Monday, March 11, 2019

श्रवण बाधिता की पहचान

श्रवण बाधिता की पहचान

श्रवण बाधिता की पहचान सामान्यत: माता-पिता एवं परिवार के सदस्यों द्वारा ही हो जाती है। जिसका सत्यापन भले ही चिकित्सक (Doctors) द्वारा जांच के उपरांत किया जाये।

बच्चे को देखकर

कुछ प्रकार के बहरेपन शारीरिक स्थितियां लक्षणों से जुड़े हो सकते हैं। इस प्रकार के लक्षणों को देखकर इसकी पहचान की जा सकती है, जैसे -

1. बाह्य कान का जन्म से न बना होना इसका “एट्रीशिया” भी कहते हैं।

2. “वार्डन वर्ग सिन्ड्रोम” सिर पर मध्य अग्र बालों का सफेद होना।

इस प्रकार की स्थितियां एक प्रतिशत से भी कम बच्चों के बहरेपन के लिए उत्तरदायी हो सकती है और आमतौर पर बहरेपन को देखकर पहचान करना मुश्किल हो जाता है।

व्यवहार देखकर -

बहरेपन से ग्रस्त लोगों में कुछ विशेष प्रकार के व्यवहार देखे जा सकते हैं। और इनकी मदद से एक बड़े प्रतिशत एक बहरेपन की पहचान भी की जा सकती है।

1. कान के पीछे हाथ लगाकर सुनने का प्रयास करना।

2. बहुत जोर से बोलना।

3. बात सुनते हुए आंखों पर सामान्य से अधिक निर्भर होना।

4. वाचक के चेहरे और होठों पर ज्यादा ध्यान देना।

5. बोलने में कुछ विशेष उच्चारण दोष के कारण उच्च आवाजें, जैसे- अ,ई,ऊ, श, स,म,च आदि ।

6. असंगत रूप से अपने आप में खोये रहना।

7. चेहरे के हाव-भाव एवं मुद्रा द्वारा भी आवाज दोष को पहचाना जा सकता है।

8. पैरों से आवाज करते हएु चलने से भी इसकी पहचान की जा सकती है।


श्रवण बाधितों की पहचान के कुछ संकेत

श्रवण बाधितों की पहचान के कुछ अन्य संकेत हैं -

1. गले में तथा कान में घाव रहता हैं।

2. इनमें वाणी दोष पाया जाता है।

3. सीमित शब्दावली पायी जाती है।

4. यह चिड़चिड़े होते हैं।

5. भाषा का सही विकास नहीं होता है।


श्रवण बाधित बालकों की पहचान जितना जल्द से जल्द हो सके, कर लेना चाहिए। यदि ‘शीघ्र ही बच्चे की पहचान कर ली जाये, तो उनमें वाणी व भाषा का विकास किया जा सकता है तथा श्रवण दोष के प्रभाव को भी कम कर सकते हैं। सामान्यत: विशेषज्ञों का मानना है कि श्रवण-दोष की पहचान जन्म के समय ही कर लेनी चाहिए। जिनती जल्दी इसकी पहचान की जोयगी, उतनी ही जल्दी इन्हें सामान्य समाज से जोड़ा जा सकता है तथा इन बच्चों में होने वाली बहुत सी- मनोवैज्ञानिक कठिनाईयों को कम किया जा सकता है।

आधुनिक विशेषज्ञों ने श्रवण बाधितों को चार वर्गों में बांटा है, जो कि हैं -
(1) केन्द्रीय श्रवण दोष (2) मनोजैविक श्रवण बाधित (3) नाड़ी संस्थान श्रवण बाधित (4) आचरण में श्रवण बाधिता ।

1. केन्द्रीय श्रवण दोष - यह वह बालक होते हैं, जो कि जटिल बाधिता से ग्रस्त हेाते हैं। इस प्रकार के बालक ध्वनि के बारे में जानते तो हैं, परंतु इसका अर्थ नहीं समझ पाते तथा इसकी सम्प्रेक्षण समस्या भी काफी गंभीर होती है। यह दोष दवाओं के सेवन से आ सकते हैं, इसलिए इनके सुधार से अधिक समय लगता है।

2. मनोजैविक श्रवण बाधित - इस प्रकार की बाधिता का कारण मनौवेज्ञानिक होता है। यह बालक अपनी समस्याओं को बढा-चढ़ा कर बताते हें। इन बालकों में किसी रोग के कारण ही बाधिता आ जाती है। कई बार यह पहचानना कठित होता है कि यह दोष मनौवैज्ञानिक है अथवा जैविक। इन बालकों के उपचार में अत्यंत सावधानी रखनी चाहिए।

3. नाड़ी संस्थान श्रवण बाधित- बालकों में नाड़ी संस्थान के दोष के कारण यह दोष आता है। अत: इसका उपचार करना संभव नहीं हो पाता है। यह बालक श्रवण यंत्रों की सहायता से सुनते हैं। इन्हें शिक्षा देने हेतु अलग-अलग प्रावधानों का प्रयोग किया जाता है। यह होठों की भाषा (Lip reading) के द्वारा ज्ञान प्राप्त करते हैं तथा इन्हें विशिष्ट विद्यालयों में प्रवेश दिया जाता है।

4. आचरण में श्रवण बाधिता - साधारण रूप में ऐसे बाधित बालक आचरण दो”ाी होते हैं। यह  दोष कान के रेागों से संबंधित होते हैं। यदि चिकित्सक इनका उपचार करें तो ठीक हो सकते हैं, परंतु कई बार चिकित्सकों की गलती से यह और अधिक बाधित हो जाते हैं।

श्रवण बाधित की पहचान हेतु परीक्षण

श्रवण बाधित बालकों की पहचान उनके बोलने से ही हो जाती है, परंतु इन्हें पहचानने के लिए कई चिकित्सकीय परीक्षण करने पड़ते हैं, क्योंकि कक्षा में श्रवण बाधित बालक आसानी से शिक्षकों की दृष्टि में नहीं आते हैं, अत: इन्हें पहचानने हेतु कई प्रकार की अन्त: क्रियाएं करनी पड़ती है, जबकि बड़ी कक्षा में ऐसा होना संभव नहीं हो पाता है, अत: बालकों के प्रवेश के समय ही उनका परीक्षण करवा लेना उचित रहता है। बालकों को विद्यालय में प्रवेश दिलाने समय उन्हें अध्यापक को बालकों की श्रवण शक्ति के बारे में बता देना चाहिए।

अत: श्रवण बाधितों को आधार पर पहचाना जाता है -
1. चिकित्सीय परीक्षण 2. विकासात्मक मापनी  3. बालक का अध्ययन 4. मनो-नाड़ी परीक्षण 5. बालकीय व्यवहार का निरीक्षण

1. चिकित्सीय परीक्षण - चिकित्सीय परीक्षण की मापनी के द्वारा श्रवण बाधितों को पहचान आसान होता है। इसमें चिकित्सक की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। श्रवण बाधिता बालकों के व्यक्तित्व को बहुत अधिक बाधित करती है।

2. विकासात्मक मापनी - इन बालकों की पहचान के लिए उनकी विकासात्मक अवस्थाओं को ध्यान में रखना अति आवश्यक होता है। बालकों की ज्ञानेन्द्रियों तथा विकास की अवस्थाओं में प्रत्यक्ष संबंध पाया जाता है। अत: विकासात्मक मापनी अत्यंत उत्तम मापनी है। .

3. बालक का अध्ययन - यह सबसे उत्तम विधि होती है । इसके अंतर्गत बालक के जन्म से लेकर वर्तमान स्थितियों तक की सभी सूचनाओं को संकलित किया जाता है तथा इसी के आधार पर ही श्रवण बाधिता के कारणों का पता चल जाता है। इस विधि से ही समस्याओं का निदान भी निकाल लिया जाता है। इस विधि से बालकों की बीमारियों का पूरा इतिहास पता लगाया जाता जा सकता है।

4. मनो-नाड़ी परीक्षण - यह एक अन्य प्रकार की मापनी है। जिसकी सहायता से श्रवण बाधितों की नोड़ी की क्रियाओं का आंकलन किया जाता है। यह एक मानसिक दोष है। बहुत से श्रवण बाधितों में यह दोष पाया जाता है तथा एक योग्य चिकित्सकों के द्वारा ही इसका उपचार किया जा सकता है।

5. बालकीय व्यवहार का निरीक्षण - यह निरीक्षण श्रवण बाधितों की पहचान हेतु उपयुक्त माना जाता है, इसके अंतर्गत बालकों के व्यवहारों को पहचाना जाता है -

1. बालक यदि सिर एक तरफ मोड़कर सुने तो वह बाधितों की श्रेणी में आते हैं।

2. वह अनुदेशन अनुसरण नहीं कर पाते हैं।

3. इन बालकों की दृष्टि अक्सर बोलने वाले बालकों के या शिक्षकों के मुंह की तरह होती है।

4. यह वाणी बाधित भी हो सकते हैं

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श्रवण बाधित के प्रकार

श्रवण बाधित के प्रकार

जिन बालकों को सुनने में अत्यंत कठिनाई का सामना करना पड़ता है, वह श्रवण बाधित कहलाते हैं। इनमें ध्वनि को सुनने की क्षमता से 1 से 130 डेसीवल्स (Desibles) तक होती है। यदि वह 130 डी.बी. से ऊपर आये, तो यह ध्वनि दर्द की संवेदना देती है। श्रवण बाधित बालकों को चार वर्गों में बांटा जाता है -

