Tuesday, March 26, 2019

बौनेपन के कारण - Dwarfism Causes

बौनेपन के कारण - Dwarfism Causes

बौनेपन के अधिकतर केस आनुवंशिक विकार के कारण होते हैं, लेकिन इससे जुड़े कुछ विकारों के कारण अज्ञात हैं। बौनेपन की अधिकांश घटनाएं जीन में हुई समस्या से होती हैं जैसे जीन की संरचनाओं में कमी आ जाना।

1. एकोंड्रॉप्लासिया

एकोंड्रॉप्लासिया वाले लगभग 80 प्रतिशत लोग औसत लम्बाई के माता-पिता के जन्मे हुए होते हैं। एन्डोंड्रोप्लासिया वाले व्यक्ति के बच्चों के सामान्य या इसी समस्या से ग्रसित होने की बराबर सम्भावना रहती है।

2. टर्नर सिंड्रोम

टर्नर सिंड्रोम, एक ऐसी स्थिति जो केवल लड़कियों और महिलाओं को प्रभावित करती है, जिसके परिणामस्वरूप लड़कियों में होने वाला एक्स क्रोमोजोम आंशिक रूप से या पूरी तरह से गायब होता है। एक सामान्य लड़की अपने माँ-बाप दोनों से एक्स क्रोमोजोम लेती है। टर्नर सिंड्रोम वाली लड़की में एक ही फीमेल सेक्स क्रोमोजोम पूरी तरह काम करता है।

3. ग्रोथ हार्मोन की कमी

ग्रोथ हार्मोन की कमी का कारण कभी-कभी जीन की संरचनाओं की कमी या चोट लगना पाया गया है लेकिन इस विकार वाले अधिकांश लोगों में कारण की पहचान नहीं की जा सकी है। (और पढ़ें - हार्मोन असंतुलन के नुकसान)

4. अन्य कारण

बौनेपन के अन्य कारणों में अन्य अनुवांशिक विकार, अन्य हार्मोन में कमी या पोषण की कमी शामिल हैं। कभी-कभी कारण अज्ञात भी होते हैं।


बौनेपन का परीक्षण - Diagnosis of Dwarfism 

बाल रोग विशेषज्ञ आपके बच्चे के विकास की जांच करने के लिए कई वजहों की जांच करेंगे और यह निर्धारित करेंगे कि उनहें बौनापन संबंधी विकार है या नहीं। इन ​​परीक्षणों में शामिल हो सकते हैं:

1. लम्बाई नापना

समय-समय पर बच्चे की लम्बाई, वजन और सिर की चौड़ाई को नापा जाता है जिससे किसी भी प्रकार की असामान्य वृद्धि की पहचान की जा सके जैसे कि देरी से बढ़ना या असमान रूप से बड़ा सिर होना।

2. देखकर पता करना

चेहरे और शरीर के ढाँचे में हुई किसी तरह की गड़बड़, बौनेपन से जुड़ी हो सकती है। आपका बच्चा कैसा दिख रहा है, इसके आधार पर बाल रोग विशेषज्ञ को परीक्षण करने में मदद मिल सकती है।

3. इमेजिंग टेक्नोलॉजी (Imaging technology)

खोपड़ी और कंकाल की कुछ असामान्यताों के आधार पर ये पता किया जा सकता है कि आपके बच्चे को कौन सा विकार है इसलिए आपके डॉक्टर आपको बच्चे का एक्स रे कराने को बोल सकते हैं। पिट्यूटरी ग्रंथि या हाइपोथैलेमस की असामान्यताओं को जानने के लिए डॉक्टर एमआरआई करवा सकते हैं।

4. अनुवांशिक परीक्षण

आनुवंशिक परीक्षण बौनेपन से संबंधित विकारों के कई ज्ञात कारणों को जानने के लिए उपलब्ध हैं, लेकिन इससे हमेशा सटीक परीक्षण नहीं हो सकता है।

5. परिवार के स्वास्थ्य के बारे में पूछताछ

आपके परिवार औसत लम्बाई की जानकारी लेकर डॉक्टर ये जानने की कोशिश करेंगे कि आपमें बौनापन होने की कितनी संभावना है।

6. हार्मोन परीक्षण

आपके डॉक्टर आपको वो टेस्ट कराने के लिए बोलेंगे जिससे आपके ग्रोथ हॉर्मोन और अन्य हॉर्मोन जो शरीर में विभिन्न तरह के विकास के लिए जरूरी हैं, उनसे जुड़ी समस्या का पता किया जा सके।


बौनेपन का इलाज - Dwarfism Treatment 

अधिकांश बौनेपन का इलाज कद को नहीं बढ़ाता है लेकिन जटिलताओं से होने वाली समस्याओं को सही कर सकता है या राहत दे सकता है।

1. सर्जिकल उपचार

निम्न दी हुई सर्जिकल प्रक्रियाएं डिस्प्रोपोर्शनेट बौनापन वाले लोगों में समस्याओं को ठीक कर सकती हैं:

हड्डियों के गलत दिशा में बढ़ने की समस्या को ठीक करना
रीढ़ की हड्डी के आकार को सही करने के साथ-साथ स्थिर करना
रीढ़ की हड्डी पर दबाव कम करने के लिए उस की हड्डियों के बीच वाली जगह को चौड़ा किया जाता है (और पढ़ें - रीढ़ की हड्डी की चोट के लक्षण)
मस्तिष्क के चारों ओर अतिरिक्त तरल पदार्थ को हटाने के लिए एक शंट (shunt: इसकी मदद से तरल पदार्थ को हटाने के लिए रास्ता बनाया जाता है) डाली जाती है

2. अंगों को लम्बा करने की सर्जरी

बौनेपन वाले कुछ लोग अंग लम्बे कराने के लिए सर्जरी करवाते हैं। यह प्रक्रिया बौनेपन वाले कई लोगों के लिए सही नहीं रहती क्योंकि इस के साथ इसके जोखिम जुड़े हैं। इस से जुड़ी प्रक्रियाओं के भावनात्मक और शारीरिक तनाव की वजह से, बौनेपन वाले इंसान को ये सलाह दी जाती है की जब तक वो आयु में इतना बड़ा और समझदार न हो जाए की वो सर्जरी जैसा बड़ा कदम उठा सके, तब तक उसे सर्जरी नहीं करानी चाहिए।

3. हार्मोन थेरेपी

जिन लोगोंं में ग्रोथ हार्मोन की कमी के कारण बौनापन रह जाता है, उनको ग्रोथ हार्मोन के इन्जेक्शन पर्याप्त लंबाई प्राप्त करने में मदद कर सकते हैं।

ज्यादातर मामलों में बच्चों को रोजाना इन्जेक्शन दिये जाते हैं, ये इन्जेक्शन उनको कुछ सालों तक लगातार दिये जाते हैं, जब तक वे अपने परिवार की अधिकतम औसतन वयस्क लंबाई प्राप्त नहीं कर लेते हैं।

ये उपचार किशोरावस्था से लेकर वयस्क अवस्था की शुरुआत तक चल सकता है जिससे वयस्क की परिपक्वता (maturity) सुनिश्चित की जा सके, जैसे कि मांसपेशियों या वसा में उचित विकास हुआ है या नहीं। कुछ व्यक्तियों को उम्रभर इलाज की आवश्यकता हो सकती है। अन्य संबंधित हार्मोन की कमी को पूरा करने के लिए भी इस थेरेपी का इस्तेमाल किया जा सकता है।

टर्नर सिंड्रोम वाली लड़कियों के लिए उपचार के लिए एस्ट्रोजन और संबंधित हार्मोन थेरेपी की आवश्यकता होती है जिससे वे किशोरावस्था की शुरुआत कर सकें और वयस्क यौन विकास प्राप्त कर सकें। एस्ट्रोजेन रीप्लेसमेन्ट थेरेपी  (Estrogen replacement therapy) आमतौर पर जीवनभर जारी रहती है जब तक कि एक महिला रजोनिवृत्ति (menopause) की औसत आयु तक नहीं पहुंच जाती।

एकोंड्रॉप्लासिया वाले बच्चों में ग्रोथ हार्मोन का सप्लीमेंट, अधिकतम वयस्क लम्बाई में वृद्धि नहीं कर पाता है।


4. लगातार स्वास्थ्य देखभाल

डॉक्टर द्वारा नियमित जांच और लगातार देखभाल ज़िन्दगी को आसान बना सकती है। इसमें लक्षण और जटिलताएं बहुत अलग-अलग हो सकती हैं, जैसे कि कान में संक्रमण, रीढ़ की हड्डी का सिकुड़ना या स्लीप एप्निया, इसलिए उनका इलाज रोगी के अनुसार ही किया जाता है।

बौने वयस्कों का पूरे जीवन में होने वाली समस्याओं का इलाज चलते रहना चाहिए।


बौनेपन की जटिलताएं - Dwarfism Risks & Complications

बौनेपन से संबंधित विकारों की जटिलताओं में काफी भिन्नता हो सकती है, लेकिन कुछ स्थितियों की कई जटिलताएं आम हैं।

1. डिस्प्रोपोर्शनेट बौनापन

इस प्रकार के बौनेपन में खोपड़ी, रीढ़ की हड्डी और हाथ-पैरों की विशेषताओं की वजह से कुछ दिक्कतें हो सकती हैं, जैसे कि:

1. बैठना, चलना या घुटनो के बल चलना जैसे कामों में समस्या
2. अक्सर कान में संक्रमण होना और कम सुनाई आने का खतरा
3. टांगो का बाहर की तरफ मुड़ जाना
4. नींद के दौरान सांस लेने में कठिनाई जिसे स्लीप एपनिया भी कहा जाता  है
5. खोपड़ी के निचले हिस्से की तरफ रीढ़ की हड्डी पर दबाव
मस्तिष्क के चारों ओर अतिरिक्त तरल पदार्थ का होना जिसे हाइड्रोसेफलस (hydrocephalus) भी कहा जाता है
6. दाँत टेढ़े-मेढ़े होना
7. कूबड़ होना और उसका गंभीर रूप से लगातार बढ़ना,
8. साथ ही पीठ दर्द और सांस लेने की समस्याएं होना
9. रीढ़ की हड्डी का सिकुड़ना जिसे "स्पाइनल स्टेनोसिस" (spinal stenosis) भी कहा जाता है, जिसके परिणामस्वरूप रीढ़ की हड्डी पर दबाव होता है और उससे पैरों में दर्द या सूजन होती है
10. गठिया होना
11. वजन बढ़ना जिससे जोड़ों और रीढ़ की हड्डी की जटिल समस्याएँ होती है और नसों पर दबाव पड़ता है


2. प्रोपोर्शनेट बौनापन

प्रोपोर्शनेट ड्वारफिज़्म की वजह से विकास से जुडी कई समस्याएं देखने को मिलती हैं जिनकी वजह से अंगों का सही तरीके से विकास नहीं हो पाता है। उदाहरण के लिए, टर्नर सिंड्रोम में अक्सर दिल की समस्याएं मौजूद होती हैं, जिनका स्वास्थ्य पर बहुत प्रभाव पड़ सकता है।

3. गर्भावस्था

प्रोपोर्शनेट ड्वारफिज़्म से ग्रसित महिलाओं में गर्भावस्था के दौरान सांस से जुडी समस्याएँ देखने को मिल सकती है। सी-सेक्शन (सीज़ेरियन डिलीवरी) लगभग हमेशा जरूरी होता है क्योंकि श्रोणि का आकार, नॉर्मल डिलीवरी की अनुमति नहीं देता है।

