Sunday, June 30, 2019

विश्व स्वास्थ्य संगठन'(WHO)

विश्व स्वास्थ्य संगठन
World Health Organisation


विश्व स्वास्थ्य संगठन'(WHO) विश्व के देशों के स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर आपसी सहयोग एवं मानक विकसित करने की संस्था है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के 193 सदस्य देश तथा दो संबद्ध सदस्य हैं। यह संयुक्त राष्ट्र संघ की एक अनुषांगिक इकाई है। इस संस्था की स्थापना 7 अप्रैल 1948 को की गयी थी। इसका उद्देश्य संसार के लोगो के स्वास्थ्य का स्तर ऊँचा करना है। डब्‍ल्‍यूएचओ का मुख्यालय स्विटजरलैंड के जेनेवा शहर में स्थित है। इथियोपिया के डॉक्टर टैड्रोस ऐडरेनॉम ग़ैबरेयेसस विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के नए महानिदेशक निर्वाचित हुए हैं।

वो डॉक्टर मार्गरेट चैन का स्थान लेंगे जो पाँच-पाँच साल के दो कार्यकाल यानी दस वर्षों तक काम करने के बाद इस पद से रिटायर हो रही हैं।

भारत भी विश्व स्वास्थ्‍य संगठन का एक सदस्य देश है और इसका भारतीय मुख्यालय भारत की राजधानी दिल्ली में स्थित है।

मूल रूप से 23 जून 1851 को आयोजित अंतर्राष्ट्रीय स्वच्छता सम्मेलन, डब्ल्यूएचओ के पहले पूर्ववर्ती थे। 1851 से 1 9 38 तक चलने वाली 14 सम्मेलनों की एक श्रृंखला, अंतरराष्ट्रीय स्वच्छता सम्मेलनों ने कई बीमारियों, मुख्य रूप से कोलेरा, पीले बुखार, और ब्यूबोनिक प्लेग का मुकाबला करने के लिए काम किया। 18 9 2 में सातवें तक सम्मेलन काफी हद तक अप्रभावी थे; जब कोलेरा के साथ निपटाया गया एक अंतरराष्ट्रीय स्वच्छता सम्मेलन पारित किया गया था। पांच साल बाद, प्लेग के लिए एक सम्मेलन पर हस्ताक्षर किए गए। सम्मेलनों की सफलताओं के परिणामस्वरूप, पैन-अमेरिकन सेनेटरी ब्यूरो, और ऑफिस इंटरनेशनल डी हाइगेन पब्लिक को जल्द ही 1 9 02 और 1 9 07 में स्थापित किया गया था। जब 1 9 20 में लीग ऑफ नेशंस का गठन हुआ, तो उन्होंने लीग ऑफ नेशंस के हेल्थ ऑर्गनाइजेशन की स्थापना की। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, संयुक्त राष्ट्र ने डब्ल्यूएचओ बनाने के लिए अन्य सभी स्वास्थ्य संगठनों को अवशोषित किया।


विश्व स्वास्थ्य दिवस


इस संस्था की स्थापना ७ अप्रैल १९४८ को की गयी थी। इसी लिए प्रत्येक साल ७ अप्रैल को विश्व स्वास्थ्य दिवस के रूप में मनाया जाता हैं।

भारत भी विश्व स्वास्थ्‍य संगठन का एक सदस्य देश है और इसका भारतीय मुख्यालय भारत की राजधानी दिल्ली में स्थित है।


विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन (WHO)


भारत में उपस्थिति: नवम्‍बर 1949 से

परिचय: विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन, स्‍वास्‍थ्‍य के लिए संयुक्‍त राष्‍ट्र की विशेषज्ञ एजेंसी है। यह एक अंतर-सरकारी संगठन है जो आमतौर पर सदस्‍य देशों के स्‍वास्‍थ्‍य मंत्रालयों के जरिए उनके साथ मिलकर काम करता है। विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन दुनिया में स्‍वास्‍थ्‍य संबंधी मामलों में नेतृत्‍व प्रदान करने, स्‍वास्‍थ्‍य अनुसंधान एजेंडा को आकार देने, नियम और मानक तय करने, प्रमाण आधारित नीतिगत विकल्‍प पेश करने, देशों को तकनीकी समर्थन प्रदान करने और स्‍वास्‍थ्‍य संबंधी रुझानों की निगरानी और आकलन करने के लिए जिम्‍मेदार है। भारत के लिए विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन के कंट्री कार्यालय का मुख्‍यालय दिल्‍ली में है और देश भर में उसकी उपस्थिति है। इस कार्यालय के कार्य क्षेत्र का वर्णन इसकी कंट्री को-ऑपरेशन स्‍ट्रेटजी (सीसीएस) 2012-2017 में दर्ज है।

स्‍थान: नई दिल्‍ली, भारत

फोकस के क्षेत्र: मातृ, नवजात, बाल एवं किशोर स्‍वास्‍थ्‍य, संचारी रोग नियंत्रण; असंचारी रोग एवं स्‍वास्‍थ्‍य के सामाजिक निर्धारक; सार्वभौम स्‍वास्‍थ्‍य सेवा प्रसार; सतत् विकास और स्‍वस्‍थ पर्यावरण; स्‍वास्‍थ्‍य तंत्रों का विकास, स्‍वास्‍थ्‍य सुरक्षा और आपातस्थितियां

नोडल मंत्रालय: स्‍वास्‍थ्‍य एवं परिवार कल्‍याण मंत्रालय
इसका उद्देश्य संसार के लोगों के स्वास्थ्य का स्तर ऊँचा करना है। डब्‍ल्‍यूएचओ का मुख्यालय स्विटजरलैंड के जेनेवा शहर में स्थित है। भारत भी विश्व स्वास्थ्‍य संगठन का एक सदस्य देश है और इसका भारतीय मुख्यालय राजधानी दिल्ली में स्थित है।


स्थापना

डब्ल्यूएचओ के संविधान को 22 जुलाई, 1946 को स्वीकार किया गया और यह 7 अप्रैल, 1948 से लागू हो गया। 15 नवंबर, 1947 को विश्व स्वास्थ्य संगठन संयुक्त राष्ट्र का विशिष्ट अभिकरण बन गया। डब्ल्यूएचओ द्वारा जन-स्वास्थ्य के अंतरराष्ट्रीय कार्यालय के कार्यों तथा संयुक्त राष्ट्र राहत एवं पुनर्वास प्रशासन (यूएनआरआरए) की गतिविधियों को भी हाथ में ले लिया गया। 194 सदस्यों वाले विश्व स्वास्थ्य संगठन का मुख्यालय जेनेवा में स्थित है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के बारे में महत्‍वपूर्ण जानकारी – Important Information about the World Health Organization


1.विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन की स्‍थापना 7 अप्रैल, 1948 को हुई थी।

2. इसका मुख्‍यालय स्विटजरलैंड के जेनेवा शहर में है

3.भारत भी विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन का एक सदस्‍य देश है जिसका मुख्‍यालय भारत की राजधानी दिल्‍ली (Delhi) में स्थित है

4.विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन के 194 सदस्‍य हैं

5.विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन ने अब तक दस प्रमुख जानलेवा बीमारियों की पहचान की है
जिनमें कैंसर, सेरिब्रोवैस्क्यूलर डिजीज, एक्यूट लोअर रेस्पायरेटरी इन्फेक्शन, पेरीनेटल कंडीशंस, टी.बी., कारोनरी हार्ट डिजीज, क्रॉनिक ऑबस्ट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज, अतिसार, डेसेन्टरी तथा एड्स या एचआईवी शामिल हैं

6.प्रत्‍येक वर्ष 7 अप्रैल के दिन को विश्व स्वास्थ्य दिवस मनाया जाता है

7. विश्व स्वास्थ्य संगठन को संविधान ने 22 जुलाई, 1946 को स्वीकार किया था

विश्व स्वास्थ्य दिवस का उद्देश्य एवं महत्व

आज के समय में हर व्यक्ति अच्छी सेहत की बात करता है और इसके प्रति काफी हद तक लोगों में जागरूकता भी आई हैl फिर भी हमारे सामने कई ऐसे मामले आते हैं जब हम यह सोचने पर विवश हो जाते हैं, कि क्या यही चिकित्सा जगत की उपलब्धि है?

आज भी अधिकांश व्यक्तियों के रोग का या तो समय पर पता नहीं चल पाता है या उसका सही तरह से उपचार नहीं हो पाता है, जिसके कारण हर साल पूरी दुनिया में करोड़ों लोगों की असमय ही मृत्यु हो जाती हैl अतः पूरी दुनिया में लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करने के उद्देश्य से विश्व स्वास्थ्य दिवस का आयोजन किया जाता हैl इस लेख में हम विश्व स्वास्थ्य दिवस के इतिहास, उसके थीम का विवरण दे रहे हैंl

विश्व स्वास्थ्य दिवस पूरी दुनिया के लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करने के उद्देश्य से आयोजित होने वाला “वैश्विक स्वास्थ्य जागृति दिवस” हैl इसका आयोजन विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के द्वारा हर वर्ष 7 अप्रैल को किया जाता हैl

विश्व क्षयरोग (TB) दिवस की महत्ता और क्षय रोग (TB) से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य

विश्व स्वास्थ्य दिवस की शुरूआत

वर्ष 1948 में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जेनेवा में प्रथम “विश्व स्वास्थ्य सम्मेलन” का आयोजन किया थाl इस सम्मलेन में सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि हर वर्ष 7 अप्रैल को वैश्विक स्तर पर विश्व स्वास्थ्य दिवस का आयोजन किया जाएगाl चूंकि 7 अप्रैल, 1948 को विश्व स्वास्थ्य संगठन की स्थापना की गई थी, इसी कारण 7 अप्रैल को ही “विश्व स्वास्थ्य दिवस” के रूप में चुना गयाl विश्व स्वास्थ्य सम्मेलन में लिए गए निर्णय के अनुसार वर्ष 1950 से हर वर्ष 7 अप्रैल को विश्व स्वास्थ्य दिवस का आयोजन किया जाता हैl


विश्व स्वास्थ्य दिवस, विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा चिह्नित आठ आधिकारिक वैश्विक स्वास्थ्य अभियानों में से एक है, जिसमें “विश्व क्षयरोग दिवस” (World Tuberculosis Day), “विश्व प्रतिरक्षण सप्ताह” (World Immunization Week), “विश्व मलेरिया दिवस” (World Malaria Day), “विश्व तम्बाकू निषेध दिवस” (World No Tobacco Day), “विश्व एड्स दिवस” (World AIDS Day), “विश्व रक्तदाता दिवस” (World Blood Donor Day) और “विश्व हेपेटाइटिस दिवस” (World Hepatitis Day) शामिल है।


विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा द्वारा हर वर्ष विश्व स्वास्थ्य दिवस को एक थीम के तहत मनाया जाता हैl वर्ष 2017 के लिए विश्व स्वास्थ्य दिवस का थीम " अवसाद: चलो बात करते हैं" घोषित किया गया हैl

विगत पांच वर्षों में विश्व स्वास्थ्य दिवस का थीम

1. वर्ष 2016 के विश्व जल दिवस का थीम “मधुमेह: रोकथाम बढ़ाना, देखभाल को मजबूत करना और निगरानी बढ़ाना” थाl

2. वर्ष 2015 के विश्व जल दिवस का थीम “खाद्य सुरक्षा” थाl

3. वर्ष 2014 के विश्व जल दिवस का थीम “वेक्टरजनित रोग” थाl

4. वर्ष 2013 के विश्व जल दिवस का थीम “स्वस्थ दिल की धड़कन, स्वस्थ रक्तचाप” थाl

5. वर्ष 2012 के विश्व जल दिवस उत्सव का थीम “अच्छा स्वास्थ्य जीवन में और समय जोड़ देते हैं” थाl


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Friday, June 28, 2019

Children with special needs (CWSN)

विशेष आवश्यकता वाले बच्चे(CWSN)

नि:शक्‍तता : पहचान एवं निवारण

सामान्यत: नि:शक्‍तता एक ऐसी अवस्था है जिससे व्यक्ति शरीर के कुछ अंग न होने के कारण अथवा सभी अंगों के होते हुए भी उन अंगों का कार्य सही रूप से नहीं कर पाता - जैसे उँगलियाँ न होना, पोलियो से पैर ग्रस्त होना, आँख होते हुए भी अंधत्व के कारण दिखाई नहीं देना, कान में दोष होने के कारण सुनाई नहीं देना, बुद्धि कम होने के कारण पढ़ाई नहीं कर पाना अथवा बुद्धि होते हुए भी भावनाओं पर नियंत्रण न कर पाना आदि |


विश्व स्वास्थ्य संगठन ने नि:शक्‍तता की परिभाषा को तीन चरणों में विभाजित किया है -

क्षति (Impairment)
व्यक्ति के स्वास्थ्य से संबन्धित ऐसी अवस्था जिसमें शरीर के किसी अंग की रचना अथवा कार्य में दोष/अकार्यक्षमता/दुर्बलता होना |

नि:शक्‍तता (Disability)
क्षति के कारण नि:शक्‍तता निर्मित होती हैं | अर्थात, संरचनात्मक अथवा कार्यात्मक क्षति लंबे समय तक रहकर व्यक्ति को उसके दैनिक क्रियाकलापों में रूकाबट बन जाती हैं | इस अवस्था को नि:शक्‍तता कहा जाता हैं |

बाधिता (Handicap)
नि:शक्‍तता के कारण बाधिता निर्मित होती हैं | यानि दैनिक क्रियाकलापों को पूरा करने के अकार्यक्षमता के कारण व्यक्ति को समाज की गतिविधियों और मुख्यधारा में सहभागिता से वंचित होना पड़ता हैं | अर्थात, व्यक्ति समाज द्वारा अपेक्षित भूमिका नहीं निभा पाता हैं | इस अवस्था को बाधिता कहते हैं ।


 विश्व स्वास्थ्य संगठन
world health organisation


विश्व स्वास्थ्य संगठन'(WHO) विश्व के देशों के स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर आपसी सहयोग एवं मानक विकसित करने की संस्था है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के 193 सदस्य देश तथा दो संबद्ध सदस्य हैं। यह संयुक्त राष्ट्र संघ की एक अनुषांगिक इकाई है। इस संस्था की स्थापना 7 अप्रैल 1948 को की गयी थी। इसका उद्देश्य संसार के लोगो के स्वास्थ्य का स्तर ऊँचा करना है। डब्‍ल्‍यूएचओ का मुख्यालय स्विटजरलैंड के जेनेवा शहर में स्थित है। इथियोपिया के डॉक्टर टैड्रोस ऐडरेनॉम ग़ैबरेयेसस विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के नए महानिदेशक निर्वाचित हुए हैं।

वो डॉक्टर मार्गरेट चैन का स्थान लेंगे जो पाँच-पाँच साल के दो कार्यकाल यानी दस वर्षों तक काम करने के बाद इस पद से रिटायर हो रही हैं।

भारत भी विश्व स्वास्थ्‍य संगठन का एक सदस्य देश है और इसका भारतीय मुख्यालय भारत की राजधानी दिल्ली में स्थित है।

सन्दर्भ

मूल रूप से 23 जून 1851 को आयोजित अंतर्राष्ट्रीय स्वच्छता सम्मेलन, डब्ल्यूएचओ के पहले पूर्ववर्ती थे। 1851 से 1 9 38 तक चलने वाली 14 सम्मेलनों की एक श्रृंखला, अंतरराष्ट्रीय स्वच्छता सम्मेलनों ने कई बीमारियों, मुख्य रूप से कोलेरा, पीले बुखार, और ब्यूबोनिक प्लेग का मुकाबला करने के लिए काम किया। 18 9 2 में सातवें तक सम्मेलन काफी हद तक अप्रभावी थे; जब कोलेरा के साथ निपटाया गया एक अंतरराष्ट्रीय स्वच्छता सम्मेलन पारित किया गया था। पांच साल बाद, प्लेग के लिए एक सम्मेलन पर हस्ताक्षर किए गए।  सम्मेलनों की सफलताओं के परिणामस्वरूप, पैन-अमेरिकन सेनेटरी ब्यूरो, और ऑफिस इंटरनेशनल डी हाइगेन पब्लिक को जल्द ही 1 9 02 और 1 9 07 में स्थापित किया गया था। जब 1 9 20 में लीग ऑफ नेशंस का गठन हुआ, तो उन्होंने
लीग ऑफ नेशंस के हेल्थ ऑर्गनाइजेशन की स्थापना की। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, संयुक्त राष्ट्र ने डब्ल्यूएचओ बनाने के लिए अन्य सभी स्वास्थ्य संगठनों को अवशोषित किया।



नि:शक्तता की परिभाषा


दिव्यांगजन के समग्र कल्याण हेतु भारत सरकार द्वारा दिव्यांग जन (समान अवसर, अधिकार, संरक्षण एवं पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995 पारित किया गया है, जो 07 फरवरी, 1996 से जम्मू कश्मीर को छोड़कर सम्पूर्ण भारतवर्ष में प्रभावी है। इस अधिनियम के कुल 14 अध्याय एवं 74 धाराऍ हैं। इस अधिनियम की धारा-2 (न) में नि:शक्त (दिव्यांग) व्यक्ति की परिभाषा निम्नानुसार दी गयी है:-

नि: शक्त (दिव्यांग):
से ऐसा कोई व्यक्ति अभिप्रेत है, जो किसी चिकित्सा प्राधिकारी द्वारा यथाप्रमाणित किसी नि:शक्तता से कम से कम 40 प्रतिशत से ग्रस्त है। उक्त अधिनियम - 1995 की धारा-2 में नि:शक्तता (दिव्यांगता) की श्रेणियॉ एवं उनकी परिभाषायें निम्नानुसार दी गयी है:-

दृष्टिहीनता
उस अवस्था के प्रति निर्देश करता है जहॉ कोई व्यक्ति निम्नलिखित दशाओं में से किसी से ग्रसित है अर्थात-

दृष्टिगोचरता का पूर्ण अभाव या
सुधारक लेन्सों के साथ बेहतर ऑख में 6/60 या 20/200 स्नेलन से अनधिक दृष्टि की तीक्ष्णता या
दृष्टि क्षेत्र की सीमा का 20 डिग्री के कोण के कक्षांतरकारी होना या अधिक खराब होना।