1. कम श्रवण बाधित बालक - कम श्रवण बाधित बालक होते हैं, जिन्हें सामान्य स्तर पर बोलने पर सुनायी देता है, परंतु यदि बहुत धीमी बोला जाये, तो यह सुन नहीं पाते हैं। इनकी बातचीत को सामान्य स्तर 65 डी.बी. होता है। यह बालक किंचित श्रवण बाधित बालकों को 31 से 51 डी.बी. की श्रवण बाधिता एि हुए होते हैं। यानि कि यह बालक 54 डी.बी. तक की ध्वनि नहीं सुन पाते हैं, इसलिए इन्हें कम श्रवण बाधितों की श्रेणी में माना जाता है।

2. मंद श्रवण बाधित बालक - यह बालक मंद रूप से श्रवण बाधितों की श्रेणी में इसलिए आते हैं क्योंकि वह बालक 55 से 69 डी.बी. का क्षय रखते हैं। अत: सामान्य स्तर 65 डेसीवल्स पर यह नहीं सुन पाते हैं। अत: यह बालक ऊंचा सूनते हैं।

3. गंभीर श्रवण बाधित बालक - इन बालकों में 70-89 डी.बी. तक की श्रवण बाधिता होती है तथा वे बालक काफी ऊंचा सुनते हैं।

4. पूर्ण बाधित बालक - यह बालक बिल्कुल नहीं सुन पाते हैं। इसकी श्रवण बाधिता 90 डी.बी. तथा इससे आगे के स्तर की जोती है। यह बहुत ऊंचा बोलने पर थोड़ा - सा ही सुन पाते हैं। यह बालक बधिर (Deaf) की श्रेणी में आते हैं।


श्रवण प्रक्रिया

व्यक्ति विशेष की वैसी अक्षमता जो उस व्यक्ति में सुनने की बाधा उत्पन्न करती है। श्रवण अक्षमता कहलाती है। इसमें श्रवण-बाधित व्यक्ति अपनी श्रवण शक्ति को अंशत: या पूर्णत: गंवा देता है तथा उसे सांकेतिक भाषा पर निर्भर रहना पड़ता है। श्रवण अक्षमता को सही तरीके से समझने के लिए यह आवश्यक है कि सर्वप्रथम श्रवण प्रक्रिया (Hearing procedure) को समझने का प्रयास किया जाये कि वास्तव में श्रवण प्रक्रिया किस प्रकार संचलित होती है। श्रवण प्रक्रिया कई चरणों में होकर सम्पन्न होती है जो कि है -

श्रवण प्रक्रिया में कान के द्वारा आवाज को ग्रहण करना और संदेश को केन्द्रीय तांत्रिका तंत्र (सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम) में भेजना सम्मिलित है। श्रवण प्रक्रिया से लोग अपने आस-पास के वातावरण से संबंध रखते हैं। जो भाषा को सीखने का एक प्रमुख मार्ग हे। श्रवण हमें खतरों से भी सावधान करता है। जन्म से लेकर जीवनपर्यन्त श्रवण प्रक्रिया हमें वातावरण पर नियंत्रण करने के लिए सहयता करती हैं।

श्रवण प्रक्रिया कई चरणों से होकर सम्पन्न होती है। इसमें सर्वप्रािम बाह्य वातावरण की ध्वनि कर्ण से टकराकर वाह्य कर्ण नलिका में प्रवेश करती है, जो कान के पर्दे के सम्पर्क में आकर विशेष प्रकार के तंतुओं से जुड़ी मध्य मर्ण की अस्थियों से टकराती है और आगे बढ़ती हुई, वहीं ध्वनि फेनेस्ट्रो ओवलिस में पहुंचती है। इससे स्कैला बेस्टीबुला में कम्पन्न होने लगता है।

इस कम्पन्न के फलस्वरूप कण। के अन्त: भाग के रिनर्स झिल्ली से होते हुए ध्वनि टेक्टोरियस झिल्ली मे पहुंचती है, जिससे हलचल उत्पन्न होती है। यह झिल्ली हलचल को समायोजित करके ध्वनि को आगे की तरफ प्रेषित करती है। इसे काटांई नामक अंग ग्रहण करके 8वीं श्रवण तंत्रिका में भेज देता है। श्रवण तंत्रिका उपयुक्त ध्वनि को मस्तिष्क में भेज देती है, जिसके फलस्वरूप व्यक्ति को ध्वनि का प्रत्यक्षण होता है। इस सम्पूर्ण श्रवण प्रक्रिया को दिये गये निम्नलिखित सूत्र एवं चित्र द्वारा आसानी से समझा जा सकता है।

श्रवण दोष बच्चे की वाक् उत्तेजना में बाधा डालता है। जबकि भाषा - विकास के लिए सामान्य श्रवण का होना आवश्यक होता है। श्रवण दोष का अंश जो एक सामान्य बुद्धि वाले व्यक्ति में समस्या नहीं उत्पन्न करता, वहीं मानसिक मंद बच्चे में बड़ी समस्या खड़ी कर सकता है। डाउन सिड्रोम से ग्रसित अधिकांश बच्चों में श्रवण दोष और कान के संक्रामक रोग देखे गये हैं।

सुनना

श्रवण प्रक्रिया और सुनना एक ही प्रक्रियाएं नहीं है। सुनना एक श्रवण प्रक्रिया है, जिसका उद्देश्य अर्थ निकलना है या शब्दों के अर्थ देने के उद्देश्य से शब्द ग्रहण करना होता है। इसमें मुख्य रूप से सम्मिलित प्रक्रिया है। इसकी तुलना में श्रवण प्रक्रिया एक शारीरिक क्रिया है।

श्रवण दोष

श्रवण दोष के तात्पर्य सुनने की अक्षमता है। श्रवण दोष व्यक्ति में दूसरों की बात और वातावरण की अन्य ध्वनियों को सुनने में कठिनाई उत्पन्न होती है।


श्रवण क्षतियुक्तता के कारण -

बालकों के विकास को जन्म से पूर्व, जन्म के समय तथा जन्म के पश्चात् विभिन्न कारक प्रभावित करते हैं श्रवण क्षतियुक्तता के कारण हैं -

श्रवण क्षतियुक्तता के कारण

जन्म से पूर्व, जन्म के समयजन्म के पश्चात्जाननिक कारण बीमारीजर्मन खसरा दुर्घटनागर्भावस्था में श्रवण शक्ति उच्च ध्वनिअसामयिक प्रसवआयुअसुरक्षित प्रसवअसंतुलित आहार

जाननिक कारण

आनुवंशिकता श्रवण संबंधित दोषों का प्रमुख कारण है। साधारणतया यह देखा गया है कि जिन बालाकों के माता-पिता बहरे होते हैं उन्हें श्रवण दोष देखने को मिलता है। यदि अत्यंत निकट संबंधी आपस में विवाह करते हैं तब इस तरह के दोष की संभावना रहती है। जन्मजात श्रवण दोष का कारण जाननिक तब भी सकता है जब माता-पिता और अन्य भाई बहनों में यह दोष न हो क्योंकि यहां श्रवण दोष का कारण माँ या पिता या दोनों में विद्यमान जीन्स हो सकते हैं। श्रवण दोष जीन्स की विशेषताओं के कारण होती है :

1. माता और पिता दोनों में विद्यमान एक अपगामी जीन्स

2. माता और पिता दोनों में से किसी में विद्यमान प्रबल जीन्स

3. लिंग संबंधी जीन्स जो केवल माँ में होता है और केवल पुत्र को प्रभावित करता है।


जर्मन खसरा

1980 में जर्मन खसरा एक महामारी के रूप में फैला यह देखा गया कि जो गर्भवती माताएं इस बीमारी से पीड़ित हुई उनकी सन्तानें श्रवण क्षतियुक्त हुई। तब यह निष्कर्ष निकाला गया है कि जर्मन खसरा भी श्रवण विकलांगता का एक कारण है।

गर्भावस्था में क्षतियुक्तता

जब बालक गर्भ में होता है तब उस समय श्रवण दोष होने की संभावना होती है। इसके कारण हो सकते हैं -

1. माँ कोई जहरीले पदार्थ का सेवन कर ले।

2. शराब का सवेन करें।

3. असंतुलित भोजन ग्रहण करें।

4.  दूषित भोजन करें।

5. बीमार रहे।


असामयिक प्रसव

असामयिक प्रसव की श्रवण दोष उत्पन्न करता है हालांकि यह अभी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। कभी-कभी इससे उत्पन्न बालक में श्रवण दोष दिखाई पड़ता है।

असुरक्षित प्रसव

यदि प्रसव के समय रक्त प्रवाह अधिक हो जाये या रक्त का विकृत संचार हो ऑक्सीजन का अभाव हो तो तब बालक के श्रवण यंत्र कुप्रभावित हो जाते हैं।
अधिकतर ऐसा देखते में आता है कि जन्म के समय बालक सामान्य होता है परंतु विकास के दौरान उसका श्रवण यंत्र प्रभावित हो जाता है जिसके कारण हो सकते हैं।

बीमारियां

कुछ बीमारियां इस प्रकार की जोती है जो कि कभी-कभी श्रवण दोष उत्पन्न करती हैं। जैसे -