4. सार्वजनिक धारणाएं

औसत लम्बाई वाले लोगों में बौने लोगों को लेकर गलत धारणाएँ हो सकती है। आजकल फिल्मों में बौनापन वाले लोगों के चित्रण में अक्सर रूढ़िवादीता शामिल होती है। गलतफहमी किसी व्यक्ति के आत्म-सम्मान को प्रभावित कर सकती है और स्कूल या रोजगार में सफलता के अवसरों को सीमित कर सकती है।

बौनापन वाले बच्चे विशेष रूप से सहपाठियों से चिढ़ाने और उपहास के लिए कमजोर होते हैं। क्योंकि बौनापन अपेक्षाकृत असामान्य है, बच्चे अपने साथियों से अलग महसूस कर सकते हैं।


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Monday, March 25, 2019

Achondroplasia बौनापन

 बौनापन Dwarfism

एक प्रमुख अनुवांशिक विकार है जो बौनेपन का आम कारण है Achondroplastic dwarfs का कद छोटा होता है, एक वयस्क की ऊंचाई १३१ सेमी होती है (4 फुट, 3-1/2 इंच) पुरुषों के लिए और 123 सेमी (4 फुट, 1 / 2 इंच) महिलाओं के लिए। व्याप्ति लगभग 1 में 25,000 है।

बौनापन इंसानों में आनुवांशिक या चिकित्सा स्थिति के कारण लम्बाई कम होने को कहा जाता है। बौनापन आमतौर पर 4 फीट 10 इंच या उससे कम की वयस्क ऊंचाई को कहा जाता है। बौनेपन वाले वयस्क लोगों की औसत लम्बाई 4 फीट होती है।

अधिकतर जिन माता-पिता की औसत लम्बाई होती है, उनके बच्चों में बौनापन देखने को मिलता है।

बौनेपन से होने वाली समस्याओं से अन्य स्वास्थ्य समस्याएं भी हो सकती हैं, जिनमें से अधिकतर समस्याओं का इलाज किया जा सकता है। जीवनभर नियमित जांच करना महत्वपूर्ण है। उचित चिकित्सा देखभाल से अधिकांश बौने लोग आम लोगों जैसे सक्रिय और उनके बराबर लम्बी ज़िन्दगी ही जीते हैं।



बौनापन के प्रकार - Types of Dwarfism

कई अलग-अलग चिकित्सीय स्थितियों की वजह से बौनापन होता है। आम तौर पर, विकार को दो श्रेणियों में बांटा गया है :


1. डिस्प्रोपोर्शनेट बौनापन (Disproportionate dwarfism)

यदि शरीर का आकार असमान है, तो शरीर के कुछ हिस्से छोटे होते हैं, और अन्य हिस्से औसत आकार के या औसत से कुछ बड़े होते हैं। इससे होने वाले विकार से हड्डियों का विकास रुक जाता है।

2. प्रोपोर्शनेट बौनापन (Proportionate dwarfism)

शरीर के सभी हिस्से एक ही बराबर छोटे होते हैं और औसत आकार के शरीर की तरह बराबर अनुपात में होते हैं, जिससे पूरा शरीर आनुपातिक रूप से छोटा होता है। जन्म के समय से या शुरुआती बचपन में होने वाली चिकित्सा स्थितियों के कारण संपूर्ण विकास रुक जाता है।



बौनेपन के लक्षण - Dwarfism Symptoms

डिस्प्रोपोर्शनेट बौनापन                                                                               
अधिकतर बौने लोगों को कुछ ऐसे विकार होते हैं जो डिस्प्रोपोर्शनेट बौनापन का कारण बनते हैं। आम तौर पर, इसका मतलब यह होता है कि व्यक्ति का, औसत आकार का धड़ और बहुत छोटे हाथ-पैर होते हैं। लेकिन कुछ लोगों में बहुत छोटे धड़ के साथ-साथ, हाथ-पैर भी छोटे हो सकते हैं, मगर हाथ-पैर धड़ की तुलना में फिर भी बड़े होते हैं। इन विकारों में, सिर शरीर की तुलना में असमान रूप से बड़ा होता है।

डिस्प्रोपोर्शनेट बौनापन वाले अधिकतर सभी लोगों में सामान्य बौद्धिक क्षमताएं होती हैं। लेकिन कुछ बहुत ही कम ऐसे केस भी देखने को मिलें हैं जिनमे बौद्धिक क्षमताओं में कमी देखने को मिलती है। वो केस दूसरे कारणों का परिणाम होते हैं, जैसे मस्तिष्क के चारों ओर सामान्य से ज़्यादा तरल पदार्थ का होना, जिसे हाइड्रोसेफलस (hydrocephalus) भी कहा जाता है।

बौनेपन का सबसे आम कारण एक विकार है, जिसे एन्डोंड्रोप्लासिया (achondroplasia) कहा जाता है, जो असमान रूप से छोटे कद का कारण बनता है। यह विकार आमतौर पर निम्नलिखित परिणाम देता है:

1. शरीर के धड़ का औसत आकार होना
2. छोटे हाथ-पैर विशेष रूप से ऊपरी हाथ-पैर का छोटापन
3. छोटी अंगुलियां, अक्सर बीच वाली अंगुली और अनामिका अंगुली (रिंग फिंगर) के बीच में चौड़ा विभाजन
4. कोहनी में सीमित गतिशीलता
5. बड़ा सर, चौड़ा माथा और नाक का चपटा होना
6. धीरे-धीरे टांगों का बाहर की तरफ मुड़ते चले जाना
7. पीठ के निचले हिस्से का धीरे धीरे झुकते चले जाना
8. वयस्कों की ऊंचाई 4 फीट के आसपास होना

डिस्प्रोपोर्शनेट बौनापन का एक अन्य कारण एक तरह का दुर्लभ विकार है, जिसे "स्पोंडिलोइपिफिसियल डिस्प्लेसिया कॉन्जेनिटा" (spondyloepiphyseal dysplasia congenita) कहा जाता है। इसके संकेतों में शामिल हो सकते हैं:

1. छोटा ढाँचा
2. छोटी गर्दन
3. छोटी बाजुएं और टांगें
4. औसत आकार के हाथ और पैर
5. चौड़ा और फूला हुआ सीना
6. पिचके गाल
7. कटा हुआ तालु
8. कूल्हे की समस्या जिसके परिणामस्वरूप जांघों की हड्डियां अंदर की तरफ मुड़ जाती हैं
9. एक पैर का मुड़ जाना या उसका आकार ख़राब हो जाना
गर्दन की हड्डियों में अस्थिरता
10. कूबड़ का होना जो धीरे-धीरे बढ़ता है।
11. रीढ़ की हड्डी के निचले हिस्से का धीरे-धीरे झुकते चले जाना
12. आँखों की द्रष्टी और सुनने में समस्या
13. गठिया और जोड़ों की गतिविधि में समस्या
14. वयस्क की लम्बाई का 3 फीट (91 सेमी) से लेकर 4 फीट (122 सेमी) तक होना

प्रोपोर्शनेट बौनापन

प्रोपोर्शनेट बौनापन जन्म से या बचपन में होने वाली चिकित्सा स्थितियों का परिणाम होता है जो संपूर्ण विकास में बाधा पैदा करता है। जिसके कारण सर, धड़ और सभी अंग छोटे होते हैं, लेकिन वे समान अनुपात में होते हैं। ये विकार संपूर्ण विकास को प्रभावित करते हैं, जिसकी वजह से एक या अधिक शरीर की प्रणालियों का सही से विकास नहीं हो पाता है।

ग्रोथ हार्मोन की कमी, प्रोपोर्शनेट बौनापन का आम कारण है। ऐसा तब होता है जब पिट्यूटरी ग्रंथि ग्रोथ हार्मोन का पर्याप्त उत्पादन करने में विफल रहता है, जो बचपन में सामान्य विकास के लिए आवश्यक है। इसके लक्षणों में शामिल हैं -

1. मानक बाल चिकित्सा विकास चार्ट पर तीसरे प्रतिशत से नीची लम्बाई
2. उम्र के अनुसार लम्बाई कम होना
3. किशोरों में देरी से यौन विकास या कोई यौन विकास नहीं

डिस्प्रोपोर्शनेट बौनापन के लक्षण आमतौर पर जन्म से या बचपन की शुरुआत में नज़र आ जाते हैं। प्रोपोर्शनेट बौनापन तुरंत नज़र नहीं आता है। अगर आपको अपने बच्चे के संपूर्ण  किसी भी अंत तरह के विकास को लेकर चिंता है तो अपने बच्चे को डॉक्टर को दिखाएं।


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Sunday, March 24, 2019

कुष्ठरोग के वर्गीकरण

कुष्ठरोग के वर्गीकरण

कुष्ठरोग के वर्गीकरण के अनेक विभिन्न तरीके हैं, लेकिन वे एक दूसरे के समानांतर हैं।

1. विश्व स्वास्थ्य संगठन (वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन) की प्रणाली जीवाणु के प्रसरण के आधार पर “पॉसीबैसीलरी (paucibacillary)” और "मल्टिबैसीलरी (multibacillary)" के रूप में वर्गीकरण करती है ("पॉसी- (pauci)-" निम्न गुणवत्ता को उल्लेखित करता है।)

2. शे (SHAY) मापन पांच श्रेणियां प्रदान करता है।

3. आईसीडी-10 (ICD-10), हालांकि डब्ल्यूएचओ (WHO) द्वारा विकसित है, लेकिन यह डब्ल्यूएचओ (WHO) प्रणाली का नहीं, बल्कि रिडले-जॉपलिंग (Ridley-Jopling) प्रणाली का प्रयोग करता है। यह एक मध्यवर्ती (“आई”) ("I") प्रविष्टि भी जोड़ता है।[कृपया उद्धरण जोड़ें]

4. मेश (MeSH) में, तीन समूहीकरणों का प्रयोग किया जाता है।


हैन्सेन रोग को निम्नलिखित प्रकारों में भी बांटा जा सकता है:

1. प्रारंभिक और अनिश्चित कुष्ठरोग

2. ट्युबरक्युलॉइड कुष्ठरोग

3. बॉर्डरलाइन ट्युबरक्युलॉइड कुष्ठरोग

4. बॉर्डरलाइन कुष्ठरोग

5. बॉर्डरलाइन लेप्रोमेटस कुष्ठरोग

6. लेप्रोमेटस कुष्ठरोग

7. हिस्टॉइड कुष्ठरोग

8. ल्युसियो (Lucio) और लैटापि (Latapí) का विकीर्ण कुष्ठरोग

यह बीमारी केवल नसों की सहभागिता के साथ भी हो सकती है, जिसमें त्वचा पर कोई घाव नहीं होते. इस बीमारी को हैन्सेन का रोग भी कहा जाता है।


कुस्थ रोग के लक्षण

त्वचा पर घाव प्राथमिक बाह्य संकेत हैं। यदि इसे अनुपचारित छोड़ दिया जाए, तो कुष्ठरोग बढ़ सकता है, जिससे त्वचा, नसों, हाथ-पैरों और आंखों में स्थायी क्षति हो सकती है। लोककथाओं के विपरीत, कुष्ठरोग के कारण शरीर के अंग अलग होकर गिरते नहीं, हालांकि इस बीमारी के कारण वे सुन्न तथा/या रोगी बन सकते हैं।


