाद सामान्य माना जाता है. लेकिन, यदि दूसरे परीक्षण में यानी 5 मिनट पर अगर बच्चे का स्कोर 7 से नीचे होता है तो इसे कम माना जाता है.

यदि पहले अप्गर परीक्षण में बच्चे का स्कोर कम था और उपचार प्रदान करने के बाद, 5 मिनट में दूसरे अप्गर परीक्षण में, बच्चे के स्कोर में सुधार नहीं हुआ तो डॉक्टर बच्चे की बारीकी से निगरानी करेंगे और चिकित्सा देखभाल जारी रखेंगे.

अपगर रस्कोर का आविष्कार

1952 में डॉ वर्जीनिया अप्गर ने बच्चे के पैदा होने के 1 मिनट बाद नवजात शिशु की स्वास्थ्य स्थिति जानने के लिए अप्गर स्कोर, एक स्कोरिंग सिस्टम तैयार किया ताकि आवश्यक उपचार की अगर बच्चे को जरुरत हो तो उपचार  प्रदान किया जा सके. अप्गर स्कोर नवजात शिशु के नैदानिक लक्षणों जैसे कि cyanosis or pallor, bradycardia, उत्तेजना, हाइपोटोनिया, और apnea or gasping respirations जैसी प्रतिक्रियायों के लक्षणों को भी मापता है.

असल में, जन्म के बाद बच्चे का स्कोर 1 मिनट और 5 मिनट और फिर उसके बाद 5 मिनट अंतराल पर रिपोर्ट किया जाता है, इसके बाद 7 से कम स्कोर के साथ 20 मिनट तक. इस परीक्षण का उपयोग न्यूरोलॉजिकल परिणाम और अन्य 5 विशेषताओं के साथ किया जाता है. जैसा की ऊपर बताया जा चुका है.

क्या अपगार स्कोर की कोई सीमा (limitation) है?

अप्गर स्कोर शिशु की शारीरिक स्थिति बताता है लेकिन कुछ कारक हैं जो maternal sedation या anaesthesia,जन्मजात विकृतियों, गर्भावस्था की उम्र, trauma और interobserver variability जैसे Apgar स्कोर को प्रभावित करते हैं. सामान्य संक्रमण में भिन्नता के साथ पहले कुछ मिनटों में कम प्रारंभिक ऑक्सीजन संतृप्ति जैसे करक स्कोर को प्रभावित कर सकते हैं.

इसके अलावा, अपरिपक्वता के कारण स्वस्थ शिशु जिसमें asphyxia होने का कोई सबूत नहीं मिला हो तब भी उस शिशु का अप्गर स्कोर कम हो सकता है. कम अप्गर स्कोर जन्म के वजन के विपरीत आनुपातिक होता है और यह किसी भी शिशु के लिए विकृति या मृत्यु दर की भविष्यवाणी नहीं कर सकता है।

 इसके अलावा, यह स्थापित किया गया है कि यदि अप्गर स्कोर 5 मिनट और 10 मिनट में 5 से कम आता है तो cerebral palsy होने का जोखिम बढ़ सकता है. चूंकि, अप्गर स्कोर कई कारकों से प्रभावित होता है, इसलिए यदि 5 मिनट में यह 7 या उससे अधिक हो तो peripartum hypoxia–ischemia नवजात में  encephalopathy का कारण बनता है.



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Wednesday, September 11, 2019

Down syndrome (DS) डाउन सिंड्रोम

Down syndrome (DS)
डाउन सिंड्रोम

डाउन सिंड्रोम जिसे ट्राइसोमी 21 के नाम से भी जाना जाता है, एक आनुवांशिक विकार है जो क्रोमोसोम 21 की तीसरी प्रतिलिपि के सभी या किसी भी हिस्से की उपस्थिति के कारण होता है। यह आमतौर पर शारीरिक विकास में देरी, विशेषता चेहरे की विशेषताओं  और हल्के से मध्यम बौद्धिक विकलांगता से समन्धित है। डाउन सिंड्रोम वाले  एक युवा वयस्क का औसत  बौद्धिक स्तर 50 होता है जो  8 वर्षीय बच्चे की मानसिक क्षमता के बराबर है, लेकिन यह व्यापक रूप से भिन्न हो सकता है।

प्रभावित व्यक्ति के माता-पिता आमतौर पर आनुवंशिक रूप से सामान्य होते हैं। 20 वर्षीय माताओं में इसकी संभावना  0.1% से कम की  होती है और 45 की उम्र में 3% हो  जाती  है।माना जाता है कि अतिरिक्त गुणसूत्र मौका से होता है, जिसमें कोई ज्ञात व्यवहार गतिविधि या पर्यावरणीय कारक नहीं होता  जो संभावना को बदलता है। डाउन सिंड्रोम गर्भावस्था के दौरान जन्मपूर्व स्क्रीनिंग द्वारा डायग्नोस्टिक परीक्षण या प्रत्यक्ष अवलोकन और अनुवांशिक परीक्षण द्वारा जन्म के बाद पहचाना जा सकता है।स्क्रीनिंग की शुरूआत के बाद, निदान के साथ गर्भावस्था को अक्सर समाप्त कर दिया जाता है। डाउन सिंड्रोम में सामान्य स्वास्थ्य समस्याओं के लिए नियमित स्क्रीनिंग व्यक्ति के पूरे जीवन में अनुशंसित की जाती है।डाउन सिंड्रोम के लिए कोई इलाज नहीं है। शिक्षा और उचित देखभाल से जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाया जा सकता है। डाउन सिंड्रोम वाले कुछ बच्चे सामान्य स्कूल कक्षाओं में शिक्षित होते हैं, जबकि अन्यों को अधिक विशिष्ट शिक्षा की आवश्यकता होती है। डाउन सिंड्रोम वाले कुछ व्यक्ति हाई स्कूल से स्नातक होते है , और कुछ माध्यमिक शिक्षा में भाग लेते हैं। वयस्कता में, अमेरिका में लगभग 20% व्यक्ति कुछ क्षमता में भुगतान वाला काम करते  हैं, जिनमें से कई को आश्रय वाले काम के माहौल की आवश्यकता होती है। वित्तीय वर्ष  और कानूनी मामलों में समर्थन की अक्सर आवश्यकता होती है। उचित स्वास्थ्य देखभाल के साथ विकसित दुनिया में जीवन प्रत्याशा लगभग 50 से 60 वर्ष होती  है।

डाउन सिंड्रोम मनुष्यों में सबसे आम गुणसूत्र असामान्यताओं में से एक है। यह हर साल पैदा हुए प्रति 1000 बच्चों में से एक में होता है। 2015 में, डाउन सिंड्रोम 5.4 मिलियन व्यक्तियों में मौजूद था और इसके परिणामस्वरूप 1990 में 43,000 मौतों से 27,000 मौतें हुईं। इसका नाम ब्रिटिश डॉक्टर जॉन लैंगडन डाउन के नाम पर रखा गया है, जिसने 1866 में सिंड्रोम का पूरी तरह से वर्णन किया था। इस स्थिति के कुछ पहलुओं का वर्णन 1838 में जीन-एटियेन डोमिनिक एस्किरोल द्वारा और 1844 में एडोआर्ड सेगुइन द्वारा किया गया था।  1959 में, क्रोमोसोम 21 की एक अतिरिक्त प्रतिलिपि डाउन सिंड्रोम का अनुवांशिक कारण खोजा गया था।

संकेत और लक्षण

डाउन सिंड्रोम वाले लोगों में लगभग हमेशा शारीरिक और बौद्धिक विकलांगता होती है। वयस्कों  में,  मानसिक क्षमता आमतौर पर 8- या 9-वर्षीय के समान होती है। आमतौर पर इनकी प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर होती है और विकासात्मक मील के  पत्थर पर  बाद की उम्र में पहुंचा जाता है।जन्मजात हृदय दोष, मिर्गी, ल्यूकेमिया, थायराइड रोग, और मानसिक विकार सहित कई अन्य स्वास्थ्य समस्याओं का जोखिम बढ़ गया हैI


भौतिक

डाउन सिंड्रोम वाले लोगों में इनमें से कुछ या सभी भौतिक विशेषताओं हो सकती हैं: एक छोटी सी ठोड़ी, तिरछी आंखें, मांसपेशियों की  खराब टोन, एक फ्लैट नाक , हथेली की एक क्रीज, और एक छोटे से मुंह और अपेक्षाकृत बड़ी जीभ के कारण एक प्रकोप वाली जीभ ।इन वायुमार्गों में परिवर्तन डाउन सिंड्रोम के लगभग आधे लोगों में नींद अवरोधक एपनिया का कारण बनता है। अन्य आम विशेषताओं में शामिल हैं: एक फ्लैट और चौड़ा चेहरा, एक छोटी गर्दन, अत्यधिक संयुक्त लचीलापन,  पैर की बड़ी अंगुली और दूसरी अंगुली के बीच अतिरिक्त जगह, उंगलियों और छोटी उंगलियों पर असामान्य पैटर्न।अटलांटैक्सियल संयुक्त की अस्थिरता लगभग 20% होती है और 1-2% में रीढ़ की हड्डी की चोट हो सकती है। डाउन सिंड्रोम वाले तीसरे लोगों तक आघात के बिना हिप विघटन हो सकता है।