1. कमफड़ा

2. खसरा,

3. चेचक,

4. मोतीझरा

5. कुकर खांसी

6. कान में मवाद।


दुर्घटना

 कोई दुर्घटना भी व्यक्ति के श्रवण यंत्र को नुकसान पहुंचा सकती है। जिससे कि श्रवण दोष हो सकता है। किसी लकड़ी या पिन के काम का मेल निकालते समय भी बालक अन्जाने में कर्ण पटल को नुकसान पहुंचा देते है। जिससे कभी-कभी श्रवण दोष हो सकता है।

उच्च ध्वनि

कभी-कभी जोर से धमाका कर्ण पटल को फाड़ देता है। इसी प्रकार निरंतर उच्च ध्वनि को सुनते रहने से कान केवल उच्च ध्वनि को ही पकड़ पाते हैं। सामान्य ध्वनि धीमी गति से बोले गये शब्द वह भली प्रकार से नहीं सुन पाते हैं। इस प्रकार उच्च ध्वनि भी श्रवण दोष उत्पन्न करती है।

आयु

(4) वृद्धावस्था में शारीरिक तंत्र कमजोर पड़ने लगते हैं अत: सुनाई कम पड़ने लगता है। अत: उम्र के साथ-साथ व्यक्ति का श्रवण यंत्र प्रभावित होता जाता है।

संतुलित आहार

यदि बालक को संतुलित आहार नहीं मिलता तब उसकी श्रवण शक्ति ऋणात्मक रूप से प्रभावित होती हे। इस कारण यह है कि बालक के श्रवण यंत्र के कोमल तंतुओं को जिंदा रहने व विकास करने के लिए ऊर्जा नहीं मिलती है।

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Sunday, March 10, 2019

श्रवण बाधित की विशेषताएं

श्रवण बाधित की विशेषताएं

श्रवण बाधिक बालकों में अनेक विशेषताएं पायी जाती हैं ।
1. भाषा संबंधी विशेषताएं 2. शैक्षिक विशेषताएं
3. बौद्धिक योग्यता संबंधी विशेषताएं 4. सामाजिक व व्यावसायिक विशेषताएं 5. अन्य महत्वपूर्ण विशेषताएं।

भाषा संबंधी विशेषताएं

1. श्रवण बाधित बालकों की भाषा भी अत्यंत प्रभावित होती है।

2. इनको प्रशिक्षण के द्वारा उचित शिक्षा प्रदान की जाती है।

3. गंभीर बाधितों में यह सबसे बड़ी कठिनाई होती है कि वह बालक का सामान्य विकास नहीं कर पाते।

4. यह भाषा का कम प्रयोग करते हैं।

5. इनके गहन प्रशिक्षण के द्वारा भाषा का सामान्य विकास हो जाता है।

6. इन बालकों की अभिवृत्ति ऐसी होती है कि वो अपने को बोलने में अयोग्य समझते हैं, परंतु वह वैज्ञानिक आधार नहीं होता है।


शैक्षिक विशेषताएं

1. इन बालकों में शिक्षा संबंधी अनेक विशेषताएं होती है।

2. इनका बौद्धिक स्तर तो ऊंचा होता है, परंतु फिर भी इनकी शैक्षिक उपलब्धि ऊंची नहीं होती।

3. इन बालकों की शैक्षिक निष्पत्ति के हालात ज्यादा उच्च नहीं होते, क्योंकि शैक्षिक निष्पत्ति में शाब्दिक योग्यता की भूमिका उच्च होती है।

4. इन बालकों को पढ़ने में कठिनाई होती है, क्योंकि इनकी भाषा का सही विकास नहीं होता है।

बौद्धिक योग्यता संबंधी विशेषताएं

1. श्रवण बाधित बालकों का मानसिक विकास सामान्य बालकों के समान ही होता है।

2. इन बालकों में बौद्धिक कार्य सामान्य बालकों के जैसे ही होते हैं।

3. इनकी चिन्तन शक्ति सामान्य बालकों जैसी होती है।

4. यह बालक अशाब्दिक भाषा से बौद्धिक कार्य करने में सक्षम होते हैं।

5. इन बालकों की बौद्धिक अशाब्दिक परिक्षा (Non-verbal intelligent test) में इनकी बुद्धि-लाब्धि उच्च होती है।

सामाजिक व व्यावसायिक विशेषताएं

1. श्रवण बाधित बालक अपने ही समूह में रहना पसंद करते हैं तथा उनसे संबंध बनाते हैं उनकी रूचियां भी समान होती हैं।

2. सम्प्रेषण की समस्याओं के कारण समाज में इनकी अन्त:प्रक्रिया नहीं हो पाती हैं।

3. इन बालकों की इच्छाएं तो अधिक होती हैं कि इन्हें सामाजिक मान्यता मिले व सामाजिक अन्त: प्रक्रिया हो तथा इस इच्छा पूर्ति के न होने से उनमें हीन भावना अधिक हो जाती है।

4. श्रवण बाधित बालकों के सामाजिक व व्यक्तित्व संबंधी विशेषताएं सामान्य बालकों से अलग होती है।

5. श्रवण बाधित बालकों में भावात्मक समायोजन में सामान्य बालकों के समान होते हैं। सामान्य बालकों की तरह वातावरण के घटक उनके भावनात्मक पक्ष को प्रभावित करते हैं।

अन्य महत्वपूर्ण विशेषताएं

कुछ शोध अध्ययनों के फलस्वरूप यह पता चला है कि श्रवण बाधित बालकों की मानसिक योग्यता कम होती है तथा इनकी शैक्षिक योग्यता एवं समायोजन भी उत्तम नहीं होता है।


सामान्य श्रवण विकास -

बच्चों में सामान्य विकास हो रहा है अथवा नहीं, जानने के लिए नीचे दिये गये निर्देशों पर ध्यान देना चाहिए। यदि बच्चे द्वारा इस प्रकार की अनुक्रियाएं नहीं ही जा रही है, तो श्रवण दोष की आशंका की जानी चाहिए। यदि ताली की आवाज जोर से दी जाय तो बच्चा चौंकता है। सामान्यत: बच्चे अपने मां की आवाज को पहचानते हैं और उनकी आवाज सुनने पर चुप हो जाते हैं। बच्चों के साथ बात की जाये, तो वे मुस्कुराते भी हैं और यदि खेल रहे हैं तो आवास होने पर खेलना बंद कर देते हैं। यदि उनके पास सुखदायी एवं नई आवाज उत्पन्न की जाये, तो वे अच्छी तरह सुनते हैं। इस उम्र के बच्चे आवाज होने पर उस दिशा में गर्दन घुमाकर देखते हैं। इस उम्र के बच्चे बुलाने पर देखते हैं तथा कुछ शब्दों को समझते भी हैं, जैसे - मुंह बंद करो, मुंह खोलो इत्यादि। साधारण निर्देश को समझते हैं। ½½ -वर्ष  आग्रह करने पर बच्चे उस पर प्रतिक्रिया करते हैं, जैसे - मुझे गुड़िया दो। यदि बच्चे का व्यवहार का सावधानीपूर्वक आकलन करते हैं, तो प्राय: श्रवण दोष की पहचान की जा सकती है।

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श्रवण बांधिता(HI)

Hearing Impaired (HI)


परिभाषा- 

जब कोई व्यक्ति सामान्य ध्वनि को सुनने में असक्षम पाया जाता है, तो हमें उसे अक्षम कहा जा सकता है और इस अवस्था को श्रवण क्षतिग्रस्तता कहा जाता है। हमारे देश में इस प्रकार की समस्या से ग्रसित प्राय: हर आयु वर्ग के लोग पाये जाते हैं, जिसके अनेकों कारण हैं। इसका सबसे बड़ा कारण ध्वनि प्रदूषण एवं अनेकों प्रकार की बीमारियों हैं। श्रवण क्षतिग्रस्तता को समझने के लिए यह अत्यंत आवश्यक होता है कि इस सामान्य श्रवण प्रक्रिया के विषय में जानकारी रखें।

भारत एक विशाल क्षेत्र वाला देश है। जिसमें 1 अरब से अधिक जनसंख्या निवास करती है। इस जनसंख्या के कुछ प्रतिशत लोग किसी-न -किसी विकलांगता से ग्रसित हैं। देखा जाये तो देश की स्वतंत्रता के बाद भी विकलांगता के क्षेत्र में अप्रत्याशित परिवर्तन हुए हैं। जनगणना 1931 के अनुसार मूक बधिर व्यक्तियों की जनसंख्या 2,31,000 थी। देश की भौगोलिक संरचना के आधार राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन 1991 के आंकड़ों के आधार पर लगभग 32,42,000 व्यक्ति श्रवण अक्षमता से ग्रसित पाये गये। आंकड़ों के अनुसार श्रवण बाधिता 60 वर्ष या उससे अधिक उम्र के व्यक्तियों में अधिक पायी गयी। विभिन्न सर्वेक्षणों के अनुसार पता चलता है कि 1 प्रतिशत बच्चे जन्मजात श्रवण दोष से ग्रसित होते हैं। इस प्रकार हमारे देश में अति अल्प, 25 प्रतिशत अलप, 19 प्रतिशत अल्पतम् 42 प्रतिशत गंभीर एवं 12 प्रतिशत अति गंभीर होते है। इस प्रकार चलित श्रवण क्षति, संवेदी श्रवण क्षति, केन्द्रीय श्रवण क्षति एवं मिश्रित श्रवण क्षति सभी वर्ग के बच्चे पाये जाते हैं। इनके शिक्षण एवं प्रशिक्षण हेतु मानव संसाधन विकसित किये जा रहे हैं। सिससे इनका पुनर्वास किया जा सके।