कारण

माइकोबैक्टेरियम लेप्री (Mycobacterium leprae)


माइकोबैक्टीरियम लेप्राए, एजेंट की एक कुष्ठ रोग के कारणात्मक.एसिड के रूप में तेजी से जीवाणु, जब ज़ेहल-नील्सन का उपयोग किया जाता है एम. लेप्राए लाल दिखता है।

माइकोबैक्टेरियम लेप्री (Mycobacterium leprae) और माइकोबैक्टेरियम लेप्रोमैटॉसिस (Mycobacterium lepromatosis) कुष्ठरोग का कारण बनने वाले एजेंट हैं। एम. लेप्रोमेटॉसिस (M. lepromatosis) पहचाना गया अपेक्षाकृत नया माइकोबैक्टेरियम है, जिसे 2008 में विकीर्ण लेप्रोमेटस कुष्ठरोग के एक जानलेवा मामले से पृथक किया गया था।

एक अंतर्कोशिकीय, अम्ल-तीव्र बैक्टेरियम, एम. लेप्री (M. leprae) वायुजीवी और दण्ड के आकार का होता है और यह माइकोबैक्टेरियम प्रजातियों की मोम-जैसी कोशिका झिल्ली आवरण विशेषता से घिरा होता है।

स्वतंत्र विकास के लिये आवश्यक जीन की अत्यधिक हानि के कारण, एम. लेप्री (M. leprae) और एम. लेप्रोमेटॉसिस (M. lepromatosis) को प्रयोगशाला में निर्मित नहीं किया जा सकता, एक ऐसा कारक जो कोच की अभिधारणा की एक दृढ़ व्याख्या के अंतर्गत निर्णायक रूप से इस जीव की पहचान करने में कठिनाई उत्पन्न कर देता है। गैर-संवर्धन-आधारित तकनीकों, जैसे आण्विक आनुवांशिकी ने कारण-कार्य-संबंध की वैकल्पिक स्थापना की अनुमति दी है।

हालांकि, अभी तक इसके उत्पादक जीवों को प्रयोगशाला मेंसंवर्धित कर पाना असंभव रहा है, लेकिन उन्हें पशुओं में विकसित कर पाना संभव हुआ है। यूनाइटेड स्टेट्स लेप्रसी पैनल (United States Leprosy Panel) के चेयरमैन, चार्ल्स शेपर्ड (Charles Shepard) ने 1960 में चूहों के पैरों के पंजों में इन जीवों को सफलतापूर्वक विकसित किया। 1970 में जोसेफ कॉल्सन (Joseph Colson) और रिचर्ड हिल्सन (Richard Hilson) ने सेंट जॉर्ज हॉस्पिटल, लंदन में जन्मजात रूप से बाल्यग्रंथि-हीन चूहे (‘नग्न चूहे’) के प्रयोग द्वारा इस विधि में सुधार किया।

एक अन्य पशु मॉडल एलीनॉर स्टॉर्स (Eleanor Storrs) द्वारा गल्फ साउथ रिसर्च इंस्टीट्यूट (Gulf South Research Institute) में विकसित किया गया। डॉ॰ स्टॉर्स ने अपनी पीएचडी (PhD) के लिये नौ-धारियों वाले वर्मी (armadillos) पर कार्य किया था क्योंकि इस पशु के शरीर का तापमान मनुष्यों के शरीर के तापमान से कम था और इसलिये यह एक उपयुक्त पशु मॉडल हो सकता था। यह कार्य 1968 में वाल्डेमर किर्शीमर (Waldemar Kirchheimer) द्वारा प्रदान की गई सामग्री के साथ कारविल (Carville), लुइज़ियाना (Louisiana) में यूनाइटेड स्टेट्स पब्लिक हेल्थ लेप्रोसैरियम (United States Public Health Leprosarium) में प्रारंभ हुआ। ये प्रयोग असफल सिद्ध हुए, लेकिन लियोनार्ड’स वुड मेमोरियल (Leonard's Wood Memorial) के चिकित्सीय निदेशक चैपमैन बिनफोर्ड (Chapman Binford) द्वारा 1970 में प्रदान की गई सामग्री के साथ किया गया अतिरिक्त कार्य सफल रहा. इस मॉडल का वर्णन करने वाले शोध-पत्रों के परिणामस्वरूप प्राथमिकता पर एक विवाद छिड़ गया। जब इस बात की खोज हुई कि लुइज़ियाना में पाये जाने वाले जंगली वर्मी प्राकृतिक रूप से ही कुष्ठरोग से संक्रमित थे, तो आगे एक और विवाद का जन्म हुआ।

प्राकृतिक रूप से होने वाला संक्रमण गैर-मानवीय वानरों में भी प्राप्त हुआ है, जिनमें अफ्रीकी चिंपांज़ी (African chimpanzee), सूटी मैंगेबी (sooty mangabey) और साइनोमॉल्गस मकैक (cynomolgus macaque) शामिल हैं।


आनुवांशिकी

अनेक जीन कुष्ठरोग के प्रति संवेदनशीलता से जुड़े हुए हैं।
नामस्थानओएमआईएम (OMIM)जीनएलपीआरएस1 (LPRS1)10पी13 (10p13)609888एलपीआरएस2 (LPRS2)6क्यू25 (6q25)607572पार्क2 (PARK2), पीएसीआरजी (PACRG)एलपीआरएस3
(LPRS3)4क्यू32 (4q32)246300टीएलआर2 (TLR2)एलपीआरएस4
 (LPRS4)6पी21.3 (6p21.3)610988एलटीए (LTA)


कुस्थ रोग के उपचार

एम्डिटी (MDT) बहुऔषध विरोधी कुष्ठरोग ड्रग्स: मानक रेगिमेंस

1993 में कुष्ठरोग की कीमोथेरपी (Chemotherapy of Leprosy) पर डब्ल्यूएचओ (WHO) के अध्ययन-दल ने दो प्रकार के मानक एमडीटी (MDT) परहेज नियमों को अपनाए जाने की अनुशंसा की.[53] पहला मल्टिबैसीलरी (multibacillary) (एमबी (MB) या लेप्रोमेटस) के मामलों के लिये राइफैम्पिसिन (rifampicin), क्लोफैज़िमाइन (clofazimine) और डैप्सोन (dapsone) के प्रयोग द्वारा 24-माह का एक उपचार था। दूसरा पॉसिबैसीलरी (paucibacillary) (पीबी (PB) or ट्युबरक्युलॉइड) के मामलों के लिये राइफैम्पिसिन (rifampicin) और डैप्सोन (dapsone) का प्रयोग करके छः माह का एक उपचार था। एक सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या के रूप में कुष्ठरोग को मिटाने पर पहले अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन (First International Conference on the Elimination of Leprosy as a Public Health Problem), जो कि अगले वर्ष हनोई में आयोजित किया गया था, में वैश्विक रणनीति को प्रोत्साहन दिया गया और सभी स्थानिक देशों तक एमडीटी (MDT) का प्रबंध और आपूर्ति करने के लिये डब्ल्यूएचओ (WHO) को फंड प्रदान किया गया।

1995 और 1999 के बीच, डब्ल्यूएचओ (WHO) ने, निप्पॉन फाउंडेशन (Nippon Foundation) (चेयरमैन योहेई सासाकावा (Yōhei Sasakawa), कुष्ठरोग मिटाने के लिये विश्व स्वास्थ्य संगठन के सद्भावना दूत (वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन Goodwill Ambassador for Leprosy Elimination)) की सहायता से, सभी स्थानिक देशों में ब्लिस्टर पैक में एमडीटी (MDT) का मुफ्त वितरण किया, जिसकी वितरण व्यवस्था स्वास्थ्य मंत्रालयों के माध्यम से की गई। एमडीटी (MDT) के उत्पादक नोवार्टिस (Novartis) द्वारा दिये गये दान के बाद वर्ष 2000 में मुफ्त-वितरण के इस प्रावधान को आगे बढ़ा दिया गया और अब यह कम से कम 2010 के अंत तक जारी रहेगा. राष्ट्रीय स्तर पर, राष्ट्रीय कार्यक्रमों से जुड़े गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) (NGOs) को सरकार के द्वारा डब्ल्यूएचओ (WHO) से प्राप्त इस एमडीटी (MDT) की आपूर्ति की जाती रहेगी.

एमडीटी (MDT) अत्यधिक प्रभावी बना हुआ है और अब पहली मासिक खुराक के बाद से ही मरीज संक्रामक नहीं रह जाते. कैलेंडर ब्लिस्टर पैक में इसकी प्रस्तुति के कारण वास्तविक स्थितियों में इसका प्रयोग करना सुरक्षित और सरल है। पुनरावर्तन की दरें निम्न बनी हुई हैं और संयोजित दवाओं के प्रति कोई प्रतिरोध ज्ञात नहीं हुआ है। कुष्ठरोग पर डब्ल्यूएचओ की सातवीं विशेषज्ञ समिति (सेवंथ डब्ल्यूएचओ एक्सपर्ट कमिटी ऑन लेप्रसी),[54] ने 1997 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते समय, ये निष्कर्ष दिया कि उपचार की एमबी (MB) अवधि—जो उस समय 24 माह थी— को “प्रभावोत्पादकता से कोई उल्लेखनीय समझौता किये बिना” सुरक्षित रूप से कम करके 12 माह किया जा सकता है।


वर्तमान सिफारिशें

पॉसी-बैसीलरी कुष्ठरोग (त्वचा पर 1-5 घाव) 6 माह तक राइफैम्पिसिन (rifampicin) और डैप्सोन (dapsone) के साथ उपचार करें

मल्टी-बैसीलरी कुष्ठरोग (त्वचा पर >5 घाव) 12 माह तक राइफैपिसिन (rifampicin), क्लॉफैज़िमाइन (clofazimine) और डैप्सोन (dapsone) से उपचार करें


ऐतिहासिक उपचार

प्राचीन ग्रीक में यह रोग श्लीपद (elephantiasis graecorum) के नाम से जाना जाता था। बाइबिल (मैथ्यू 11,5) के अनुसार कुष्ठरोग को अलौकिक साधनों और हाथों को या इससे विकसित अवशेषों को दफना देने की पद्धति के द्वारा कुष्ठरोग का उपचार किया जा सकता है। सेंट गाइल्स, सेंट मार्टिन, सेंट मैक्सिलियन और सेंट रोमन इस पद्धति से जुड़े हुए थे। अनेक शासक भी इस पद्धति से जुड़े हुए थे: इनमें इंग्लैंड के रॉबर्ट प्रथम, एलिज़ाबेथ प्रथम, हेनरी तृतीय और शार्लेमैग्ने (Charlemagne) शामिल थे।

विभिन्न कालों में रक्त को एक पेय-पदार्थ या स्नान के रूप में एक उपचार माना जाता था। कुंवारी स्रियों या बच्चों के रक्त को विशेष रूप से प्रभावी समझा जाता था। ऐसा प्रतीत होता है कि इस पद्धति का उदगम प्राचीन मिस्र निवासियों से हुआ, लेकिन चीन में भी इसका पालन किये जाने की जानकारी मिली है, जहां लोगों के रक्त के लिये उनकी हत्या कर दी गई थी। यह पद्धति 1790 में डी सेक्रेटिस नैचुरी (De Secretis Naturae) में कुत्ते के रक्त के प्रयोग का उल्लेख किये जाने तक जारी थी। पैरासेल्सस (Paracelsus) ने मेमने के रक्त के प्रयोग की अनुशंसा की और मृत शरीरों के रक्त का प्रयोग भी किया जाता था।