ऊंचाई में वृद्धि धीमी होती है, जिसके परिणामस्वरूप वयस्कों में छोटे स्तर होते हैं-पुरुषों के लिए औसत ऊंचाई 154 सेमी (5 फीट 1 इंच) होती है और महिलाओं के लिए 142 सेमी (4 फीट 8 इंच) होती है। डाउन सिंड्रोम वाले व्यक्ति में बढ़ती उम्र के साथ मोटापे की वृद्धि का भी जोखिम होता है।   विशेष रूप से डाउन सिंड्रोम वाले बच्चों के लिए ग्रोथ चार्ट विकसित किए गए हैं।


न्यूरोलॉजिकल

यह सिंड्रोम बौद्धिक विकलांगता के तीसरे मामलों का कारण बनता है। कई विकासात्मक परिवर्तनों में आम तौर पर 5 महीने के बजाय लगभग 8 महीने तक क्रॉल करने की क्षमता और 14 महीनों के बजाय आम तौर पर लगभग 21 महीने होने की क्षमता के साथ विलंब करने की क्षमता में देरी होती है।डाउन सिंड्रोम वाले अधिकांश व्यक्तियों में हलकी (आईक्यू: 50-69) या मध्यम (आईक्यू: 35-50) बौद्धिक विकलांगता होती है जिनमें कुछ मामलों में गंभीर (आईक्यू: 20-35) कठिनाइयां होती हैं। मोज़ेक डाउन सिंड्रोम वाले लोगों में आमतौर पर आईक्यू स्कोर 10-30 अंक अधिक होता है। बढ़ती उम्र के साथ डाउन सिंड्रोम वाले लोग आम तौर पर अपने समान आयु के साथियों से भी बदतर होते हैं।आम तौर पर, डाउन सिंड्रोम वाले व्यक्तियों में बोलने की क्षमता की तुलना में भाषा समझने की क्षमता ज्यादा बेहतर होती है।10 से 45% के बीच या तो एक स्टटर या तेज़ और अनियमित भाषण है, जिससे उन्हें समझना मुश्किल हो जाता है। कुछ लोग 30 साल की उम्र के बाद बोलने की क्षमता खो सकते हैं।वे आम तौर पर काफी अच्छी तरह से सामाजिक कौशल होते है। बौद्धिक अक्षमता से जुड़े अन्य सिंड्रोम में व्यवहार समस्याएं आम तौर पर  बड़ी समस्या नहीं होती । डाउन सिंड्रोम वाले बच्चों में, 5-10% में ऑटिज़्म होने के साथ मानसिक बीमारी लगभग 30% में होती है। डाउन सिंड्रोम वाले लोग भावनाओं की एक विस्तृत श्रृंखला का अनुभव करते हैं। डाउन सिंड्रोम वाले लोग आम तौर पर खुश होते हैं लेकिन, प्रारंभिक वयस्कता में अवसाद और चिंता के लक्षण विकसित हो सकते हैं।

डाउन सिंड्रोम वाले बच्चों और वयस्कों को मिर्गी के दौरे का खतरा बढ़ जाता है, जो 5-10% बच्चों और 50% वयस्कों में होते हैं। इसमें शिशु स्पैस्म नामक एक विशिष्ट प्रकार के जब्त का बढ़ता जोखिम शामिल है। कई लोग (15%) जो 40 साल या उससे ज्यादा समय जीवित रहते हैं उनमे अल्जाइमर रोग विकसित हो जाता है। 60 वर्ष की आयु तक पहुंचने वालों में 50-70% लोग बीमार रहते है।

सेंसेस/होश

डाउन सिंड्रोम वाले आधा से अधिक लोगों में श्रवण और दृष्टि विकार होते हैं। दृष्टि की समस्या 38 से 80% में होती है। 20 से 50% के बीच स्ट्रैबिस्मस होता है, जिसमें दो आंखें एक साथ नहीं बढ़ती हैं। मोतियाबिंद (आंखों के लेंस की बादल) 15% में होती है, और जन्म के समय उपस्थित हो सकती है। केराटोकोनस (एक पतला, शंकु के आकार का कॉर्निया) और ग्लूकोमा (बढ़ी हुई आंखों के दबाव) भी अधिक आम हैं, क्योंकि यह चश्मे या संपर्कों की आवश्यकता वाले अपवर्तक त्रुटियां हैं। ब्रशफील्ड स्पॉट (आईरिस के बाहरी हिस्से पर छोटे सफेद या भूरे / भूरे रंग के धब्बे) 38 से 85% व्यक्तियों में मौजूद हैं।डाउन सिंड्रोम वाले 50-90% बच्चों में श्रवण की समस्याएं पाई जाती हैं। यह अक्सर ओटिटिस मीडिया का परिणाम है जो 50-70% और क्रोनिक कान संक्रमण जो 40 से 60% में होता है। कान संक्रमण अक्सर जीवन के पहले वर्ष में शुरू होते हैं और आंशिक रूप से यूस्टाचियन ट्यूब के खराब फ़ंक्शन के कारण होते हैं।इसके अतिरिक्त, सामाजिक और संज्ञानात्मक क्षय में श्रवण हानि को एक करक के रूप में रद्द करना महत्वपूर्ण है।संवेदीय प्रकार की आयु से संबंधित श्रवण हानि बहुत पहले की उम्र में होती है और डाउन सिंड्रोम वाले 10-70% लोगों को प्रभावित करती है।

निदान

जन्म से पहले

जब स्क्रीनिंग परीक्षण डाउन सिंड्रोम के उच्च जोखिम की भविष्यवाणी करते हैं, तो निदान की पुष्टि के लिए एक अधिक आक्रामक नैदानिक ​​परीक्षण (अमीनोसेनेसिस या कोरियोनिक विला नमूनाकरण) की आवश्यकता होती है। यदि 500 ​​गर्भधारण में से एक में डाउन सिंड्रोम होता है और परीक्षण में 5% झूठी-सकारात्मक दर होती है, तो इसका मतलब है कि 26 महिलाओं में से जो स्क्रीनिंग पर सकारात्मक परीक्षण करते हैं, केवल एक ही डाउन सिंड्रोम की पुष्टि होगी। यदि स्क्रीनिंग टेस्ट में 2% झूठी-सकारात्मक दर है, तो इसका मतलब है कि स्क्रीनिंग पर सकारात्मक परीक्षण करने वाले ग्यारह में से एक डीएस के साथ भ्रूण है। अमीनोसेनेसिस और कोरियोनिक विला नमूना अधिक विश्वसनीय परीक्षण हैं, लेकिन वे गर्भपात के जोखिम को 0.5 और 1% के बीच बढ़ाते हैं। प्रक्रिया के कारण संतान में अंग समस्याओं का खतरा बढ़ जाता है। प्रक्रिया से जोखिम पहले किया जाता है जितना पहले किया जाता है, इस प्रकार 10 सप्ताह गर्भावस्था की उम्र से पहले 15 सप्ताह गर्भावस्था की आयु और कोरियोनिक विला नमूनाकरण से पहले अमीनोसेनेसिस की सिफारिश नहीं की जाती है।

गर्भपात दर

डाउन सिंड्रोम के निदान के साथ यूरोप में लगभग 9 2% गर्भधारण समाप्त हो जाते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में, समाप्ति दर लगभग 67% है, लेकिन यह दर विभिन्न आबादी के बीच 61% से 9 3% तक भिन्न है। कम उम्र के महिलाओं में दरें कम हैं और समय के साथ घट गई हैं। जब गैर-वंचित लोगों से पूछा जाता है कि क्या उनके भ्रूण ने सकारात्मक परीक्षण किया है, तो 23-33% ने हाँ कहा, जब उच्च जोखिम वाली गर्भवती महिलाओं से पूछा गया, 46-86% ने हाँ कहा, और जब महिलाएं सकारात्मक जांचती हैं, तो 89 -97% हाँ कहा ।

जन्म के बाद

जन्म के समय बच्चे के शारीरिक रूप के आधार पर निदान अक्सर संदेह किया जा सकता है। निदान की पुष्टि करने के लिए बच्चे के गुणसूत्रों का एक विश्लेषण आवश्यक है, और यह निर्धारित करने के लिए कि कोई स्थानान्तरण मौजूद है या नहीं, क्योंकि यह बच्चे के माता-पिता के डाउन सिंड्रोम वाले बच्चों को रखने का जोखिम निर्धारित करने में मदद कर सकता है। माता-पिता आमतौर पर संभावित निदान को जानना चाहते हैं जब संदेह हो और करुणा की इच्छा न हो।


जाँच

दिशानिर्देश उम्र के बावजूद सभी गर्भवती महिलाओं को डाउन सिंड्रोम की पेशकश करने की सलाह देते हैं। सटीकता के विभिन्न स्तरों के साथ कई परीक्षणों का उपयोग किया जाता है। वे आमतौर पर पहचान दर बढ़ाने के लिए संयोजन में उपयोग किया जाता है। कोई भी निश्चित नहीं हो सकता है, इस प्रकार यदि स्क्रीनिंग सकारात्मक है, तो निदान की पुष्टि करने के लिए या तो अमीनोसेनेसिस या कोरियोनिक विला नमूनाकरण आवश्यक है। पहले और दूसरे ट्राइमेस्टर दोनों में स्क्रीनिंग पहले तिमाही में स्क्रीनिंग की तुलना में बेहतर है। उपयोग में विभिन्न स्क्रीनिंग तकनीक 90 से 9 5% मामलों को चुनने में सक्षम हैं, जिनमें 2 से 5% की झूठी सकारात्मक दर है। पहला- और दूसरा त्रैमासिक स्क्रीनिंग