श्रवण बाधित की परिभाषाएं

श्रवण क्षतिगस्तता को विभिन्न संगठनों द्वारा समय-समय पर परिभाषित किया गया है -

1. राष्ट्रीय प्रतिदर्श सवेक्षण संगठन (1991) के अनुसार “श्रवण बाधित उसे कहा जाता है, जो सामान्य रूप से सामान्य ध्वनि को सुनने में अक्षम हो।”

2. भारतीय पुनर्वास परिषद् के अनुसार “जब बधिरता 70 डेसीमल हो, तो व्यवसायिक तथा जब 55 डेसिमल तक हो, तो उसे शिक्षा के लिये प्रयोग में लेना चाहिए।”

3. योजना आयोग एवं विकलांग जन अधिनियम (1995) के अनुसार “वह व्यक्ति श्रवण बाधित कहा जायेगा, जो 60 डेसिमल या उससे अधिक डेसिमल पर सुनने की क्षमता रखता हो।”

4. समाज कल्याण के अनुसार “जब किसी व्यक्ति के एक कान में 60 डेसिमल श्रवण क्षतिग्रस्तता हो तथा दूसरा कान अच्छा हो, तो वह उच्च शिक्षा के लिए उपयोगी हो सकता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि जब व्यक्ति सुनने में असक्षम हो तथा दूसरों की सहायता लेता है, उससे यह ज्ञात होता है कि व्यक्ति को श्रवण दोष है। श्रवण दोष एक अदृश्य एवं छुपी हुई विकलांगता है, जो देखने से नहीं दिखाई देती है। कोई व्यक्ति हाथ या पैर से विकलांग है तो वह बैसाखी, व्हील चेयर, ट्राईसाइकिल आदि का प्रयोग करता है। जिससे उसकी शारीरिक विकलांगता का पता चलता है तथा एक मानसिक विकलांग बच्चा अपने हाव-भाव, क्रिया-कलापों तथा व्यवहार यह साबित करता है कि वह मानसिक मन्द है।


सामान्य रूप से सुनाई देने वाली ध्वनियों में कम तीक्ष्णता होने पर श्रवण हानि होती है। [११] सुनने में बिगड़ा हुआ या सुनने में मुश्किल होने वाले शब्द आमतौर पर ऐसे लोगों के लिए आरक्षित होते हैं जिनके पास भाषण आवृत्तियों में ध्वनि सुनने में असमर्थता होती है। श्रवण हानि की गंभीरता को श्रोता का पता लगाने से पहले आवश्यक सामान्य स्तर से ऊपर की मात्रा में वृद्धि के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है।

बहरेपन को नुकसान की एक डिग्री के रूप में परिभाषित किया गया है कि एक व्यक्ति प्रवर्धन की उपस्थिति में भी भाषण को समझने में असमर्थ है। [११] गहन बहरेपन में, यहां तक ​​कि एक ऑडीओमीटर द्वारा उत्पन्न होने वाली उच्चतम तीव्रता की आवाज़ें (आवृत्तियों की एक श्रृंखला के माध्यम से शुद्ध स्वर ध्वनियों का उत्पादन करके सुनने को मापने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला उपकरण) का पता नहीं लगाया जा सकता है। कुल बधिरता में, उत्पादन की प्रवर्धन या विधि की परवाह किए बिना, कोई भी आवाज़ नहीं सुनी जाती है।

भाषण धारणा - सुनने के एक अन्य पहलू में शब्द की ध्वनि की तीव्रता के बजाय शब्द की स्पष्टता शामिल है।मनुष्यों में, वह पहलू आमतौर पर भाषण भेदभाव के परीक्षणों द्वारा मापा जाता है। ये परीक्षण भाषण को समझने की क्षमता को मापते हैं, न कि केवल ध्वनि का पता लगाने के लिए। सुनवाई के नुकसान के बहुत दुर्लभ प्रकार हैं जो अकेले भाषण भेदभाव को प्रभावित करते हैं। एक उदाहरण श्रवण न्युरोपटी है , सुनवाई हानि की एक किस्म जिसमें कोक्ली के बाहरी बाल कोशिकाएं बरकरार हैं और कार्य कर रही हैं, लेकिन ध्वनि की जानकारी श्रवण तंत्रिका और मस्तिष्क में ठीक से संचारित नहीं होती है। [17]

"बधिरों की सुनवाई", "बधिर-मूक", या "बहरे और गूंगे" शब्दों का उपयोग करना, बधिरों का वर्णन करना और लोगों को सुनने में कठिन होना वकालत करने वाले संगठनों द्वारा हतोत्साहित किया जाता है क्योंकि वे कई बधिरों और सुनने वाले लोगों के प्रति कठोर होते हैं। [18]


श्रवण  हानि के मानक- 

मानव श्रवण २०-२०,००० हर्ट्ज से आवृत्ति में, और ० डीबी से १२० डीबी एचएल या अधिक की तीव्रता में फैली हुई है।0 डीबी ध्वनि की अनुपस्थिति का प्रतिनिधित्व नहीं करता है, बल्कि सबसे नरम ध्वनि एक औसत बिना आवाज़ वाला मानव कान सुन सकता है; कुछ लोग −5 या यहां तक ​​कि d10 डीबी तक सुन सकते हैं। ध्वनि आमतौर पर 90 डीबी से ऊपर है और 115 डीबी दर्द की दहलीज को दर्शाता है ।कान सभी आवृत्तियों को समान रूप से अच्छी तरह से नहीं सुनता है; सुनने की संवेदनशीलता लगभग 3000 हर्ट्ज है।आवृत्ति रेंज और तीव्रता के अलावा मानव सुनवाई के कई गुण हैं जिन्हें आसानी से मात्रात्मक रूप से नहीं मापा जा सकता है। लेकिन कई व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए, सामान्य सुनवाई को आवृत्ति बनाम तीव्रता ग्राफ, या ऑडियोग्राम द्वारा परिभाषित किया जाता है, आवृत्ति पर सुनवाई की संवेदनशीलता थ्रेसहोल्ड। उम्र के संचयी प्रभाव और शोर और अन्य ध्वनिक अपमान के संपर्क के कारण, 'विशिष्ट' सुनवाई सामान्य नहीं हो सकती है। [१ ९] [२०]

श्रवण हानि के लक्षण -

1. टेलीफोन का उपयोग करने में कठिनाई

2. ध्वनि की दिशात्मकता का नुकसान

3. भाषण समझने में कठिनाई, विशेषकर उन बच्चों और महिलाओं के लिए जिनकी आवाज उच्च आवृत्ति की होती है ।

4. पृष्ठभूमि शोर ( कॉकटेल पार्टी प्रभाव ) की उपस्थिति में भाषण समझने में कठिनाई

5. लगता है या भाषण सुस्त हो रहा है, muffled या क्षीणन

6. टेलीविजन, रेडियो, संगीत और अन्य ऑडियो स्रोतों पर बढ़ी हुई मात्रा की आवश्यकता

सुनवाई हानि संवेदी है, लेकिन लक्षणों के साथ हो सकता है:

7.  कानों में दर्द या दबाव

8. एक अवरुद्ध भावना

माध्यमिक लक्षणों के साथ भी हो सकता है:

9. हाइपरकेसिस , कुछ तीव्रता और ध्वनि की आवृत्तियों के साथ श्रवण दर्द के साथ संवेदनशीलता बढ़ जाती है, जिसे कभी-कभी "श्रवण भर्ती" के रूप में परिभाषित किया जाता है।

10. जब कोई बाहरी आवाज़ न हो तो टिन्निटस , रिंगिंग, बज़िंग, हिसिंग या अन्य आवाज़ें

11. सिर का चक्कर और असमानता

12. tympanophonia , किसी की स्वयं की आवाज़ और श्वसन ध्वनियों की असामान्य सुनवाई, आमतौर पर एक पैशुलस (एक लगातार खुला) यूस्टेशियन ट्यूब या डिसेंट बेहतर सुपीरिकुलर नहरों के परिणामस्वरूप

13. चेहरे की गति की गड़बड़ी (संभावित ट्यूमर या स्ट्रोक का संकेत) या बेल्स पाल्सी वाले व्यक्तियों में

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अधिगम अक्षमता के प्रकार

अधिगम अक्षमता के प्रकार -

अधिगम  अक्षमता एक वृहद् प्रकार के कई आधारों पर विभेदीकृत किया गया है।  ये सारे विभेदीकरण अपने उद्देश्यों के अनुकूल हैं।  इसका प्रमुख विभेदीकरण ब्रिटिश कोलंबिया (201) एवं ब्रिटेन के शिक्षा मंत्रालय द्वारा प्रकाशित पुस्तक सपोर्टिंग स्टूडेंट्स विद लर्निंग डिएबलिटी ए गाइड फॉर टीचर्स में दिया गया है, जो निम्नलिखित है -

1. डिस्लेक्सिया (पढ़ने संबंधी विकार)

2. डिस्ग्राफिया (लेखन संबंधी विकार)

3. डिस्कैलकूलिया (गणितीय कौशल संबंधी विकार)

4. डिस्फैसिया (वाक् क्षमता संबंधी विकार)

5. डिस्प्रैक्सिया (लेखन एवं चित्रांकन संबंधी विकार)

6. डिसऑर्थोग्राफ़िय (वर्तनी संबंधी विकार)

7. ऑडीटरी प्रोसेसिंग डिसआर्डर (श्रवण संबंधी विकार)