कम दृष्टि वाला व्यक्ति
से अभिप्रेत है, ऐसा कोई व्यक्ति जिसके उपचार या मानक उपवर्धनीय सुधार संशोधन के बावजूद दृष्टिसंबंधी कृत्य का हास हो गया है और जो समुचित सहायक युक्ति से किसी कार्य की योजना या निष्पादन के लिए दृष्टि का उपयोग करता है या उपयोग करने में संभाव्य रूप से समर्थ है।

कुष्ठ रोग से मुक्त
से कोई ऐसा व्यक्ति अभिप्रेत है, जो कुष्ठ रोग से मुक्त हो गया है किन्तु निम्नलिखित से ग्रसित है:-

जिसके हाथ या पैरों में संवेदना की कमी तथा नेत्र और पलकों में संवेदना की कमी और आंशिक घात है किन्तु कोई प्रकट विरूपता नही है।

प्रकट निःशक्तताग्रस्त और आंशिक घात है किन्तु उसके हाथों और  पैरों में पर्याप्त गतिशीलता है जिससे वे सामान्य आर्थिक क्रिया कलाप कर सकते है।

अत्यन्त शारीरिक विरूपांगता और अधिक वृद्धावस्था से ग्रस्त है जो उन्हें कोई भी लाभपूर्ण उपजीविका चलाने से रोकती है और कुष्ठ रोग से मुक्त पद का अर्थ तदनुसार लगाया जायेगा।

श्रवण हा्स
से अभिप्रेत है संवाद संबंधी रेंज की आवृत्ति में बेहतर कर्ण में 60 डेसीबल या अधिक की हानि।

चलन क्रिया संबंधी नि:शक्तता
से हड्डियों, जोडों या मांसपेशियों की कोई ऐसी नि:शक्तता अभिप्रेत है जिससे अंगों की गति में पर्याप्त निर्बन्धन या किसी प्रकार का प्रमस्तिष्क अंगघात हो।

मानसिक मंदता
से किसी व्यक्ति के मस्तिष्क के अवरूद्ध या अपूर्ण विकास की अवस्था है जो विशेष रूप से सामान्य बुद्धिमत्ता की अवसामन्यता द्वारा प्रकट है, अभिप्रेत है।

मानसिक बीमार
से मानसिक मंदता से भिन्न कोई मानसिक विकास अभिप्रेत है।

निःशक्तता की उक्त श्रेणियों एवं परिभाषाओं के अनुसार दिव्यांग व्यक्तियों को निःशक्तता प्रमाण पत्र जारी करने हेतु उ0प्र0 नि:शक्त व्यक्ति (समान अवसर, अधिकार संरक्षण और पूर्ण भागीदारी) नियमावली, 2001 को सरलीकृत करते हुये उ0प्र0 नि:शक्त व्यक्ति (समान अवसर, अधिकार संरक्षण और पूर्ण भागीदारी) (प्रथम संशोधन) नियमावली 2014 शासन के अधिसूचना संख्या 519/65-3-2014-98 दिनांक 3.9.2014 द्वारा निर्गत की गयी है। उक्त संशोधित नियमावली के अनुसार सहज दृश्य निःशक्तता हेतु दिव्यांग प्रमाण पत्र प्रदेश के विभिन्न सामुदायिक चिकित्सा केन्द्रों एवं प्राथमिक चिकित्सा केन्द्रों, राजकीय चिकित्सालयों में कार्यरत चिकित्सा विभाग द्वारा नामित प्राधिकृत चिकित्सा अधिकारी द्वारा निर्गत किया जायेगा, जबकि ऐसी निःशक्तता जो सहज दृश्य न हो एवं उसके परिमाणमापन हेतु विशेषज्ञ चिकित्सक एवं उपकरण की आवश्यकता हो, के प्रकरण में दिव्यांग प्रमाण पत्र प्राधिकृत चिकित्सक की संस्तुति के आधार पर प्रत्येक जनपद में मुख्य चिकित्साधिकारी की अध्यक्षता में गठित चिकित्सा परिषद अथवा डा0 राम मनोहर लोहिया संयुक्त चिकित्सालय लखनऊ के प्राधिकृत चिकित्सक द्वारा निर्गत किया जायेगा।


नि:शक्‍तता प्रमाण पत्र

नि:शक्‍तता की परिभाषा अनुसार किसी भी संवर्ग के 40 प्रतिशत या उससे अधिक नि:शक्‍तताधारी व्‍यक्ति को शासन की संचालित सुविधाओं का लाभ दिये जाने के लिए सर्वप्रथम नि:शक्‍तता प्रमाण पत्र प्रदान किये जाने के लिए प्रत्‍येक जिले में जिला मेडिकल बोर्ड का गठन किया गया हैं। जिला मेडिकल बोर्ड द्वारा प्रत्‍येक माह के निर्धारित दिवसों में नि:शक्‍तता दर्शाते हुए 2 छाया चित्र (फोटो) मूल निवासी का प्रमाण पत्र एवं आवेदन पत्र के साथ हितग्राही को उपस्थित होने पर जिला चिकित्‍सा बोर्ड द्वारा चिकित्‍सा प्रमाण्‍ा पत्र जारी किया जाता हैं।

प्रकिया: नि:शक्‍तता प्रमाण पत्र के आधार पर ही शासन द्वारा संचालित योजनाओं के तहत निर्धारित मापदण्‍डों के अनुरूप लाभान्वित किया जाता हैं। अत: प्रथमत: नि:शक्‍त व्‍यक्ति को नि:शक्‍तता प्रमाण पत्र जिला चिकित्‍सा बोर्ड के माध्‍यम से तैयार कराया जाना आवश्‍यक हैं।

राज्‍य शासन द्वारा नि:शक्‍तजनों के समग्र पुनर्वास कार्यक्रम के तहत नवंबर 2006 में कराये गए एक दिवसीय हाउस होल्‍ड सर्वेक्षण के अनुसार प्रदेश मे कुल 7,71,082 नि:शक्‍तजन हैं जिनकी नि:शक्‍ततावार संख्‍या निम्‍नानुसार हैं:

क्रं. नि:शक्‍तता का प्रकार नि:शक्‍ततावार संख्‍या
1. चलन नि:शक्‍तता (अस्थिबाधित) 4,38,148
2. श्रवण शक्ति का ह्रास (श्रवण बाधित) 91,777
3. अंधता (द्वष्टि बाधित) 91,022
4. मानसिक मंदता 60,508
5. कम द्वष्टि 56,876
6. मानसिक रूग्‍णता 21,944
7. कुष्‍ठरोग मुक्‍त 10,807

जिलो से प्राप्‍त संकलित जानकारी के अनुसार दिनांक 27-12-2010 तक 6,24,761 नि:शक्‍तोंजनों को नि:शक्‍तता प्रमाण पत्र जारी किये जा चुके हैं तथा 1,49,350 नि:शक्तजनों को कृत्रिम अंग/सहायक उपकरण उपलब्ध कराये गए हैं।


समर्थकारी एकक के प्रमुख कार्य इस प्रकार होंगे:


  • इस प्रकार के पाठ्यक्रमों पर दिव्यांग विद्यार्थियों को काउंसलिंग प्रदान करना जिससे वे उच्चतर शिक्षा संस्थाओं में अध्ययन कर सकते हैं।



  • ओपन कोटे तथा साथ ही दिव्यांग विद्यार्थियों के लिए आशयित कोटे के माध्यम से ऐसे विद्यार्थियों का यथासंभव प्रवेश सुनिश्चित करना।



  • दिव्यांग व्यक्तियों के लिए शुल्क में रियायत, परीक्षा प्रक्रियाओं, आरक्षण नीतियों आदि से संबंधित आदेशों को एकत्र करना।



  • दिव्यांग व्यक्तियों से संबंधित नीतियां आदि

  • उच्चतर शिक्षा संस्थानों में नामांकित दिव्यांग व्यक्तियों की शैक्षणिक आवश्यकताओं का आकलन करना ताकि अधिप्राप्त किए जाने वाले सहायक उपकरणों के प्रकारों का अवधारण किया जा सके।



  • संस्थानों के शिक्षकों के लिए शिक्षण, मूल्यांकन प्रक्रियाओं आदि के बारे में जागरूकता कार्यक्रम संचालित करना, जो उन्हें दिव्यांग विद्यार्थियों के मामले में सहायता प्रदान करेंगे।

  • दिव्यांगों की अभिवृत्तियों का अध्ययन करना तथा उन्हें उनके अध्ययन के उपरांत उनके द्वारा अपेक्षित होने पर उपयुक्त रोजगार हासिल करने में सहायता देना।



  • संस्थान में तथा साथ ही आस-पास के परिवेश में विकलांगता से संबंधित महत्वपूर्ण दिवसों का आयोजन करना जैसे विश्व विकलांगता दिवस, व्हाई केन डे, आदि ताकि भिन्न रूप से समर्थ व्यक्तियों की सक्षमताओं के बारे में जागरूकता का सृजन किया जा सके।



  • एचईपीएसएन योजना के अंतर्गत उच्चतर शिक्षा संस्थानों द्वारा खरीदे गए विशेष सहायक उपकरणों का समुचित अनुरक्षण सुनिश्चित करना तथा शिक्षण अनुभवों में संवृद्धि करने के लिए दिव्यांग व्यक्तियों को उनका प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित करना।



  • दिव्यांग व्यक्तियों के मामला इतिवृत्तों के साथ वार्षिक रिपोर्टें तैयार करना जो उच्चतर शिक्षा संस्थानों के लिए संस्थानों के लिए संस्वीकृत एचइपीएसएन योजना द्वारा लाभान्वित हुए हैं।



दिव्यांग व्यक्तियों को पहुँचप्रदान करना

यह महसूस किया गया है कि दिव्यांग व्यक्तियों को उनकी संचलनता और स्वतंत्र कार्यकरण के लिए परिवेश में विशेष व्यवस्थाओं की आवश्यकता होती है। यह भी सच है कि अनेक संस्थानों में ऐसे वास्तुकला संबंधी अवरोध होते हैं जोदिव्यांग व्यक्तियों के लिए उनके दैनिक कार्यकरण में बाधाएं उत्पन्न करते हैं। कॉलेजों से अपेक्षा की जाती है कि वे नि:शक्त व्यक्ति अधिनियम, 1995 की शर्तों के अनुसार अभिगम्यता संबंधी मुद्दों का निवारण करें तथा यह सुनिश्चित करें कि उनके परिसरों में सभी विद्यमान संरचनाएं तथा भावी निर्माण परियोजनाएं दिव्यांग व्यक्तियों के लिए सुविधाजनक हों। संस्थानों को विशेष सुविधाओं का सृजन करना चाहिए जैसे रैम्प, रेल और विशेष शौचालय आदि, जो दिव्यांग व्यक्तियों की विशेष जरूरतों के अनुरूप हों। निर्माण योजनाओं द्वारा विकलांगता से संबंधित अभिगम्यता मुद्दों का स्पष्टत: निवारण किया जाना चाहिए। मुख्य नि:शक्तता आयुक्त के कार्यालय द्वारा अभिगम्यता पर दिशा-निर्देश निर्धारित किए गए हैं।

भिन्न रूप से समर्थ व्यक्तियों के लिए शिक्षा सेवाओं का संवर्धन करने के लिए विशेष उपकरण उपलब्ध कराना

दिव्यांग व्यक्तियों को उनके दैनिक कार्यकरण के लिए विशेष सहायताओं की आवश्यकता होती है। ये उपकरण सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की विभिन्न योजनाओं के माध्यम से उपलब्ध हैं। इस योजना के माध्यम से सहायक उपकरणों की अधिप्राप्ति के अतिरिक्त उच्चतर शिक्षा संस्थानों को विशेष शिक्षण और आकलन उपकरणों की आवश्यकता भी हो सकती है जिससे उच्चतर शिक्षा के लिए नामांकित छात्रों को सहायता दी जा सके। इसके अलावा, दृष्टिबाधित छात्रों को रीडरों की आवश्यकता भी होती है। उपकरणों जैसे स्क्रीन रीडिंग साफ्टवेयर के साथ कंप्यूटर, लो-विजन उपकरण, स्कैनर, संचलनता उपकरण आदि की संस्थान में उपलब्धता दिव्यांग व्यक्तियों के शैक्षणिक अनुभवों को भी समृद्ध करेगी। अत: कॉलेजों को ऐसे उपकरण अधिप्राप्त करने तथा दृष्टिबाधित छात्रों हेतु रीडर्स की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।



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Monday, June 3, 2019

समाज में विशेष शिक्षा शिक्षकों की भूमिकाए और जिम्मेदारियां


Role and responsibilities of Special educator


समाज में विशेष शिक्षा शिक्षकों की भूमिकाए और जिम्मेदारियां


एक विशेष शिक्षा शिक्षक अद्वितीय आवश्यकताओं वाले बच्चों के लिए शैक्षिक हस्तक्षेप और सहायता प्रदान करता है। एक वकील और एक शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए, एक विशेष शिक्षा शिक्षक कक्षा के शिक्षकों, परामर्शदाताओं और परिवार के सदस्यों के साथ काम करता है, जो बच्चों के लिए एक व्यक्तिगत शिक्षा कार्यक्रम (IEPs) लिखते हैं जो शैक्षणिक, सामाजिक और व्यक्तिगत रूप से संघर्ष कर रहे हैं। मूल्यांकन, निर्देशात्मक योजना और शिक्षण इस पद के प्राथमिक कर्तव्य हैं। विशेष शिक्षा शिक्षक उन छात्रों के साथ काम करते हैं जिनके पास व्यवहार संबंधी मुद्दे हैं, सीखने की अक्षमता, दृश्य हानि, आत्मकेंद्रित, या प्रतिभाशाली और प्रतिभाशाली हैं।


 नौकरी का विवरण

हर दिन एक विशेष शिक्षा शिक्षक के लिए एक नई चुनौती और नई नौकरी के कर्तव्यों को प्रस्तुत करता है। छात्रों के साथ समय-समय पर पूरक निर्देश, व्यक्तिगत शैक्षणिक और व्यवहार संबंधी सहायता, और उन छात्रों का मूल्यांकन करना है जिनके पास IEP की फाइल है। विशेष शिक्षा शिक्षक कक्षा में सफल होने वाले छात्रों को जोखिम में मदद करने के बारे में सलाह देने के लिए कक्षा शिक्षकों के सलाहकार के रूप में काम करते हैं। प्रशासनिक कार्य विशेष शिक्षा शिक्षकों के लिए दिन के बड़े हिस्से का उपभोग करते हैं। पाठ की योजना बनाना, विशेष सहायता प्राप्त करने वाले छात्रों की केस फाइल को अपडेट करना और नए IEP लिखना नियमित नौकरी कर्तव्य हैं। अक्सर, विशेष शिक्षा शिक्षक शिक्षाप्रद सहायकों की निगरानी करते हैं और इसके लिए उन्हें अपने दैनिक कार्यों का प्रबंधन और उन्हें असाइन किए गए छात्रों के साथ काम करने के तरीके के बारे में कोचिंग की आवश्यकता होती है। अंत में, विशेष शिक्षा शिक्षक नियमित रूप से छात्रों की प्रगति, कक्षा की जरूरतों और उत्पन्न होने वाली विशेष चिंताओं के बारे में माता-पिता, शिक्षकों और प्रशासकों से संवाद करते हैं।


 शिक्षा आवश्यकताएँ

विशेष शिक्षा में स्नातक की डिग्री इस कैरियर के लिए एक ठोस आधार है। इस चार साल के कार्यक्रम में असाधारण शिक्षार्थी, सीखने का माहौल, मूल्यांकन, विशेष आवश्यकताओं वाले शिक्षार्थियों के लिए विभेदक निर्देश, और विशेष आवश्यकताओं वाले छात्रों के स्वास्थ्य के मुद्दों जैसे पाठ्यक्रम शामिल हैं। आप व्यवहार के मुद्दों, भावनात्मक गड़बड़ी, आत्मकेंद्रित या असाधारण प्रतिभा पर ध्यान केंद्रित करने वाले पाठ्यक्रमों को आगे बढ़ा सकते हैं। कक्षा अवलोकन और छात्र शिक्षण का एक सेमेस्टर शैक्षणिक शिक्षण का व्यावहारिक अनुप्रयोग प्रदान करता है। अंत में, आपको एक विशेष शिक्षा शिक्षक के रूप में प्रमाणित होने के लिए लाइसेंस परीक्षा उत्तीर्ण करनी होगी। कुछ राज्यों ने योग्यता बढ़ाई है और एक मास्टर की डिग्री शामिल है। कई विशेष-शिक्षा स्नातक कार्यक्रमों को ऑनलाइन पूरा किया जा सकता है, और शिक्षक इस डिग्री को पूरा करते हुए अस्थायी रूप से पढ़ाने में सक्षम हो सकते हैं। विशिष्ट आवश्यकताओं की पुष्टि करने के लिए अपने राज्य में शिक्षा विभाग से संपर्क करें।

उद्योग

एक विशेष शिक्षा शिक्षक के लिए औसत वार्षिक वेतन $ 58,980 है। ज्यादातर शिक्षक साल में 10 महीने काम करते हैं। वर्ष में 12 महीने काम करने वाले विशेष शिक्षा शिक्षकों के पास अधिक कमाने का अवसर हो सकता है।


वर्षों का अनुभव

नए विशेष शिक्षा शिक्षक अक्सर काम के बोझ और नौकरी की भावनात्मक कठोरता से अभिभूत होते हैं। अनुभवी विशेष शिक्षा शिक्षकों के पास एक विकसित समर्थन प्रणाली है और दैनिक कार्य प्रवाह का प्रबंधन करने के लिए अधिक सुसज्जित हैं। कैरियर में उन्नति के अवसरों में अन्य विशेष शिक्षा शिक्षकों की देखरेख और विशेष शिक्षा सेवाओं के लिए निरीक्षण शामिल हैं, जो जिले में विस्तृत हैं।

जॉब ग्रोथ ट्रेंड

विशेष शिक्षा के क्षेत्र में अब और 2026 के बीच आठ प्रतिशत की वृद्धि होने की उम्मीद है। संघीय जनादेश में उन छात्रों के लिए विशेष शिक्षा शामिल है जो एक IEP के लिए अर्हता प्राप्त करते हैं। यह विशेष शिक्षा शिक्षकों के लिए एक स्थिर नौकरी भविष्य प्रदान करता है।