 अल्ट्रासाउंड

डाउन सिंड्रोम के साथ भ्रूण का अल्ट्रासाउंड एक बड़ा मूत्राशय दिखा रहा है ।डाउन सिंड्रोम के लिए स्क्रीन करने के लिए अल्ट्रासाउंड इमेजिंग का उपयोग किया जा सकता है। निष्कर्ष जो 14 से 24 सप्ताह गर्भावस्था में देखे गए जोखिम को इंगित करते हैं, उनमें एक छोटी या नाक की हड्डी, बड़े वेंट्रिकल, नचल गुना मोटाई, और असामान्य दाएं उपक्लेवियन धमनी शामिल हैं। कई मार्करों की उपस्थिति या अनुपस्थिति अधिक सटीक है। बढ़ी हुई भ्रूण नचल पारदर्शीता (एनटी) नीचे सिंड्रोम का 75-80% मामलों को उठाकर और 6% में झूठी सकारात्मक होने का जोखिम बढ़ाती है।

रक्त परीक्षण

पहले या दूसरे तिमाही के दौरान डाउन सिंड्रोम के जोखिम की भविष्यवाणी करने के लिए कई रक्त मार्करों को मापा जा सकता है। दोनों trimesters में परीक्षण कभी-कभी अनुशंसा की जाती है और परीक्षण के परिणाम अक्सर अल्ट्रासाउंड परिणामों के साथ संयुक्त होते हैं। दूसरे तिमाही में, दो या तीन परीक्षणों के संयोजन में अक्सर दो या तीन परीक्षणों का उपयोग किया जाता है: α-fetoprotein, unconjugated estriol, कुल एचसीजी, और मुक्त βhCG 60-70% मामलों का पता लगाता है। भ्रूण डीएनए के लिए मां के खून का परीक्षण किया जा रहा है और पहले तिमाही में वादा किया जा रहा है। इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर प्रीनाटल डायग्नोसिस उन महिलाओं के लिए उचित स्क्रीनिंग विकल्प मानती है जिनकी गर्भावस्था ट्राइसोमी 21 के लिए उच्च जोखिम पर है। गर्भावस्था के पहले तिमाही में शुद्धता 98.6% पर दर्ज की गई है।  आक्रामक तकनीकों (एमनीओसेनेसिस, सीवीएस) द्वारा पुष्टित्मक परीक्षण अभी भी स्क्रीनिंग परिणाम की पुष्टि करने के लिए आवश्यक है।

रोग का निदान

स्वीडन में डाउन सिंड्रोम वाले 5 से 15% बच्चों के बीच नियमित स्कूल में भाग लेते हैं। हाईस्कूल से कुछ स्नातक; हालांकि, ज्यादातर नहीं करते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में बौद्धिक अक्षमता वाले लोगों में से जिन्होंने 40% स्नातक की उपाधि प्राप्त की। कई लोग पढ़ना और लिखना सीखते हैं और कुछ भुगतान किए गए काम करने में सक्षम होते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में लगभग 20% वयस्कता में कुछ क्षमता में भुगतान किया जाता है। स्वीडन में, हालांकि, 1% से कम नियमित नौकरियां हैं। कई अर्द्ध स्वतंत्र रूप से जीने में सक्षम हैं, लेकिन उन्हें अक्सर वित्तीय, चिकित्सा और कानूनी मामलों के साथ मदद की आवश्यकता होती है। मोज़ेक डाउन सिंड्रोम वाले आमतौर पर बेहतर परिणाम होते हैं। डाउन सिंड्रोम वाले व्यक्तियों की आम जनसंख्या की तुलना में प्रारंभिक मृत्यु का उच्च जोखिम होता है। यह अक्सर दिल की समस्याओं या संक्रमण से होता है। विशेष रूप से दिल और गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल समस्याओं के लिए चिकित्सा देखभाल में सुधार के बाद, जीवन प्रत्याशा बढ़ गई है। यह वृद्धि 1 9 12 में 12 वर्षों से, 1 9 80 के दशक में 25 वर्षों तक, 2000 के दशक में विकसित दुनिया में 50 से 60 वर्ष तक रही है। वर्तमान में जीवन के पहले वर्ष में 4 से 12% के बीच मर जाते हैं। दीर्घकालिक अस्तित्व की संभावना आंशिक रूप से दिल की समस्याओं की उपस्थिति से निर्धारित होती है। जन्मजात हृदय की समस्याओं वाले 60% में 10% तक जीवित रहते हैं और 50% 30 वर्ष तक जीवित रहते हैं। दिल की समस्याओं के बिना 85% 10 साल तक जीवित रहते हैं और 80% 30 वर्ष तक जीवित रहते हैं। लगभग 10% 70 साल तक जीते हैं। नेशनल डाउन सिंड्रोम सोसाइटी ने डाउन सिंड्रोम के साथ जीवन के सकारात्मक पहलुओं के बारे में जानकारी विकसित की है।


 डाउन सिंड्रोम होने के कारण – Causes of down syndrome

प्रजनन के सभी मामलों में माता और पिता दोनों के जीन उनके बच्चों में भी मौजूद होते हैं। ये जीन बच्चों में गुणसूत्र के माध्यम से पहुंचते हैं। जब बच्चे की कोशिकाओं का विकास होता है तो प्रत्येक कोशिका 23 जोड़ी अर्थात् 46 गुणसूत्र प्राप्त करती है। बच्चे के शरीर में आधा गुणसूत्र मां से प्राप्त होता है और आधा गुणसूत्र (chromosome) पिता से प्राप्त होता है।

लेकिन डाउन सिंड्रोम की स्थिति में एक गुणसूत्र ठीक से अलग नहीं हो पाता है और बच्चे के शरीर में दो के बजाय तीन या एक अतिरिक्त आंशिक गुणसूत्र 21 की प्रतियां पहुंच जाती हैं। इस अतिरिक्त गुणसूत्र के कारण बच्चे का शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो पाता है। हालांकि डॉक्टर भी डाउन सिंड्रोम होने के पीछे के सही कारणों को नहीं जानते हैं लेकिन वे यह जरूर बताते हैं कि यदि कोई महिला 35 वर्ष या इससे अधिक उम्र के बाद बच्चा पैदा करती है तो बच्चे में डाउन सिंड्रोम होने की संभावना होती है। यदि आपका कोई बच्चा पहले से ही डाउन सिंड्रोम से पीड़ित है तो अगले बच्चे में भी डाउन सिंड्रोन होने की संभावना अधिक पायी जाती है। यह सामान्य बीमारी नहीं है लेकिन डाउन सिंड्रोम माता-पिता से बच्चे में आसानी से हो सकता है।

डाउन सिंड्रोम के प्रकार – Types of Down syndrome

डाउन सिंड्रोम तीन प्रकार के होते हैं

ट्राइसोमी 21 (Trisomy 21)

यह वह स्थिति है जिसमें शरीर में मौजूद प्रत्येक कोशिकाओं में  दो की बजाय क्रोमोसोम 21 की तीन कॉपी होती हैं।

ट्रांसलोकेशन डाउन सिंड्रोम (Translocation Down syndrome)

इस प्रकार के सिंड्रोम में प्रत्येक कोशिकाओं में पूरा एक या कुछ अतिरिक्त क्रोमोसोम 21 का भाग मौजूद होता है। लेकिन यह स्वयं के बजाय किसी और क्रोमोसोम से जुड़ा होता है।


मोजैक डाउन सिंड्रोम – (Mosaic Down syndrome)

यह दुर्लभ (rarest) प्रकार का डाउन सिंड्रोम है जिसमें सिर्फ कुछ ही कोशिकाएं के पास अतिरिक्त क्रोमोसोम 21 होता है।


कोई व्यक्ति यह नहीं बता सकता है कि वह किस प्रकार के डाउन सिंड्रोम से पीड़ित है, क्योंकि इन तीनों प्रकार के डाउन सिंड्रोम का प्रभाव लगभग एक समान होता है। लेकिन मोजैक डाउन सिंड्रोम से पीड़ित मरीज में अधिक लक्षण दिखायी नहीं देते हैं क्योंकि इसमें सिर्फ कुछ ही कोशिकाओं (cells) के पास अतिरिक्त क्रोमोसोम होता है।


डाउन सिंड्रोम के लक्षण – symptoms of Down syndrome

प्रेगनेंसी के दौरान ही स्क्रीनिंग के जरिए बच्चे में डाउन सिंड्रोम के विकार का पता लगाया जा सकता है, लेकिन प्रेगनेंसी के दौरान महिला को इस तरह का कोई लक्षण नहीं दिखायी देता है जिससे वह यह समझ सके कि उसके बच्चे को डाउन सिंड्रोम है।