8. विजुअल परसेप्शन डिसआर्डर (दृश्य प्रत्यक्षण क्षमता संबंधी विकार)

9. सेंसरी इंटीग्रेशन ऑर प्रोसेसिंग डिसआर्डर (इन्द्रिय समन्वयन क्षमता संबंधी विकार)

10. ऑर्गेनाइजेशनल लर्निंग डिसआर्डर (संगठनात्मक पठन संबंधी विकार) 


डिस्लेक्सिया

शब्द ग्रीक भाषा के दो शब्द डस और लेक्सिस से मिलकर बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है कथन भाषा (डिफिकल्ट स्पीच)।  वर्ष 1887 में एक जर्मन नेत्र रोग विशेषज्ञ रूडोल्बर्लिन द्वारा खोजे गए इस शब्द को शब्द अंधता भी कहा जाता है।  डिस्लेक्सिया को भाषायी और संकेतिक कोडों  भाषा के ध्वनियों का प्रतिनिधित्व करने वाले वर्णमाला के अक्षरों या संख्याओं का प्रतिनिधित्व कर रहे अंकों के संसाधन में होने वाली कठिनाई के रूप में परिभाषित किया जाता है।  यह भाषा के लिखित रूप, मौखिक रूप एवं भाषायी दक्षता को प्रभावित करता है यह अधिगम अक्षमता का सबसे सामान्य प्रकार है।

डिस्लेक्सिया के लक्षण  - इसके निम्नलिखित लक्षण है –

1. वर्णमाला अधिगम में कठिनाई

2. अक्षरों की ध्वनियों को सीखने में कठिनाई

3. एकाग्रता में कठिनाई

4. पढ़ते समय स्वर वर्णों का लोप होना

5. शब्दों को उल्टा या अक्षरों का क्रम इधर – उधर कर पढ़ा जाना, जैसे नाम को मान या शावक को शक पढ़ा जाना

6. वर्तनी दोष से पीड़ित होना

7. समान उच्चारण वाले ध्वनियों को न पहचान पाना

8. शब्दकोष का अभाव

9. भाषा का अर्थपूर्ण प्रयोग का अभाव तथा

10. क्षीण स्मरण शक्ति


डिस्लेक्सिया की पहचान – उपर्युक्त लक्षण हालाँकि डिस्लेक्सिया की पहचान करने में उपयोगी होते हैं लेकिन इस लक्षणों के आधार पर पूर्णत: विश्वास के साथ किसी भी व्यक्ति को डिस्लेक्सिया घोषित नहीं किया जा सकता है।  डिस्लेक्सिया की पहचान करने के लिए सं 1973 में अमेरिकन फिजिशियन एलेना बोडर ने बोड टेस्ट ऑफ़ रीडिंग स्पेलिंग पैटर्न नामक एक परिक्षण का विकास किया। भारत में इसके लिए डिस्लेक्सिया अर्ली स्क्रीनिंग टेस्ट और डिस्लेक्सिया स्क्रीनिंगटेस्ट का प्रयोग किया जाता है।

डिस्लेक्सिया का उपचार – डिस्लेक्सिया पूर्ण उपचार अंसभव है लेकिन इसको उचित शिक्षण -  अधिगम पद्धति के द्वारा निम्नतम स्तर पर लाया जा सकता है।


डिस्ग्राफिया

अधिगम अक्षमता का वो प्रकार है जो लेखन क्षमता को प्रभावित करता है। यह वर्तनी संबंधी कठिनाई, ख़राब हस्तलेखन एवं अपने विचारों को लिपिवद्ध करने में कठिनाई के रूप में जाना जाता है।  (नेशनल सेंटर फॉर लर्निंग डिसबलिटिज्म, 2006)।डिस्ग्रफिया

डिस्ग्रफिया के लक्षण – इसके निम्नलिखित लक्षण है –

1. लिखते समय स्वयं से बातें करना।

2. अशुद्ध वर्तनी एवं अनियमित रूप और आकार वाले अक्षर को लिखना

3. पठनीय होने पर भी कापी करने में अत्यधिक श्रम का प्रयोग करना

4. लेखन समग्री पर कमजोर पकड़ या लेखन सामग्री को कागज के बहुत नजदीक पकड़ना

5. अपठनीय हस्तलेखन

6. लाइनों का ऊपर – नीचे लिया जाना एवं शब्दों के बीच अनियमित स्थान छोड़ना तथा

7. अपूर्ण अक्षर या शब्द लिखना


उपचार कार्यक्रम – चूंकि यह एक लेखन संबंधी विकार है, अत: इसके उपचार के लिए यह आवश्यक है कि इस अधिगम अक्षमता से ग्रसित व्यक्ति को लेखन का ज्यादा से ज्यादा अभ्यास कराया जाय।

डिस्कैलकुलिया

यह एक व्यापक पद है जिसका प्रयोग गणितीय कौशल अक्षमता के लिए किया जाता है इसके अन्तरगत अंकों संख्याओं के अर्थ समझने की अयोग्यता से लेकर अंकगणितीय समस्याओं के समाधान में सूत्रों एवं सिंद्धांतों के प्रयोग की अयोग्यता तथा सभी प्रकार के गणितीय अक्षमता शामिल है।

डिस्कैलकुलिया के लक्षण – इसके निम्नलिखित लक्षण है –

1. नाम एवं चेहरा पहचनाने में कठिनाई

2. अंकगणितीय संक्रियाओं के चिह्नों को समझने में कठिनाई

3. अंकगणितीय संक्रियाओं के अशुद्ध परिणाम मिलना

4. गिनने के लिए उँगलियों का प्रयोग

5. वित्तीय योजना या बजट बनाने में कठिनाई

6. चेकबुक  के प्रयोग में कठिनाई

7. दिशा ज्ञान का अभाव या अल्प समझ

8. नकद अंतरण या भुगतान से डर

9. समय की अनुपयुक्त समझ के कारण समय - सारणी बनाने में कठिनाई का अनुभव करना।


डिस्कैलकुलिया के कारण – इसका करण मस्तिष्क में उपस्थित कार्टेक्स की कार्यविरूपता को माना जाता है।  कभी - कभी तार्किक चिंतन क्षमता के अभाव के कारण उया कर्य्क्रारी स्मिरती के अभाव के कारण भी डिस्ग्राफिया उत्पन्न होता है।

डिस्कैलकुलिया का उपचार – उचित शिक्षण- अधिगम रणनीति अपनाकर डिस्कैलकुलिया को कम किया जा सकता है।  कुछ प्रमुख रणनीतियां निम्नलिखित हैं –

1. जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से संबंधी उदहारण प्रस्तुत करना

2. गणितीय तथ्यों को याद करने के लिए अतिरिक्त समय प्रदान करना

3. फ्लैश कार्ड्स और कम्प्यूटर गेम्स का प्रयोग करना तथा

4. गणित को सरल करना और यह बताना कि यह एक कौशल है जिसे अर्जित किया जा सकता है।


डिस्फैसिया
ग्रीक भाषा के दो शब्दों डिस और फासिया जिनके शाब्दिक अर्थ अक्षमता एवं वाक् होते हैं से मिलकर बने  है, शब्द डिस्फैसिया का शाब्दिक अर्थ वाक् अक्षमता से है।  यह एक भाषा एवं वाक् संबंधी विकृति है जिससे ग्रसित बच्चे विचार की अभिव्यक्ति व्याख्यान के समय कठिनाई महसूस करते हैं।  इस अक्षमता के लिए मुख्य रूप से मस्तिष्क क्षति (ब्रेन डैमेज) को उत्तरदायी माना जाता है।

डीस्प्रैक्सिया
यह  मुख्य रूप से चित्रांकन संबंधी अक्षमता की ओर संकेत करता है।  इससे ग्रसित बच्चे लिखने एवं चित्र बनाने में कठिनाई महसूस करते हैं।

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Saturday, March 9, 2019

अधिगम अक्षमता [LD]

    Learning disabilities [अधिगम अक्षमता अर्थ और परिभाषा] - 

    अधिगमगम अक्षमता पद दो अलग – अलग पदों अधिगम अक्षमता से मिलकर बना है।  अधिगम शब्द का आशय सीखने से है तथा अक्षमता का तात्पर्य क्षमता के अभाव या क्षमता की अनुपस्थिति से है। अर्थात सामान्य भाषा में अधिगम अक्षमता का तात्पर्य सीखने क्षमता  अथवा योग्यता की कमी या अनुपस्थिति से है।  सीखने में कठिनाइयों को समझने के लिए हमें एक बच्चे की सीखने की क्रिया को प्रभावित करने वाले कारकों का आकलन करना चाहिए।  प्रभावी अधिगम के लिए मजबूत अभीप्रेरणा, सकारात्मक आत्म छवि, और उचित अध्ययन प्रथाएँ एवं रणनीतियां आवश्यक शर्तें हैं (एरो, जेरे-फोलोटिया, हेन्गारी, कारिउकी तथा मकानडावार, 2011) औपचारिक शब्दों में अधिगम अक्षमता को विद्यालयी पाठ्यक्रम सीखने की क्षमता की कमी या अनुपस्थिति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।

    अधिगम अक्षमता पद का सर्वप्रथम प्रयोग 1963 ई. में सैमुअल किर्क द्वारा किया गया था और इसे निम्न शब्दों में परिभषित किया था।