पलाइनी (Pliny), एरेशियस ऑफ कैपाडोसिया (Areteus of Capadocia) तथा थियोडोरस (Theodorus) के अनुसार सांपों का प्रयोग भी किया जाता था। गॉशर (Gaucher) ने कोबरा के ज़हर से उपचार करने की अनुशंसा की. 1913 में, बॉइनेट (Boinet) ने मधुमक्खियों के डंक की बढ़ती हुई मात्रा को बढ़ाते हुए (4000 तक) परीक्षण किया। सांपों के स्थान पर कभी-कभी बिच्छुओं और मेंढकों का प्रयोग किया जाता था। एनाबास (Anabas)(चढ़नेवाली मछली) के मल का भी परीक्षण किया गया।

वैकल्पिक उपचारों में आर्सेनिक और हेलेबोर (hellebore) सहित जलन उत्पन्न करने वाले अन्य तत्वों के प्रयोग के साथ या उनके बिना दागना शामिल था। मध्य-काल में का वंध्यकरण (Castration) का पालन भी किया जाता था।


चालमुगरा (Chaulmoogra) का तेल

चालमुगरा (Chaulmoogra) का तेल कुष्ठरोग का एक पूर्व-आधुनिक उपचार था। एक भारतीय दन्तकथा के अनुसार श्रीराम को कुष्ठरोग हो गया था और कलव (हाइड्नोकार्पस (Hydnocarpus) वंश की एक प्रजाति) वृक्ष के फल खिलाकर उनका उपचार किया गया। इसके बाद उसी फल से उन्होंने राजकुमारी पिया का उपचार किया और फिर इस जोड़े ने बनारस लौटकर अपनी इस खोज के बारे में दुनिया को बताया.

भारत में इस तेल का प्रयोग लंबे समय से कुष्ठरोग और त्वचा की विभिन्न अवस्थाओं के उपचार के लिये एक आयुर्वेदिक दवा के रूप में किया जाता रहा है। इसका प्रयोग चीन और बर्मा में भी होता रहा है और बंगाल मेडिकल कॉलेज के एक प्रोफेसर फ्रेडरिक जॉन मॉट (Frederic John Mouat) ने पश्चिमी विश्व को इससे परिचित करवाया. उन्होंने कुष्ठरोग के दो मामलों में एक मौखिक और स्थानिक एजेंट के रूप में इस तेल का प्रयोग करने का प्रयास किया और 1854 में एक शोध-पत्र में उल्लेखनीय सुधार की जानकारी दी.

इस शोध-पत्र ने थोड़ा भ्रम उत्पन्न कर दिया. मॉट (Mouat) ने सूचित किया कि यह तेल चालमुगरा ओडोराटा (Chaulmoogra odorata) वृक्ष का एक उत्पाद है, जिसका वर्णन 1815 में विलियम रॉक्सबर्ग (William Roxburgh), एक शल्य-चिकित्सक और प्रकृतिवादी, द्वारा किया गया था, जब वे कलकत्ता में ईस्ट इंडिया कम्पनी के बॉटनिकल गार्डन में वनस्पतियों का सूचीकरण कर रहे थे। इस वृक्ष को गाइनोकार्डिया ओडोराटा (Gynocardia odorata) नाम से जाना जाता है। 19वीं सदी के शेष भाग में इस वृक्ष को ही इस तेल का स्रोत माना जाता रहा. 1901 में सर डेविड प्रेन (Sir David Prain) ने कलकत्ता बाज़ार और पेरिस और लंदन के औषधिकारों के सच्चे चालमुगरा बीजों की पहचान टारक्टोजीनस कुर्ज़ी (Taraktogenos kurzii) से प्राप्त होने वाले बीजों के रूप में की, जो की बर्माऔर उत्तरी भारत में पाया जाता है। आयुर्वेदिक ग्रंथों में जिस तेल का उल्लेख है वह हाइड्नोकार्पस विगिताना (Hydnocarpus wightiana) वृक्ष से प्राप्त होता है, जिसे संस्कृत में तुवकार और हिंदी व फारसी में चालमुगरा कहा जाता है।

पहला आन्त्रेतर प्रबंध मिस्र के चिकित्सक टॉर्टोलिस बे (Tortoulis Bey), सुल्तान हुसैन कामेल (Hussein Kamel) के व्यक्तिगत चिकित्सक, द्वारा दिया गया था। वे तपेदिक के लिये क्रियोसाइट के प्रत्युपयाजक इंजेक्शन का प्रयोग करते आ रहे थे और 1894 में उन्होंने मिस्र के एक 36-वर्षीय कॉप्ट, जो मौखिक उपचार को सह पाने में असमर्थ रहा था, में चालमुगरा के प्रत्युपयाजक इंजेक्शन का प्रबंध किया। 6 वर्षों और 584 इंजेक्शनों के बाद घोषित किया गया कि वह मरीज ठीक हो चुका था।

इस तेल का एक प्रारंभिक वैज्ञानिक विश्लेषण 1904 में फ्रेडरिक बी. पॉवर (Frederick B. Power) द्वारा लंदन में किया गया। उन्होंने और उनके साथियों ने इन बीजों से एक नये असंतृप्त वसायुक्त-अम्ल को पृथक किया, जिसे उन्होंने ‘चालमुगरिक अम्ल (chaulmoogric acid)’ नाम दिया. उन्होंने दो निकट संबंद्ध प्रजातियों का भी परीक्षण किया: हाइड्नोकार्पस एन्थेल्मिंटिका (Hydnocarpus anthelmintica) और हाइड्नोकार्पस विग्टियाना (Hydnocarpus wightiana) . इन दो वृक्षों से उन्होंने चालमुगरिक अम्ल और एक निकट संबंद्ध यौगिक, हाइड्नोकार्पस अम्ल (hydnocarpus acid), दोनों को अलग किया। उन्होंने गाइनोकार्डिया ओडोराटा (Gynocardia odorata) का परीक्षण भी किया और पाया कि यह इनमें से कोई भी अम्ल उत्पन्न नहीं करता था। बाद में किये गये अनुसंधानों ने यह दर्शाया कि ‘टाराक्टोगेनॉस (taraktogenos)' (हाइड्नोकार्पस कुर्ज़ी (Hydnocarpus kurzii)) भी चालमुगरिक अम्ल उत्पन्न करता था।

इस तेल के प्रयोग से जुड़ी एक अन्य समस्या इसके प्रबंध को लेकर है। मुंह से लिये जाने पर यह अत्यधिक मिचली उत्पन्न करता है। वस्ति से दिये जाने पर यह गुदा-द्वार के आस-पास छाले और दरारें उत्पन्न कर सकता है। इंजेक्शन के द्वारा दिये जाने पर इस दवा ने बुखार और अन्य स्थानीय प्रतिक्रियाएं उत्पन्न कीं. इन कठिनाइयों के बावजूद 1916 में राल्फ हॉपकिन्स (Ralph Hopkins), जो कि कारविल (Carville), लुइज़ियाना (Louisiana) स्थित लुइज़ियाना लेपर होम (Louisiana Leper Home) के उपस्थायी चिकित्सक थे, द्वारा 170 मरीजों की एक श्रृंखला का वर्णन किया गया। उन्होंने मरीजों को दो समूहों में विभाजित किया- 'आरंभिक' और 'विकसित'. विकसित मामलों में, अधिकतम एक चौथाई ने अपनी स्थिति में कोई सुधार या रोक प्रदर्शित की. आरंभिक मामलों में, उन्होंने 45% मरीजों में बीमारी की स्थिति में सुधार या स्थिरता की जानकारी दी; 4% की मृत्यु हो गई और 8% की मृत्यु हो गई। शेष मरीज होम से फरार हो गए जो कि संभवतः उन्नत स्थिति में थे।

इस एजेंट की स्पष्ट उपयोगिता को देखते हुए, इसके उन्नत सूत्रीकरण की खोज शुरु हुई. विक्टर हेज़र (Victor Heiser), मनीला में कुष्ठरोगियों के लिये बने सैन लैज़ारो अस्पताल के व्यवस्थापक चिकित्सक मनीला और एलिडोरो मर्केडोथो के लिये मुख्य संगरोध अधिकारी और स्वास्थ्य निदेशक, ने चालमुगरा और रेसॉर्सिन के नुस्खे में कपूर को शामिल करने का निर्णय लिया, जो कि जर्मनी में मर्क एन्ड कम्पनी (Merck and Company) द्वारा विशिष्ट तौर पर मौखिक रूप से दिया जाता था, जिनसे हेज़र ने संपर्क किया था। उन्होंने पाया कि यह नया यौगिक किसी भी प्रकार की मिचली, जिससे पूर्व में तैयार दवाओं को लेने में समस्या उत्पन्न हो रही थी, के बिना तुरंत अवशोषित कर लिया जाता था।
इसके बाद 1913 में में हेज़र (Heiser) और मर्सेडो (Mercado) ने दो मरीजों, जो कि इस बीमारी से उबर चुके लगते थे, में इंजेक्शन के द्वारा इस तेल का निरीक्षण किया। चूंकि इस उपचार का परीक्षण अन्य पदार्थों के साथ किया गया था, अतः इसके परिणाम स्पष्ट नहीं थे। इसके बाद पुनः दो मरीजों का उपचार इसी तेल के साथ इंजेक्शन के द्वारा और किसी भी अन्य उपचार के बिना किया गया और पुनः ऐसा प्रतीत हुआ कि वे इस बीमारी से ठीक हो गए हैं। अगले वर्ष हेज़र (Heiser) ने और 12 मरीजों का निरीक्षण किया, लेकिन इसके मिश्रित परिणाम प्राप्त हुए.

इस तेल के कम विषैले रूपों की खोज भी की गई जिन्हें इंजेक्शन के द्वारा शरीर में प्रविष्ट किया जा सके. इन तेलों के रासायनिक यौगिकों का वर्णन करने वाले शोध-पत्रों की एक श्रृंखला 1920 और 1922 के बीच प्रकाशित की गई। ये एलिस बॉल (Alice Ball) के कार्य पर आधारित रहे हो सकते हैं- इस बिंदु पर रिकॉर्ड स्पष्ट नहीं है और 1916 में ही सुश्री बॉल की मृत्यु हो गई। 1921 में इन रासायनिक यौगिकों के परीक्षण किये गये और वे उपयोगी परिणाम देने वाले प्रतीत हुए.