 एक विशेष शिक्षक के रूप में आप इसके संपर्क में आएंगे और इसके लिए जिम्मेदार होंगे विकलांग बच्चों की शैक्षिक आवश्यकताएं। ये बच्चे भी करेंगे उनके लिए विभिन्न सेवाओं, संशोधनों और आवास की आवश्यकता है शैक्षिक अनुभव। प्रत्येक प्रकार की विकलांगता और विशिष्ट आवश्यकताओं का ज्ञान यदि आप होने या पहले से ही इसमें शामिल हैं, तो उस विकलांगता वाले बच्चे महत्वपूर्ण हैं विशेष शिक्षा का क्षेत्र। विकलांगों की विभिन्न श्रेणियों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है 2004 के विकलांग व्यक्ति शिक्षा अधिनियम के तहत। इनमें शामिल हैं:

• आत्मकेंद्रित,
• बहरापन,
• भावनात्मक अशांति,
• श्रवण दोष (बहरापन सहित),
• मानसिक मंदता,
• कई विकलांग,
• आर्थोपेडिक हानि,
• अन्य स्वास्थ्य हानि,
• विशिष्ट शिक्षण विकलांगता,
• भाषण या भाषा की हानि,
• दर्दनाक मस्तिष्क की चोट, या
• दृश्य हानि (अंधापन सहित)




आज के स्कूलों में विशेष शिक्षा शिक्षक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है असाधारण छात्रों की उचित शिक्षा। शिक्षक इस मायने में विशिष्ट है कि वह फिट हो सकता है शैक्षिक वातावरण में कई अलग-अलग भूमिकाएँ। हालाँकि, इनमें से प्रत्येक अलग है भूमिकाओं में कई प्रकार की जिम्मेदारियां और कार्य शामिल हैं। इनको समझना जिम्मेदारियां केवल विशेष शिक्षक को भूमिका से परिचित होने में मदद कर सकती हैं और सफलता की संभावना बढ़ाते हैं। उदाहरण के लिए, विशेष शिक्षा शिक्षक कर सकते हैं विभिन्न शैक्षिक स्थितियों की एक किस्म की सौपा। बदलती शैक्षिक इस पठाय क्रम में एक विशेष शिक्षा शिक्षक की भूमिकाए वर्णित है।


विशेष शिक्षा शिक्षकों को उन बच्चों के साथ काम करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है जिनके पास विकलांगों की एक विस्तृत श्रृंखला है। विशेष शिक्षा शिक्षकों के पास आमतौर पर कम से कम स्नातक की डिग्री होती है और कुछ के पास शिक्षा या बाल मनोविज्ञान में मास्टर डिग्री भी हो सकती है। सभी विशेष शिक्षा शिक्षक जो पब्लिक स्कूलों में पढ़ाते हैं, उनके पास अपने राज्य द्वारा जारी किया गया शिक्षण प्रमाण पत्र भी होना चाहिए।


छात्रों का आकलन करना

एक विशेष शिक्षा शिक्षक की प्राथमिक जिम्मेदारियों में से एक उसके छात्रों की संज्ञानात्मक क्षमताओं का आकलन करना है। अधिकांश विशेष एड छात्रों का मूल्यांकन स्कूल आने से पहले मनोवैज्ञानिकों और अन्य पेशेवरों द्वारा किया गया है, इसलिए विशेष एड शिक्षकों के पास अक्सर नैदानिक ​​जानकारी के साथ-साथ उनके छात्रों की जरूरतों का आकलन करने के लिए अवलोकन डेटा के रूप में अच्छी जानकारी होती है। शिक्षकों का अपने छात्रों के साथ काम करने का अनुभव भी छात्रों के लिए पाठ्यक्रम और शिक्षा योजना विकसित करने में एक प्रमुख भूमिका निभाता है।


व्यक्तिगत शिक्षा कार्यक्रम

एक व्यक्तिगत शिक्षा कार्यक्रम को विशेष शिक्षा छात्रों के शैक्षिक, शारीरिक और सामाजिक विकास की जरूरतों को बेहतर बनाने के लिए बनाया गया है। एक विशेष एड शिक्षक छात्रों की क्षमताओं का विश्लेषण करता है और छात्र के लिए एक कस्टम योजना बनाने के लिए मानक आयु-उपयुक्त पाठ्यक्रम को संशोधित करता है। एक IEP में अक्सर कई सामाजिक और भावनात्मक विकास लक्ष्यों के साथ-साथ विशिष्ट शैक्षणिक क्षेत्रों को भी पढ़ाया जाता है।

छात्रों को पढ़ाना

विशेष शिक्षा शिक्षक छात्रों के साथ काम करने में बहुत समय बिताते हैं। विशेष आवश्यकता वाले छात्रों को अक्सर पूर्णकालिक, एक-पर-एक पर्यवेक्षण की आवश्यकता होती है, विशेष रूप से स्कूल में, और विशेष एड शिक्षक वे विकसित IEPs को पूरा करने के लिए सबसे योग्य होते हैं। विशेष शिक्षा कक्षाओं में पारंपरिक कक्षाओं की तुलना में कम छात्र होते हैं ताकि शिक्षक और शिक्षक सहायक छात्रों पर अधिक व्यक्तिगत ध्यान केंद्रित कर सकें।


स्कूल प्रशासन और माता-पिता

विशेष जरूरतों वाले बच्चों के कई माता-पिता अपने बच्चों की शिक्षा में शामिल होते हैं, और आईईपी डिजाइन करने में अपने शिक्षकों के साथ मिलकर काम करते हैं और स्कूल वर्ष के दौरान विकासात्मक और शैक्षिक प्रगति की निगरानी करते हैं। विशेष शिक्षा शिक्षक विकलांगों पर संघीय और राज्य कानूनों के अनुपालन के साथ-साथ अन्य स्कूलों में स्थानांतरित होने वाले छात्रों के लिए योजनाओं को विकसित करने के संबंध में स्कूल प्रशासन के अधिकारियों के साथ समन्वय भी करते हैं।

वेतन की जानकारी

विशेष शिक्षा शिक्षकों ने श्रम सांख्यिकी ब्यूरो के अनुसार, मई 2010 के अनुसार $ 53,220 का औसत वार्षिक वेतन अर्जित किया। उच्च विद्यालय के विशेष शिक्षा शिक्षकों ने $ 54,810 का औसत वार्षिक वेतन अर्जित किया, मध्य विद्यालय के विशेष शिक्षा शिक्षकों ने $ 53,440 का औसत वेतन अर्जित किया और पूर्वस्कूली और प्राथमिक विद्यालय के विशेष शिक्षा शिक्षकों ने $ 52,250 का औसत वेतन प्राप्त किया।


2016 विशेष शिक्षा शिक्षकों के लिए वेतन सूचना

यूएस ब्यूरो ऑफ़ लेबर स्टैटिस्टिक्स के अनुसार, विशेष शिक्षा शिक्षकों ने 2016 में $ 57,840 का औसत वार्षिक वेतन अर्जित किया। कम अंत पर, विशेष शिक्षा शिक्षकों ने $ 46,080 का 25 वां प्रतिशत वेतन अर्जित किया, जिसका अर्थ है कि 75 प्रतिशत ने इस राशि से अधिक अर्जित किया। 75 वां प्रतिशत वेतन $ 73,740 है, जिसका अर्थ है कि 25 प्रतिशत अधिक कमाते हैं। 2016 में, 439,300 लोग विशेष शिक्षा शिक्षक के रूप में अमेरिका में कार्यरत थे।


 विशेष शिक्षा शिक्षक की भूमिका


  • छात्रों को कौशल और ज्ञान के विकास में निर्देश दें जो उन्हें मूल्यांकन की जरूरतों के आधार पर स्वतंत्र रूप से उच्चतम डिग्री संभव में भाग लेने में सक्षम बनाता है


  • नियमित और विशेष शिक्षा शिक्षकों, स्कूल कर्मियों और साथियों को अनुकूलित शारीरिक शिक्षा की जरूरतों और अधिकतम स्वतंत्रता और सुरक्षा को बढ़ावा देने वाले छात्र के अनुकूलन के उपयुक्त तरीकों से संबंधित परामर्श-सेवा प्रशिक्षण प्रदान करें।


  • एक कार्यात्मक और सार्थक कार्यक्रम प्रदान करने के लिए IEP टीम (यानी माता-पिता, कक्षा शिक्षक, भाषण प्रदाता, व्यावसायिक और शारीरिक चिकित्सक, अभिविन्यास और गतिशीलता और दृष्टि विशेषज्ञ) के सदस्यों के साथ काम करता है।


  • छात्र की मूल्यांकन की गई आवश्यकताओं, लक्ष्य और उद्देश्यों, कार्यात्मक स्तरों और प्रेरक स्तरों के अनुरूप एक कार्यक्रम बनाएं


  • कौशल के विकास के लिए उपकरण और सामग्री तैयार करना और उनका उपयोग करना क्योंकि यह एडाप्टेड फिजिकल एजुकेशन (यानी बीपर बॉल्स। स्पंज बॉल्स, बैटिंग टीज़ आदि) से संबंधित है।


  • आचरण का मूल्यांकन जो छात्र की लंबी और छोटी अवधि की जरूरतों दोनों पर केंद्रित है




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Sunday, June 2, 2019

मानव संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार [MHRD]


मानव संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार

Ministry of Human Resource Development [MHRD]

मानव संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार भारत सरकार का एक मंत्रालय है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय, पूर्व में शिक्षा मंत्रालय (25 सितंबर 1985 तक), भारत में मानव संसाधनों के विकास के लिए जिम्मेदार है। मंत्रालय को दो विभागों में बांटा गया है: स्कूल शिक्षा और साक्षरता विभाग, जो प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा, वयस्क शिक्षा और साक्षरता, और उच्च शिक्षा विभाग से संबंधित है, जो विश्वविद्यालय शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, छात्रवृत्ति आदि से संबंधित है। तत्कालीन शिक्षा मंत्रालय अब 26 सितंबर 1985 तक इन दोनों विभागों के अधीन है।


         मानव संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार

                     संस्था अवलोकन

अधिकार क्षेत्र       -   भारत गणराज्य

मुख्यालय            -   शास्त्री भवन, डा राजेंद्र प्रसाद रोड,
                             नई दिल्ली

उत्तरदायी मंत्री      -   डॉ रमेश पोखरियाल निशंक, मानव                                    संसाधन विकास मंत्री

अधीनस्थ संस्थान  -    Department of School                                        Education and
                              Literacy,   Department of                                    Higher Education

वेबसाइट.            -    mhrd.gov.in



मंत्रालय का नेतृत्व कैबिनेट-रैंक वाले मानव संसाधन विकास, मंत्रिपरिषद का एक सदस्य करता है। इस विभाग के मंत्री प्रकाश जावड़ेकर हैं।


प्रमुख विभाग


  • विश्वविद्यालय एवं उच्च शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, दूर शिक्षा
  • तकनीकी शिक्षा
  • नियोजन
  • यूनेस्को
  • एकीकृत वित्त विभाग



शिक्षा और साक्षरता विभाग


स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग देश में स्कूली शिक्षा और साक्षरता के विकास के लिए जिम्मेदार है। यह "शिक्षा के सार्वभौमिकरण" और भारत के युवाओं में नागरिकता के लिए उच्च मानकों की खेती के लिए काम करता है।


उच्च शिक्षा विभाग

उच्च शिक्षा विभाग माध्यमिक और उत्तर-माध्यमिक शिक्षा का प्रभारी है। विभाग को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) अधिनियम, 1956 देने का अधिकार है। उच्च शिक्षा विभाग संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के बाद दुनिया की सबसे बड़ी उच्च शिक्षा प्रणालियों में से एक का ख्याल रखता है। विभाग देश को उच्च शिक्षा और अनुसंधान के विश्व-स्तरीय अवसरों में लगा हुआ है, ताकि भारतीय छात्रों को अंतरराष्ट्रीय मंच के साथ सामना करने पर नहीं मिले। इसके लिए, सरकार ने संयुक्त उद्यम शुरू किया है और भारतीय छात्रों को विश्व राय से लाभान्वित करने के लिए समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर किए हैं। केंद्र सरकार द्वारा वित्त पोषित संगठन, राज्य सरकार / राज्य वित्त पोषित संगठन और स्व-वित्तपोषित संस्थान - तकनीकी शिक्षा प्रणाली को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है। तकनीकी और विज्ञान के 122 केंद्रीय वित्त पोषित संस्थान इस प्रकार हैं: CFTIs की सूची (केंद्रीय रूप से वित्त पोषित तकनीकी संस्थान): IIITs (4 - इलाहाबाद, ग्वालियर, जबलपुर, कंचेपुरम), IITs (16), IIM (13), IISC, IISER (५), एनआईटी (३०), एनआईटीटीटीआर (४), और ९ अन्य (एसपीए, आईएसएमयू, एनआईईआरटी, एसएलआईईटी, आईआईईएसटी, एनआईटीआईआई और एनआईएफएफटी, सीआईटी)


संगठनात्मक संरचना


विभाग को आठ ब्यूरो में विभाजित किया गया है, और विभाग के अधिकांश काम इन ब्यूरो के तहत 100 स्वायत्त संगठनों से अधिक है।

विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षा ; अल्पसंख्यक शिक्षा


  • विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC)
  • शिक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (ERDO)
  • भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICSSR)
  • भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद (ICHR)
  • भारतीय दर्शन अनुसंधान परिषद (ICPR)
  • 11.09.2015 को 46 केंद्रीय विश्वविद्यालय , विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा जारी की गई सूची
  • इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज़ (IIAS), शिमला


तकनीकी शिक्षा


  • अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (AICTE)
  • वास्तुकला परिषद (COA) 
  • 5 भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान (इलाहाबाद, ग्वालियर, जबलपुर, कांचीपुरम और कुरनूल)
  • 3 स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर (एसपीए)
  • 23 भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IITs)
  • 7 भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (IISERs)
  • 20 भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM) 
  • 31 राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी)
  • इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग साइंस एंड टेक्नोलॉजी, शिबपुर (IIEST)
  • संत लोंगोवाल इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी
  • उत्तर पूर्वी क्षेत्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान (NERIST)
  • राष्ट्रीय औद्योगिक इंजीनियरिंग संस्थान (NITIE)
  • 4 राष्ट्रीय तकनीकी शिक्षक प्रशिक्षण और अनुसंधान संस्थान (NITTTRs) (भोपाल, चंडीगढ़, चेन्नई और कोलकाता )
  • गनी खान चौधरी इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी (GKCIET)
  • अपरेंटिसशिप / प्रैक्टिकल ट्रेनिंग के 4 रीजनल बोर्ड


 प्रशासन और भाषाएँ


  • संस्कृत के क्षेत्र में तीन डीम्ड विश्वविद्यालय।
  • नई दिल्ली में राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान (RSkS),
  • श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ (SLBSRSV) नई दिल्ली,
  • राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ (RSV) तिरुपति
  • केंद्रीय हिंदी संस्थान (KHS), आगरा
  • अंग्रेजी और विदेशी भाषा विश्वविद्यालय (EFLU), हैदराबाद
  • उर्दू भाषा को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय परिषद (NCPUL)
  • राष्ट्रीय सिंधी भाषा संवर्धन परिषद (NCPSL)
  • तीन अधीनस्थ कार्यालय: केंद्रीय हिंदी निदेशालय (सीएचडी), नई दिल्ली; वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग (CSTT), नई दिल्ली; और सेंट्रल ** इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन लैंग्वेजेज (CIIL), मैसूर
  • दूरस्थ शिक्षा और छात्रवृत्ति
  • इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (IGNOU)
  • यूनेस्को, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, पुस्तक संवर्धन और कॉपीराइट, शिक्षा नीति, योजना और निगरानी
  • एकीकृत वित्त प्रभाग।
  • सांख्यिकी, वार्षिक योजना और CMIS
  • प्रशासनिक सुधार, उत्तर पूर्वी क्षेत्र, एससी / एसटी / ओबीसी

     इत्यादी

  • राष्ट्रीय शैक्षिक योजना और प्रशासन विश्वविद्यालय (NUEPA)
  • नेशनल बुक ट्रस्ट (एनबीटी)
  • राष्ट्रीय प्रत्यायन बोर्ड (एनबीए)
  • राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों के लिए आयोग (NCMEI)
  • राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT)
  • राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (NCTE)
  • केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE)
  • संगठन विश्वविद्यालय (KVS)
  • समिति नवी (NVS)
  • राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयी शिक्षा संस्थान (NIOS)
  • केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (CTA)
  • शिक्षकों के कल्याण के लिए राष्ट्रीय फाउंडेशन
  • सार्वजनिक क्षेत्र का उद्यम , शैक्षिक परामर्शदाता (भारत) लिमिटेड (EdCIL)
  • केंद्रीय तिब्बती प्रशासन , (HH दलाई लामा का ब्यूरो), (लाजपत नगर), दिल्ली
  • राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय संस्थान (NosI)
  • भारत में राष्ट्रीय पिछड़ा कृषि विद्यापीठ सोलापुर (Nbk)
  • संयुक्त सीट आवंटन प्राधिकरण (JOSAA)



उद्देश्य

मंत्रालय के मुख्य उद्देश्य हैं

शिक्षा पर राष्ट्रीय नीति तैयार करना और यह सुनिश्चित करना कि यह पत्र और भावना में लागू हो पूरे देश में शिक्षण संस्थानों की पहुंच और सुधार सहित योजनाबद्ध विकास, उन क्षेत्रों में शामिल हैं, जहां लोगों को आसानी से पहुंच उपलब्ध नहीं है। गरीबों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों जैसे वंचित समूहों पर विशेष ध्यान देना छात्रवृत्ति, ऋण सब्सिडी आदि के रूप में वित्तीय सहायता प्रदान करें। समाज के वंचित वर्गों के छात्रों को योग्य बनाना। यूनेस्को और विदेशी सरकारों के साथ-साथ विश्वविद्यालयों, शिक्षा के क्षेत्र में देश के शिक्षा के अवसरों सहित, अंतरराष्ट्रीय सहयोग के साथ मिलकर काम करने सहित।

राष्ट्रीय संस्थागत रैंकिंग फ्रेमवर्क

अप्रैल 2016 में, मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने राष्ट्रीय संस्थागत रैंकिंग फ्रेमवर्क के तहत भारतीय कॉलेजों की रैंकिंग की पहली सूची प्रकाशित की। संपूर्ण रैंकिंग अभ्यास में NBA, ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन , UGC, थॉमसन रॉयटर्स, एल्सेवियर और INFLIBNET (सूचना एवं पुस्तकालय नेटवर्क) केंद्र शामिल थे। रैंकिंग फ्रेमवर्क सितंबर २०१५ में शुरू किया गया था। सभी १२२ केंद्रीय-वित्त पोषित संगठन - जिनमें सभी केंद्रीय विश्वविद्यालय, आईआईटी और आईआईएम शामिल थे, ने रैंकिंग के पहले दौर में भाग लिया।


मानव संसाधन विकास मंत्री

2015 -स्मृति ईरानी
2016 - प्रकाश जावड़ेकर


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Wednesday, May 22, 2019

समाज में दिव्यांग के प्रति लोगो की जो गलत धारणा हैं उसे खत्म किया जाय

समाज में दिव्यांग के प्रति लोगो की जो गलत धारणा हैं उसे किस तरह खत्म किया जाय ?