    अधिगम अक्षमता को वाक्, भाषा, पठन, लेखन अंकगणितीय प्रक्रियाओं में से किसी एक या अधिक प्रक्रियाओं में मंदता, विकृति अथवा अवरूद्ध विकास के रूप में परिभाषित किया जा सकता हैं हो संभवता: मस्तिष्क कार्यविरूपता और या संवेगात्मक अथवा व्यवाहरिक विक्षोभ का परिणाम है न कि मानसिक मंदता, संवेदी अक्षमता अथवा संस्कृतिक अनुदेशन कारक का।  (किर्क, 1963)

    इसके पश्चात् से अधिगम अक्षमता को परिभाषित करने के लिए विद्वानों द्वारा निरंतर प्रयास किये किए गए लेकिन कोई सर्वमान्य परिभाषा विकसित नहीं हो पाई।

    अमेरिका में विकसित फेडरल परिभाषा के अनुसार, विशिष्ट अधिगम अक्षमता को, लिखित एवं मौखिक भाषा के प्रयोग एवं समझने में शामिल एक या अधिक मूल मनोवैज्ञानिक  प्रक्रिया में विकृति, जो व्यक्ति के सोच, वाक्, पठन, लेखन, एवं अंकगणितीय गणना को पूर्ण या आंशिक रूप में प्रभावित करता है, के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।  इसके अंतर्गत इन्द्रियजनित विकलांगता, मस्तिष्क क्षति, अल्पतम असामान्य दिमागी, प्रक्रिया, डिस्लेक्सिया, एवं विकासात्मक वाच्चाघात आदि शामिल है।  इसके अंतर्गत वैसे बालक नहीं सम्मिलित  किए जाते हैं, जो दृष्टि, श्रवण या गामक विकलांगता, संवेगात्मक विक्षोभ, मानसिक मंदता, संस्कृतिक या आर्थिक दोष के परिणामत: अधिगम संबंधी समस्या से पीड़ित है।  (फेडरल रजिस्टर, 1977)

    वर्ष 1994 में अमेरिका की अधिगम अक्षमता की राष्ट्रीय संयुक्त समिति (द नेशनल ज्वायंट कमिटी ऑन लंर्निंग डिसेब्लिटिज्म) ने अधिगम अक्षमता को परिभाषित करते हुए कहा कि अधिगम अक्षमता एक सामान्य पद है, जो मानव में अनुमानत: केन्द्रीय तांत्रिक तंत्र के सुचारू रूप से नहीं कार्य करने के कारण उत्पन्न आन्तरिक विकृतियों के विषम समूह, जिसमें की बोलने, सुनने, पढ़ने, लिखने, तर्क करने या गणितीय क्षमता के प्रयोग में कठिनाई शामिल होते हैं, को दर्शाता है। जीवन के किसी भी पड़ाव पर यह उत्पन्न हो सकता है।  हालाँकि अधिकतम अक्षमता अन्य प्रकार की अक्षमताओं (जैसे की संवेदी अक्षमता, मानिसक मंदता, गंभीर संवेगात्मक विक्षोभ) या संस्कृतिक भिन्नता, अनुपयुक्तता या अपर्याप्त अनुदेशन के प्रभाव के कारण होता है लेकिन ये दशाएँ अधिगम अक्षमता को प्रत्यक्षत: प्रभावित नहीं करती है. (डी नेशनल ज्वायंट कमिटी ऑन लंर्निंग डिसेब्लिटिज्म - 1994).

    उपर्युक्त परिभाषाओं की समीक्षा के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अधिगम अक्षमता एक व्यापक संप्रत्यय है, जिसके अंर्तगत वाक्, भाषा, पठन, लेखन, एवं अंकगणितीय प्रक्रियाओं में से एक या अधिक के प्रयोग में शामिल एक या अधिक मूल मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया में विकृति को शामिल किया जाता है, जो अनुमानत: केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र के सुचारू रूप से नहीं कार्य करने के कारण उत्पन्न होता है। यह स्वभाव से आंतरिक होता है।


    ऐतिहासिक परिदृश्य

    अधिगम अक्षमता के इतिहास पर दृष्टिपात करने से आप पाएँगे कि इस पद ने अपना वर्तमान स्वरुप ग्रहण करने के लिए एक लंबा सफर तय किया है। इस पद का सर्वप्रथम प्रयोग 1963 ई. सैमुअल किर्क ने किया था। यह पद आज सार्वभौम एवं सर्वमान्य है। जिसके पूर्व विद्वानों ने अपने – अपने कार्यक्षेत्र के आधार पर अनेक नामकरण किए थे। जैसे – न्यूनतम मस्तिष्क क्षतिग्रस्तता (औषधि विज्ञानियों या चिकित्सा विज्ञानियों द्वारा). मनोस्नायूजनित  विकलांगता (मनोवैज्ञानिकों + स्नायुवैज्ञानिकों द्वारा), अतिक्रियाशिलता (मनोवैज्ञानिकों द्वारा), न्यूनतम उपलब्धता (शिक्षा मनोवैज्ञानिकों द्वारा) आदि।

    रेड्डी, रमार एवं कुशमा (2003) ने अधिगम अक्षमता के क्षेत्र के विकास को तीन निम्नलिखित चरणों में विभाजित किया है 

    प्रारंभिक काल

    रूपांतरण काल

    स्थापन काल


    प्रारंभिक काल – यह काल अधिगम अक्षमता के उदभव से संबंधित है।  वर्ष 1802 से 1946  के मध्य का यह समय अधिगम अक्षमता के लिए कार्यकारी साबित हुआ। अधिगम अक्षमता प्रत्यय की पहचान एवं विकास सी समय से आरंभ हुई तथा उनकी पहचान तथा उपयुक्त निराकरण हेतु प्रयास किए जाने लगे।

    रूपांतरण काल – यह काल अधिगम अक्षमता के क्षेत्र में एक नये रूपांतरण का काल के रूप में जाना जाता है।  जब अधिगम अक्षमता एक विशेष अक्षमता के रूप में स्थापित हुई तथा जब अधिगम अक्षमता प्रत्यय का उद्भव हुआ, इन दोनों के मध्य का संक्रमण का काल रही रूपांतरण काल से संबंधित है।

    स्थापन काल – 60 के दशक के मध्य में अधिगम अक्षमता से संबंधित कठिनाइयों को सामूहिक रूप से पहचान की प्राप्ति हुई। इस काल में ही सैमुअल किर्क ने 1963 में अधिगम अक्षमता शब्द को प्रतिपादित किया। 60 के दशक के बाद इस क्षेत्र में अनेक विकासात्मक कार्य किए गए  विशिष्ट शिक्षा में अधिगम अक्षमता एक बड़े उपक्षेत्र के रूप में प्रतिस्थापित हुई।


    क्रूकशैक ने 1972 में 40 शब्दों का एक शब्दकोष विकसित किया।  इसी क्रम में यदि आप कुर्त  गोल्डस्टीन द्वारा 1927 ई. 1936 ई. एवं 1939 ई. में किए गए कार्यों का मूल्यांकन करें तो आप पाएँगे कि उनके उनके द्वारा वैसे मस्तिष्कीय क्षतिग्रस्त सैनिकों जो प्रथम विश्वयुद्ध  में कार्यरत थे की अधिगम समस्याओं का जो उल्लेख किया गया है, वही अधिगम अक्षमता का आधार स्तंभ है. उनके अनुसार, ऐसे लोगों से अनुक्रिया प्राप्त करने में अधिक प्रयत्न करना पड़ता है।  इनमें आकृति पृष्ठभूमि भ्रम बना रहता है, ये अतिक्रियाशील होते हैं तथा इनकी क्रियाएँ उत्तेजनात्मक होती हैं। स्ट्रास (1939) ने अपने अध्ययन में कुछ लक्षण बताए थे जो मूलत: अधिगम अक्षम बालकों पर बल दिया जो बुद्धिलब्धि परिक्षण पर सामान्य से कम बुद्धिलब्धि   रखते थे। उन्होंने कहा कि यदि किसी बालक की बूद्धिलब्धि न्यून और साथ ही न्यूनतम शैक्षिक योग्यता प्राप्त करता है तो उसकी शैक्षिक योग्यता की न्यूनता का कारण बूद्धिलब्धि की न्यूनता ही है।  इन अध्ययनों को सैमुअल किर्क ने अपने अध्ययन का आधार बनाया और कहा कि अधिगम अक्षमता सिर्फ शैक्षिक न्यूनता नहीं है। यह न्यूनतम मस्तिष्क क्षतिग्रस्तता, पढ़ने की दक्षता में समस्या अतिक्रियाशिलता आदि जैसे गुणों का समूह है। उन्होंने ये भी कहा जो बालक इन सारे गुणों से संयुक्त रूप से पीड़ित है, वो अधिगम अक्षम बालक है। शैक्षिक न्यून बालकों के संबंध में अपने मत को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि अधिगम अक्षम बालक शैक्षिक न्यूनता से पीड़ित होगा और यह न्यूनता उनके एवं वाह्य दशाओं के परिणाम के कारण ही नहीं बल्कि उसमें उपलब्ध न्यूनतम शैक्षिक दशाओं के कारण भी संभव है। सैमुअल किर्क ने इस कार्य को  और प्रसारित करने के लिए अधिगम अक्षमता अध्ययनकर्ताओं का एक संघ बनाया जिसे एशोसिएशन फॉर चिल्ड्रेन विद लर्निंग डिसएब्लिटी कहा गया और अधिगम अक्षमता शोध पत्रिका का प्रारंभ किया।  आज विश्व स्तर पर अधिगम अक्षमता संबंधी अध्ययन किए जा रहे हैं और अधिगम अक्षमता पर आधारित दो विश्वस्तरीय शोध पत्रिकाएँ मौजूद हैं जो किए जा रहे अध्ययनों का प्रचार प्रसार करने में अपनी भूमिका निभा रही हैं।