इन प्रयासों के पूर्व अन्य लोगों द्वारा भी प्रयास किये गये थे। मर्क ऑफ डार्म्सटाड (Merck of Darmstadt) ने 1891 में सोडियम लवणों का एक संस्करण उत्पन्न किया था। उन्होंने इस सोडियम का नाम गाइनोकार्डेट (gynocardate) रखा, जिसका कारण यह भ्रांत धारणा थी कि इस तेल का मूल-स्रोत गाइनोकार्डिया ओडोराटा (Gynocardia odorata) था। 1908 में बेयर ने ‘एंटिलेप्रोल (Antileprol)’ नाम से इन रासायनिक यौगिकों के एक वाणिज्यिक संस्करण का विपणन किया।

इसकी आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिये एजेंट जोसेफ रॉक (Joseph Rock), कॉलेज ऑफ हवाई में सुव्यवस्थित वनस्पति-शास्र (Systematic Botany) के प्रोफेसर, ने बर्मा की यात्रा की. स्थानीय ग्रामीणों ने बीज में पेड़ों के एक झुरमुट की स्थापना की, जिसका प्रयोग करके उन्होंने 1921 और 1922 के बीच ओहाउ द्वीप, हवाई (Island of Oahu, Hawaii) में 2,980 वृक्ष लगाए.
इसके आम दुष्प्रभावों के बावजूद यह तेल 1940 के दशक में सल्फोन (sulfone) के आगमत तक लोकप्रिय बना रहा. इसकी प्रभावोत्पादकता के बारे में बहस तब तक जारी रही, जब तक कि इसका प्रयोग बंद नहीं कर दिया गया।



बहुऔषध रोगी पैक और फफोले

प्रोमिन (Promin) को पहली बार 1908 में फ्रीलबर्ग इम ब्रिस्गाउ (Freiburg im Breisgau), जर्मनी स्थित एल्बर्ट-लुडविग यूनिवर्सिटी (Albert-Ludwig University) में रसायन-शास्र के प्रोफेसर एमिल फ्रोम (Emil Fromm) द्वारा संश्लेषित किया गया। उसकी स्ट्रेप्टोकॉल-विरोधी गतिविधि की पड़ताल ग्लैडस्टोन बटल (Gladstone Buttle) द्वारा बोरो वेलकम (Burroughs Wellcome) में और अर्नेस्ट फॉर्नियु (Ernest Fourneau) द्वारा इंस्टीट्युट पास्टियुर (Institut Pasteur) में की गई थी।

1940 के दशक में प्रोमिन (promin) का विकास होने तक, कुष्ठरोग के लिये कोई प्रभावी उपचार उपलब्ध नहीं था। प्रोमिन की प्रभावोत्पादकता की खोज सबसे पहले गाय हेनरी फैगेट (Guy Henry Faget) और उनके सह-कर्मियों द्वारा 1943 में कारविल, लुइज़ियाना में की गई। 1950 के दशक में, डॉ॰ आर. जी. कॉकार्न ने कारविल में डैप्सोन (dapsone) को प्रस्तुत किया। यह एम. लेप्री (M. leprae)के विरुद्ध जीवाणुओं की वृद्धि को सीमित करके संक्रमण को रोक पाने में कमजोर है और मरीजों के लिये अनिश्चित काल तक इस दवा का सेवन करते रहना आवश्यक माना गया। जब केवल डैप्सोन (dapsone) का प्रयोग किया जाता था, तो एम. लेप्री (M. leprae) की जनसंख्या ने बहुत जल्दी ही इस एंटीबायोटिक प्रतिरोध विकसित कर लिया; 1960 के दशक तक, विश्व की एक मात्र ज्ञात कुष्ठरोग-विरोधी दवा वास्तव में अनुपयोगी हो चुकी थी।

कुष्ठरोग-विरोधी अधिक प्रभावी दवाओं की खोज के परिणामस्वरूप 1960 के दशक और और 1970 के दशक में क्लोफैज़िमाइन (clofazimine) और राइफैम्पिसिन (rifampicinin) का प्रयोग शुरु हुआ।[56] इसके बाद, भारतीय वैज्ञानिक शांताराम यावलकर (Shantaram Yawalkar) और उनके सहयोगियों ने राइफैम्पिसिन (rifampicin) और डैप्सोन (dapsone) का प्रयोग करके एक संयुक्त उपचार का सूत्रण किया, जिसका लक्ष्य जीवाण्विक प्रतिरोध को घटाना था।[57] इस संयुक्त उपचार के प्रारंभिक परीक्षण 1970 के दशक में माल्टा में किये गये।
1981 में डब्ल्यूएचओ (WHO) की विशेषज्ञ समिति द्वारा पहली बार इन तीनों दवाओं के संयोजन से निर्मित बहु-औषधि उपचार (मल्टीड्रग थेरपी) (एमडीटी) (MDT) की अनुशंसा की गई। इन तीन कुष्ठरोग-विरोधी दवाओं का प्रयोग आज भी मानक (एमडीटी) (MDT) पथ्यों में किया जाता है। प्रतिरोध विकसित हो जाने के जोखिम के कारण इनमें से किसी को भी अकेले प्रयोग नहीं किया जाता.

यह उपचार काफी महंगा था और अधिकांश स्थानिक देशों में इसे शीघ्र नहीं अपनाया गया। 1985 में, कुष्ठरोग को अभी भी 122 देशों में एक सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या माना जाता था। 1991 में जेनेवा (Geneva) में आयोजित 44वीं विश्व स्वास्थ्य सभा (वर्ल्ड हेल्थ असेम्बली) (डब्ल्यूएचए) (WHA) ने वर्ष 2000 तक एक सार्वजनिक-स्वास्थ्य समस्या के रूप में कुष्ठरोग को मिटाने का एक प्रस्ताव पारित किया-जिसे इस बीमारी के वैश्विक प्रसार को 1 मामला प्रति 10,000 से भी कम मात्रा तक घटाने के रूप में परिभाषित किया गया था। इस सभा में, इसके सदस्य राज्यों द्वारा विश्व स्वास्थ्य संगठन (वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन) (डब्ल्यूएचओ) (WHO) को एक निर्मूलन रणनीति विकसित करने का जनादेश दिया गया, जो कि एमडीटी (MDT) की भौगोलिक कार्यक्षेत्र-व्याप्ति बढ़ाने और मरीजों तक उपचार की अभिगम्यता को बढ़ाने पर आधारित था।


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Saturday, March 23, 2019

कुष्ठ रोग से मुक्त [Leprosy-Cured ]

कुष्ठरोग (Leprosy) 

कुष्ठरोग (Leprosy) या हैन्सेन का रोग (Hansen’s Disease) (एचडी) (HD), चिकित्सक गेरहार्ड आर्मोर हैन्सेन (Gerhard Armauer Hansen) के नाम पर, माइकोबैक्टेरियम लेप्री (Mycobacterium leprae) और माइकोबैक्टेरियम लेप्रोमेटॉसिस (Mycobacterium lepromatosis) जीवाणुओं के कारण होने वाली एक दीर्घकालिक बीमारी है। कुष्ठरोग मुख्यतः ऊपरी श्वसन तंत्र के श्लेष्म और बाह्य नसों की एक ग्रैन्युलोमा-संबंधी (granulomatous) बीमारी है; त्वचा पर घाव इसके प्राथमिक बाह्य संकेत हैं। यदि इसे अनुपचारित छोड़ दिया जाए, तो कुष्ठरोग बढ़ सकता है, जिससे त्वचा, नसों, हाथ-पैरों और आंखों में स्थायी क्षति हो सकती है। लोककथाओं के विपरीत, कुष्ठरोग के कारण शरीर के अंग अलग होकर गिरते नहीं, हालांकि इस बीमारी के कारण वे सुन्न तथा/या रोगी बन सकते हैं।

कुष्ठरोग ने 4,000 से भी अधिक वर्षों से मानवता को प्रभावित किया है, और प्राचीन चीन, मिस्र और भारत की सभ्यताओं में इसे बहुत अच्छी तरह पहचाना गया है। पुराने येरुशलम शहर के बाहर स्थित एक मकबरे में खोजे गये एक पुरुष के कफन में लिपटे शव के अवशेषों से लिया गया डीएनए (DNA) दर्शाता है कि वह पहला मनुष्य है, जिसमें कुष्ठरोग की पुष्टि हुई है। 1995 में, विश्व स्वास्थ्य संगठन (वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन) (डब्ल्यूएचओ) (WHO) के अनुमान के अनुसार कुष्ठरोग के कारण स्थायी रूप से विकलांग हो चुके व्यक्तियों की संख्या 2 से 3 मिलियन के बीच थी। पिछले 20 वर्षों में, पूरे विश्व में 15 मिलियन लोगों को कुष्ठरोग से मुक्त किया जा चुका है। हालांकि, जहां पर्याप्त उपचार उपलब्ध हैं, उन स्थानों में मरीजों का बलपूर्वक संगरोध या पृथक्करण करना अनावश्यक है, लेकिन इसके बावजूद अभी भी पूरे विश्व में भारत (जहां आज भी 1,000 से अधिक कुष्ठ-बस्तियां हैं),[10] चीन,[11]रोमानिया,[12] मिस्र, नेपाल, सोमालिया, लाइबेरिया, वियतनाम[13] और जापान[14] जैसे देशों में कुष्ठ-बस्तियां मौजूद हैं। एक समय था, जब कुष्ठरोग को अत्यधिक संक्रामक और यौन-संबंधों के द्वारा संचरित होने वाला माना जाता था और इसका उपचार पारे के द्वारा किया जाता था- जिनमें से सभी धारणाएं सिफिलिस (syphilis) पर लागू हुईं, जिसका पहली बार वर्णन 1530 में किया गया था। अब ऐसा माना जाता है कि कुष्ठरोग के शुरुआती मामलों से अनेक संभवतः सिफिलिस (syphilis) के मामले रहे होंगे.[15] अब यह ज्ञात हो चुका है कि कुष्ठरोग न तो यौन-संपर्क के द्वारा संचरित होता है और न ही उपचार के बाद यह अत्यधिक संक्रामक है क्योंकि लगभग 95% लोग प्राकृतिक रूप से प्रतिरक्षित होते हैं[16] और इससे पीड़ित लोग भी उपचार के मात्र 2 सप्ताह बाद ही संक्रामक नहीं रह जाते.

कुष्ठरोग के उन्नत रूपों से जुड़ा सदियों पुराना सामाजिक-कलंक, दूसरे शब्दों में कुष्ठरोग का कलंक,[17] अनेक क्षेत्रों में आज भी मौजूद है और यह अभी भी स्व-सूचना और जल्द उपचार के प्रति एक बड़ी बाधा बना हुआ है। 1930 के दशक के अंत में डैप्सोन (dapsone) और इसके व्युत्पन्नों की प्रस्तुति के साथ ही कुष्ठरोग के लिये प्रभावी उपचार प्राप्त हुआ। शीघ्र ही डैप्सोन (dapsone) के प्रति प्रतिरोधी कुष्ठरोग दण्डाणु विकसित हो गया और डैप्सोन (dapsone) के अति-प्रयोग के कारण यह व्यापक रूप से फैल गया। 1980 के दशक के प्रारंभ में बहु-औषधि उपचार (मल्टीड्रग थेरपी) (एमडीटी) (MDT) के आगमन से पूर्व तक समुदाय के भीतर इस बीमारी का निदान और उपचार कर पाना संभव नहीं हो सका था।[18]

बहु-दण्डाणुओं के लिये एमडीटी (MDT) 12 माह तक ली जाने वाली राइफैम्पिसिन (rifampicin), डैप्सोन (dapsone) और क्लोफैज़िमाइन (clofazimine) से मिलकर बना होता है। बच्चों और वयस्कों के लिये उपयुक्त रूप से समायोजित खुराकें सभी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में ब्लिस्टर के पैकेटों के रूप में उपलब्ध हैं।[18] एकल घाव वाले कुष्ठरोग के लिये एकल खुराक वाला एमडीटी (MDT) राइफैम्पिसिन (rifampicin), ऑफ्लॉक्सैसिन (ofloxacin) और माइनोसाइक्लाइन (minocycline) से मिलकर बना होता है। एकल खुराक वाली उपचार रणनीतियों की ओर बढ़ने के कारण कुछ क्षेत्रों में इस बीमारी के प्रसार में कमी आई है क्योंकि इसका प्रसार उपचार की अवधि पर निर्भर होता है।
कुष्ठरोग और इसके पीड़ितों के प्रति जागरुकता बढ़ाने के लिये विश्व कुष्ठरोग दिवस (वर्ल्ड लेप्रसी डे) की स्थापना की गई।