जन्म के समय डाउन सिंड्रोम से पीड़ित बच्चों में इस तरह के लक्षण दिखायी देते हैं-


  1. चिपटे आकार का चेहरा
  2. कान बहुत छोटे
  3. गर्दन बहुत छोटी
  4. फैली हुई जीभ
  5. ऊपर की ओर झुकी हुई आंखें
  6. असामान्य आकार का कान
  7. मांसपेशियां कमजोर
  8. जन्म के समय डाउन सिंड्रोम से पीड़ित बच्चे का आकार औसतन ही होता है लेकिन सामान्य बच्चों की अपेक्षा डाउन सिंड्रोम से पीड़ित बच्चे के शरीर का विकास बहुत धीमी गति से होता है।
  9. इसके अलावा ऐसे बच्चों में सामाजिक एवं मानसिक भी बहुत देर से होता है। उनमें आमतौर पर ये लक्षण दिखायी देते हैं-
  10. आवेगपूर्ण व्यवहार
  11. चीजों को समझने की कम क्षमता
  12. ध्यान इधर-उधर भटकना
  13. सीखने की बहुत धीमी क्षमता
  14. डाउन सिंड्रोम से पीड़ित वयस्क पुरुष की लंबाई 5 फीट 1 इंच और वयस्क महिला की लंबाई 4 फीट 9 इंच होती है। इसके अलावा उम्र बढ़ने के साथ मोटापे (Obesity) की समस्या होना भी बहुत आम होता है। डाउन सिंड्रोम से पीड़ित मरीज को हमेशा कुछ न कुछ स्वास्थ्य समस्याएं होती रहती हैं और वह हृदय रोगों से भी पीड़ित हो सकता है।
  15. सिर का बड़ा व पीछे से चपटा होना।
  16. नाक का मोटा होना आदि।


 डाउन सिंड्रोम का निदान – Down syndrome diagnosed

जब भ्रूण गर्भाशय में होता है तभी डाउन सिंड्रोम का निदान किया जा सकता है। प्रेगनेंट महिलाओं में रूटीन स्क्रीनिंग के द्वारा शिशु में इस बीमारी की पहचान की जाती है।

प्रेगनेंसी के पहले और दूसरे तिमाही में प्रेगनेंट महिला को ब्लड टेस्ट और अल्ट्रासाउंड करवाना चाहिए, सिर्फ डाउन सिंड्रोम का पता करने के लिए ही नहीं बल्कि शिशु में अन्य आनुवांशिक असामान्यताओं के बारे में भी जानने के लिए। इसके अलावा एम्नियोसेंटेसिस (Amniocentesis)  प्रकार के निदान में भ्रूण के आसपास मौजूद एम्नियोटिक फ्लूइड का सैंपल लेने के लिए गर्भाशय में एक सूई प्रवेश करायी जाती है। ट्राइसोमी 21 को जरिए भ्रूण के क्रोमोसोम का विश्लेषण किया जाता है।


डाउन सिंड्रोम का इलाज – Treatment for Down syndrome 

डाउन सिंड्रोम से पीड़ित मरीज का इलाज कराकर और उसे अपना सहयोग देकर उसके जीवन को बेहतर बनाया जा सकता है।

इस रोग से पीड़ित शिशु का विकास बहुत देर से शुरू होता है। वह देर से बैठना शुरू करता है, देर से चलना और बोलना भी शुरू करता है। इसलिए माता-पिता को इस बारे में जरूर जानकारी होनी चाहिए कि डाउन सिंड्रोम से ग्रसित शिशु (infants) का विकास सामान्य शिशु की अपेक्षा देर से होता है।

डाउन सिंड्रोम से पीड़ित बच्चों के देखभाल के लिए एक टीम होती है जिसमें फिजिकल थेरेपिस्ट, व्यावसायिक थेरेपिस्ट, और स्पीच थेरेपिस्ट होते हैं जो बच्चे की भाषा, मोटर, सोशल स्किल को बेहतर बनाने में मदद करते हैं।

डाउन सिंड्रोम से पीड़ित जिन मरीजों में इस विकार के कारण हृदय एवं जठरांत्र प्रणाली (gastrointestinal system) प्रभावित होता है उन्हें अधिक मूल्यांकन, अधिक देखभाल की जरूरत होती है। कभी-कभी उन्हें सर्जरी की भी जरूरत पड़ती है।

उम्र बढ़ने के साथ ही डाउन सिंड्रोम से पीड़ित मरीजों को शारीरिक क्रियाओं के लिए दूसरे व्यक्ति के मदद की हमेशा जरूरत पड़ती है।


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Wednesday, September 4, 2019

Jaundice [पीलिया]

Jaundice [पीलिया]

परिचय
वायरल हैपेटाइटिस या जोन्डिस को साधारण लोग पीलिया के नाम से जानते हैं। यह रोग बहुत ही सूक्ष्‍म विषाणु(वाइरस) से होता है। शुरू में जब रोग धीमी गति से व मामूली होता है तब इसके लक्षण दिखाई नहीं पडते हैं, परन्‍तु जब यह उग्र रूप धारण कर लेता है तो रोगी की आंखे व नाखून पीले दिखाई देने लगते हैं, लोग इसे पीलिया कहते हैं।

जिन वाइरस से यह होता है उसके आधार पर मुख्‍यतः पीलिया तीन प्रकार का होता है वायरल हैपेटाइटिस ए, वायरल हैपेटाइटिस बी तथा वायरल हैपेटाइटिस नान ए व नान बी।

रक्तरस में पित्तरंजक (Billrubin) नामक एक रंग होता है, जिसके आधिक्य से त्वचा और श्लेष्मिक कला में पीला रंग आ जाता है। इस दशा को कामला या पीलिया (Jaundice) कहते हैं।

सामान्यत: रक्तरस में पित्तरंजक का स्तर 1.0 प्रतिशत या इससे कम होता है, किंतु जब इसकी मात्रा 2.5 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है तब कामला के लक्षण प्रकट होते हैं। कामला स्वयं कोई रोगविशेष नहीं है, बल्कि कई रोगों में पाया जानेवाला एक लक्षण है। यह लक्षण नन्हें-नन्हें बच्चों से लेकर 80 साल तक के बूढ़ों में उत्पन्न हो सकता है। यदि पित्तरंजक की विभिन्न उपापचयिक प्रक्रियाओं में से किसी में भी कोई दोष उत्पन्न हो जाता है तो पित्तरंजक की अधिकता हो जाती है, जो कामला के कारण होती है।

रक्त में लाल कणों का अधिक नष्ट होना तथा उसके परिणामस्वरूप अप्रत्यक्ष पित्तरंजक का अधिक बनना बच्चों में कामला, नवजात शिशु में रक्त-कोशिका-नाश तथा अन्य जन्मजात, अथवा अर्जित, रक्त-कोशिका-नाश-जनित रक्ताल्पता इत्यादि रोगों का कारण होता है। जब यकृत की कोशिकाएँ अस्वस्थ होती हैं तब भी कामला हो सकता है, क्योंकि वे अपना पित्तरंजक मिश्रण का स्वाभाविक कार्य नहीं कर पातीं और यह विकृति संक्रामक यकृतप्रदाह, रक्तरसीय यकृतप्रदाह और यकृत का पथरा जाना (कड़ा हो जाना, Cirrhosis) इत्यादि प्रसिद्ध रोगों का कारण होती है। अंतत: यदि पित्तमार्ग में अवरोध होता है तो पित्तप्रणाली में अधिक प्रत्यक्ष पित्तरंजक का संग्रह होता है और यह प्रत्यक्ष पित्तरंजक पुन: रक्त में शोषित होकर कामला की उत्पत्ति करता है। अग्नाशय, सिर, पित्तमार्ग तथा पित्तप्रणाली के कैंसरों में, पित्ताश्मरी की उपस्थितिमें  जन्मजात पैत्तिक संकोच और पित्तमार्ग के विकृत संकोच इत्यादि शल्य रोगों में मार्गाविरोध यकृत बाहर होता है। यकृत के आंतरिक रोगों में यकृत के भीतर की वाहिनियों में संकोच होता है, अत: प्रत्यक्ष पित्तरंजक के अतिरिक्त रक्त में प्रत्यक्ष पित्तरंजक का आधिक्य हो जाता है।

वास्तविक रोग का निदान कर सकने के लिए पित्तरंजक का उपापचय (Metabolism) समझना आवश्यक है। रक्तसंचरण में रक्त के लाल कण नष्ट होते रहते हैं और इस प्रकार मुक्त हुआ हीमोग्लोबिन रेटिकुलो-एंडोथीलियल (Reticulo-endothelial) प्रणाली में विभिन्न मिश्रित प्रक्रियाओं के उपरांत पित्तरंजक के रूप में परिणत हो जाता है, जो विस्तृत रूप से शरीर में फैल जाता हैस, किंतु इसका अधिक परिमाण प्लीहा में इकट्ठा होता है। यह पित्तरंजक एक प्रोटीन के साथ मिश्रित होकर रक्तरस में संचरित होता रहता है। इसको अप्रत्यक्ष पित्तरंजक कहते हैं। यकृत के सामान्यत: स्वस्थ अणु इस अप्रत्यक्ष पित्तरंजक को ग्रहण कर लेते हैं और उसमें ग्लूकोरॉनिक अम्ल मिला देते हैं यकृत की कोशिकाओं में से गुजरता हुआ पित्तमार्ग द्वारा प्रत्यक्ष पित्तरंजक के रूप में छोटी आँतों की ओर जाता है। आँतों में यह पित्तरंजक यूरोबिलिनोजन में परिवर्तित होता है जिसका कुछ अंश शोषित होकर रक्तरस के साथ जाता है और कुछ भाग, जो विष्ठा को अपना भूरा रंग प्रदान करता है, विष्ठा के साथ शरीर से निकल जाता है।