दिव्यांग भी कर सकते हैं चमत्कार, उनको प्यार दें और उनका हौसला  बढ़ाए

प्रतिवर्ष 3 दिसंबर का दिन दुनियाभर में दिव्यांगों की समाज में मौजूदा स्थिति, उन्हें आगे बढ़ने हेतु प्रेरित करने तथा सुनहरे भविष्य हेतु भावी कल्याणकारी योजनाओं पर विचार-विमर्श करने के लिए जाना जाता है। दरअसल यह संयुक्त राष्ट्र संघ की एक मुहिम का हिस्सा है जिसका उद्देश्य दिव्यांगजनों को मानसिक रुप से सबल बनाना तथा अन्य लोगों में उनके प्रति सहयोग की भावना का विकास करना है। एक दिवस के तौर पर इस आयोजन को मनाने की औपचारिक शुरुआत वर्ष 1992 से हुई थी। जबकि इससे एक वर्ष पूर्व 1991 में सयुंक्त राष्ट्र संघ ने 3 दिसंबर से प्रतिवर्ष इस तिथि को अन्तरराष्ट्रीय विकलांग दिवस के रूप में मनाने की स्वीकृति प्रदान कर दी थी।

मेडिकल कारणों से कभी-कभी व्यक्ति के विशेष अंगों में दोष उत्पन्न हो जाता है, जिसकी वजह से उन्हें समाज में 'विकलांग' की संज्ञा दे दी जाती है और उन्हें एक विशेष वर्ग के सदस्य के तौर पर देखा जाने लगता है। आमतौर पर हमारे देश में दिव्यांगों के प्रति दो तरह की धारणाएं देखने को मिलती हैं। पहला, यह कि जरूर इसने पिछले जन्म में कोई पाप किया होगा, इसलिए उन्हें ऐसी सजा मिली है और दूसरा कि उनका जन्म ही कठिनाइयों को सहने के लिए हुआ है, इसलिए उन पर दया दिखानी चाहिए। हालांकि यह दोनों धारणाएं पूरी तरह बेबुनियाद और तर्कहीन हैं। बावजूद इसके, दिव्यांगों पर लोग जाने-अनजाने छींटाकशी करने से बाज नहीं आते। वे इतना भी नहीं समझ पाते हैं कि क्षणिक मनोरंजन की खातिर दिव्यांगों का उपहास उड़ाने से भुक्तभोगी की मनोदशा किस हाल में होगी। तरस आता है ऐसे लोगों की मानसिकता पर, जो दर्द बांटने की बजाय बढ़ाने पर तुले होते हैं। एक निःशक्त व्यक्ति की जिंदगी काफी दुख भरी होती है। घर-परिवार वाले अगर मानसिक सहयोग न दें तो व्यक्ति अंदर से टूट जाता है। वास्तव में लोगों के तिरस्कार की वजह से दिव्यांग स्व-केंद्रित जीवनशैली व्यतीत करने को विवश हो जाते हैं। दिव्यांगों का इस तरह बिखराव उनके मन में जीवन के प्रति अरुचिकर भावना को जन्म देता है।

देखा जाये तो भारत में दिव्यांगों की स्थिति संसार के अन्य देशों की तुलना में थोड़ी दयनीय ही कही जाएगी। दयनीय इसलिए कि एक तरफ यहां के लोगों द्वारा दिव्यांगों को प्रेरित कम हतोत्साहित अधिक किया जाता है। कुल जनसंख्या का मुट्ठी भर यह हिस्सा आज हर दृष्टि से उपेक्षा का शिकार है। देखा यह भी जाता है कि उन्हें सहयोग कम मजाक का पात्र अधिक बनाया जाता है। दूसरी तरफ विदेशों में दिव्यांगों के लिए बीमा तक की व्यवस्था है जिससे उन्हें हरसंभव मदद मिल जाती है जबकि भारत में ऐसा कुछ भी नहीं है। हां, दिव्यांगों के हित में बने ढेरों अधिनियम संविधान की शोभा जरूर बढ़ा रहे हैं, लेकिन व्यवहार के धरातल पर देखा जाये तो आजादी के सात दशक बाद भी समाज में दिव्यांगों की स्थिति शोचनीय ही है। जरूरी यह है कि दिव्यांगजनों के शिक्षा, स्वास्थ्य और संसाधन के साथ उपलब्ध अवसरों तक पहुंचने की सुलभ व्यवस्था हो। दूसरी तरफ यह भी देखा जा रहा है कि प्रतिमाह दिव्यांगों को दी जाने वाली पेंशन में भी राज्यवार भेदभाव होता है। मसलन, दिल्ली में यह राशि प्रतिमाह 1500 रुपये है, उत्तराखंड में 1000 रुपए है। तो झारखंड सहित कुछ अन्य राज्यों में विकलांगजनों को महज 400 रुपये रस्म अदायगी के तौर पर दिये जाते हैं। समस्या यह भी है कि इस राशि की निकासी के लिए भी उन्हें काफी भागदौड़ करनी पड़ती है।

  दरअसल, हमारे देश में दिव्यांगों के उत्थान के प्रति सरकारी तंत्र में अजीब-सी शिथिलता नजर आती है। हालांकि, हर स्तर से दिव्यांगों के प्रति दयाभाव जरूर प्रकट किये जाते हैं, लेकिन इससे किसी दिव्यांग का पेट तो नहीं ना भरता है! आलम यह है कि आज दिव्यांग लोगों को ताउम्र अपने परिवार पर आश्रित रहना पड़ता है। इस कारण, वह या तो परिवार के लिए बोझ बन जाता है या उनकी इच्छाएं अकारण दबा दी जाती हैं। वहीं, दूसरी तरफ दिव्यांगों के लिए क्षमतानुसार कौशल प्रशिक्षण जैसी योजनाओं के होने के बावजूद जागरूकता के अभाव में दिव्यांग आबादी का एक बड़ा हिस्सा ताउम्र बेरोजगार रह जाता है। अगर उन्हें शिक्षित कर सृजनात्मक कार्यों की ओर मोड़ा जाता है तो वे भी राष्ट्रीय संपत्ति की वृद्धि में अपना बहुमूल्य योगदान दे सकते हैं। इस तरह स्वावलंबी होने से वह अपने परिवार या आश्रितों पर बोझ नहीं बनेगा और धीरे-धीरे वह उज्ज्वल भविष्य की ओर कदम भी बढ़ाता नजर आएगा। यह अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री ने अगले सात वर्षों में 38 लाख विकलांगों को लक्ष्य बनाकर राष्ट्रीय कौशल नीति पेश की है। इससे पहले भी दीनदयाल विकलांग पुनर्वास योजना आंशिक रूप से प्रचलन में थी। जिसके तहत विकलांग व्यक्तियों के कौशल उन्नयन हेतु व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्र परियोजनाओं को वित्तीय सहायता (परियोजना लागत के 90 प्रतिशत तक) प्रदान की जाती है। यह कौशल 15 से 35 वर्ष की आयु समूह के लिए है ताकि ऐसे व्यक्ति आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे आ सकें। यह पहल सराहनीय है कि सरकार का सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्रालय के अंतर्गत बनाया गया विकलांग सशक्तिकरण विभाग विकलांगों की राष्ट्रीय कार्य योजना और सुगम्य भारत अभियान के माध्यम से एक बेहतर माहौल बनाने की कोशिशें की जा रही हैं।

आंकड़ों के लिहाज से भारत में करीब दो करोड़ लोग शरीर के किसी विशेष अंग से विकलांगता के शिकार हैं। दिव्यांगजनों को मानसिक सहयोग की जरूरत है। परिवार, समाज के लोगों से अपेक्षा की जाती है कि उन्हें आगे बढ़ने को प्रेरित करें। शारीरिक व्याधियों से जूझ रहे लोगों को 'डिजेबल्ड' न कहकर 'डिफरेंटली एबल्ड' कहना ज्यादा अच्छा होगा। अगर उन्हें उनकी वास्तविक शक्ति का अहसास दिलाया जाये तो उनके साधारण से कुछ खास बनने में उन्हें देर नहीं लगेगी। हमारे सामने वैज्ञानिक व खगोलविद स्टीफन हॉकिंग, भारतीय पैराओलंपियन देवेंद्र झांझरिया, धावक ऑस्कर पिस्टोरियस, मशहूर लेखिका हेलेन केलर जैसे लोगों की लंबी फेहरिस्त है, जिन्होंने विकलांगता को कमजोरी नहीं समझा, बल्कि चुनौती के रूप में लिया और आज हम उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए उन्हें याद करते हैं।
यदि समाज में सहयोग का वातावरण बने, लोग किसी दूसरे की शारीरिक कमजोरी का मजाक न उड़ाएं, तो आगे आने वाले दिनों में हमें सकारात्मक परिणाम देखने को मिल सकते हैं।


समाज के इस वर्ग को आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराया जाये तो वे कोयला को हीरा भी बना सकते हैं। समाज में उन्हें अपनत्व-भरा वातावरण मिले तो वे इतिहास रच देंगे और रचते आएं हैं। एक दिव्यांग की जिंदगी काफी दुखों भरी होती है। घर-परिवार वाले अगर मानसिक सहयोग न दें, तो व्यक्ति अंदर से टूट जाता है। वैसे तो दिव्यांगों के पक्ष में हमारे देश में दर्जन भर कानून बनाए गए हैं, यहां तक कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण भी दिया गया है, परंतु ये सभी चीजें गौण हैं, जब तक हम उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करना बंद ना करें। वे भी तो मनुष्य हैं, प्यार और सम्मान के भूखे हैं। उन्हें भी समाज में आम लोगों के साथ प्रतिस्पर्धा करनी है। उनके अंदर भी अपने माता-पिता, समाज व देश का नाम रोशन करने का सपना है। बस स्टॉप, सीढ़ियों पर चढ़ने-उतरने, पंक्तिबद्ध होते वक्त हमें यथासंभव उनकी सहायता करनी चाहिए। आइए, एक ऐसा स्वच्छ माहौल तैयार करें, जहां उन्हें क्षणिक भी अनुभव ना हो कि उनके अंदर शारीरिक रूप से कुछ कमी भी है। इस बार के 'विश्व विकलांग दिवस' पर मेरी यह छोटी-सी अपील है कि दिव्यांगों का मजाक न उड़ाएं, उन्हें सहयोग दें।

 अंत में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस सुझाव को दुहराना चाहूंगा, जिसमें उन्होंने निःशक्तों (विकलांगों) को 'दिव्यांग' कहने का उचित विचार दिया था। यह महज एक औपचारिकता ना रहे, इसलिए इस सुझाव को व्यवहार में लाया जाना चाहिए।



क्या है दिव्यांगता

निशक्त व्यक्ति अधिनियम 1995 के मुताबिक जब शारीरिक कमी का प्रतिशत 40 से अधिक होता है तो वह दिव्यांगता की श्रेणी में आता है.

दिव्यांगता ऐसा विषय है जिस के बारे में समाज और व्यक्ति कभी गंभीरता से नहीं सोचते. क्या आप ने कभी सोचा है कि कोई छात्र या छात्रा अपने पिता के कंधे पर बैठ कर, भाई के साथ साइकिल पर बैठ कर या मां की पीठ पर लद कर या फिर ज्यादा स्वाभिमानी हुआ तो खुद ट्राईसाइकिल चला कर ज्ञान लेने स्कूल जाता है, किंतु सीढि़यों पर ही रुक जाता है, क्योंकि वहां रैंप नहीं है और ऐसे में वह अपनी व्हीलचेयर को सीढि़यों पर कैसे चढ़ाए? उस के मन में एक कसक उठती है, ‘क्या उस के लिए ज्ञान के दरवाजे बंद हैं? क्या शिक्षण संस्था में उस को कोई सुविधा नहीं मिल सकती?’ शौचालय तो दूर उस के लिए एक रैंप वाला शिक्षण कक्ष भी नहीं है जहां वह स्वाभिमान के साथ अपनी व्हीलचेयर चला कर ले जा सके एवं ज्ञान प्राप्त कर सके।

कोई दफ्तर, बैंक एटीएम, पोस्टऔफिस, पुलिस थाना, कचहरी ऐसी नहीं है जहां दिव्यांगों के लिए अलग से सुविधाएं मौजूद हों. सामान्य दिव्यांगों की तो छोडि़ए, यहां के दिव्यांग कर्मचारियों के लिए भी कोई सुविधा नहीं है. अगर दिव्यांगों को बराबर का अधिकार है तो नजर कहां आता है?

ट्रेन की ही बात करते हैं. क्या ट्रेन में दिव्यांग अकेले यात्रा कर सकते हैं? प्लेटफौर्म, अंडरब्रिज यहां तक कि ट्रेन तक पहुंचने के लिए भी दिव्यांगों को दूसरों की सहायता चाहिए. उन के लिए कोई मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं. किसी तरह अगर वे डब्बे में चढ़ भी जाएं तो ट्रेन में उन के लिए अलग से शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं है. घर बैठ कर सभी सामान्य लोग औनलाइन टिकट की बुकिंग कर सकते हैं लेकिन दिव्यांगों को प्लेटफौर्म पर लाइन में लग कर ही टिकट लेना पड़ता है।

यहां तक कि मतदान केंद्रों पर भी दिव्यांगों को कोई अलग से सुविधा नहीं दी जाती, अधिकांश मतदान केंद्रों पर रैंप न होने के कारण वे मताधिकार से वंचित रह जाते हैं. यह तंत्र एवं समाज के लिए शोचनीय और शर्मनाक बात है.

हर साल बजट में दिव्यांगों के लिए भारी सहायता राशि की घोषणा की जाती है. कागज पर योजनाएं एवं सुविधाएं उकेरी जाती हैं, लेकिन अभी तक कोई भी तंत्र उन्हें मौलिक अधिकार एवं सुविधाएं नहीं दे सका है.

समाज से उपेक्षित दिव्यांग

हमारे समाज में दिव्यांगता थोथी संवेदनाओं का केंद्र बन कर रह गई है. दिव्यांगों से तो सभी सहानुभूति रखते हैं लेकिन उन्हें दोयम दर्जे का व्यक्तित्व मानते हैं. बेचारे, पंगु, निर्बल, निशक्त जाने कितने संवेदनासूचक शब्दों से हम उन्हें पुकारते हैं. कितनी सरकारी योजनाएं, विभाग बन गए लेकिन क्या दिव्यांगों को हम सबल बना पाए हैं? क्या उन को राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़ कर राष्ट्र निर्माण में उन का योगदान ले पाए हैं, शायद नहीं. इस के जिम्मेदार हम सभी हैं।

दिव्यांगों के अधिकारों को आवाज देता ‘संयुक्त राष्ट्र दिव्यांगता समझौता’ विश्वव्यापी मानवाधिकार समझौता है. यह समझौता स्पष्ट रूप से दिव्यांगों के अधिकारों एवं विभिन्न देशों की सरकारों द्वारा निर्बाध रूप से दिव्यांगों के पुनर्वास एवं उन्हें बेहतर सुविधाएं प्रदान करने की पैरवी करता है.

देश की संसद ने दिव्यांगों के पुनर्वास एवं उन्हें देश की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए दिव्यांग व्यक्ति (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण, पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995 दिव्यांगता अधिनियम पारित किया. स्वाभाविक तौर पर अशक्त लोगों के अधिकारों को प्रतिपादित करते हुए भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के ‘राइट्स औफ पर्सन्स विद डिस्एबिलिटीज’ कन्वैंशन में कही गई बातों को 2007 में स्वीकार किया और दिव्यांगों के लिए बने अधिनियम 1995 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पारित कन्वैंशन जिस पर 2008 में अमल शुरू हुआ, के आधार पर बदलने की बात कही.

फिलहाल करीब 40 कंपनियां दिव्यांगों को नौकरियां दे रही हैं. गैर सरकारी संस्थानों की यह पहल निश्चित रूप से दिव्यांगों के जीवन में नए रंग भर सकती है. आज आवश्यकता है दिव्यांगों को समान अधिकार देने की व सम्मानपूर्वक जीवन की मुख्यधारा से जोड़ने की ताकि वे देश निर्माण में अपना योगदान दे सकें।

 आंकड़ों की जबानी, उपेक्षा की कहानी

राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के 58 चक्र के अनुसार देश में लगभग 1 करोड़ 85 लाख दिव्यांग हैं, जबकि रजिस्ट्रार जनरल औफ इंडिया की ओर से जारी रिपोर्ट के अनुसार देश में दिव्यांग की संख्या 2 करोड़ 68 लाख है. 75% दिव्यांग ग्रामीण इन क्षेत्रों में हैं, 49% दिव्यांग साक्षर हैं एवं 34% दिव्यांग रोजगार प्राप्त हैं.