कुष्ठ रोग एक क्रोनिक, प्रोग्रेसिव बैक्‍टीरियल इंफेक्‍शन है

कुष्ठ माइकोबैक्टीरियम लेप्राई जीवाणु के कारण होता है

कुष्ठ रोग को हैनसेन रोग के रूप में भी जाना जाता है

कुष्ठ रोग एक क्रोनिक, प्रोग्रेसिव बैक्‍टीरियल इंफेक्‍शन है जो माइकोबैक्टीरियम लेप्राई जीवाणु के कारण होता है। यह मुख्य रूप से आंतों की नसों, त्वचा, नाक की परत और ऊपरी श्वसन पथ को प्रभावित करता है। कुष्ठ रोग को हैनसेन रोग के रूप में भी जाना जाता है। कुष्ठ रोग त्वचा के अल्सर, तंत्रिका क्षति और मांसपेशियों की कमजोरी पैदा करता है। यदि इसका इलाज नहीं किया जाता है, तो यह गंभीर कुरूपता और महत्वपूर्ण विकलांगता का कारण बन सकता है।
अगर दुनिया के इतिहास को देखा जाए तो कुष्‍ठ सबसे पुरानी बीमारियों में से एक है। कुष्ठ रोग लिखित रूप से पहली बार 600 ई.पू. में देखने को मिला था। कुष्ठ रोग कई देशों में आम है, खासकर उष्णकटिबंधीय या उपोष्णकटिबंधीय जलवायु वाले स्‍थानों पर यह आम है।


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Friday, March 22, 2019

मनोविकार के मुख्य रोग

मनोविकार के मुख्य  रोग

मानसिक विकार बहुत तरह के होते हैं। ये विकार व्यक्तित्व, मनोदशा (मूड), खाने की आदतों, चिन्ता आदि से सम्बन्धित हो सकते हैं। इस प्रकार मानसिक रोगों की सूची बहुत बड़ी है। कुछ मुख्य मनोरोगों की सूची नीचे दी गयी है-


  • दुर्भीति (फोबिया),
  • मनोदशा विकार (मूड डिस्‍आर्डर),
  • ज्ञानात्‍मक विकार (काग्निटिव डिस्‍आर्डर),
  • व्‍यक्तित्‍व विकार,
  • खंडित मनस्‍कता (शाइज़ोफ्रेनिया) और
  • द्रव्‍य संबंधी विकार (सबस्‍टैंस रिलेटेड डिस्‍आर्डर) ; जैसे मद्यसार (ऐलकोहाल) पर निर्भरता
  • अवसाद (Depression)
  • एकध्रुवीय अवसाद या 'मुख्य अवसादी विकार'
  • द्विध्रुवी विकार
  • आईईडी (Intermittent explosive disorder)
  • चिंतात्त
  • चिंताविभ्रम
  • बहुव्यक्तित्व विकार
  • मनोविक्षिप्ति
  • मानसिक मन्दन
  • संविभ्रम
  • अंतराबंध या स्किजोफ्रीनिया
  • उत्पीड़न भ्रांति

  • मनोरोगों के मुख्य कारण

मनोरोगों के कारण कई प्रकार के होते हैं। इनमें से मुख्य प्रकार निम्नलिखित हैं :

जैविक कारण

आनुवंशिक : मनोविक्षिप्ति या साइकोसिस (जैसे स्कीजोफ्रीनिया, उन्माद, अवसाद इत्यादि), व्यक्तित्व रोग, मदिरापान, मंदबुद्धि, मिर्गी इत्यादि रोग उन लोगों में अधिक पाये जाते हैं, जिनके परिवार का कोई सदस्य इनसे पीड़ित हों तो संतान को इनका खतरा लगभग दोगुना हो जाता है।

शारीरिक गठन

स्थूल (मोटे) व्यक्तियों में भावात्मक रोग (उन्माद, अवसाद या उदासी इत्यादि), हिस्टीरिया, हृदय रोग इत्यादि अधिक होते हैं जबकि लंबे एवं दुबले गठन वाले व्यक्तियों में विखंडित मनस्कता (स्कीजोफ्रीनिया), तनाव, व्यक्तित्व रोग अधिक पाये जाते हैं।

व्यक्तित्व

अपने में खोये हुए, चुप रहने वाले, कम मित्र रखने वाले किताबी-कीड़े जैसे गुण वाले, स्कीजायड व्यक्तित्व वाले लोगों में स्कीजोफ्रीनिया अधिक होता है, जबकि अनुशासित तथा सफाई पसंद, समयनिष्ठ, मितव्ययी जैसे गुणों वाले खपती व्यक्तित्व के लोगों में खपत रोग (बाध्य विक्षिप्त) अधिक पाया जाता है।


शरीरवृत्तिक कारण

किशोरावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था, गर्भ-धारण जैसे शारीरिक परिवर्तन कई मनोरोगों का आधार बन सकते हैं।


वातावरण जनित कारण

शारीरिक खान-पान संबंधी कारण

कुछ दवाओं, रासायनिक तत्वों, धातुओं, मदिरा तथा अन्य मादक पदार्थों इत्यादि का सेवन मनोरोगों की उत्पत्ति का कारण बन सकता हैं।

मनोवैज्ञानिक कारण

आपसी संबंधों में तनाव, किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु, सम्मान को ठेस, कार्य को खो बैठना, आर्थिक हानि, विवाह, तलाक, शिशु जन्म, कार्य-निवृत्ति, परीक्षा या प्यार में असफलता इत्यादि भी मनोरोगों को उत्पन्न करने या बढ़ाने में योगदान देते हैं।

सामाजिक-सांस्कृतिक कारण

सामाजिक एवं मनोरंजक गतिविधियों से दुराव, अकेलापन, राजनीतिक, प्राकृतिक या सामाजिक दुर्घटनाएं (जैसे कि लूटमार, आतंक, भूकंप, अकाल, बाढ़, सामाजिक बोध एवं अवरोध, महंगाई, बेरोजगारी इत्यादि) मनोरोग उत्पन्न कर सकते हैं।


मनोरोग के तथ्य

1. मनोरोग चिकित्सक द्वारा दवाएं बतायी गई हैं तो इनका सेवन अवश्य करना चाहिए।

2. दूसरी बीमारियों की तरह यह रोग भी आंतरिक स्तर पर जैविक असंतुलन की वजह से होता है।

3. निगरानी में दवाएं लेना कारगर होता है, अब तो नई दवाओं के उपलब्ध होने के बाद लंबी अवधि तक दवाएं लेने के मामले कम हो रहे हैं।

4. दवाओं के सेवन से मनोविकारों में काफी कमी होती है, खासतौर से तब जबकि इलाज शुरूआती चरण में आरंभ हो जाए।

5. मनोविकारों के उपचार में दी जाने वाली दवाएं रासायनिक असंतुलन को बहाल करती हैं, कुछ दवाओं से नींद आती है लेकिन वे नींद की गोलियां नहीं होतीं।

6. अवसाद जैसे मनोविकार भी मधुमेह या उच्च रक्तचाप की तरह के रोग ही होते हैं और इनके लिए भी विषेशज्ञ की देखरेख में इलाज कराने की आवश्यकता होती है।


गलत धारणाएं

मानसिक रोग या पागलपन एक ऐसा शब्द है जिससे इसके कारणों एवं उपचार के विषय में न जाने कितनी भ्रांतियाँ एवं आशंकाएँ जुड़ी हैं। कुछ लोग इसे एक असाध्य, आनुवांशिक एवं छूत की बीमारी मानते हैं, तो कुछ जादू-टोना, भूत-प्रेत व डायन का प्रकोप। कुछ लोग इसे बीमारी न मानकर जिम्मेदारियों से बचने का नाटक मात्र भी मानते हैं।

अज्ञानी लोग उपचार के लिए स्थानीय या नजदीक ओझा, पंडित, मुल्ला आदि के पास जाकर अनावश्यक भभूत, जड़ी-बूटी का सेवन करते हैं तथा अमानवीय ढ़ंग से सताये जाते हैं ताकि 'पिशाचात्मा' का प्रकोप दूर किया जा सके।

यह सब गलत है। सही धारणा यह है कि यह बीमारी है और वैज्ञानिक ढंग से चिकित्सा विज्ञान द्वारा इसका इलाज संभव है। ये भी सही नहीं है कि-

1. मानसिक विकार कोई रोग नहीं हैं बल्कि बुरी आत्माओं की वजह से पैदा होते हैं।

2. दवाओं के सेवन से बचना चाहिए।

3. आपको यह रोग अपनी कमजोरी से हुआ है और इससे बचाव करना चाहिए।

4. दवाएं नुकसानदायक होती हैं, ये निर्भरता बढ़ाती हैं और जीवनभर लेनी पड़ती हैं।

5. ज्यादातर मनोविकारों का कोई इलाज नहीं होता।

6. बच्चों को दवाएं नहीं दी जानी चाहिए।

7. इलाज के लिए नींद की गोलियां दी जाती हैं।

8. अवसाद जैसे मर्ज अपने आप ठीक होते हैं या प्रभावित व्यक्ति के प्रयासों से।

9. देवी देवताओं या झाड़फूंक से रोग सही हो सकता है। yes



आयुर्वेद के अनुसार मानस रोग

रजस्तमश्च् मानसौ दोषौ-तयोवकारा काम, क्रोध, लोभ, माहेष्यार्मानमद शोक चित्तोस्तो द्वेगभय हषार्दयः ।
रज और तम ये दो मानस रोग हैं । इनकी विकृति से होने वाले विकार मानस रोग कहलाते हैं ।

मानस रोग-

काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्यार्, मान, मद, शोक, चिन्ता, उद्वेग, भय, हषर्, विषाद, अभ्यसूया, दैन्य, मात्सयर् और दम्भ ये मानस रोग हैं ।

१. काम- इन्द्रियों के विषय में अधिक आसक्ति रखना 'काम' कहलाता है ।

२. क्रोध- दूसरे के अहित की प्रवृत्ति जिसके द्वारा मन और शरीर भी पीड़ित हो उसे क्रोध कहते हैं ।

३. लोभ- दूसरे के धन, स्त्री आदि के ग्रहण की अभिलाषा को लोभ कहते हैं ।

४. ईर्ष्या- दूसरे की सम्पत्ति-समृद्धि को सहन न कर सकने को ईर्ष्या कहते हैं ।

५. अभ्यसूया- छिद्रान्वेषण के स्वभाव के कारण दूसरे के गुणों को भी दोष बताना अभ्यसूया या असूया कहते हैं ।

६. मात्सर्य- दूसरे के गुणों को प्रकट न करना अथवा कू्ररता दिखाना 'मात्सर्य' कहलाता है ।

७. मोह- अज्ञान या मिथ्या ज्ञान (विपरीत ज्ञान) को मोह कहते हैं ।

८. मान- अपने गुणों को अधिक मानना और दूसरे के गुणों का हीन दृष्टि से देखना 'मान' कहलाता है ।

९. मद- मान की बढ़ी हुई अवस्था 'मद' कहलाती है ।

१०. दम्भ- जो गुण, कमर् और स्वभाव अपने में विद्यमान न हों, उन्हें उजागरकर दूसरों को ठगना 'दम्भ' कहलाता है ।