    भारत में इस संबंध में कार्य शुरू हुए अभी बहुत कम समय हुआ है आज यह पश्चिमी में अधिगम अक्षमता संबंधी हो रहे कार्यों के तुलनीय है।  भारत वर्ष में अधिगम अक्षम बालकों की पहचान विदेशियों द्वारा की गई लेकिन धीरे – धीरे भारतियों में भी जागरूकता बढ़ रही है।  वर्तमान में भारत में सरकारी और गैर – सरकारी संस्थाएँ इस क्षेत्र में कार्यरत हैं।  लेकिन, आज भी अधिगम अक्षमता में भारत में कानूनी विकलांगता के रूप में पहचान नहीं मिली है।  नि:शक्त जन (समान अवसर, अधिकार संरक्षण, और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995 में उल्लेखित सात प्रकार की विकलांगता में यह शामिल नहीं है। ज्ञात हो कि यही अधिनियम भारतवर्ष में विकलांगता के क्षेत्र में सबसे वृहद कानून है। अर्थात भारत में अधिगम अक्षम बालक को कानूनी रूप से विशिष्ट सेवा पाने का आधार नहीं है।


    अधिगम अक्षमता की प्रकृति एवं विशेषताएँ

    अधिगम संबंधी कठिनाई, श्रवण, दृष्टि, स्वास्थ, वाक् एवं संवेग आदि से संबंधित अस्थायी समस्याओं से जुड़ी होती है।  समस्या का समाधान होते ही अधिगम संबंधी वह कठिनाई समाप्त हो जाती है। इसके विपरीत अधिगम अक्षमता उस स्थिति को कहते हैं जहाँ व्यक्ति की योग्यता एवं उपलब्धि में एक स्पष्ट अंतर हो।  यह अंतर संभवत: स्नायूजनित होता है तथा यह व्यक्ति विशेष में आजीवन उपस्थित रहता है।

    चूंकि अधिगम अक्षमता को कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं है और जनगणना में अधिगम अक्षमता  को आधार नहीं बनाया जाता है। इसलिए देश में मौजूद अधिगम अक्षम बालकों के संबंध में ठीक – ठीक आंकड़ा प्रदान करना तो अति मुश्किल है लेकिन एक अनुमान के अनुसार यह कहा जा सकता है कि देश में इस प्रकार के बालकों की संख्या अन्य प्रकार के विकलांगता बालकों की संख्या से कहीं ज्यादा है। यह संख्या, देश में उपलब्ध कुल स्कूली जनसंख्या के 1-42 प्रतिशत तक हो सकता है। वर्ष 2012 में चेन्नई में समावेशी शिक्षा एवं व्यवसायिक विकल्प विषय पर सम्पन्न हुए एक अंतराष्ट्रीय सम्मेलन लर्न 2012 में विशेषज्ञों ने कहा कि भारत में लगभग 10% बालक अधिगम अक्षम हैं। (टाइम्स ऑफ़ इंडिया, जनवरी 27,2012)


    अधिगम अक्षमता की विभिन्न मान्यताओं पर दृष्टिपात करने से अधिगम अक्षमता की प्रकृति के संबंध में आपको निम्नलिखित बातें दृष्टिगोचर होगी-

    1. अधिगम अक्षमता आंतरिक होती है।

    2. यह स्थायी स्वरुप का होता है अर्थात यह व्यक्ति विशेष में आजीवन विद्यमान रहता है।

    3. यह कोई एक विकृति नहीं बल्कि विकृतियों का एक विषम समूह है।

    4. इस समस्या से ग्रसित व्यक्तियों में कई प्रकार के व्यवहार और विशेषताएँ पाई जाती है।

    5. चूंकि यह समस्या केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र की कार्यविरूपता से संबंधित है, अत: यह एक जैविक समस्या है।

    6. यह अन्य प्रकार की विकृतियों के साथ हो सकता है, जैसे – अधिगम अक्षमता और संवेगात्मक विक्षोभ तथा

    7. यह श्रवण, सोच, वाक्, पठन, लेखन एवं अंकगणिततीय गणना में शामिल मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया में विकृति के फलस्वरूप उत्पन्न होता है, अत: यह एक मनोवैज्ञानिक समस्या भी है।


    अधिगम क्षमता के लक्षण  निम्न है –

    1. बिना सोचे – विचारे कार्य करना

    2. उपयुक्त आचरण नहीं करना

    3. निर्णयात्मक क्षमता का अभाव

    4. स्वयं के प्रति लापरवाही

    5. लक्ष्य से आसानी से विचलित होना

    6. सामान्य ध्वनियों एवं दृश्यों के प्रति आकर्षण

    7. ध्यान कम केन्द्रित करना या ध्यान का भटकाव

    8. भावात्मक अस्थिरता

    9. एक ही स्थिति में शांत एवं स्थिर रहने की असमर्थता

    10. स्वप्रगति के प्रति लापरवाही बरतना

    11. सामान्य से ज्यादा सक्रियता

    12. गामक क्रियाओं में बाधा

    13. कार्य करने की मंद गति

    14. सामान्य कार्य को संपादित करने के लिए एक से अधिक बार प्रयास करना

    15. पाठ्य सहगामी क्रियाओं में शामिल नहीं होना

    16. क्षीण स्मरण शक्ति का होना

    17. बिना वाह्य हस्तक्षेप के अन्य गतिविधियों में भाग लेना में असमर्थ होना तथा

    18. प्रत्यक्षीकरण संबंधी दोष।


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आप E-mail के द्वारा भी अपना सुझाव दे सकते हैं।  prakashgoswami03@gmail.com

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Friday, March 8, 2019

सर्व शिक्षा अभियान [SSA]

Sarva Shiksha Abhiyan [SSA]

सर्व शिक्षा अभियान भारत सरकार का एक प्रमुख कार्यक्रम है, जिसकी शुरूआत (2001-02) मे अटल बिहारी बाजपेयी द्वारा एक निश्चित समयावधि के तरीके से प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमिकरण को प्राप्त करने के लिए किया गया, जैसा कि भारतीय संविधान के 86वें संशोधन द्वारा निर्देशित किया गया है जिसके तहत 6-14 साल के बच्चों (2001 में 205 मिलियन अनुमानित) की मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के प्रावधान को मौलिक अधिकार बनाया गया है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य 2010 तक संतोषजनक गुणवत्ता वाली प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमिकरण को प्राप्त करना है। एसएसए (SSA) में 8 मुख्य कार्यक्रम हैं। इसमें आईसीडीएस (ICDS) और आंगनवाड़ी आदि शामिल हैं। इसमें केजीबीवीवाई (KGBVY) भी शामिल है। कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना की शुरूआत 2004 में हुई जिसमें सारी लड़कियों को प्राथमिक शिक्षा देने का सपना देखा गया, बाद में यह योजना एसएसए के साथ विलय हो गई।

उद्देश्य-

1. 2003 तक सभी स्कूल में हों.

2. 2007 तक प्राथमिक शिक्षा का 5 साल पूरा करना और 2010 तक स्कूली शिक्षा का 8 साल पूरा करना।

3. संतोषजनक गुणवत्ता और जीवन के लिए शिक्षा पर बल देना.

4. 2007 तक प्राथमिक स्तर पर और 2010 तक प्रारंभिक स्तर पर सभी लैंगिक और सामाजिक अंतर को समाप्त करना।

5. वर्ष 2010 तक सार्वभौमिक प्रतिधारण.सर्व शिक्षा अभियान

कार्यक्रम के अनुसार उन बस्तियों में नए स्कूल बनाने का प्रयास किया जाता है जहां स्कूली शिक्षा की सुविधा नहीं है और अतिरिक्त कक्षा, शौचालय, पीने का पानी, रखरखाव अनुदान और स्कूल सुधार अनुदान के माध्यम से मौजूदा स्कूलों की बुनियादी ढांचे में विकास करना है। जिन मौजूदा स्कूलों में अपर्याप्त शिक्षक हैं उनमें अतिरिक्त शिक्षक मुहैया कराना है, जबकि मौजूदा शिक्षकों की क्षमता को व्यापक प्रशिक्षण, विकासशील शिक्षण अधिगम सामग्री अनुदान और ब्लॉक और जिला स्तर पर एक क्लस्टर पर अकादमिक सहायता संरचना को मजबूत बनाने के लिए अनुदान से सुदृढ़ बनाया जा रहा है। सर्व शिक्षा अभियान, जीवन कौशल सहित गुणवत्ता युक्त प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करता है। सर्व शिक्षा अभियान द्वारा लड़कियों और विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित किया जाता है। सर्व शिक्षा अभियान, डिजिटल अंतराल को ख़त्म करने के लिए कंप्यूटर शिक्षा भी प्रदान करने का प्रयास करता है। बच्चों की उपस्थिति कम होने के चलते मध्याह्न भोजन की शुरूआत की गई थी।

अच्छे परिणामों के लिए, सर्व शिक्षा अभियान के परिव्यय को 2005-06 में 7156 करोड़ रुपये से 2006-07 में 10,004 करोड़ रुपये तक कर दिया गया है। साथ ही 500,000 अतिरिक्त क्लास रूम का निर्माण और 1,50,000 अतिरिक्त शिक्षकों की नियुक्ति करना लक्ष्य है। वर्ष 2006-07 के दौरान शिक्षा उपकर के माध्यम से राजस्व से प्रारम्भिक शिक्षा कोष के लिए 8746 करोड़ हस्तांतरण करने का फैसला किया गया।

लक्ष्य- 


  • 2003 तक शिक्षा गारंटी केन्द्र वैकल्पिक स्कूल में सभी बच्चों का स्कूल में होना.