प्रत्येक दशा में रोगी की आँख (सफेदवाला भाग Sclera) की त्वचा पीली हो जाती है, साथ ही साथ रोगविशेष काभी लक्षण मिलता है। वैसे सामान्यत: रोगी की तिल्ली बढ़ जाती है, पाखाना भूरा या मिट्टी के रंग का, ज्यादा तथा चिकना होता है। भूख कम लगती है। मुँह में धातु का स्वाद बना रहता है। नाड़ी के गति कम हो जाती है। विटामिन 'के' का शोषण ठीक से न हो पाने के कारण तथा रक्तसंचार को अवरुद्ध (haemorrhage) होने लगता है। पित्तमार्ग में काफी समय तक अवरोध रहने से यकृत की कोशिकाएँ नष्ट होने लगती हैं। उस समय रोगी शिथिल, अर्धविक्षिप्त और कभी-कभी पूर्ण विक्षिप्त हो जाता है तथा मर भी जाता है।

कामला के उपचार के पूर्व रोग के कारण का पता लगाया जाता है। इसके लिए रक्त की जाँच, पाखाने की जाँच तथा यकृत-की कार्यशक्ति की जाँच करते हैं। इससे यह पता लगता है कि यह रक्त में लाल कणों के अधिक नष्ट होने से है या यकृत की कोशिकाएँ अस्वस्थ हैं अथवा पित्तमार्ग में अवरोध होने से है। पीलिया की चिकित्सा में इसे उत्पन्न करने वाले कारणों का निर्मूलन किया जाता है जिसके लिए रोगी को अस्पताल में भर्ती कराना आवश्यक हो जाता है। कुछ मिर्च, मसाला, तेल, घी, प्रोटीन पूर्णरूपेण बंद कर देते हैं, कुछ लोगों के अनुसार किसी भी खाद्यसामग्री को पूर्णरूपेण न बंद कर, रोगी के ऊपर ही छोड़ दिया जाता है कि वह जो पसंद करे, खा सकता है। औषधि साधारणत: टेट्रासाइक्लीन तथा नियोमाइसिन दी जाती है। कभी-कभी कार्टिकोसिटरायड (Corticosteriod) का भी प्रयोग किया जाता है जो यकृत में फ़ाइब्रोसिस और अवरोध उत्पन्न नहीं होने देता। यकृत अपना कार्य ठीक से संपादित करे, इसके लिए दवाएँ दी जाती हैं जैसे लिव-52, हिपालिव, लिवोमिन इत्यादि। कामला के पित्तरंजक को रक्त से निकालने के लिए काइनेटोमिन (Kinetomin) का प्रयोग किया जाता है। कामला के उपचार में लापरवाही करने से जब रोग पुराना हो जाता है तब एक से एक बढ़कर नई परेशानियाँ उत्पन्न होती जाती हैं और रोगी विभिन्न स्थितियों से गुजरता हुआ कालकवलित हो जाता है।


पीलिया रोग

वायरल हैपेटाइटिस या जोन्डिस को साधारणत: लोग पीलिया के नाम से जानते हैं। यह रोग बहुत ही सूक्ष्‍म विषाणु (वाइरस) से होता है। शुरू में जब रोग धीमी गति से व मामूली होता है तब इसके लक्षण दिखाई नहीं पडते हैं, परन्‍तु जब यह उग्र रूप धारण कर लेता है तो रोगी की आंखे व नाखून पीले दिखाई देने लगते हैं, लोग इसे पीलिया कहते हैं।
जिन वाइरस से यह होता है उसके आधार पर मुख्‍यतः पीलिया तीन प्रकार का होता है वायरल हैपेटाइटिस ए, वायरल हैपेटाइटिस बी तथा वायरल हैपेटाइटिस नान ए व नान बी।

रोग का प्रसार 

यह रोग ज्‍यादातर ऐसे स्‍थानो पर होता है जहाँ के लोग व्‍यक्तिगत व वातावरणीय सफाई पर कम ध्‍यान देते हैं अथवा बिल्‍कुल ध्‍यान नहीं देते। भीड-भाड वाले इलाकों में भी यह ज्‍यादा होता है। वायरल हैपटाइटिस बी किसी भी मौसम में हो सकता है। वायरल हैपटाइटिस ए तथा नाए व नान बी एक व्‍यक्ति से दूसरे व्‍यक्ति के नजदीकी सम्‍पर्क से होता है। ये वायरस रोगी के मल में होतें है पीलिया रोग से पीडित व्‍यक्ति के मल से, दूषित जल, दूध अथवा भोजन द्वारा इसका प्रसार होता है।

ऐसा हो सकता है कि कुछ रोगियों की आंख, नाखून या शरीर आदि पीले नही दिख रहे हों परन्‍तु यदि वे इस रोग से ग्रस्‍त हो तो अन्‍य रोगियो की तरह ही रोग को फैला सकते हैं।

वायरल हैपटाइटिस बी खून व खून व खून से निर्मित प्रदार्थो के आदान प्रदान एवं यौन क्रिया द्वारा फैलता है। इसमें वह व्‍यक्ति हो देता है उसे भी रोगी बना देता है। यहाँ खून देने वाला रोगी व्‍यक्ति रोग वाहक बन जाता है। बिना उबाली सुई और सिरेंज से इन्‍जेक्‍शन लगाने पर भी यह रोग फैल सकता है।

 पीलिया रोग से ग्रस्‍त व्‍यक्ति वायरस, निरोग मनुष्‍य के शरीर में प्रत्‍यक्ष रूप से अंगुलियों से और अप्रत्‍यक्ष रूप से रोगी के मल से या मक्खियों द्वारा पहूंच जाते हैं। इससे स्‍वस्‍थ्‍य मनुष्‍य भी रोग ग्रस्‍त हो जाता है।


रोग के लक्षण:-

 ए प्रकार के पीलिया और नान ए व नान बी तरह के पीलिया रोग की छूत लगने के तीन से छः सप्‍ताह के बाद ही रोग के लक्षण प्रकट होते हैं।

बी प्रकार के पीलिया (वायरल हैपेटाइटिस) के रोग की छूत के छः सप्‍ताह बाद ही रोग के लक्षण प्रकट होते हैं।


पीलिया रोग के कारण हैः-
  1.  रोगी को बुखार रहना।
  2.  भूख न लगना।
  3.  चिकनाई वाले भोजन से अरूचि।
  4.  जी मिचलाना और कभी कभी उल्टियाँ होना।
  5.  सिर में दर्द होना।
  6.  सिर के दाहिने भाग में दर्द रहना।
  7.  आंख व नाखून का रंग पीला होना।
  8.  पेशाब पीला आना।
  9.  अत्‍यधिक कमजोरी और थका थका सा लगना


रोग किसे हो सकता है?

यह रोग किसी भी अवस्‍था के व्‍यक्ति को हो सकता है। हाँ, रोग की उग्रता रोगी की अवस्‍था पर जरूर निर्भर करती है। गर्भवती महिला पर इस रोग के लक्षण बहुत ही उग्र होते हैं और उन्‍हे यह ज्‍यादा समय तक कष्‍ट देता है। इसी प्रकार नवजात शिशुओं में भी यह बहुत उग्र होता है तथा जानलेवा भी हो सकता है।

बी प्रकार का वायरल हैपेटाइटिस व्‍यावसायिक खून देने वाले व्‍यक्तियों से खून प्राप्‍त करने वाले व्‍यक्तियों को और मादक दवाओं का सेवन करने वाले एवं अनजान व्‍यक्ति से यौन सम्‍बन्‍धों द्वारा लोगों को ज्‍यादा होता है।

रोग की जटिलताऍं:-

ज्‍यादातार लोगों पर इस रोग का आक्रमण साधारण ही होता है। परन्‍तु कभी-कभी रोग की भीषणता के कारण कठिन लीवर (यकृत) दोष उत्‍पन्‍न हो जाता है।

बी प्रकार का पीलिया (वायरल हैपेटाइटिस) ज्‍यादा गम्‍भीर होता है इसमें जटिलताएं अधिक होती है। इसकी मृत्‍यु दर भी अधिक होती है।


उपचार:-

  1.  रोगी को शीघ्र ही डॉक्‍टर के पास जाकर परामर्श लेना चाहिये।
  2.  बिस्‍तर पर आराम करना चाहिये घूमना, फिरना नहीं चाहिये।
  3.  लगातार जाँच कराते रहना चाहिए।
  4.  डॉक्‍टर की सलाह से भोजन में प्रोटिन और कार्बोज वाले प्रदार्थो का सेवन करना चाहिये।
  5.  नीबू, संतरे तथा अन्‍य फलों का रस भी इस रोग में गुणकारी होता है।
  6.  वसा युक्‍त गरिष्‍ठ भोजन का सेवन इसमें हानिकारक है।
  7.  चॉवल, दलिया, खिचडी, थूली, उबले आलू, शकरकंदी, चीनी, ग्‍लूकोज, गुड, चीकू, पपीता, छाछ, मूली आदि कार्बोहाडेट वाले प्रदार्थ हैं इनका सेवन करना चाहिये