११. शोक- पुत्र आदि इष्ट वस्तुओं के वियोग होने से चित्त में जो उद्वेग होता है, उसे शोक कहते हैं ।

१२. चिन्ता- किसी वस्तु का अत्यधिक ध्यान करना 'चिन्ता' कहलाता है ।

१३. उद्वेग- समय पर उचित उपाय न सूझने से जो घबराहट होती है उसे 'उद्वेग' कहते हैं ।

१४. भय- अन्य आपत्ति जनक वस्तुओं से डरना 'भय' कहलाता है ।

१५. हर्ष- प्रसन्नता या बिना किसी कारण के अन्य व्यक्ति की हानि किए बिना अथवा सत्कर्म करके मन में प्रसन्नता का अनुभव करना हषर् कहलाता है ।

१६. विषाद- कार्य में सफलता न मिलने के भय से कार्य के प्रति साद या अवसाद-अप्रवृत्ति की भावना 'विषाद' कहलाता है ।

१७. दैन्य- मन का दब जाना- अथार्त् साहस और धर्य खो बैठना दैन्य कहलाता है ।

ये सब मानस रोग 'इच्छा' और 'द्वेष' के भेद से दो भागों में विभक्त किये जा सकते हैं । किसी वस्तु (अथर्) के प्रति अत्यधिक अभिलाषा का नाम 'इच्छा' या 'राग' है । यह नाना वस्तुओं और न्यूनाधिकता के आधार पर भिन्न-भिन्न होती है ।

हर्ष, शोक, दैन्य, काम, लोभ आदि इच्छा के ही दो भेद हैं । अनिच्छित वस्तु के प्रति अप्रीति या अरुचि को द्वेष कहते हैं । वह नाना वस्तुओं पर आश्रत और नाना प्रकार का होता है । क्रोध, भय, विषाद, ईर्ष्या, असूया, मात्सर्य आदि द्वेष के ही भेद हैं ।


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Thursday, March 21, 2019

मनोविकार (Mental disorder)

मनोविकार (Mental disorder) 

किसी व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य की वह स्थिति है जिसे किसी स्वस्थ व्यक्ति से तुलना करने पर 'सामान्य' नहीं कहा जाता। स्वस्थ व्यक्तियों की तुलना में मनोरोगों से ग्रस्त व्यक्तियों का व्यवहार असामान्‍य अथवा दुरनुकूली (मैल एडेप्टिव) निर्धारित किया जाता है और जिसमें महत्‍वपूर्ण व्‍यथा अथवा असमर्थता अन्‍तर्ग्रस्‍त होती है। इन्हें मनोरोग, मानसिक रोग, मानसिक बीमारी अथवा मानसिक विकार भी कहते हैं।

मनोरोग मस्तिष्क में रासायनिक असंतुलन की वजह से पैदा होते हैं तथा इनके उपचार के लिए मनोरोग चिकित्सा की जरूरत होती है।[1]

मनोविकार का परिचय

मनोविज्ञान में हमारे लिए असामान्य और अनुचित व्यवहारों को मनोविकार कहा जाता है। ये धीरे-धीरे बढ़ते जाते हैं। मनोविकारों के बहुत से कारक हैं, जिनमें आनुवांशिकता, कमजोर व्यक्तित्व, सहनशीलता का अभाव, बाल्यावस्था के अनुभव, तनावपूर्ण परिस्थितियां और इनका सामना करने की असामर्थ्य सम्मिलित हैं।

वे स्थितियां, जिन्हें हल कर पाना एवं उनका सामना करना किसी व्यक्ति को मुश्किल लगता है, उन्हें 'तनाव के कारक' कहते हैं। तनाव किसी व्यक्ति पर ऐसी आवश्यकताओं व मांगों को थोप देता है जिसे पूरा करना वह अति दूभर और मुश्किल समझता है। इन मांगों को पूरा करने में लगातार असफलता मिलने पर व्यक्ति में मानसिक तनाव पैदा होता है।


तनाव : अशांत मानसिक स्वास्थ्य के स्रोत के रूप में

आज के समय में तनाव लोगों के लिए बहुत ही सामान्य अनुभव बन चुका है, जो कि अधिसंख्य दैहिक और मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाओं द्वारा व्यक्त होता है। तनाव की पारंपरिक परिभाषा दैहिक प्रतिक्रिया पर केंद्रित है। हैंस शैले( Hans Selye) ने 'तनाव' (स्ट्रेस) शब्द को खोजा और इसकी परिभाषा शरीर की किसी भी आवश्यकता के आधार पर अनिश्चित प्रतिक्रिया के रूप में की। हैंस शैले की पारिभाषा का आधार दैहिक है और यह हारमोन्स की क्रियाओं को अधिक महत्व देती है, जो ऐड्रिनल और अन्य ग्रन्थियों द्वारा स्रवित होते हैं।

शैले ने दो प्रकार के तनावों की संकल्पना की-

(क) यूस्ट्रेस (eustress) अर्थात मधयम और इच्छित तनाव जैसे कि प्रतियोगी खेल खेलते समय

(ख) विपत्ति (distress/डिस्ट्रेस) जो बुरा, असंयमित, अतार्किक या अवांछित तनाव है।

तनाव पर नवीन उपागम व्यक्ति को उपलब्ध समायोजी संसाधनों के सम्बन्ध में स्थिति के मूल्यांकन एवं व्याख्या की भूमिका पर केंद्रित है। मूल्यांकन और समायोजन की अन्योन्याश्रित प्रक्रियायें व्यक्ति के वातावरण एवं उसके अनुकूलन के बीच सम्बन्ध निर्धारण करती है। अनुकूलन वह प्रक्रिया है जिस के द्वारा व्यक्ति दैहिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक हित के इष्टतम स्तर को बनाए रखने के लिए अपने आसपास की स्थितियाँ एवं वातावरण को व्यवस्थित करता है।


मनोविकारों के प्रकार

तनावपूर्ण स्थितियों का सामना करते समय आमतौर पर व्यक्ति समस्या केंद्रित या मनोभाव केंद्रित कूटनीतियों को अपनाता है। समस्या केंद्रित नीति द्वारा व्यक्ति अपने बौद्विक साधानों के प्रयोग से तनावपूर्ण स्थितियों का समाधान ढूंढता है और प्रायः एक प्रभावशाली समाधान की ओर पहुंचता है। मनोभाव केंद्रित नीति द्वारा तनावपूर्ण स्थितियों का सामना करते समय व्यक्ति भावनात्मक व्यवहार को प्रदर्शित करता है जैसे चिल्लाना। यद्यपि, यदि कोई व्यक्ति तनाव का सामना करने में असमर्थ होता है तब वह प्रतिरोधक-अभिविन्यस्त कूटनीति की ओर रूझान कर लेता है, यदि ये बारबार अपनाए जाएं तो विभिन्न मनोविकार उत्पन्न हो सकते हैं। प्रतिरोधक-अभिविन्यस्त व्यवहार परिस्थिति का सामना करने में समर्थ नहीं बनाते, ये केवल अपनी कार्यवाहियों को न्यायसंगत दिखाने का जरिया मात्र है।

शारीरिक समस्याएं जैसे ज्वर, खांसी, जुकाम इत्यदि ये विभिन्न प्रकार के मनोविकार होते हैं। इन वर्गों के मनोविकारों की सूची न्यूनतम व्यग्रता से लेकर गंभीर मनोविकारों जैसे मनोभाजन या खंडित मानसिकता तक है। अमेरिकी मनोविकारी संघ (American Psychiatric Association) द्वारा मनोविकारों पर नैदानिक और सांख्यिकीय नियम पुस्तक ( Diagnostic and Statistical Manual of Mental Disorders (DSM)) को प्रकाशित किया गया है जिस में विविध प्रकार के मानसिक विकारों का उल्लेख किया गया है। मनोविज्ञान की जो शाखा विकारों का समाधान खोजती है उसे असामान्य मनोविज्ञान कहा जाता है।


बाल्यावस्था के विकार

ये जान कर शायद आपको आश्चर्य हो कि बच्चे भी मनोविकारों का शिकार हो सकते हैं। डीएसएम, का चौथा संस्करण बाल्यावस्था के विभिन्न प्रकार के विकारों का समाधान ढूंढता है, आमतौर पर यह पहली बार शैशवकाल, बाल्यावस्था या किशोरावस्था में पहचान में आते हैं। इन में से कुछ सावधान-अभाव अतिसक्रिय विकार पाए जाते हैं जिसमें बच्चा सावधान या एकाग्र नहीं रहता या वह अत्यधिक फुर्तीला व्यवहार करता है। और स्वलीन विकारजिसमें बच्चा अंतर्मुखी हो जाता है, बिल्कुल नहीं मुस्कुराता और देर से भाषा सीखता है।


व्यग्रता विकार

यदि कोई व्यक्ति बिना किसी विशेष कारण के डरा हुआ, भयभीत या चिंता महसूस करता है तो कहा जा सकता है कि वह व्यक्ति व्यग्रता विकार (Anxiety disorder) से ग्रस्त है। व्यग्रता विकार के विभिन्न प्रकार होते हैं जिसमें चिंता की भावना विभिन्न रूपों में दिखाई देती है। इनमें से कुछ विकार किसी चीज से अत्यन्त और तर्करहित डर के कारण होते हैं और जुनूनी-बाध्यकारी विकार जहां कोई व्यक्ति बारबार एक ही बात सोचता रहता है और अपनी क्रियाओं को दोहराता है।



मनोदशा विकार

वे व्यक्ति जो मनोदशा विकार (मूड डिसॉर्डर) के अनुभवों से ग्रसित होते हैं उनके मनोभाव दीर्घकाल तक प्रतिबंधित हो जाते हैं, वे व्यक्ति किसी एक मनोभाव पर स्थिर हो जाते हैं, या इन भावों की श्रेणियों में अदल-बदल करते रहते हैं। उदाहरण स्वरूप चाहे कोई व्यक्ति कुछ दिनों तक उदास रहे या किसी एक दिन उदास रहे और दूसरे ही दिन खुश रहे, उस के व्यवहार का परिस्थिति से कुछ संबंध न हो। इस तरह व्यक्ति के व्यवहारिक लक्षणों पर आश्रित मनोदशा विकार दो प्रकार के होते हैं -

(क) अवसाद, और

(ख) द्विध्रुवीय विकार।

अवसाद ऐसी मानसिक अवस्था है जो कि उदासी, रूचि का अभाव और प्रतिदिन की क्रियाओं में प्रसन्नता का अभाव, अशांत निद्रा व नींद घट जाना, कम भूख लगना, वजन कम हो ना, या ज्यादा भूख लगना व वजन बढ़ना, आलस, दोषी महसूस करना, अयोग्यता, असहायता, निराशा, एकाग्रता स्थापित करने में परे शानी और अपने व दूसरों के प्रति नकरात्मक विचारधारा के लक्षणों को दर्शाती है। यदि किसी व्यक्ति को इस तरह के भाव न्यूनतम दो सप्ताह तक रहें तो उसे अवसादग्रस्त कहा जा सकता है और उस के उपचार के लिए उसे शीघ्र नैदानिक चिकित्सा प्रदान करवाना आवश्यक है।