उत्तराखंड

 शत्रुघ्न सिंह ने उत्तराखंड के 13वें मुख्य सचिव के रूप में 17 नवम्बर, 2015 को चार्ज संभाल लिया है।

 शत्रुघ्न सिंह का कार्यकाल दिसम्बर 2016 तक रहेगा।

-राज्य में हैं 1 लाख 85 हजार दिव्यांग

डॉ। कमलेश कुमार पांडे आजकल [जुलाई, 2016] उत्तराखंड दौरे पर हैं। जहां वे प्रदेश सरकार के आलाधिकारियों व एनजीओ से दिव्यांगनजों की समस्याओं को लेकर बैठकें और चर्चाएं कर रहे हैं। सोमवार 25 जुलाई को उन्होंने सीएस शत्रुघ्न सिंह से भी मुलाकात की। डॉ। कमलेश पांडे ने सचिवालय में प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा कि उत्तराखंड दिव्यांगजनों को पेंशन देने में आगे है। राज्य में दिव्यांगों को एक हजार रुपये पेंशन दी जाती है।

99 हजार को सर्टिफिकेट

डॉ। पांडे ने कहा कि प्रदेश की यूनिवर्सिटीज में डिसएबिलिटी डिपार्टमेंट खोले जाने पर शासन के अधिकारियों से बात हुई है। जिस पर सहमति मिली है। आधार कार्ड भी पचास प्रतिशत ही बन पाए हैं। दृष्टिबाधितार्थो के लिए हल्द्वानी में ब्लड बैंक खुलने पर भी सरकार ने मंजूरी दी है। राज्य दिव्यांगजन आयुक्त मनोज चंद ने बताया कि प्रदेश में एक लाख 85 हजार दिव्यांगजनों की संख्या है। जिनमें से 99 हजार को सर्टिफिकेट दिए गए हैं। उन्होंने कहा कि पीएचसी सेंटर में अब सर्टिफिकेट बन पाएंगे। सरकारी अस्पतालों में फ्री ओपीडी के सुविधा न मिलने पर राज्य आयुक्त ने कहा कि 1 से 18 साल तक दिव्यांगजनों को फ्री मेडिकल की सुविधा है,
जिन अस्पतालों में सुविधा नहीं मिल रही है, शिकायत मिलने पर सख्ती बरती जाएगी।

-दिव्यांगजन मुख्य आयुक्त कार्यालय ccpd@nic.in पर शिकायत भेज सकते हैं.

मुख्य आयुक्त ने बताया कि दिव्यांगजनों की सुविधा व अधिकार के लिए नया बिल राज्यसभा में लंबित है। बिल पास होने पर दिव्यांगता के प्रकार 7+2 से 19+2, 21 हो जाएगी, और आरक्षण तीन से बढ़कर पांच प्रतिशत हो जाएगा। आयोग का गठन भी होगा।


RIGHTS OF PERSONS WITH DISABILITIES (RPWD) ACT, 2016


दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार (RPWD) अधिनियम, 2016


2016 में संसद के गर्म शीतकालीन सत्र में व्यवधानों और स्थगन के दिनों के दौरान छह साल की पैरवी, वकालत और प्रतीक्षा के बाद, हमने आखिरकार विकलांगों के बहुप्रतीक्षित अधिकारों के सर्वसम्मति से पारित होने के साथ हमारे सांसदों की अनुकंपा देखी (RPWD) ) १४ दिसंबर, २०१६ को राज्यसभा में और उसके बाद १६ दिसंबर, २०१६ को लोकसभा में विधेयक। वर्ष के अंत से पहले माननीय राष्ट्रपति द्वारा इस विधेयक को और अधिक अनुमोदित और हस्ताक्षरित किया गया और सरकार ने अपने अधिकारी को 'अधिसूचित' किया 28 दिसंबर, 2016 को राजपत्र। इस प्रकार, RPWD बिल 2016 को 'अधिनियमित' किया गया और 'LAW' बन गया।

वास्तव में, एक ऐतिहासिक क्षण और एक पथ तोड़ने वाली उपलब्धि! यह कानून भारत के अनुमानित 70-100 मिलियन विकलांग नागरिकों के लिए गेम चेंजर होगा और इसे लागू करने के प्रावधानों के साथ अधिकारों से दूर प्रवचन को धर्मार्थ से दूर ले जाने में मदद करेगा।

1995 अधिनियम के तहत पिछली 7 श्रेणियों में से 21 श्रेणियों को अक्षम करने के अलावा, यह नया अधिनियम किसी के अधिकारों पर पूरा जोर देता है - समानता और अवसर का अधिकार, विरासत और खुद की संपत्ति का अधिकार, घर और परिवार का अधिकार और दूसरों के बीच प्रजनन अधिकार। । 1995 के अधिनियम के विपरीत, नया अधिनियम सुलभता के बारे में बात करता है - सरकार के लिए दो साल की समय सीमा निर्धारित करने के लिए यह सुनिश्चित करने के लिए कि विकलांग व्यक्तियों को भौतिक बुनियादी ढाँचे और परिवहन प्रणालियों में बाधा रहित पहुँच प्राप्त हो। इसके अतिरिक्त, यह निजी क्षेत्र के लिए भी जवाबदेह होगा। इसमें सरकार द्वारा निजी रूप से स्वामित्व वाले विश्वविद्यालयों और कॉलेजों जैसे शैक्षणिक संस्थानों को 'मान्यता प्राप्त' भी शामिल है। नए अधिनियम की एक पथ-तोड़ विशेषता सरकारी नौकरियों में आरक्षण में 3% से 4% तक की वृद्धि है

नए कानून के साथ, भारतीय विकलांगता आंदोलन को अगले स्तर पर समाप्त कर दिया गया है। इसने हमें विकलांगता अधिकारों, "विकलांगता 2.0" के अगले चरण में प्रवेश किया है ।


दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम-2016 के अन्तर्गत निशक्तता के 21 प्रकार है

1. मानसिक मंदता [Mental Retardation] -
        1.समझने / बोलने में कठिनाई
        2.अभिव्यक्त करने में कठिनाई

2. ऑटिज्म [Autism Spectrum Disorders] -
    1. किसी कार्य पर ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई
    2. आंखे मिलाकर बात न कर पाना
    3. गुमसुम रहना

3. सेरेब्रल पाल्सी [Cerebral Palsy] पोलियो-
    1. पैरों में जकड़न
    2. चलने में कठिनाई
    3. हाथ से काम करने में कठिनाई

4. मानसिक रोगी [Mental illness] -
    1.अस्वाभाविक ब्यवहार,  2. खुद से बाते करना,
    3. भ्रम जाल,  4. मतिभ्रम,  5. व्यसन (नसे का आदी),
    6. किसी से डर / भय,  7. गुमसुम रहना

5. श्रवण बाधित [Hearing Impairment]-
   1. बहरापन
   2. ऊंचा सुनना या कम सुनना

6. मूक निशक्तता [Speech Impairment] -
    1. बोलने में कठिनाई
    2. सामान्य बोली से अलग बोलना जिसे अन्य लोग समझ          नहीं पाते

7. दृष्टि बाधित [Blindness ] -
    1. देखने में कठिनाई
    2. पूर्ण दृष्टिहीन

8. अल्प दृष्टि [Low- Vision ] -
    1. कम दिखना
    2. 60 वर्ष से कम आयु की स्थिति में रंगों की पहचान नहीं          कर पाना

9. चलन निशक्तता  [Locomotor Disability ] -
    1. हाथ या पैर अथवा दोनों की निशक्तता
    2. लकवा
    3. हाथ या पैर कट जाना

10. कुष्ठ रोग से मुक्त  [Leprosy- Cured ] -
     1. हाथ या पैर या अंगुली मैं विकृति
     2. टेढापन
     3. शरीर की त्वचा पर रंगहीन धब्बे
     4. हाथ या पैर या अंगुलिया सुन्न हों जाना

11. बौनापन [Dwarfism ]-
      1. व्यक्ति का कद व्यक्स होने पर भी 4 फुट 10इंच                  /147cm  या इससे कम होना

12. तेजाब हमला पीड़ित [Acid Attack Victim ] -
      1. शरीर के अंग हाथ / पैर / आंख आदि तेजाब हमले की वज़ह से असमान्य / प्रभावित होना

13. मांसपेशी दुर्विक़ार [Muscular Distrophy ] -
     . मांसपेशियों में कमजोरी एवं विकृति

14.स्पेसिफिक लर्निग डिसेबिलिटी[Specific learning]-
     . बोलने, श्रुत लेख, लेखन, साधारण जोड़, बाकी, गुणा,        भाग में आकार, भार, दूरी आदि समझने मैं कठिनाई

15. बौद्धिक निशक्तता [ Intellectual Disabilities]-          1. सीखने, समस्या समाधान, तार्किकता आदि में          कठिनाई
      2. प्रतिदिन के कार्यों में सामाजिक कार्यों में एम  अनुकूल व्यवहार में कठिनाई

16. मल्टीपल स्कलेरोसिस [Miltiple Sclerosis ] -
     1. दिमाग एम रीढ़ की हड्डी के समन्वय में परेशानी

17. पार्किसंस रोग [Parkinsons Disease ]-
     1. हाथ/ पाव/ मांसपेशियों में जकड़न
     2. तंत्रिका तंत्र प्रणाली संबंधी कठिनाई

18. हिमोफिया/ अधी रक्तस्राव [Haemophilia ] -
     1. चोट लगने पर अत्यधिक रक्त स्राव
     2.रक्त बहेना बंद नहीं होना

19. थैलेसीमिया [Thalassemia ] -
      1. खून में हीमोग्लबीन की विकृति
      2. खून मात्रा कम होना

20. सिकल सैल डिजीज [Sickle Cell Disease ] -
     1. खून की अत्यधिक कमी
     2. खून की कमी से शरीर के अंग/ अवयव खराब होना

21. बहू  निशक्तता [Multiple Disabilities ] -
     1. दो या दो से अधिक निशक्तता से ग्रसित


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Sunday, May 19, 2019

उत्तराखण्ड विद्यालयी शिक्षा परिषद् (UBSE)


 Uttarakhand Board of Secondary Education  (UBSE)


 उत्तराखण्ड विद्यालयी शिक्षा परिषद्

उत्तराखण्ड विद्यालयी शिक्षा परिषद्, उत्तराखण्ड सरकार के अधीन शिक्षा विभाग की एक संस्था है, जिसका कार्य राज्य के माध्यमिक विद्यालय के छात्रों के लिए पाठ्यक्रम तैयार करना तथा हाई स्कूल एवं इण्टरमीडिएट स्तर की वार्षिक परिषदीय परीक्षाएँ आयोजित कराना है। इसकी स्थापना 2001 में की गयी तथा रामनगर में इसका मुख्यालय है। वर्तमान में 10,000 से अधिक स्कूल परिषद् से संबद्ध हैं। परिषद् प्रतिवर्ष 1300 से अधिक परीक्षा केन्द्रों पर 300,000 से अधिक परीक्षार्थियों के लिए वार्षिक परीक्षाएँ संपन्न कराती है।


उत्तराखण्ड विद्यालयी शिक्षा परिषद्

संक्षेपाक्षर              UBSE
स्थापना                 सितम्बर 22, 2001 (17 वर्ष)
प्रकार                   शासकीय विद्यालयी शिक्षा परिषद्
मुख्यालय              रामनगर
स्थान                    उत्तराखण्ड, भारत
आधिकारिक भाषा   हिन्दी
अध्यक्ष                  राकेश कुमार कुँवर
पैतृक संगठन          शिक्षा विभाग, उत्तराखण्ड सरकार
जालस्थल              आधिकारिक जालपृधर


इतिहास

1. 9 फरवरी, 1996: उत्तराखण्ड क्षेत्र हेतु  उत्तर प्रदेश माध्‍यमिक शिक्षा परिषद् के क्षेत्रीय कार्यालय की स्‍थापना रामनगर (नैनीताल) में हुयी।

2. 1999: उक्‍त क्षेत्रीय कार्यालय  द्वारा प्रथम बार गढ़वाल मण्डल एवं कुमाऊँ मण्‍डल हेतु परीक्षाओं का संचालन हुआ।

3. 2001: कुमाऊँ एवं गढ़वाल मण्‍डलों हेतु परिषदीय परीक्षाएँ माध्‍यमिक शिक्षा परिषद उत्‍तर प्रदेश के तत्‍कालीन क्षेत्रीय कार्यालय रामनगर  द्वारा संचालित की गयीं।

4. 22 सितम्‍बर, 2001: उत्‍तरांचल राज्‍य गठन के उपरान्‍त उत्तरांचल शिक्षा एवं परीक्षा परिषद् की स्‍थापना  हुयी।

5. 2002 में परिषद् द्वारा प्रथम बार परीक्षाओं का स्‍वयं आयोजन किया गया।

6. 22 अप्रैल, 2006: उत्तरांचल विधान सभा द्वारा उत्‍तरांचल विद्यालयी शिक्षा अधिनियम, 2006 का प्राख्‍यापन हुआ तथा उत्‍तरांचल विद्यालयी शिक्षा परिषद् की स्‍थापना हुयी।

7. 11दिसम्‍बर, 2008: उत्‍तराखण्‍ड विदयालयी शिक्षा परिषद् का गठन हुआ।



शिशुशिक्षा
child education


"शिशु" शब्द का अर्थ बहुत व्यापक होता है। कोई जन्म से लेकर ढाई तीन वर्षों तक, कोई पाँच वर्ष तक और कोई छह या सात वर्ष तक के बच्चे को शिशु कहता है। परंतु शिशुशिक्षा के अर्थ "दो से ग्यारह या बारह वर्ष तक की शिक्षा" माना जाता है। इस पर्याप्त लंबी अवधि को प्राय दो भागों में बाँटा जाता है। दो वर्ष से छह वर्ष की शिक्षा को शिशुशिक्षा (इनफंट या नर्सरी एजुकेशन) कहते हैं, जो प्राय: शिशुशालाओं (नर्सरी स्कूलों) में दी जाती है। छह वर्ष के पश्चात् ग्यारह या बारह वर्ष की शिक्षा को बालशिक्षा (चाइल्ड एजुकेशन) या प्रारंभिक शिक्षा (एलीमेंटरी एजुकेशन) कहते हैं। संसार के सभी प्रगतिशील देशों में प्रारंभिक शिक्षा अनिवार्य है। अत: कहीं छह वर्ष के पश्चात् और कहीं सात वर्ष से प्रारंभिक विद्यालयों में शिक्षा आरंभ की जाती है जो प्राय: पाँच वर्षों तक चलती है। तत्पश्चात् बच्चे माध्यमिक शिक्षा में प्रविष्ट होते हैं।

शिशु मनुष्य का पूर्वरूप है। मनुष्य की संपूर्ण शक्तियाँ और संभावनाएँ शिशु में संनिहित रहती हैं। उसके समुचित पालन पोषण एवं शिक्षादीक्षा पर ही भावी मनुष्य का विकास निर्भर रहता है। अत: मनुष्य की शिक्षा को पूर्ण बनाने की नींव शैशवावस्था में ही पड़ जानी चाहिए। इसी से आज के युग में शिशुशिक्षा को सर्वाधिक महत्व प्रदान किया जाता है।


 इतिहास 

उन्नीसवीं शताब्दी तक शिशु को शिक्षित करने का ढंग बड़ा ही कठोर था। उसके प्रति अध्यापक की सहानुभूति का अभाव था। शिक्षा में शारीरिक दंड का विधान प्रमुख था। शिशु का भी कोई पृथक् व्यक्तित्व है - उसकी अपनी आवश्यकताएँ, स्वतंत्र रुचि एवं आकांक्षाएँ हैं - इसपर अध्यापक का ध्यान नहीं जाता था। शिशु सामान्य (तथाकथित) अपराध पर अध्यापक का क्रुद्ध होना और उसे शारीरिक दंड देना स्वाभाविक था। माता पिता भी "दशवर्षाणि ताडयेत्" को वेदवाक्य मानकर शिक्षा में शिशु के दंड का विधान नतमस्तक होकर स्वीकार करते थे।

 शिशु की स्वतंत्रता का सर्वप्रथम प्रचारक रूसो (1712-1778 ई.) हुआ। तत्पश्चात् पेस्तालीत्सी (1746-1827) ने शिशुशिक्षा को मनोवैज्ञानिक आधार प्रदान किया। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में फ्रोबेल नामक जर्मन शिक्षाशास्त्री ने "बालोद्यान" (किंडरगार्टन) पद्धति द्वारा शिशुशिक्षा में क्रांति उत्पन्न की; परंतु अनेक कारणों से उसका प्रचार मंद गति से हुआ जिससे उन्नीसवीं शताब्दी का अंत होते यह पद्धति यूरोप के अन्य देशों तथा अमरीका में फैली। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में अमरीका के एडवर्ड थार्नडाइक तथा चार्ल्स जुड ने शिशुशिक्षा को सरल, सरस एवं आकर्षक बनाने का प्रयत्न किया। अब शिक्षाशास्त्रियों एव मनावैज्ञानिकों का ध्यान शिशु मनोविज्ञान की ओर विशेष रूप से आकृष्ट हुआ। इटली की प्रसिद्ध महिला शिक्षाशास्त्रिणी मैरिया मांतेस्सोरी ने ज्ञानेंद्रियों की साधना पर विशेष बल दिया जिससे शिशु-शिक्षण-पद्धति में एक नवीन युग आरंभ हुआ और शिशु की शिक्षा सामूहिक से व्यक्तिप्रधान हो गई। प्रत्येक शिशु की पृथक् रुचि एवं मानसिक विकास के अनुरूप उसे शिक्षा देने की व्यवस्था हुई। महात्मा गांधी ने शिशुशिक्षा में उपयोगितावाद का प्रधानता दी और जीवनोपयोगी किसी व्यवसाय (जैसे कताई, बुनाई या कृषि) को शिक्षा का आधार बनाया जिससे यह शिक्षा आधार (बेसिक) शिक्षा कहलाती है।


शिशुशिक्षा की प्रमुख पद्धतियाँ

अधिकांश देशों में शिशुशिक्षा की दो प्रमुख पद्धतियाँ व्यवहार में लाई जाती हैं - एक बालोद्यान की, दूसरी मांतेस्सोरी। बालोद्यान पद्धति में बच्चों को कुछ खिलौनों या क्रीड़ा उपकरणों (जिन्हें फ्रोबेल ने "उपहार" कहा है) तथा शिशु गीतों (नर्सरी सौंग्स) द्वारा सामूहिक शिक्षा दी जाती है। बच्चे शिक्षा को खेल समझकर बड़ी रुचि से आकृष्ट होते हैं और विद्यालय उनके लिए आकर्षण का केंद्र बन जाता है। परंतु शिशुमनोविज्ञान के विकास से पता चला है कि प्रत्येक शिशु दूसरे से भिन्न होता है। अत: उसकी शिक्षा दूसरों से पृथक् ढंग से होनी चाहिए। उस अपनी सहज शक्तियों एवं संभावनाओं का विकास करने के लिए अवसर मिलना चाहिए। केवल सामूहिक शिक्षा देने से उसकी बहुत सी शक्तियाँ अविकसित रह जाती हैं। अत: बालोद्यान का स्थान धीरे धीरे मांतेस्सोरी पद्धति ले रही है। मांतेस्सोरी पद्धति के मूल आधार हैं