रोग की रोकथाम एवं बचाव

पीलिया रोग के प्रकोप से बचने के लिये कुछ साधारण बातों का ध्‍यान रखना जरूरी हैः-
  1.  खाना बनाने, परोसने, खाने से पहले व बाद में और शौच जाने के बाद में हाथ साबुन से अच्‍छी तरह धोना चाहिए।
  2.  भोजन जालीदार अलमारी या ढक्‍कन से ढक कर रखना चाहिये, ताकि मक्खियों व धूल से बचाया जा सकें।
  3.  ताजा व शुद्व गर्म भोजन करें दूध व पानी उबाल कर काम में लें।
  4.  पीने के लिये पानी नल, हैण्‍डपम्‍प या आदर्श कुओं को ही काम में लें तथा मल, मूत्र, कूडा करकट सही स्‍थान पर गढ्ढा खोदकर दबाना या जला देना चाहिये।
  5.  गंदे, सडे, गले व कटे हुये फल नहीं खायें धूल पडी या मक्खियाँ बैठी मिठाईयाँ का सेवन नहीं करें।
  6.  स्‍वच्‍छ शौचालय का प्रयोग करें यदि शौचालय में शौच नहीं जाकर बाहर ही जाना पडे तो आवासीय बस्‍ती से दूर ही जायें तथा शौच के बाद मिट्टी डाल दें।
  7.  रोगी बच्‍चों को डॉक्‍टर जब तक यह न बता दें कि ये रोग मुक्‍त हो चूके है स्‍कूल या बाहरी नहीं जाने दे।
  8.  इन्‍जेक्‍शन लगाते समय सिरेन्‍ज व सूई को 20 मिनट तक उबाल कर ही काम में लें अन्‍यथा ये रोग फैलाने में सहायक हो सकती है।
  9.  रक्‍त देने वाले व्‍यक्तियों की पूरी तरह जाँच करने से बी प्रकार के पीलिया रोग के रोगवाहक का पता लग सकता है।
  10.  अनजान व्‍यक्ति से यौन सम्‍पर्क से भी बी प्रकार का पीलिया हो सकता है।


 स्‍वास्‍थ्‍य कार्यकर्ता ध्‍यान दें

  • यदि आपके  क्षेत्र में किसी परिवार में रोग के लक्षण वाला व्‍यक्ति हो तो उसे डॉक्‍टर के पास जाने की सलाह दें।

  • क्षेत्र में व्‍यक्तिगत सफाई व तातावरणीय स्‍वच्‍छता के बारे में बताये तथा पंचायत आदि से कूडा, कचरा, मल, मूत्र आदि के निष्‍कासन का इन्‍तजाम कराने का प्रयास करें।


  • रोगी की देखभाल ठीक हो, ऐसा परिवार के सदस्‍यों को समझायें।


  • रोगी की सेवा करने वाले को समझायें कि हाथ अच्‍छी तरह धोकर ही सब काम करें।


  • स्‍वास्‍थ्‍या कार्यकर्ता सीरिंज व सुई 20 मिनिट तक उबाल कर अथवा डिसपोजेबल काम में लें।


  • रोगी का रक्‍त लेते समय व सर्जरी करते समय दस्‍ताने पहनें व रक्‍त के सम्‍पर्क में आने वाले औजारों को अच्‍छी तरह उबालें।


  • रक्‍त व सम्‍बन्धित शारीरिक द्रव्‍य प्रदार्थो पर कीटाणुनाशक डाल कर ही उन्‍हे उपयुक्‍त स्‍थान पर फेंके अथवा नष्‍ट करें।


  • जरा सी सावधानी-पीलिया से बचाव



कारण

जब कोई रोगात्मक प्रक्रिया चयापचय के सामान्य कार्य में हस्तक्षेप करती है और बिलीरूबिन के उत्सर्जन की सूचना सही ढंग से दी जाती है, तो इसके परिणामस्वरूप पीलिया हो सकता है। रोगात्मक क्रिया द्वारा प्रभावित होने वाले शारीरिक तंत्र के अंगों के आधार पर पीलिया को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। तीन श्रेणियां हैं:

श्रेणी परिभाषा

  1. यकृत में पहले से होने वाली- रोग संबंधी क्रिया (पैथॉलॉजी) जो यकृत में पहले से हो रही है।
  2. यकृत में होने वाली- रोग संबंधी क्रिया जो यकृत (जिगर) के भीतर पायी जाती है।
  3. यकृत के बाहर होने वाली- रोग संबंधी क्रिया जो यकृत में बिलीरूबिन के संयोग के बाद देखी जाती है।


1. यकृत में पहले से होने वाला

यकृत में पहले होने वाला पीलिया किसी भी ऐसे कारण से होता है जो रक्त-अपघटन (लाल रक्त कोशिकाओं के अपघटन) के दर में वृद्धि करता है। उष्णकटिबंधीय देशों में मलेरिया इस तरीके से पीलिया उत्पन्न कर सकता है। कुछ आनुवंशिक बीमारियां जैसे कि हंसिया के आकार की रक्त कोशिका में होने वाली रक्तहीनता, गोलककोशिकता और ग्लूकोज 6-फॉस्फेट डिहाइड्रोजनेज की कमी कोशिका अपघटन में वृद्धि उत्पन्न कर सकती है और इसलिए रुधिरलायी (रक्तलायी) पीलिया हो सकता है। आमतौर पर, गुर्दे की बीमारियां, जैसे कि रुधिरलायी (रक्तलायी) यूरीमियाजनित संलक्षण से वर्णता भी हो सकती है। बिलीरूबिन के चयापचय में विकार होने से भी पीलिया हो सकता है। पीलिया में आम तौर पर उच्च तापमान के साथ बुखार आता है। चूहे के काटने से होने वाले बुखार (संक्रामी कामला) से भी पीलिया हो सकता है।


निष्कर्षों में शामिल हैं:

मूत्र: बिलीरूबिन उपस्थित नहीं, यूरोबिलीरूबिन > 2 इकाइयां (शिशुओं को छोड़कर जिनमें आंत वनस्पति विकसित नहीं हुई है।
सीरम: बढ़ा हुआ असंयुग्मितबिलीरूबिन.
प्रमस्तिष्कीनवजातकामला (Kernicterus) बढ़े हुये बिलीरूबिन से संबंधित नहीं है।


2. यकृत में होने वाला

यकृत में होने वाला पीलिया गंभीर यकृतशोथ (हैपेटाइटिस), यकृत की विषाक्तता और अल्कोहल संबंधी यकृत रोग का कारण बनता है, जिसके द्वारा कोशिका परिगलन यकृत के चयापचय करने की क्षमता और रक्त का निर्माण करने के लिये बिलीरूबिन उत्सर्जित करने की क्षमता कम करता है। कम आम कारणों में शामिल हैं प्राथमिक पित्त सूत्रणरोग, (primary biliary cirrhosis), गिल्बर्ट संलक्षण (बिलीरूबिन के चयापचय से संबंधित एक आनुवांशिक बीमारी जिससे हल्का पीलिया हो सकता है, जो लगभग 5% आबादी में पायी जाती है), क्रिग्लर-नज्जर संलक्षण, विक्षेपी कर्कटरोग (कार्सिनोमा) और नाइमैन-पिक रोग, वर्ग (टाइप) सी. नवजात शिशु में पाया जाने वाला पीलिया, जिसे नवजात पीलिया कहा जाता है, आमतौर पर प्राय: प्रत्येक नवजात शिशु में होता है क्योंकि संयोग और बिलीरूबिन के उत्सर्जन के लिये यकृत संबंधी रचनातंत्र लगभग दो सप्ताह तक की आयु के पहले पूर्ण रूप से परिपक्व नहीं होता है।

प्रयोगशाला के निष्कर्षों में शामिल हैं:

मूत्र: संयुग्मितबिलीरूबिन उपस्थित, यूरोबिलिरूबिन > 2 इकाइयां लेकिन परिवर्तनीय (सिवाय बच्चों में). प्रमस्तिष्कीनवजातकामला (Kernicterus) बढ़े हुये बिलीरूबिन से संबंधित नहीं है।


3. यकृत के बाहर होने वाला

यकृत के बाहर होने वाला पीलिया, जिसे प्रतिरोधात्मक पीलिया भी कहा जाता है, पित्त प्रणाली में पित्त की निकासी में होने वाले अवरोधों के कारण होता है। सबसे आम कारण हैं आम पित्त नली में पित्त पथरी का होना और अग्न्याशय के शीर्ष पर अग्नाशयी कैंसर होना. इसके अलावा, परजीवियों का एक समूह, जिन्हें "यकृत परजीवी" कहा जाता है आम पित्त नली में रह सकते हैं, जो प्रतिरोधात्मक पीलिया उत्पन्न कर सकते हैं। अन्य कारणों में आम पित्त नली के स्रोत में अवरोध, पित्त अविवरता, नलिका संबंधी कार्सिनोमा, अग्न्याशयशोथ और अग्नाशयी कूटकोशिका (pancreatic pseudocysts) शामिल हैं। प्रतिरोधात्मक पीलिया का एक असाधारण कारण मिरिज़्ज़ि संलक्षण (Mirizzi's syndrome) है।

पीले मलों और काले मूत्र की उपस्थिति एक प्रतिरोधात्मक या यकृत के बाहर होने वाले कारण को सूचित करता है क्योंकि सामान्य मल को पित्त वर्णक से रंग प्राप्त होता है।

रोगियों में कभी-कभी अत्यधिक सीरम कोलेस्ट्रॉल उपस्थित रह सकता है और वे अक्सर गंभीर खुजली या "खाज" की शिकायत करते हैं।

कोई भी एक जांच पीलिया के विभिन्न वर्गीकरणों के बीच अंतर स्पष्ट नहीं कर सकता है। यकृत के कार्य परीक्षणों का मिश्रण एक निदान पर पहुंचने के लिए आवश्यक है।


कई लोगों के अनुसार पीलिया का आयुर्वेदिक घरेलू उपचार ही संभव है, कुछ डॉक्टर भी यह मानते हैं। जैसे - घरेलू इलाज में झाड़, फुक और जड़ी बूटियां दी जाती है।
पीलिया के घरेलू उपचार के लिए संपर्क करे - 9690663544


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Saturday, August 31, 2019

माध्यमिक स्तर (IEDSS) पर विकलांगों के लिए समावेशी शिक्षा

माध्यमिक स्तर (IEDSS) पर विकलांगों के लिए समावेशी शिक्षा

The Scheme of Inclusive Education for Disabled at Secondary Stage (IEDSS) has been launched from the year 2009-10. This Scheme replaces the earlier scheme of Integrated Education for Disabled Children (IEDC) and provides assistance for the inclusive education of the disabled children in classes IX-XII.