मनोदैहिक और दैहिकरूप विकार

आज के समय में कुछ बीमारियाँ बहुत ही साधारण बन चुकी हैं जैसे निम्न रक्तचाप, उच्च रक्तचाप, मधुमेह आदि। वैसे तो ये सब शारीरिक बीमारियाँ हैं परंतु ये मनावैज्ञानिक कारणों जैसे तनाव व चिंता से उत्पन्न होती हैं। अतः मनोदैहिक विकार वे मनोवैज्ञानिक समस्याएं हैं जो शारीरिक लक्षण दर्शातीं हैं, लेकिन इसके कारण मनोवैज्ञानिक होते है। वहीं मनोदैहिक की अवधारणा में मन का अर्थ मानस है और दैहिक का अर्थ शरीर है। इसके विपरीत दैहिकरूप विकार, वे विकार हैं जिनके लक्षण शारीरिक है परंतु इनके जैविक कारण सामने नहीं आते। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति पेटदर्द की शिकायत कर रहा है परंतु तब भी जब उसके उस खास अंग अर्थात पेट में किसी तरह की कोई समस्या नहीं होती।


विघटनशील विकार

किसी-किसी अभिघातज घटना के बाद व्यक्ति अपना पिछला अस्तित्व, गत घटनाएं और आस-पास के लोगों को पहचानने में असमर्थ हो जाता है। नैदानिक मनोविज्ञान में इस तरह की समस्याओं को विघटनशील विकार (Dissociative disorders) कहा जाता है, जिसमें किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व समाजच्युत व समाज से पृथक हो जाता है।

विघटनशील स्मृतिलोप ( dissociative amnesia), विघटनशील मनोविकार का एक वर्ग है, जिसमें व्यक्ति आमतौर पर किसी तनावपूर्ण घटना के बाद महत्वपूर्ण व्यक्तिगत सूचना को याद करने में असमर्थ हो जाता है। विघटन की स्थिति में व्यक्ति अपने नये अस्तित्व को महसूस करता है। दूसरा वर्ग विघटनशील पहचान विकार(dissociative identity disorder) है जिसमें व्यक्ति अपनी याददाश्त तो खो ही देता है वहीं नये अस्तित्व की कल्पना करने लगता है। अन्य वर्ग व्यक्तित्वलोप विकार है, जिसमें व्यक्ति अचानक बदलाव या भिन्न प्रकार से विचित्र महसूस करता है। व्यक्ति इस प्रकार महसूस करता है जैसे उसने अपने शरीर को त्याग दिया हो या फिर उस की गतिविधियां अचानक से यांत्रिक या स्वप्न के जैसी हो जाती है। हालांकि विघटन मनोविकार की सब से गम्भीर स्थिति तब उत्पन्न हो ती है जब कोई एकाधिक व्यक्तित्व मनोविकार व विघटन अस्तित्व मनोविकार से ग्रस्त हो। इस स्थिति में विविध व्यक्तित्व एक ही व्यक्ति में अलग-अलग समय पर प्रकट होते हैं।


मनोविदलन और मनस्तापी (Psychotic) विकार

आपने सड़क पर कभी किसी व्यक्ति को गंदे कपड़ों में, कूड़े के आसपास पड़े अस्वच्छ भोजन को खाते या फिर अजीब तरीके से बातचीत या व्यवहार करते हुए देखा होगा। उनमें व्यक्ति, स्थान व समय के विषय में कमजोर अभिविन्यास होता है। हम अक्सर उन्हें पागल, बेसुधा आदि कह देते हैं, परंतु नैदानिक भाषा में इन्हें मनोविदलित कहते हैं। ये मनोविकार की एक गंभीर परिस्थिति होती है, जो अशांत विचारों, मनोभावों व व्यवहार से होते हैं। मनोविदलन विकारों में असंगत मानसिकता, दोषपूर्ण अभिज्ञा, संचालक कार्यकलापों में बाधा, नीरस व अनुपयुक्त भाव होते हैं। इससे ग्रस्त व्यक्ति वास्तविकता से निर्लिप्त रहते हैं और अक्सर काल्पनिकता और भ्रांति की दुनिया में खोये रहते है।

विभ्रांति का अर्थ किसी ऐसी चीज को देखना है जो वास्तव में भौतिक रूप से वहाँ नहीं होती, कुछ ऐसी आवाजें जो वहां पर वास्तव में नहीं हैं। भ्रमासक्ति वास्तविकता के प्रति अंधाविश्वास है इस तरह के विश्वास दूसरों से सम्बंध विच्छेद करते हैं। मनोविदलन के विभिन्न प्रकार हैं जैसे कैटाटोनिक मनोविदलन।


व्यक्तित्व मनोविकार


व्यक्तित्व विकार (पर्सनालिटी डिसॉर्डर) की जड़ें किसी व्यक्ति के शैशव काल से जुड़ीं होती हैं, जहां कुछ बच्चे लोचहीन व अशुद्व विचारधारा विकसित कर लेते हैं। ये विभिन्न व्यक्तित्व मनोविकार व्यक्ति में हानिरहित अलगाव से ले कर भावनाहीन क्रमिक हत्यारे के रूप में सामने आते हैं। व्यक्तित्व मनोविकारों की श्रेणियों को तीन समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है। पहले, समूह की विशेषता अजीब और सनकी व्यवहार है। चिंता और शक दूसरे समूह की विशेषता है और तीसरे समूह की विशेषता है नाटकीय, भावपूर्ण और अनियमित व्यवहार। पहले समूह में व्यामोहाभ, अन्तराबन्धा, पागल (सिज़ोटाइपल) व्यक्तित्व विकार सम्मिलित हैं। दूसरे समूह में आश्रित, परिवर्जित, जुनूनी व्यक्तित्व मनोविकार बताए गए हैं। असामाजिक, सीमावर्ती, अभिनय (हिस्ट्राथमिक), आत्ममोही व्यक्तित्व विकार तीसरे समूह के अन्तर्गत आते हैं।



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Wednesday, March 20, 2019

मानसिक रोग का निदान

मानसिक रोग का निदान - Diagnosis of Mental Illness 

मानसिक रोग के निदान और संबंधित जटिलताओं की जांच करने के लिए, निम्नलिखित जाँच की जा सकती हैं -

1. शारीरिक परीक्षण
शारीरिक परीक्षण में आपके डॉक्टर उन शारीरिक समस्याओं को दूर करने की कोशिश करेंगे जो आपके लक्षणों का कारण बन सकते हैं।

2. लैब टेस्ट
लैब परीक्षण में आपके थायराइड की जांच या शराब और ड्रग्स की जांच की जा सकती है। (और पढ़ें - महिलाओं में थायराइड लक्षण)

3. मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन
मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन में आपके डॉक्टर आपके लक्षणों, विचारों, भावनाओं और व्यवहार के बारे में आपसे पूछते हैं। आपको एक प्रश्नावली भरने के लिए भी कहा जा सकता है।


मानसिक रोग का उपचार - Mental Illness Treatment 

मानसिक रोग के उपचार निम्नलिखत हैं -

1. अस्पतालमें भर्ती होने की ज़रुरत 

अस्पताल में भर्ती होने पर मानसिक रोग के उपचार में आमतौर पर स्थिरीकरण, निगरानी, दवा, तरल पदार्थ और पोषण की देखभाल और अन्य जरूरी आपातकालीन देखभाल होती हैं।

एक व्यक्ति को अस्पताल में भर्ती होने की आवश्यकता होती है जब -

1. उन्हें गंभीर मानसिक स्वास्थ्य के लक्षण हों।
2. मतिभ्रम या भ्रम हों।
3. आत्मघाती विचारधारा हो।
4. बहुत दिन के लिए सोए नहीं या खाना नहीं खाया।
5. मानसिक स्वास्थ्य के लक्षणों के कारण स्वयं की देखभाल 6. करने की क्षमता नहीं रही।

2. मनोचिकित्सा

मानसिक रोग के लिए कई विभिन्न प्रकार की मनोचिकित्सा उपलब्ध हैं, जैसे -

1. व्यक्तिगत चिकित्सा -  व्यक्तिगत चिकित्सा एक ऐसी मनोचिकित्सा है जहां एक व्यक्ति अपने चिकित्सक के साथ कई तरह की विभिन्न रणनीतियों और तरीकों का इस्तेमाल करते हुए भावनाओं, दुखों और अन्य मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का पता लगाते हैं।

2. ग्रुप थेरेपी -  ग्रुप थेरेपी में आमतौर पर एक चिकित्सक नेतृत्व करते हैं और इसमें कई लोग शामिल होते हैं।

3. पारिवारिक चिकित्सा -  पारिवारिक मनोचिकित्सा में परिवार के सदस्य मुद्दों को हल करने के लिए एक चिकित्सक से मिलते हैं।

4. संज्ञानात्मक व्यवहार थेरेपी (Cognitive Behavioral Therapy) -  संज्ञानात्मक व्यवहार थेरेपी सबसे आम मनोचिकित्सा है। इसका इस्तेमाल व्यक्तिगत, ग्रुप या परिवार के स्तर पर किया जा सकता है। इस चिकित्सा में, चिकित्सक मरीज़ के असामान्य विचारों और व्यवहारों को सकारात्मक विचारों से बदलने की कोशिश करते हैं।

5. डायलेक्टिकल वर्चुअल थेरेपी (Dialectical behavior therapy) -  इस मनोचिकित्सा में अस्वास्थ्यकर विचारों, भावनाओं और व्यवहारों को स्वीकार और मान्य करने पर जोर दिया जाता है और स्वीकार्यता व परिवर्तन के बीच संतुलन बनाने की कोशिश

6. पारस्परिक उपचार -  पारस्परिक उपचार में लोगों के संबंधों में समस्याओं का समाधान होता है और संबंधों की गुणवत्ता में सुधार के लिए नए पारस्परिक और संचार कौशल सिखाता जाता है।

3. दवाएं

मानसिक रोग के लक्षणों के इलाज के लिए दवाओं का उपयोग किया जा सकता है। दवाओं का प्रयोग अक्सर मनोचिकित्सा के साथ संयोजन में किया जाता है।

मानसिक रोग के लिए इस्तेमाल होने वाली दवाएं निम्नलिखित हैं -

1. एंटीडिप्रेसन्ट दवाएं।
2. चिंता विरोधी दवाएं।
3. मूड स्टेबलाइजर्स।
4. मनोविकार नाशक दवाएं।


4. वैकल्पिक उपचार
मानसिक रोग के लिए कुछ वैकल्पिक उपचार निम्नलिखित हैं -

1. योग
2. ध्यान
3. पौष्टिक आहार
4. व्यायाम


मानसिक रोग की जटिलताएं - Mental Illness Complications


मानसिक रोग विकलांगता का एक प्रमुख कारण है। अनुपचारित मानसिक बीमारी से गंभीर भावनात्मक, व्यवहारिक और शारीरिक स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं। मानसिक रोग से कानूनी और वित्तीय समस्याएं भी हो सकती हैं। इसकी निम्नलिखित जटिलताएं होती हैं -

1. दुख और जीवन के आनंद में कमी।
2. कमजोर प्रतिरक्षा प्रणाली, जिससे आपके शरीर को     संक्रमण से लड़ने में समय लगता है।
3. पारिवारिक समस्याएं।
4. रिश्तों में समस्याएं।
5. सामाजिक अलगाव।
6. तंबाकू, शराब और अन्य नशीले पदार्थ से जुडी समस्याएं।
7.  गरीबी और बेघरपन।
8. आत्महत्या या दूसरों को नुक्सान पहुंचाना।
9. दुर्घटनाओं का बढ़ता जोखिम।
10. हृदय रोग और अन्य चिकित्सा समस्याएं।


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