ज्ञानेंद्रियों का साधन या विकास तथा शिशु की स्वतंत्रता। इस पद्धति के द्वारा तीन से छह या सात वर्ष के बच्चों का अनेक प्रकार के शैक्षिक यंत्रों (डिडैक्टिक) ऐपैरेटस द्वारा वस्तुओं के रूप, रंग, आकार आदि का ज्ञान कराया जाता है। परंतु प्राय: संपूर्ण ज्ञान बच्चे स्वयं प्राप्त करते हैं। आत्मशिक्षण इस पद्धति का मूल मंत्र है। अध्यापिका दर्शक के रूप में विद्यमान रहकर शिशु के कार्यों का संप्रेक्षण एवं निर्देश करती है। इससे उसे "अध्यापिका" न कहकर "संचालिका" कहते हैं। मांतेस्सोरी विद्यालयों में इंद्रियसाधना के साथ साथ व्यावहारिक जीवन की उपयोगी शिक्षा दी जाती है, जैसे भोजन परसना, कमरा साफ करना, कमरे के सामान व्यवस्थित रूप से सजाकर रखना, इत्यादि। स्वच्छता के साथ ही वेशभूषा धारण करने के ढंग, जैसे बालों में कंघी करना, कपड़ों में बटन लगाना, फीता बाँधना इत्यादि भी सिखाए जाते हैं। इन विद्यालयों में टेबुल, कुर्सी, चौकी इत्यादि सभी आवश्यक सामान हल्के बनवाए जाते हैं जिससे बच्चे सरलता से उन्हें स्थानांतरित कर सकें। इस प्रकार उन्हें अपने सभी कार्य स्वयं करने की शिक्षा दी जाती है।

उक्त दोनों प्रकार की पद्धतियों में शिशु के व्यक्तित्व का महत्व स्वीकार किया जाता है और उसे किसी प्रकार का शारीरिक दंड न देकर प्रेम से शिक्षा देना श्रेयस्कर माना जाता है। शिक्षा में दंड या पुरस्कार के बिना वातावरण से जो प्रेरणा मिलती है वही शिशु के विकास में सहायक होती है। बालोद्यान पद्धति में उपहार का विधान तो है परंतु पुरस्कार का नहीं है। मांतेस्सोरी पद्धति में भी पुरस्कार या प्रलोभन देकर शिक्षा की ओर आकृष्ट करने का कोई विधान नहीं है। दोनों ही पद्धतियों में सक्रियता का सिद्धांत मान्य है। बच्चों में क्रियाशीलता एवं स्फूर्ति की अधिकता होती है जिसका संचालन उपयुक्त दिशा में होना चाहिए। अत: आधुनिक शिक्षा में शिशु को विभिन्न प्रकार की क्रियाओं में व्यस्त रखा जाता है और शिक्षा को खेल का रूप प्रदान किया जाता है जिससे वह शिशु को बोझ न जान पड़े। आधुनिक शिक्षा का एक बहुमान्य सिद्धांत है करके सीखना। इस सिद्धांत के अनुसार ही उक्त दोनों पद्धतियों में व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा दी जाती है। शिशु के शरीर में निरंतर वर्धमान शक्ति एव स्फूर्ति का उपयोग करने के लिए शारीरिक व्यायाम तथा खेल-कूद की पर्याप्त व्यवस्था रखी जाती है। खेलकूद के नियमों के पालन से अनुशासन की शिक्षा मिलती है, साथ ही सहयोग द्वारा कार्य करने एवं आदान प्रदान करने का अभ्यास बढ़ता है।

शिशुशिक्षा में कहानी, कविता तथा संगीत को भी प्रमुख स्थान दिया जाता है। यद्यपि श्रीमती मांतेस्सोरी परियों की काल्पनिक कथाओं के विरुद्ध हैं और बच्चों के लिए उन्हें अनुपयुक्त मानती हैं फिर भी व्यवहार में प्राय: देखा जाता है कि ऐसी कथाओं से बच्चों का केवल मनोरंजन ही नहीं होता वरन् उनमें कल्पनाशक्ति का विकास भी होता है। अत: उनके पाठ्यक्रम में इनका होना लाभदायक सिद्ध होता है। बच्चों के लिए कविता एवं संगीत के महत्व को श्रीमती मांतेस्सोरी भी स्वीकार करती हैं। अत: उनके विद्यालयों में बच्चों को कविताएँ - विशेषत: नादसौंदर्यात्मक, लययुक्त एवं अभिनेय कविताएँ सिखाई जाती हैं। प्रयाण गीतों तथा नृत्य के साथ चलनेवाले गीतों को प्रधानता दी जाती है। तात्पर्य यह है कि वर्तमान शिशुशिक्षा पद्धति में शिशु को सब प्रकार की स्वतंत्रता देकर आत्माभिव्यंजन का पूर्ण अवसर प्रदान किया जाता है। इसके लिए अनुकूल वातावरण एवं उपकरण प्रस्तुत करना शिक्षक का मुख्य कर्तव्य होता है।

उपर्युक्त सिद्धांतों के अनुसार शिशुशिक्षा के समुचित प्रसार के लिए निम्नोक्त आवश्यकताओं की पूर्ति अपेक्षित है - दो से छह वर्ष के बच्चों के लिए शिशुशालाओं (नर्सरी स्कूलों) तथा छह से ग्यारह वर्ष के बच्चों के लिए बालोद्यान की स्थापना; सभी शिशुविद्यालयों में जलपान एवं दोपहर के भोजन की व्यवस्था; शिशु छात्रावासों की स्थापना; शिशु छात्रावासों की स्थापना; शिशुशिक्षा के लिए उपयुक्त प्रशिक्षित अध्यापिकाओं की नियुक्ति; बच्चों के क्रीड़ोपकरणों की व्यवस्था; बालसमाजों (चिल्ड्रेंस क्लबों) की स्थापना जहाँ बच्चे एकत्र होकर परस्पर मिल सकें तथा मनोरंजन के साधनों द्वारा जी बहला सकें; शिशुशिक्षा के लिए उपयुक्त साहित्य-आकर्षक पुस्तकें, पत्रपत्रिकाएँ आदि-के अतिरिक्त उपयोगी एवं आकर्षक खिलौने प्रस्तुत करना; विकलांग, विकृतमस्तिष्क एवं अपराधी बच्चों के लिए पृथक् विद्यालयों की स्थापना; शिशुप्रदर्शनियों द्वारा बच्चों के स्वास्थ्य को प्रोत्साहन देना; तथा राज्य द्वारा शिक्षा का संपूर्ण भारवहन जिससे सभी बच्चों का समान अवसर मिले, भोजन, जलपान, आवास आदि नि:शुल्क प्राप्त हों एवं उनके शारीरिक या मानसिक विकास में धनाभाव के कारण कोई त्रुटि न रहने पाए।


बुनियादी शिक्षा

भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के समय गांधीजी ने सबसे पहले बुनियादी शिक्षा की कल्पना की थी। आज जिसे विश्वविद्यालय स्तर पर "फाउंडेशन कोर्स" कहा जाता है, उसकी पृष्ठभूमि में गांधी की बुनियादी यानी बेसिक शिक्षा ही तो थी। इस बुनियादी प्रशिक्षण और प्राथमिक स्तर की शिक्षा के दो स्तर थे- स्कूली बच्चे कक्षा-एक से ही तकली से सूत कातते थे; रूई से पौनी बनाते थे और सूत की गुड़िया बनाकर या तो खादी भंडारों को देते थे या बैठने के आसन, रुमाल, चादर आदि बनाते थे।

शिक्षा के बारे में गांधीजी का दृष्टिकोण वस्तुत: व्यावसायपरक था। उनका मत था कि भारत जैसे गरीब देश में शिक्षार्थियों को शिक्षा प्राप्त करने के साथ-साथ कुछ धनोपार्जन भी कर लेना चाहिए जिससे वे आत्मनिर्भर बन सकें। इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने ‘वर्धा शिक्षा योजना’ बनायी थी। शिक्षा को लाभदायक एवं अल्पव्ययी करने की दृष्टि से सन् १९३६ ई. में उन्होंने ‘भारतीय तालीम संघ’ की स्थापना की।


प्रारंभिक शिक्षा


छह वर्ष के पश्चात् ग्यारह या बारह वर्ष की शिक्षा को 'प्रारंभिक शिक्षा (प्राइमरी एजूकेशन या एलीमेंटरी एजुकेशन) या बालशिक्षा (चाइल्ड एजुकेशन) कहते हैं। संसार के सभी प्रगतिशील देशों में प्रारंभिक शिक्षा अनिवार्य है। अत: कहीं छह वर्ष के पश्चात् और कहीं सात वर्ष से प्रारंभिक विद्यालयों में शिक्षा आरंभ की जाती है जो प्राय: पाँच वर्षों तक चलती है। तत्पश्चात् बच्चे माध्यमिक शिक्षा में प्रविष्ट होते हैं। इसके पहले के शिक्षा के स्तर को शिशुशिक्षा कहते हैं।


 प्राथमिक शिक्षा से जुड़ी योजनायें

  • मध्याह्न भोजन योजना(मिड डे मील) -
इसमें प्राथमिक शिक्षा के अंतर्गत सरकार के मध्याह्न भोजन योजना की जानकारी दी गयी है।

  • महिला समाख्या कार्यक्रम- 
इस भाग में महिला समाख्या कार्यक्रम की जानकारी दी गई है।

  • पढ़े भारत बढ़े भारत 
इसमें प्रारंभिक कक्षाओं में समझ के साथ पढ़ना –लिखना और गणित कार्यक्रम के विषय में अधिक जानकारी दी गई है|

  • क्रमिक अधिगम पुस्तिकाएँ का कक्षाओं में उपयोग हेतु निर्देशक बिंदु -
इसमें बच्चों में आरंभिक शिक्षा की तैयारी हेतु कुछ उपयोगी दिशा- निर्देश दिए गए है।

  • सर्व शिक्षा अभियान -
सर्व शिक्षा अभियान जिला आधारित एक विशिष्ट विकेन्द्रित योजना है।



भारत सरकार प्राथमिक  शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए प्रयासरत है।

देश के विभिन्न राज्यों में सरकारें प्राथमिक शिक्षा में कई स्तरों पर गुणवत्ता के मसले को लेकर न केवल चिंतित हैं, बल्कि प्रयास कर रही हैं। मुख्यतौर पर बच्चों में भाषायी कौशलों मसलन सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना आदि को लेकर दिक्कतें आती हैं। इन कौशलों में भी पढ़ना और लिखना ऐसे कौशल हैं जिनमें बच्चे न केवल बिहार बल्कि अन्य राज्यों में भी पिछड़ रहे हैं। इसका प्रमाण समय समय पर असर और सरकारी दस्तावेज भी देते रहे हैं। हालिया एनसीईआरटी की ओर किए गए अध्ययन में पाया गया कि बच्चों में पढ़ने−लिखने और गणित की दक्षता में खासा परेशानी आती है। यह स्थिति आज से नहीं बल्कि पिछले एक दशक में ज़्यादा संज्ञान में आयी है। विभिन्न रिपोर्ट इस मसले पर अपनी चिंता प्रकट कर चुकी हैं। बिहार सरकार इन्हें गंभीरता से लेते हुए राज्य में प्राथमिक स्कूलों में गणित और भाषायी दक्षता खासकर पढ़ने और लिखने को कक्षा तीसरी और पांचवीं में सुधारने के लिए प्रयास कर रही है।

भारत में प्राथमिक शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए यह प्रयास निश्चित ही सराहनीय है। हालांकि भारत के सभी राज्यों में प्राथमिक स्तर पर बुनियादी कौशलों में बच्चे तय स्तर से नीचे पाए गए हैं। इन्हें कैसे दुरुस्त किया जाए इसके लिए भारत सरकार ने एक योजना का ऐलान किया है। इस योजना के तहत तमाम प्राथमिक स्कूलों में कक्षा तीसरी और पांचवीं के बच्चों में गणित के सामान्य सवालों को हल करने के कौशल पर काम किया जाएगा। साथ ही भाषायी कौशल विकास को लेकर समय समय पर सवाल उठते रहे हैं। इन्हें संज्ञान में लेते हुए भारत सरकार ने घोषणा की है कि प्राथमिक स्कूलों में इन्हीं कक्षाओं के बच्चों में पढ़ने और लिखने के कौशल विकास पर भी सघन कोशिश की जाएगी।

बच्चों में भाषायी कौशल और गणित के सामान्य सवालों को हल करने के कौशल प्रदान करने का प्रयास तो ठीक है किन्तु यह एक अन्य चिंता भी जगाती है कि क्या हमारे शिक्षक और अन्य संसाधन इस योजना को पूरा करने में सक्षम और समर्थ हैं? क्या हमारे पास इस योजना को सफल बनाने के लिए पूरी कार्य योजना और रणनीति तैयार है आदि। क्योंकि इससे पूर्व भी देश भर में इन बुनियादी कौशलों के विकास के लिए विभिन्न योजनाओं की शुरूआत की गई। इसका परिणाम अभी तक पर्याप्त नहीं माना जा सकता। इससे पूर्व देश भर में ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड, सर्व शिक्षा अभियान आदि की भी शुरूआत की गई। इन तमाम अभियानों में जो कमी देखी गई वह इनके कार्यान्वयन स्तर पर थी। ये योजनाएं अपने उद्देश्यों, लक्ष्यों में तो स्पष्ट थीं ही किन्तु इन्हें सही तरीके से रणनीति बनाकर एक्जीक्यूट नहीं किया गया। अब तक का सबसे बड़ा शैक्षिक संघर्ष शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 को बनने में तकरीबन सौ साल का वक़्त लगा। इसे 2010 में अप्रैल देश भर में लागू किया गया। लेकिन इसमें भी खामियां देखीं और निकाली गईं। क्या इस आरटीई में कोई कमी थी या फिर इसे जिस शिद्दत से स्वीकारा जाना चाहिए था या फिर एक्जीक्यूट करने में हमसे कोई चूक रह गई इसे भी समझना होगा। इस संदर्भ में हमें बिहार के इस प्रयास को देखने और समझने की आवश्यकता है।


माध्यमिक शिक्षा आयोग

भारत सरकार ने २३ सितम्बर १९५२ को डॉ॰ लक्ष्मणस्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में माध्यमिक शिक्षा आयोग की स्थापना की। उन्ही के नाम पर इसे मुदलियर आयोग कहा गया। आयोग ने पाठ्यचर्या में विविधता लाने, एक मध्यवर्ती स्तर जोड़ने, त्रिस्तरीय स्नातक पाठ्यक्रम शुरू करने इत्यादि की सिफारिश की।

माध्यमिक शिक्षा आयोग की संस्तुतियाँ-

(१) 4 या 5 वर्ष की प्राइमरी शिक्षा ,
(२) सेकण्डरी शिक्षा के दो भाग होना चाहिए।
(३) वस्तुनिष्ठ (MCQ) परीक्षण-पद्धति को अपनाया जाए।
(४) संख्यात्मक अंक देने के बजाय सांकेतिक अंक दिया जाए।
(५) उच्च तथा उच्चतर माध्यमिक स्तर की शिक्षा के पाठ्यक्रम में एक मूल विषय (core subject) रहे जो अनिवार्य रहे जैसे—गणित, सामान्य ज्ञान, कला, संगीत आदि।

आयोग की नियुक्ति के निम्नलिखित उद्देश्य थे....
1.भारत की तात्कालिन माध्यमिक शिक्षा की स्थिति का अध्ययन करके उस पर प्रकाश डालना।
2.माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य संगठन एवं विषयवस्तु।
3.विभिन्न प्रकार के माध्यमिक विद्यालयों का पारस्परिक संबंध।
4.माध्यमिक शिक्षि का प्राथमिक ,बेसिक तथा उच्च शिक्षा के संबंध में।
5.माध्यमिक शिक्षा से संबंधित अन्य समस्याएँ।



उत्तराखंड में प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था


उत्तराखंड में प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था : उत्तराखंड में नई शिक्षा व्यवस्था के तहत प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा को देखने के लिए ब्लॉक स्तर पर बेसिक शिक्षा अधिकारी (Basic Education Officer) एवं माध्यमिक शिक्षा अधिकारी (Secondary Education Officer) की व्यवस्था है। जिला स्तर (District Level) पर एक जिला शिक्षा अधिकारी (District Education Officer) और उसके अधीन अपर बेसिक शिक्षा अधिकारी (Basic Education Officer) और अपर माध्यमिक शिक्षा अधिकारी (Upper Secondary Education Officer) की व्यवस्था की गई है।


जबकि मंडल स्तर (Board Level) पर अपर शिक्षा निर्देशक (Additional Education Director) और राज्य स्तर (State level) पर शिक्षा निर्देशक (Education Director) की व्यवस्था है।


उत्तराखंड राज्य के उधम सिंह नगर (Udham Singh Nagar) में एक जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान (District Education and Training Institute) तथा रुद्रप्रयाग, बागेश्वर एवं चंपावत में 3 लघु जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थानों (Small District Education and Training Institutions) की स्थापना की गयी है। इसके अलावा एक राज्य शैक्षिक योजना एवं प्रशिक्षण संस्थान (Uttarakhand State Institute of Educational Management and Training) की स्थापना की गयी है।


सरकार द्वारा संचालित प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा कार्यक्रम व योजनायें


स्कूल चलो अभियान (School Chalo Abhiyan/School Chalo Campaign)

राज्य में 1 जुलाई 2001 से संचालित (Operated) इस अभियान का मुख्य उद्देश्य सभी को शिक्षा की और प्रोत्साहित करना है। इस अभियान का मुख्य लक्ष्य 6-14 वर्ष के बच्चों को शत प्रतिशत (100%) नामांकन (Nominations), बच्चों का विद्यालय में शत प्रतिशत ठहराव (100% Stoppage), बालिकाओं तथा ST/SC के लिए शिक्षा पर विशेष बल, जन समुदाय की भागीदारी तथा 2010 तक 1-8 तक की शिक्षा का सार्वजनीकरण करना था।


विशेष छात्रवृति योजना (Special Scholarship Scheme)