माध्‍यमिक स्‍तर पर नि:शक्‍तजन की समावेशी शिक्षा

राष्ट्रीय माध्‍यमिक स्‍तर पर नि:शक्‍तजन समावेशी शिक्षा योजना (ईडीएसएस) वर्ष 2009-10 से प्रारम्‍भ की गई है। यह योजना नि:शक्‍त बच्‍चों के लिए एकीकृत योजना (आईईडीसी) संबंधी पहले की योजना के स्‍थान पर है और कक्षा IX-XII में पढने वाले नि:शक्‍त बच्‍चों की समावेशी शिक्षा के लिए सहायता प्रदान करती है। यह योजना अब वर्ष 2013 से राष्‍ट्रीय माध्‍यमिक शिक्षा अभियान (आरएमएसए) के अंतर्गत सम्मिलित कर ली गई है। राज्‍य/संघ राज्‍य क्षेत्र भी आरएमएसए के रूप में इसे आरएमएसए योजना के अंतर्गत सम्मिलित करने की प्रक्रिया में है।

उद्देश्‍य

सभी नि:शक्‍त छात्रों को आठ वर्षों की प्राथमिक स्‍कूली पढ़ाई पूरी करने के पश्‍चात आगे चार वर्षों की माध्‍यमिक स्‍कूली पढ़ाई समावेशी और सहायक माहौल में करने हेतु समर्थ बनाना।

लक्ष्‍य

योजना में नि:शक्‍त व्‍यक्ति अधिनियम (1995) और राष्‍ट्रीय न्‍यास अधिनियम (1999) के अंतर्गत कक्षा IX-XII में पढ़ने वाले यथा-परिभाषित एक या अधिक नि:शक्‍तता नामश: दृष्टिहीनता, कम दृष्टि, कुष्‍ठ रोग उपचारित, श्रवण शक्ति की कमी, गतिविषय नि:शक्‍तता, मंदबुद्धिता, मानसिक रूग्‍णता, आत्‍म-विमोह और प्रमस्तिष्‍क घात वाले जिसमें अंतत: वाणी की हानि अधिगम नि:शक्‍तता इत्‍यादि भी शामिल है। इसमें सरकारी, स्‍थानीय निकाय और सरकारी सहायता प्राप्‍त स्‍कूलों में पढ़ने वाले बच्‍चे शामिल है, नि:शक्‍तता वाली बालिकाओं पर विशेष ध्‍यान दिया जाता है जिससे उन्‍हें माध्‍यमिक स्‍कूलों में पढ़ने और अपनी योग्‍यता का विकास करने हेतु सूचना और मार्गदर्शन सुलभ हो। योजना के अंतर्गत हर राज्‍य में मॉडल समावेशी स्‍कूलों की स्‍थापना करने की कल्‍पना की गई है।

संघटक

छात्र अभिमुखी घटक जैसे चिकित्‍सा और शैक्षिक निर्धारण, पुस्‍तकें और लेखन सामग्री, वर्दियां, परिवहन भत्‍ता, रीडर पाठक भत्‍ता, बालिकाओं के लिए वृत्तिका, सहायक सेवाएं, सहायक युक्तियां, भोजन और आवास सुविधा, रोगोपचार सेवाएं, शिक्षण-अधिगम सामग्री इत्‍यादि।

अन्‍य संघटकों में विशेष शिक्षा शिक्षकों की नियुक्ति, ऐसे बच्‍चों को पढ़ाने हेतु सामान्‍य शिक्षकों के लिए भत्‍ते, शिक्षक प्रशिक्षण, स्‍कूल प्रशासकों का अभिविन्‍यास, संसाधन कक्ष की स्‍थापना, बाधायुक्‍त वातावरण इत्‍यादि शामिल हैं।
कार्यान्‍वयन अभिकरण

राज्‍य सरकारें/संघ राज्‍य क्षेत्र (यूटी) प्रशासन कार्यान्‍वयन अभिकरण हैं। इनमें नि:शक्‍तजनों की शिक्षा के क्षेत्र में योजना कार्यान्‍वयन का अनुभव रखने वाले स्‍वैच्छिक संगठन भी शामिल हो सकते हैं।

वित्‍तीय सहायता

योजना में शामिल सभी मदों के लिए केन्‍द्रीय सहायता 100 प्रतिशत आधार पर है। राज्‍य सरकारों से प्रतिवर्ष प्रति नि:शक्‍त बच्‍चे के लिए केवल 600/- रूपए की छात्रवृत्ति का प्रावधान रखना अपेक्षित है।



माध्यमिक स्तर पर विकलांगों के लिए समावेशी शिक्षा की योजना (IEDSS) 2009-10 के दौरान शुरू की और विकलांग बच्चों के लिए समेकित शिक्षा (IEDC) की पहले की योजना को बदल देता था। इस योजना का उद्देश्य प्राथमिक स्कूली शिक्षा के आठ साल पूरा करने के बाद, एक समावेशी और अनुकूल वातावरण में माध्यमिक शिक्षा के चार साल का पीछा करने के लिए विकलांग के साथ सभी छात्रों को सक्षम करने के लिए है। इस योजना के सभी बच्चों को सरकार में बारहवीं कक्षा नौवीं में पढ़ शामिल किया गया है, स्थानीय निकाय और एक या एक से अधिक विकलांग के साथ सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों, विकलांगता अधिनियम (1995) और राष्ट्रीय न्यास अधिनियम (1999) के साथ व्यक्तियों के तहत परिभाषित किया।

 विकलांग के प्रकार उन्हें हासिल करने में मदद करने के लिए विशेष ध्यान के साथ प्रदान की जाती हैं आदि विकलांग के साथ लड़कियों विकलांग सीखने, अंधापन, कम दृष्टि, ठीक कुष्ठ रोग, सुनवाई हानि, हरकत विकलांगता, मानसिक मंदता, मानसिक बीमारी, आत्मकेंद्रित और मस्तिष्क कुष्ठ रोग, भाषण हानि से लेकर उनके विकासशील क्षमता के लिए माध्यमिक शिक्षा, सूचना और मार्गदर्शन के लिए उपयोग। । इसके अलावा, योजना हर राज्य में मॉडल समावेशी स्कूलों की स्थापना करने की परिकल्पना की गई है लक्ष्य और उद्देश्य केन्द्र प्रायोजित IEDSS योजना का उद्देश्य: करने के लिए माध्यमिक स्कूल (कक्षा नौवीं के चार साल पूरा करने के लिए एक अवसर के लिए स्कूली शिक्षा के प्राथमिक के आठ साल पूरे विकलांग के साथ सभी छात्रों को सक्षम करें एक समावेशी और अनुकूल वातावरण में बारहवीं) माध्यमिक स्तर पर सामान्य शिक्षा प्रणाली में विकलांग (बारहवीं कक्षा नौवीं) के साथ छात्रों के लिए शिक्षा के अवसर और सुविधाएं प्रदान। में विकलांग बच्चों की जरूरतों को पूरा करनेके लिए सामान्य स्कूल के शिक्षकों के प्रशिक्षण समर्थन ।


माध्यमिक स्तर  योजना के उद्देश्यों को सुनिश्चित करना है कि हो जाएगा: । विकलांगता के साथ हर बच्चे को माध्यमिक स्तर पर पहचान की जाएगी और उनकी शिक्षा की जरूरत का आकलन एड्स और उपकरणों, सहायक उपकरणों की जरूरत में हर छात्र, एक ही प्रदान किया जाएगा वास्तु सभी विकलांगता के साथ छात्रों को स्कूल में कक्षाओं, प्रयोगशालाओं, पुस्तकालयों और शौचालय के लिए उपयोग किया है, ताकि स्कूलों में बाधाओं को हटा रहे हैं। विकलांगता के साथ प्रत्येक छात्र को सामग्री सीखने की आपूर्ति की जाएगी उसका / उसकी आवश्यकता के अनुसार माध्यमिक स्तर पर सभी सामान्य स्कूल के शिक्षकों को प्रदान किया जाएगा बुनियादी प्रशिक्षण तीन से पांच साल की अवधि के भीतर विकलांग छात्रों को पढ़ाने के लिए। विकलांग छात्रों के हर ब्लॉक में विशेष शिक्षकों की नियुक्ति, संसाधन उपलब्ध की स्थापना जैसी सेवाओं का समर्थन करने के लिए उपयोग होगा। मॉडल स्कूलों को विकसित करने के लिए हर राज्य में स्थापित कर रहे हैं समावेशी शिक्षा के क्षेत्र में अच्छा अनुकरणीय प्रथाओं।