पूर्व सैनिकों (Ex-Servicemen) के बच्चों के लिए शुरू की गई यह योजना में हाईस्कूल तथा इंटर (High school and Intermediate) में 80% अंक पाने वाले बच्चों को क्रमशः 12,000 व 15,000 रुपए की वार्षिक छात्रवृत्ति (Annual Scholarship) देने की व्यवस्था है। स्नातक (Graduate) के लिए यह राशि 18,000 होगी ।


तेजस्वी छात्रवृत्ति योजना (Stunning Scholarship Scheme)

BPL परिवारों (गरीबी रेखा से निचे जीवन यापन करने वाले) की बालिकाओं के लिए यह योजना चलाई जा रही है। कक्षा 9 में प्रवेश लेने पर ₹ 1,000 व 10 में प्रवेश करने पर ₹ 2, 000 की राशी दी जाएगी।


शिक्षा आचार्य योजना (Shiksha Aacharya Scheme)

राज्य सरकार द्वारा चलाई जा रही इस योजना का उद्देश्य राज्य के सभी बच्चों को आधारभूत शिक्षा (Basic education) प्रदान करना है। इसके अंतर्गत कक्षा 1-5 तक के बच्चों को नि:शुल्क पुस्तकें (Free Books) दी जाती है।


दिव्यांग (विकलांग) विद्यालय (Disabled Schools)

विकलांगों (Disabled) को आत्मनिर्भर (Self
Dependent) बनाने हेतु समाज के मुख्यधारा (mainstream) से जोडने के लिए राज्य में 13 विकलांग विद्यालयों की स्थापना की गई है। जहां उन्हें व्यावसायिक प्रशिक्षण (Vocational Training) दिया जाता है।


काल्प (CALP)

कंप्यूटर की और कंप्यूटर से शिक्षा देने हेतु, कंप्यूटर एडेड लर्निंग कार्यक्रम (Computer Aided Learning Programs) संचालित है।


ई-क्लास योजना (E-Class Scheme)

इसके तहत राज्य में कक्षा 9 से 12 तक के विद्यार्थियों को विज्ञान (Science) एवं गणित (Maths) की पढ़ाई मल्टीमीडिया (Multimedia) CD द्वारा दी जाने की व्यवस्था है।


कंप्यूटर शिक्षा (Computer Education)

राज्य के समस्त उच्च विद्यालयों एवं माध्यमिक विद्यालयों में अनिवार्य कंप्यूटर शिक्षा (Compulsory Computer Education) उपलब्ध कराने के उद्देश्य से यह योजना चलाई जा रही है। छात्रों की संख्या के आधार पर प्रति विद्यालय  में 3 से 8 तक कंप्यूटर उपलब्ध कराए जाते है।


प्रोजेक्ट शिक्षा (Project Education)

माइक्रोसॉफ्ट कॉरपोरेशन (Microsoft Corporation) के सहयोग से राज्य में शुरू की गई, इस शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थियों एवं शिक्षकों (Students and Teachers) को कंप्यूटर साक्षर बनाना है। इसका मुख्यालय देहरादून में है।


आरोही परियोजना (Aarohi Project)

यह परियोजना अध्यापकों तथा विद्यार्थियों को कंप्यूटर में प्रशिक्षण देने के लिए मई 2002 में शुरू की गई। इस कार्यक्रम में माइक्रोसॉफ्ट और इंटेल (Microsoft and Intel) से सहयोग लिया जा रहा है।


राजीव गांधी नवोदय विद्यालय (Rajiv Gandhi Navodaya School)

राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों (Rural Areas) के प्रतिभाशाली बच्चों (Brilliant Students) को उत्कृष्ट आवासीय शिक्षा (Outstanding Residential Education) को नि:शुल्क उपलब्ध कराने के लिए 8 जनपदों में राज्य सरकार द्वारा अपने संसाधनों से राजीव गांधी नवोदय विद्यालय की स्थापना की गई है। जिसमें 75% स्थान ग्रामीण क्षेत्र के विद्यार्थियों के लिए तथा 50% स्थान बालिकाओं के लिए आरक्षित है।


श्यामा प्रसाद मुखर्जी अभिनव विद्यालय (Shyama Prasad Mukherjee Innovative School)

राजीव गांधी नवोदय विद्यालय (Rajiv Gandhi Navodya School) की तरह यह विद्यालय भी पूर्णत: राज्य सरकार द्वारा वित्त पोषित (Funded) और उसी तरह नि:शुल्क आवासीय है। वर्तमान में राज्य के 5 जिलो में ऐसे विद्यालय है।


शिक्षा बंधु (मित्र) योजना (Shiksha Bandhu Yojna or Education Brothers (Friends) Scheme)

ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों में शिक्षकों की कमी को दूर करने तथा शिक्षितों को रोजगार (Employment) देने के उद्देश्य से ग्राम शिक्षा समिति (Village Education Committee) के द्वारा प्राथमिक स्कूलों (Elementary Schools) में मानदेय वेतन (Salary) पर शिक्षा मित्र नियुक्त करने संबंधी योजना चलाई जा रही है।


मिड-डे मील योजना (Mid-Day Meal Scheme)

प्राथमिक शिक्षा (Primary education) में शत-प्रतिशत नामांकन (100% Enrolment), ठहराव और लिंग भेद (Gender Differences) को समाप्त करने के लिए मिड-डे मील योजना संचालित की जा रही है। इस योजना के अंतर्गत सभी सरकारी एवं सरकारी सहायता से चल रहे स्कूलों में पहली से आठवीं तक के बच्चों को प्रतिदिन नि:शुल्क दोपहर का खाना (Lunch) दिया जाता है।

कस्तूरबा गांधी आवास विकास विद्यालय योजना (Kasturba Gandhi Housing Development School Scheme)

ST/SC शिक्षा में पिछड़े हुए राज्य के 12 जिलों में कस्तूरबा गांधी विद्यालयों की स्थापना की गयी है। केंद्र सरकार (Central Government) द्वारा घोषित इन विद्यालयों में ST/SC छात्राओं को नि:शुल्क आवास सहित शिक्षा दी जाती
है।


देवभूमि मुस्कान योजना (Dev Bhoomi Smile Scheme)


2009 में शुरू की गई यह योजना समाज के वंचित वर्ग (Deprived Class) के छात्रों को उत्कृष्ट शिक्षा (Excellent Education) दिलाने के लिए शुरू की गई है। इस योजना के तहत नि:शुल्क शिक्षा दी जाती है। खनन कार्य (Mining Operations) से जुड़े लोगों के बच्चों को भी इस योजना में सम्मिलित किया गया है। इस के लिए राज्य में कुल 41 शिक्षा केंद्र चिन्हित है।


आदर्श स्कूल (Ideal School)

प्रत्येक जिले में एक इंटर कॉलेज व प्रत्येक ब्लॉक में एक जूनियर हाईस्कूल को आदर्श स्कूल के रूप में विकसित किया जा रहा है।




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Tuesday, May 14, 2019

विशेष आवश्यकता वाले छात्रों की पहचान करना

 विशेष आवश्यकता वाले छात्रों की पहचान

सामान्य रूप से कार्य करने के लिए छः क्षेत्र निर्णायक हैं।

 ये हैं - दृष्टि, श्रवण शक्ति, गतिशीलता, सम्प्रेषण, सामाजिक-भावनात्मक सम्बन्ध, बुद्धिमत्ता। इसके अतिरिक्त आर्थिक रूप से सुविधावंचित बच्चे भी विशेष हैं क्योंकि गरीबी के कारण वे जीवन के कई अनुभवों से वंचित रह जाते हैं। वे स्कूल नहीं जा स कते क्योंकि उन्हें बचपन से ही काम शुरू करना पड़ता है, ताकि वे परिवार की आय बढ़ा सकें। लड़कियों को अक्सर घर पर ही रोक लिया जाता है ताकि वे छोटे भाई-बहनों (बच्चों) का ध्यान रख सकें और घर के कामकाज कर सकें।

कोई बच्चा अथवा व्यक्ति जो इन क्षेत्रों में से एक या उससे अधिक क्षेत्रों में कोई कठिनाई महसूस करता है, वह विशिष्ट बच्चा/व्यक्ति कहलाता है। उपरोक्त में से किसी एक क्षेत्र में भी कठिनाई व्यक्ति के लिए बाधा उत्पन्न कर सकती है और व्यक्ति को इस असमर्थता से निपटने के लिए अतिरिक्त प्रयास की आवश्यकता होती है।


प्रावधान के तरीके

स्कूलों के छात्रों को विशेष शिक्षा सेवाएं प्रदान करने के लिए अलग अलग दृष्टिकोण का उपयोग करें। इन तरीकों को मोटे तौर पर विशेष जरूरतों के साथ छात्र (उत्तरी अमेरिकी शब्दावली का प्रयोग) गैर विकलांग छात्रों के साथ है कितना संपर्क के अनुसार, चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है:

समावेशन: इस दृष्टिकोण में, विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों के लिए विशेष जरूरतों के लिए नहीं है, जो छात्रों के साथ स्कूल के दिन की सबसे सभी खर्च करते हैं, या। शामिल किए जाने के सामान्य पाठ्यक्रम की पर्याप्त संशोधन की आवश्यकता सकता है, क्योंकि ज्यादातर स्कूलों में एक सबसे अच्छा अभ्यास के रूप में स्वीकार किया जाता है, जो विशेष जरूरतों, उदारवादी हल्के के साथ चयनित छात्रों के लिए ही इस्तेमाल करते हैं। विशेष सेवाओं के अंदर या नियमित रूप से बाहर प्रदान किया जा सकता है कक्षा, सेवा के प्रकार पर निर्भर करता है। छात्र कभी-कभी एक संसाधन कक्ष में छोटे, अधिक गहन शिक्षण सत्र में भाग लेने के लिए नियमित रूप से कक्षा छोड़ सकते हैं, या विशेष उपकरण की आवश्यकता हो सकती है या भाषण और भाषा चिकित्सा, व्यावसायिक रूप में, कक्षा के बाकी के लिए विघटनकारी ऐसे हो सकता है कि अन्य संबंधित सेवाओं को प्राप्त करने के लिए चिकित्सा, भौतिक चिकित्सा, पुनर्वास परामर्श। उन्होंने यह भी इस तरह के एक सामाजिक कार्यकर्ता के साथ सत्र परामर्श के रूप में गोपनीयता की आवश्यकता है कि सेवाओं के लिए नियमित रूप से कक्षा छोड़ सकता है।

मुख्य धारा के लिए अपने कौशल के आधार पर विशिष्ट समय अवधि के दौरान गैर विकलांग छात्रों के साथ कक्षाओं में विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों को शिक्षित करने की प्रथा है। विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों को विशेष रूप से स्कूल के दिन के आराम के लिए विशेष जरूरतों के साथ छात्रों के लिए अलग-अलग वर्गों में अलग कर रहे हैं। एक अलग कक्षा या विशेष जरूरतों के साथ छात्रों के लिए विशेष स्कूल में अलगाव: इस मॉडल में, विशेष आवश्यकता वाले विद्यार्थियों गैर विकलांग छात्रों के साथ कक्षाओं में भाग लेने नहीं है। अलग-अलग छात्रों नियमित रूप से कक्षाओं प्रदान की जाती हैं, जहां एक ही स्कूल में भाग लेने, लेकिन विशेष जरूरतों के साथ छात्रों के लिए एक अलग कक्षा में विशेष रूप से सभी शिक्षण समय खर्च कर सकते हैं। उनके विशेष वर्ग के एक साधारण स्कूल में स्थित है, तो वे इस तरह के गैर विकलांग छात्रों के साथ भोजन खाने से, के रूप में कक्षा के बाहर सामाजिक एकीकरण के लिए अवसर प्रदान किया जा सकता है।

वैकल्पिक रूप से, इन छात्रों को एक विशेष स्कूल में भाग लेने सकता है। बहिष्करण: किसी भी स्कूल में शिक्षा प्राप्त नहीं है जो एक छात्र को स्कूल से बाहर रखा गया है। अतीत में, विशेष जरूरतों के साथ सबसे अधिक छात्रों को स्कूल से बाहर रखा गया है। इस तरह के बहिष्कार अभी भी विशेष रूप से विकासशील देशों के गरीब, ग्रामीण क्षेत्रों में, दुनिया भर में लगभग 23 लाख विकलांग बच्चों को प्रभावित करता है। एक छात्र है जब यह भी हो सकती है अस्पताल में, या आपराधिक न्याय प्रणाली द्वारा हिरासत में ले लिया। इन छात्रों पर एक-एक निर्देश या समूह शिक्षा प्राप्त हो सकता है। निलंबित या निष्कासित कर दिया गया है, जो छात्रों को इस अर्थ में बाहर रखा नहीं माना जाता है।

 सर्व शिक्षा अभियान ने एक साहसिक कदम उठाया, जब उन्होंने अपनी समावेशी शिक्षा परियोजना के तहत 40 से अधिक स्कूलों में विकलांगों के 2,000 से अधिक बच्चों को नामांकित किया, जिसमें विकलांग छात्रों को अन्य छात्रों के साथ एक ही कक्षा में शामिल किया गया। अलग-अलग बच्चों को, जिन्हें अभी भी 'विकलांग' के रूप में माना जाता है कि निर्विवाद रूप से समाज में, उनकी शैक्षिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक जरूरतें विशिष्ट होती हैं।

साथ ही, पूरे भारत में मुख्यधारा के निजी स्कूलों के लिए 'समावेश' बनाना अनिवार्य है, विशेष जरूरतों वाले बच्चों को शिक्षित करने के बारे में जागरूकता स्पष्ट वृद्धि पर है, जिससे भारत में विशेष शिक्षकों की प्राकृतिक मांग बढ़ रही है।

वास्तविकता की जांच

विद्यालयों में स्वीकृत समावेश खोजने के लिए, विशेष रूप से उन बच्चों के साथ माता-पिता के लिए यह एक चुनौती है, जिनकी विशेष आवश्यकताएं हैं। एक विशेष शिक्षक के रूप में सामना की जाने वाली चुनौतियों के बारे में, सर्व शिक्षा अभियान और शिक्षा के अधिकार (मानव संसाधन विकास मंत्रालय के तहत एक कार्यक्रम) के लिए समावेशी शिक्षा के राष्ट्रीय स्तर के एक मुख्य सलाहकार डॉ. अनुप्रिया चढ्ढा ने मीडिया के साथ साझा किया। वे अभी भी एक धारणा पर काम करते हैं कि नियमित स्कूल केवल कुछ प्रकार के बच्चों के लिए हैं। इसके अलावा, इस श्रेणी के छात्रों को संभालने के लिए स्कूलों में आधारभूत संरचना या सुविधाएं नहीं हैं। हालांकि चीजें सुधार पक्ष पर हैं।"

2015 में, अलग-अलग बच्चों के संघर्ष को देखते हुए केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने सभी संबद्ध स्कूलों के लिए एक विशेष शिक्षक नियुक्त करने के लिए अनिवार्य किया था, ताकि सीखने की अक्षमता वाले बच्चों को अन्य छात्रों के साथ स्वीकृति मिल सके। स्कूलों में "समावेशी प्रथाओं" के केंद्रीय बोर्ड के अलावा, शिक्षा के अधिकार अधिनियम के सख्त दिशानिर्देशों के कारण भी इस निर्देश की आवश्यकता है।

शिक्षक की डिमांड

निर्विवाद रूप से, विशेष शिक्षकों की मांग है। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु सरकार देश में शिक्षक शिक्षा के सभी कॉलेजों के पाठ्यक्रम में विशेष शिक्षा के कुछ घटक शामिल करने के पक्ष में है। यह इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि भारत और अन्य देशों में विशेष शिक्षकों के लिए बहुत सारे अवसर हैं। वर्तमान में, विशेष शिक्षा में बीएड या एमएड की डिग्री रखने वाले परामर्शदाता के रूप में रोजगार की तलाश भी कर सकते हैं।

भारत में व्यावसायिक रूप से प्रशिक्षित विशेष शिक्षकों की तत्काल आवश्यकता पर बोलते हुए, दिल्ली पब्लिक स्कूल के प्रिंसिपल हेक्टर रविंदर दत्त, रोहक और एसोसिएशन ऑफ स्पेशल एजुकेटर एंड अलायड प्रोफेशनल के संस्थापक ने शेयर किया कि, "2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में अक्षमता वाले 2.70 करोड़ से अधिक लोग रहते हैं। इस आकार की आबादी के लिए, भारत को अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए न्यूनतम 15 लाख विशेष शिक्षकों की जरूरत है। साथ ही, हमें आवश्यक कौशल, ज्ञान और पेशेवर नैतिकता को लागू करके उन्हें नियोजित करने के लिए उनके प्रशिक्षण के लिए एक ठोस नीति की आवश्यकता है।"

आगे के रास्ते

आंकड़ों से पता चलता है कि 2016 से, भारत में 25 लाख से अधिक स्कूल के छात्रों की पहचान विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों के रूप में की गई है, जिन्हें ध्यान देने की जरूरत है। हालांकि, अफसोस की बात है कि संबंधित अधिकारी ऐसे छात्रों की जरूरतों को पूरा करने के लिए विभिन्न स्कूलों में विशेष शिक्षकों के लिए एक पद बनाने में नाकाम रहे हैं।

समावेशन को अभी भी मुख्यधारा के प्रधानाचार्यों और प्रशासकों में जाने के लिए बहुत सारी शिक्षा की जरूरत है, जो इस तथ्य को स्वीकार करने से इंकार कर रहे हैं कि वर्तमान में भारत को शारीरिक रूप से विकलांगता या सीखने की अक्षमता के साथ पैदा हुए 5 में से एक बच्चे होने की सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।


शिक्षा की गुणवत्‍ता के लिये विशेष पहल की जरूरत.

शिक्षक समाज की सर्वाधिक संवदेनशील इकाई है. शिक्षक अपना काम ठीक तरह से नहीं करते- यह आरोप तो सर्वत्र लगाया जाता है. लेकिन यह विचार कोई नहीं करता कि उसे पढ़ाने क्यों नहीं दिया जाता? आए दिन गैर-शैक्षिक कार्यों में इस्तेमाल करता प्रशासन, शिक्षकों की शैक्षिक सोच को, शैक्षिक कार्यक्रमों को पूरी तरह ध्वस्त कर देता है. बच्चों को पढ़ाना-सिखाना सरल नहीं होता और न ही बच्चे फाईल होते हैं. प्रशासनिक कार्यालय और अधिकारीगण शिक्षा और शिक्षकों की लगातार उपेक्षा करते हैं. उन्हें काम भी नहीं करने देते. इसी कारण स्कूली शिक्षा में अपेक्षित सुधार सम्भव नहीं हो पा रहा है.