सहायता के दो प्रमुख घटकों के लिए स्वीकार्य है इस तरह के चिकित्सा और शिक्षा मूल्यांकन, किताबें और स्टेशनरी, वर्दी, परिवहन भत्ता, पाठक भत्ता, लड़कियों के लिए वजीफा, समर्थन सेवाओं, सहायक उपकरणों, बोर्डिंग और के रूप में छात्र उन्मुख घटकों दर्ज कराने की सुविधा, चिकित्सीय सेवाओं, शिक्षण अधिगम सामग्री, आदि अन्य घटकों विशेष शिक्षा के शिक्षकों, आदि बाधा मुक्त वातावरण उपलब्ध कराने के ऐसे बच्चे, शिक्षक प्रशिक्षण, स्कूल प्रशासकों के उन्मुखीकरण, संसाधन कक्ष की स्थापना, शिक्षण सामान्य शिक्षकों के लिए भत्ते की नियुक्ति शामिल कार्यान्वयन एजेंसी किसी भी राज्य सरकार / संघ राज्य क्षेत्र (यूटी) प्रशासन के स्कूल शिक्षा विभाग के कार्यान्वयन एजेंसी के रूप में कार्य करता है और 100 प्रतिशत केंद्रीय सहायता योजना में शामिल सभी मदों के लिए प्रदान की जाती है। विशेषाधिकार गैर सरकारी संगठनों, विकलांग की शिक्षा के क्षेत्र में अनुभव रखने वाले इस योजना को लागू करने में पूरी तरह से लागू करने वाली एजेंसी के साथ झूठ को शामिल करने के लिए। राज्य सरकारों केवल रुपये की छात्रवृत्ति के लिए प्रावधान करने के लिए आवश्यक हैं। प्रतिवर्ष विकलांग बच्चे के प्रति 600।



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Thursday, August 15, 2019

Case Study (व्यक्तिगत अध्ययन)

Case Study (व्यक्तिगत अध्ययन)


केस स्टडी के सोपान

किसी भी केस के संबंध में अध्ययन प्रारम्भ करने से पूर्व उस केस के सब पहलुओं की सूची बना लेनी चाहिए अर्थात् मुख्य -मुख्य क्षेत्र निर्धारित कर लेने चाहिए। फिर प्रत्येक क्षेत्र या पहलू से संबंधित समग्र जानकारी प्राप्त करने हेतु केस की विशेषता को ध्यान में रखकर पद्धतियों और उपकरणों का चयन करना चाहिए।

केस स्टडी के उद्देश्य

 1. विद्यार्थी स्वतंत्र होकर, स्वयं ही सृजनात्मक ढंग से समस्या पर विचार कर सकेंगें।
 2. वे समस्या समाधान (Problem based learning) पहुंचने में सक्रिय हो  सकेंगें।
 3. वे अपने पूर्व ज्ञान का प्रयोग करते हुए प्रमाणों को संग्रह कर सकेंगें।
 4. घटनाक्रम में नवीन तथ्यों को जान सकेंगे।
 5. स्वयं अपने अनुभव से सीखते हुए ज्ञान प्राप्त कर सकेंगें।
 6. व्यक्तिगत, सामाजिक संबंधों को उत्तम ढंग से स्थापित कर सकेंगे।
 7. छात्रों में अभिप्रेरण एवं अभिव्यक्ति की क्षमता में वृद्धि हो सकेगी।
 8. छात्रों की उपलब्धियों का मूल्यांकन हो सकेगा।



केस स्टडी की विशेषताएं- 

1. शिक्षण-अधिगम की समस्याओं का समाधान व्यक्तिगत रूप में किया जाता है।

2. व्यक्तिगत अध्ययन में लिखित कार्य को विशेष महत्व दिया जाता है। शिक्षक छात्र को सीखने के लिए परिस्थिति (विषयवस्तु) प्रदान करता है, जिसमें छात्र अभ्यास तथा अनुक्रिया करता है। सीखने के साथ-साथ मूल्यांकन भी किया जाता है। छात्र अपने कार्यों का स्वयं मूल्यांकन भी करता है।

3. व्यक्तिगत अध्ययन में प्रत्येक छात्र को अपने ढंग से सीखने का अवसर दिया जाता है। इस विशेषता को स्वयं गति का सिद्धान्त भी कहते है।

4. इसमें छात्र बहुआयामी माध्यमों से सीखता है। कुछ छात्र सुनकर, कुछ देखकर तथा कुछ करके अधिक सीखते है। कुछ छात्र पढ़कर तथा कुछ लिखकर अधिक सीखते है।

5. व्यक्तिगत अध्ययन में शिक्षक अधिक उत्तरदायी होता है क्योंकि उसे प्रत्येक छात्र को व्यक्तिगत रूप से सिखाना होता है।

6. इसके अंतर्गत प्रत्येक छात्र को उसकी कठिनाईयों को दूर करने का अवसर दिया जाता है। सीखते समय पुनर्बलन तथा निरन्तर अभिप्रेरणा दी जाती है।


केस स्टडी की उपयोगिता-

1. इससे छात्रों में अधिगम अधिक प्रभावशाली होता है। जिससे छात्रों में योग्यता तथा अध्ययन संबंधी अच्छी आदतों का विकास होता है।
2. इससे छात्रों में धारण शक्ति का विकास होता है क्योंकि जो तथ्य निकाले जाते है उन्हें छात्र स्वयं निकालता है।
3. इससे छात्रों के उपलब्धि स्तर में वृद्धि होती है जो अध्ययन के प्रति धनात्मक अभिवृत्ति का विकास करती है।

4. इससे छात्रों में अपेक्षित अभिवृत्तियों का विकास होता है।

5. विभिन्न मानसिक स्तर के छात्रों को उनके ढंग से सीखने का अवसर मिलता है।

6. बहुस्तरीय शिक्षण में भी सहायता मिलती है।


व्यक्तिगत अध्ययन छात्रों को एक सार्थक ज्ञान प्रदान करता है जिसका प्रयोग विभिन्न प्रकार के समाधान या अध्ययन के लिए किया जाता है। यह एक जटिल अधिगम का स्वरूप होता है। इसमें  सृजनात्मक चिन्तन निहित होता है और चिन्तन स्तर पर शिक्षण की व्यवस्था होती है।

 
         Case Study (व्यक्तिगत अध्ययन)

नाम      -  पार्वती गोस्वामी D/o दीवान गिरी
लिंग।    -   पुत्री,      जन्म तिथि - 25/03/1983
स्थिति   - MR/CP Daun Sandrom / paraplegia.
रोग       -   Maltipal disabilities
दृष्टि      -    Functionally Normal
श्रवण   -   Maniwal Hearing
श्रवण वाणी  - Uses on word Choog only
मानसिक स्थिति  - माइल्ड
पता      -  ग्राम - रॉल्याना  पोस्ट - मैगडी स्टेट
               जिला - बागेश्वर, उत्तराखंड 263635
एडिस  -   टॉयलेट की सही ब्यवस्था
व्यवहार -  शांत एम तीव्र  ऊतेजित
घर का वातावरण - साधारण
प्रसनल इंफॉर्मेशन - उम्र 33 वर्ष, काम सब कर लेती हैं। पाव टेरे व चपटे है। घिसकर चलती है, बोलने में भारी आवाज है, कान कम सुनती है। सारे कार्य स्वयं कर लेती हैं।
पता - उपरोक्त
विकास - जन्म से ही विकलांग है, जन्म के समय देर से रोई गामक विकास और शारीरिक विकास अक्षमता। गर्दन 8-9 माह और बैठना -12 माह, खड़ा होना 2साल, पूरा वाक्य बोलना 4-5साल

शिक्षा - आर्थिक स्थिति के कारण स्कूल नहीं गई
सिटिंग ग्रिड - घर पर सीढ़ियों में रेयलिंग व दरवाजे चोडे होने चाहिए

Aim of study - IQ leaval 50-70 सहायक उपकरणों की व्यवस्था करना भौतिक चिकत्सा व्यायाम चलने फिरने में कोई दिक्कत न हो इसलिए रैंप आदि की व्यवस्था। सामाजिक जारूकता, रोजगार के अवसर दिए जाने चाहिए। रूचि के अनुसार प्रशिक्षण देना तथा बाधामुक्त वातावण की व्यवस्था करना चाहिए। समाज में रहने खाने पीने के लिए जागरूक करना व सरकार द्वारा विकलांग पेंसिल व कार्ड बनवाना आदि।

Basic Goal - सहायक उपकरणों की व्यवस्था करना और उसके सभी कमजोरियों को दूर कर व्यावसायिक शिक्षा दिलाना।




Bariess - ऐसे बच्चों के लिए मैदान का साफ सुतरा होना आवश्यक होता है ताकि उसे चलने फिरने में कोई दिक्कत न हो।



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