शिक्षा में सुधार के लिए क्या करें

स्कूली शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए हमें स्कूलों के बारे में अपनी परम्परागत राय को बदलना होगा. अभी स्कूलों को कार्यालय समझकर, शिक्षकों को प्रतिदिन अनेक प्रकार की डाक बनाने और आँकड़े देने के लिए मजबूर किया जाता है. इससे बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान होता रहता है. बच्चे अपने शिक्षकों से सतत् जुड़े रहना चाहते हैं, विशेषकर प्राथमिक स्तर पर. अत: स्कूलों को कार्यालयीन कामकाज से वास्तव में मुक्त कर प्रभावी शिक्षण संस्थान बनाया जाना चाहिए.
डाक कार्य के लिए अलग से डाक सहायक की सुविधा दी जाए, और हर स्कूल में एक टीचर स्पेशल एजुकेटर की सुविधा दी जाए ताकि समस्त बच्चो के साथ-साथ विशेष बच्चो को भी सुविधा मिले।

अभी अधिकांश स्कूल अन्य सरकारी कार्यालयों की तर्ज पर 9 से 4 की अवधि में ही खुलते हैं. इस कारण से रोजगार में जुटे परिवारों के बच्चों के लिए वे अनुपयोगी सिद्ध हो रहे हैं. स्कूल की समयावधि सरकारी नियंत्रण में होने के कारण बच्चों की उपस्थिति और सीखने का समय कमतर होता जा रहा है. स्कूली उम्र पार कर चुके किशोरों, युवाओं, महिलाओं और कामकाजी लोगों के लिए स्कूल के दरवाजे एक तरह से बन्द ही हैं. विद्यालय समाज की लघुतम इकाई के रूप में "सामाजिक शिक्षण केन्द्र" के रूप में कार्य कर सकते हैं. इस परिकल्पना को साकार करने की दिशा में पहल किए जाने का दायित्व स्थानीय " शिक्षक संघ" पूरा कर सकते हैं. अगर समाज की जरूरत के चलते चिकित्सालय और थाने दिन-रात खुले रह सकते हैं, तो यह भी उतना ही आवश्यक है कि विद्यालय कम-से-कम 10-12 घण्टे जरूर खुलें। और टीचरों कि सिप्ट वाइज सुविधा दी जाए।


शिक्षक-छात्र अनुपात ठीक हो

शैक्षणिक सुधार में शिक्षकों की भूमिका महत्वपूर्ण है. पाठयपुस्तकों और पाठयक्रम के अनुरूप प्रभावी शिक्षण, शिक्षकों की योग्यता, सक्रियता और पढ़ाने के कौशल पर निर्भर है. एक शिक्षक, एक साथ कितनी कक्षाओं के कितने बच्चों को भली-भाँति पढ़ा सकेगा, इस बारे में गम्भीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है.

आदर्श रूप में एक शिक्षक अधिकतम 20 बच्चों को ही ठीक प्रकार पढ़ा सकता है. वह भी तब, जब वे भी एक समान स्तर के हों. अभी व्यवस्था यह है कि एक शिक्षक 40 बच्चों को (और वे भी अलग-अलग स्तरों के हैं) पढ़ाएगा. अनेक स्कूलों में तो 70-80 से भी अधिक बच्चों को पढ़ाना पड़ रहा है. ऐसे में शिक्षक मात्र बच्चों को घेरकर ही रख पाते हैं पढ़ाई तो सम्भव ही नहीं. शिक्षक बच्चों को पढ़ा भी पाएँ, इस हेतु शिक्षक-छात्र अनुपात को व्यवहारिक बनाना होगा.


प्रशिक्षण, शिक्षण और परीक्षण

स्कूली शिक्षा में सुधार के लिए शिक्षण विधियों, प्रशिक्षण और परीक्षण की विधियों में भी सुधार करने की जरूरत है. अभी शिक्षण की विधियाँ राज्य स्तर से तय की जाती हैं. कक्षागत शिक्षण कौशलों को या तो नकार दिया जाता है या उन्हें परिस्थितिजन्य मान लिया जाता है.

अच्छे प्रशिक्षण के लिए प्रशिक्षण का दायित्व कर्तव्यनिष्ठ, योग्य और क्षमतावान प्रशिक्षकों को सौंपा जाना चाहिए. शिक्षकों के प्रशिक्षण को प्रभावी बनाने, शिक्षण में नवाचारी पध्दतियाँ विकसित करने सहित परीक्षण (मूल्यांकन) की व्यापक प्रविधियाँ तय कर उन्हें व्यवहारिक स्वरूप में लागू करने की दिशा में कारगर कदम उठाने की दृष्टि से यह आवश्यक है कि हर प्रदेश में एक "शैक्षिक संदर्भ एवं स्त्रोत केन्द्र" विकसित किया जाए.


शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार मूलक परियोजनाएँ

शिक्षा के क्षेत्र में अनेक संस्थाएँ कार्यरत हैं. रोजगार और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए भी शासकीय स्तर पर परियोजनाएँ और कार्यक्रम लागू किए गए हैं. मानव विकास के बुनियादी सूचकांक होते हुए भी इनमें तालमेल न होने के कारण इनकी गति अपेक्षित नहीं है. धन की गरीबी से ज्ञान की गरीबी का विशेष सम्बंध है. ग्रामीण दूरस्थ अँचलों में ज्ञान की गरीबी पसरी हुई है. जानकारी के अभाव में वे संसाधनों का उपयोग नहीं कर पाते. अनेक परियोजनाओं के बावजूद उनकी प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक चिकित्सा और बुनियादी रोजगार की प्रक्रियाएँ बाधित होती हैं. अब समय आ गया है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए लागू परियोजनाओं को समेकित ढ़ंग से किसी सुनिश्चित क्षेत्र में लागू कर परिणामों की समीक्षा की जाए. अच्छे परिणाम आने पर उन्हें पूरे देश भर में लागू किया जाए. इस प्रकार हम अपने संसाधनों और मानवीय क्षमताओं का बेहतर उपयोग कर सकेंगे जिससे शिक्षा के गुणात्मक विकास की संभावनाएँ बढ़ेंगीं.


पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें

अभी वास्तव में यह ठीक प्रकार तय ही नहीं है कि किस आयु वर्ग के बच्चों को कितना सिखाया जा सकता है और सिखाने के लिए न्यूनतम कितने साधनों और सुविधाओं की आवश्यकता होगी. नई शिक्षा नीति 1986 लागू होने के बाद न्यूनतम अधिगम स्तरों को आधार मानकर पाठ्यपुस्तकें और पाठ्यक्रम तो लगातार बदले गए हैं, लेकिन उनके अनुरूप सुविधाओं और साधनों की पूर्ति ठीक से नहीं की गई है. यह सोच भी बेहद खतरनाक है कि पाठ्यपुस्तकों के जरिए हम भाषायी एवं गणितीय कौशलों और पर्यावरणीय ज्ञान को ठीक प्रकार विकसित कर सकते हैं. यथार्थ में पाठ्यपुस्तकें पढ़ाई का एक छोटा साधन मात्र होती हैं साध्य नहीं. कक्षाओं पर केन्द्रित पाठयपुस्तकों और पाठ्यक्रम को श्रेणीबध्द रूप में निर्धारित करना भी खतरनाक है. बच्चों की सीखने की क्षमता पर उनके पारिवारिक और सामाजिक वातावरण का भी विशेष प्रभाव पड़ता है, अत: सभी क्षेत्रों में एक समान पाठ्यक्रम और एक जैसी पाठ्यपुस्तकें लागू करना बच्चों के साथ नाइन्साफी है.


 शैक्षिक उद्देश्य

स्कूली शिक्षा में सुधार के लिए हमें वर्तमान शैक्षिक उद्देश्यों को भी पुनरीक्षित करना होगा. शिक्षा, महज परीक्षा पास करने या नौकरी/रोजगार पाने का साधन नहीं है. शिक्षा विद्यार्थियों के व्यक्तित्व विकास, अन्तर्निहित क्षमताओं के विकास करने और स्वथ्य जीवन निर्माण के लिए भी जरूरी है. शिक्षा प्रत्येक बच्चे को श्रेष्ठ इंसान बनने की ओर प्रवृत्त करे, तभी वह सार्थक सिध्द हो सकती है. कहा भी गया है "सा विद्या या विमुक्तये". अभी पढ़े-लिखे और गैर पढ़े-लिखे व्यक्ति के आचरण और चरित्र में कोई खास अन्तर दिखाई नहीं देता. उल्टे पढ़-लिख लेने के बाद तो व्यक्ति श्रम से जी चुराने लगता है और अनेक प्रकार के दुराचरणों में लिप्त हो जाता है. यह स्थिति एक तरह से हमारी वर्तमान शैक्षिक पध्दति की असफलता सिध्द करती है. अतः यह जरूरी है कि शिक्षा के उद्देश्यों को सामयिक रूप से परिभाषित कर पुनरीक्षित किया जाए.


शिक्षकों को "शिक्षक" के रूप में अवसर मिले

समान कार्य के लिए समान कार्य परिस्थितियाँ और समान वेतन की अनुशंसा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में और मानव अधिकार घोषणा पत्र के अनुच्छेद 21, 22, और 23 में वर्णित होते हुए भी नाना नामधारी शिक्षक मौजूद हैं. एक ही विद्यालय में अनेक प्रकार के शिक्षकों के पदस्थ रहते सभी के मन में घोषित-अघोषित तनावों के कारण पढ़ाई में व्यवधान हो रहा है. इस परिस्थिति को गम्भीरता से समझे बगैर और परिस्थितियों में सुधार किए बगैर भला शिक्षण में सुधार कैसे होगा? शासन को सभी शिक्षण संस्थाओं में कार्यरत शिक्षकों के लिए एक समान कार्यनीति, समान पदनाम, समान वेतनमान देने की नीति तय कर एक निश्चित कार्यावधि के बाद पदोन्नति देने का भी ऐलान करना चाहिए.


श्रेष्ठतम शैक्षिक कार्यकर्ता

शैक्षिक परिवर्तन के लिए शिक्षकों का मनोबल बनाए रखने और उत्साहपूर्वक कार्य करने की इच्छाशक्ति पैदा करने के लिए संगठित प्रयास करने होंगे. अभी शिक्षा व्यवस्था में बालकों और पालकों की भागीदारी न्यूनतम है, इसलिए सभी शैक्षिक कार्यक्रम सफल नहीं हो पाते हैं. स्कूलों में भी जिस प्रकार समर्पित स्वयंसेवकों की आवश्यकता है, वे नहीं हैं. अत: यह आवश्यक है कि श्रेष्ठतम शैक्षिक कार्यकर्ताओं की नियुक्ति की जानी चाहिए.

शिक्षकों का मनोबल बढ़ाया जाए

समूची दुनिया के सभी विकसित और विकासशील देशों में प्राथमिक शालाओं के शिक्षकों को आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक और प्रशासनिक दृष्टि से श्रेष्ठ माना जाता है. साथ ही ऐसी शिक्षा नीति बनाई जाती है जिसमें उनका मनोबल सदैव ऊँचा बना रहे. जब तक अनुभव जन्य ज्ञान, और कौशलों को महत्व नहीं दिया जाएगा तब तक "बालकेन्द्रित शिक्षण" की प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकती है. बाल केन्द्रित शिक्षण के लिए कार्यरत शिक्षकों की दक्षता और मनोबल बढ़ाए जाने की आवश्यकता है.

 यह आवश्यक है कि शिक्षकों को उनके व्यक्तित्व विकास की प्रक्रियाओं सहित ऐसे प्रशिक्षण संस्थानों में भेजा जाए जहाँ उन्हें अपने अन्दर झाँकने कुछ बेहतर कर गुजरने की प्रेरणा मिल सके. इस प्रशिक्षण उपरान्त उन्हें कार्यरत स्थलों पर "ऑन द जॉब सपोर्ट" के रूप में ऐसे सहयोगी दिए जाएँ जो उनकी वास्तविक मदद करें. किसी ऐसी संस्था को इस दिशा में काम करने की जरूरत है जो सामाजिक बदलाव के लिए व्यापक दूरदृष्टि और दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ काम करने के लिए सहमत हो और उसके पास स्वयं के संसाधन भी उपलब्ध हों.

आज जरूरत इस बात की है कि किसी प्रकार पढ़ने-लिखने की प्रक्रिया में परिवर्तन लाने के लिए विद्यालय प्रशासन, शिक्षकों और शैक्षिक कार्यक्रमों में तालमेल बनाया जाए. समुदाय की शैक्षिक आवश्यकताओं को पहचान कर उनकी जरूरतों के अनुरूप निर्णय लेते हुए ऐसा वातावरण बनाने की आवश्यकता है जिसमें व्यवसायिक योग्यता में वृध्दि सुनिश्चित हो. शिक्षा के प्रशासन एवं प्रबन्धन में उत्तरदायी भूमिका निभाने वाले संस्था प्रधानों की नियुक्ति और प्रशिक्षण हेतु शिक्षा विभाग एवं शिक्षा के क्षेत्र में कार्य कर रहे अन्य संगठनों को शीघ्र कारगर कदम उठाना चाहिए. संस्था प्रधानों की भूमिका को सशक्त बनाए बगैर शिक्षा में सुधार की सम्भावनाएँ अत्यन्त क्षीण रहेंगी.

 प्रशासनिक एवं प्रबन्धकीय व्यवस्थागत सुधार

शिक्षा प्रशासन की यह नियति बन गई है कि इसमें उच्च शिक्षा स्तर पर भी स्थायित्व नहीं है. राष्ट्रीय स्तर पर लागू राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 और कार्ययोजना 1992 में स्वीकृत अखिल भारतीय शिक्षा सेवा की स्थापना आज तक नहीं हो पाई है. लगभग हर स्तर पर निर्णायक पदों पर नियुक्त प्रशासनिक सेवा के अधिकारी शिक्षा क्षेत्र में आ रही गिरावट और असफलता के लिए उत्तरदायी नहीं माने जाते. हाँ, किसी छोटी-सी सफलता का श्रेय अवश्य हासिल करते नजर आते हैं. शिक्षा में सुधार के लिए कार्यरत शिक्षकों को समर्थन देने की दृष्टि से यह अत्यंत आवश्यक है कि शिक्षा के प्रबन्धन और प्रशासन को सुधारा जाए. म.प्र. शासन द्वारा वर्ष 2003 में गठित "स्पेशल टास्क फोर्स" की अनुशंसाओं को लागू किए जाने की भी आज महती आवश्यकता है जो एक दस्तावेज में सिमट कर रह गई हैं. म.प्र. देशभर में सर्वप्रथम जन शिक्षा अधिनियम तैयार कर लागू करने वाले प्रदेश के रूप में है. क्रियान्वयन के स्तर पर जरूर अनेक कार्य अभी शेष हैं जिसमें प्रमुख कार्य सभी स्तरों पर कार्यरत शिक्षा केन्द्रों के संचालन हेतु मैनुअल (संचालन मार्गदर्शिकाओं) का सृजन और उन्हें लागू करना है, ताकि कार्यरत स्टाफ बेहतर प्रदर्शन कर सके. प्रदेश के सभी जनशिक्षा केन्द्रों को प्रबन्धन और प्रशासन के प्रति उत्तरदायी भूमिका सौंपते हुए जनशिक्षा केन्द्र प्रभारी को आहरण वितरण अधिकार दिए जाने चाहिए. यह अत्यंत आवश्यक है कि समग्रत: शिक्षा व्यवस्था को नियंत्रित किए जाने हेतु राज्य की शिक्षा नीति तैयार की जानी चाहिए. कार्यरत शिक्षकों की दक्षता का सम्मान और उनकी कार्यदक्षता का उपयोग किए जाने की दृष्टि से विभागीय दक्षता परीक्षा का आयोजन कर सभी को प्रन्नोत किया जाना चाहिए. अंतत: शैक्षिक सुधार के लिए अब हमें विचार करने की बजाय कर्तव्य की ओर बढना होगा।

आज शिक्षा के क्षेत्र में वास्तविक सुधार की दृष्टि से शीघ्र सार्थक कदम उठाते हुए हमें ऐसी शिक्षण पध्दति और कार्यक्रम विकसित करने होंगे जो बच्चों के मन में श्रम के प्रति निष्ठा पैदा करें समग्रत: एक ऐसा प्रभावी शैक्षिक कार्यक्रम बनाना होगा जिसमें-

पाठ्यक्रम लचीला और गतिविधि आधारित हो, साथ ही बच्चों की ग्रहण क्षमता के अनुरूप भी. कक्षागत पाठ्य योजनाएँ, स्वयं शिक्षकों द्वारा तैयार की जाएँ और उन्हें पूरा किया जाए. राज्य की शिक्षा नीति निर्धारण में शिक्षाविदों और कार्यरत शिक्षकों को वास्तव में सहभागी बना कर सभी के विचारों को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाए. जन भागीदारी समितियाँ (पालक शिक्षक संघ) प्रबन्धन का दायित्व स्वीकारें - शैक्षिक प्रशासन तंत्र भी शालाओं में अनावश्यक हस्तक्षेप न करें. शिक्षण का अधिकार शिक्षकों को वास्तव में सौंपा जाए. शिक्षण विधियों में परिवर्तन करने का अधिकार शिक्षकों को हो, प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं. कक्षाओं में शिक्षक-छात्र अनुपात ठीक किया जाए, साथ ही पर्याप्त मात्रा में शैक्षिक सामग्री की पूर्ति और शिक्षकों की भर्ती की जाए. पाठ्यपुस्तकों की रचना स्थापित रचनाकारों की बजाय शिक्षकों और शिक्षा विशेषज्ञों के माध्यम से की जानी चाहिए, जो शैक्षिक दृष्टि से उपयुक्त हो. शैक्षिक सुधारों को लागू करने में संस्था प्रधानों और शिक्षकों की भूमिका को महत्वपूर्ण माना जाए।शिक्षकों के सहयोग हेतु "राज्य शिक्षक सन्दर्भ और स्त्रोत केन्द्र" स्थापित किए जाएँ. विद्यालयों को शिक्षण के लिए उत्तरदायी बनाया जाए.



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