  • 2007 तक सारे बच्चों द्वारा पांच साल के प्राथमिक स्कूली शिक्षा पूरा करना


  • 2010 तक सभी बच्चों का 8 साल का स्कूली शिक्षा पूरा करना


  • जीवन के लिए शिक्षा पर बल देते हुए संतोषजनक गुणवत्ता में प्रारंभिक शिक्षा पर जोर देना


  • 2007 तक प्राथमिक स्तर पर और 2010 तक प्रारंभिक शिक्षा स्तर पर सभी लैंगिक और सामाजिक अंतराल को ख़त्म करना।


सर्व शिक्षा अभियान में पन्द्रह हस्तक्षेप हैं

1. BRC (ब्लॉक रिसोर्स सेंटर)

2. सीआरसी (क्लस्टर रिसोर्स सेंटर)

3. एमजीएलसी एंड एआईई - सारे बच्चों को प्राथमिक शिक्षा देने के लिए सर्व शिक्षा अभियान को अभिगम देने का एक प्रमुख हस्तक्षेप वैकल्पिक और अभिनव शिक्षा (एआईई) है। जनजातीय और तटीय क्षेत्रों में वंचित और हाशिए पर रहे समूहों के बच्चों के भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न रणनीतियों को विकसित किया गया है।

4. नागरिक कार्य - नागरिक कार्य घटक सर्व शिक्षा अभियान के तहत महत्वपूर्ण है। इस घटक के अधीन, बड़े पैमाने पर कुल परियोजना के बजट का 33% तक का निवेश है। स्कूल की बुनियादी सुविधाओं को बच्चों तक पहुंचाने का प्रावधान और उन्हें बनाए रखना में मदद करना, दोनों ही सर्व शिक्षा अभियान का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य हैं। उप जिला स्तर पर संसाधन केंद्रों के लिए बुनियादी सुविधाओं का प्रावधान जो कि शैक्षिक समर्थन में मदद करता है, जिसकी भूमिका गुणवत्ता में सुधार की दिशा में एक उत्प्रेरक के रूप में कार्य करता है। निम्नलिखित निर्माण सिविल कार्य के तहत रखे गए हैं।

5. नि:शुल्क पाठ्य पुस्तक

6. अभिनव क्रियाकलाप - अभिनव कार्यक्रमों को स्कूलों में लागू करने की भूमिका 6-14 आयु के सारे बच्चों के लिए उपयोगी और प्रासंगिक प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने की प्रक्रिया और समुदाय की सक्रीय भागीदारी में सामाजिक, क्षेत्रीय और लैंगिक अंतराल के बीच पुल बनाने के लिए एक उत्प्रेरक के रूप में होती है। यह कार्यक्रम शिक्षा के प्रति छात्रों में रुचि पैदा करने में सफल रहे हैं और उनकी पढ़ाई को बनाए रखने में मदद करते हैं। अभिनव योजनाओं के अंतर्गत कार्यान्वित कार्यक्रम हैं: * बचपन की देखभाल और शिक्षा, बालिका शिक्षा, अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति शिक्षा और कंप्यूटर शिक्षा

7. IEDC

8. प्रबंधन और एमआईएस (MIS)

9. आरएंडई (R&E) (अनुसंधान और मूल्यांकन)- इस हस्तक्षेप में अनुसंधान, मूल्यांकन, निगरानी और पर्यवेक्षण होते हैं। एक प्रभावी EMIS पर क्षमता के विकास के लिए और संसाधन/अनुसंधान संस्थानों के माध्यम से प्रति स्कूल 1,500/- की राशी सामान्यतः प्रस्तावित है। इसमें घरेलू डेटा को अद्यतन करने के लिए नियमित रूप से स्कूल मानचित्रण/माइक्रो योजना का प्रावधान हैं। राशि का इस्तेमाल सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त दोनों स्कूलों के लिए उपयोग किया जा सकता. निम्नलिखित गतिविधियां हस्तक्षेप के तहत प्रस्तावित हैं। 1) प्रभावी क्षेत्र आधारित जांच के लिए संसाधन व्यक्तियों के एक संघ का निर्माण करना, 2) समुदाय आधारित डेटा का नियमित उत्पादन प्रदान करना, 3) उपलब्धि परीक्षण आयोजन, मूल्यांकन अध्ययन, 4) अनुसंधान गतिविधि उपक्रम, 5) न्यून महिला साक्षरता और लड़कियों की विशेष निगरानी, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति आदि के लिए विशेष कार्य बल की स्थापना, 6) शिक्षा प्रबंधन सूचना प्रणाली पर उत्तरदायी व्यय, 7) दृश्य जांच प्रणाली के लिए चार्ट, पोस्टर, स्केच पेन, ओएचपी कलम आदि का आकस्मिक व्यय उपक्रम 8) समूह अध्ययन आयोजन.

10. विद्यालय अनुदान - परियोजना के तहत स्कूल के लिए 2,000 रुपए प्रति स्कूल अनुदान दिया गया था। विद्यालय अनुदान में से 1000 स्कूल पुस्तकालय सुविधाओं के सुधार के लिए दिया गया था। बाकी निधि को गैरकार्यात्मक उपकरण को कार्यात्मक बनाने में, स्कूल सौंदर्यीकरण, मरम्मत और फर्नीचर अनुरक्षण, संगीत वाद्ययंत्र और स्कूलों के संपूर्ण पर्यावरण के विकास पर खर्च किया गया था।

11. शिक्षक अनुदान - कक्षा कार्रवाई के विकास और शिक्षक सहायता की तैयारी के क्रम के लिए 500 रुपये का अनुदान सभी एलपी/यूपी शिक्षकों को दिया जाता है। प्रभावी कक्षा कार्रवाई के लिए शिक्षकों ने अनुदान का प्रयोग उत्पादन और टीएलएम उपलब्ध कराने में किया। 2007-2008 के दौरान, एलपी/यूपी दोनों मिलाकर 547590 शिक्षक लाभान्वित हुए.

12. शिक्षक प्रशिक्षण - शिक्षा में गुणवत्ता लाना सर्व शिक्षा अभियान का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य है। प्रशिक्षण में सुधार लाने की कई रणनीतियां हैं: 1) शिक्षकों का प्रशिक्षण और पुनःप्रशिक्षण, 2) नए पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों के साथ अभिज्ञता प्रशिक्षण, 3) नेशनल करिकुलम फ़्रेम वर्क (एनसीएफ 2005) में अभिज्ञता प्रशिक्षण, 4) परीक्षा सुधार, 5) ग्रेडिंग प्रणाली और ग्रेडिंग प्रणाली के प्रभाव का मूल्य निर्धारण, 6) शैक्षिक और गैर शैक्षिक क्षेत्रों में सुधार, 7) विशेष ध्यानयोग्य बच्चों के लिए समावेशी शिक्षा पर शिक्षकों का प्रशिक्षण, 8) गुणवत्ता शिक्षा मापदंड योजना और गुणवत्ता की शिक्षा का कार्यान्वयन, 9) संसाधन समूहों को सभी स्तरों पर मज़बूती (प्रत्येक विषय के लिए अलग संसाधन समूह) 300-350 संसाधन व्यक्ति प्रति जिला) जिसमें गतिविधियां, स्थान समर्थन और समीक्षा बैठकों को सुनिश्चित किया जा रहा है। डीआईईटी ने परीक्षण आवश्यकताओं की पहचान की - प्रशिक्षण मॉड्यूल का विकास किया। इस प्रक्रिया से प्रशिक्षण की गुणवत्ता में सुधार करने में मदद मिलती है। प्रशिक्षकों और ब्लॉक कार्यक्रम अधिकारियों के लिए प्रशिक्षण आयोजित किया जाता है।

13. सुधारात्मक शिक्षण

14. समुदाय संग्रहण


15. दूरस्थ शिक्षा - दूरस्थ शिक्षा कार्यक्रम (डीईपी) सर्व शिक्षा अभियान का राष्ट्रीय घटक है, जो कि राष्ट्रीय मानव संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार, द्वारा प्रायोजित है। इसे भारत के सभी राज्य/संघ क्षेत्रों की सहायता से इंदिरा गांधी नेशनल ओपन युनिवर्सिटी (आईजीएनओयू) द्वारा लागू किया गया है। प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षकों के कार्यरत-शिक्षा और अन्य कर्मचारी वर्ग में डीईपी-एसएसए का एक महत्वपूर्ण इनपुट होगा। ऑडियो-वीडियो कार्यक्रम, रेडियो प्रसारण, टेलीकॉन्फ्रेंसिंग आदि जैसे मल्टी-मीडिया पैकेज का इस्तेमाल करते हुए आमने-सामने प्रशिक्षण की आपूर्ति करता है। प्रशिक्षण का दूरस्थ मोड केवल सर्वाधिक संख्या में छात्रों को प्रशिक्षित नहीं करता बल्कि प्रशिक्षण इनपुट में एकरूपता प्रदान करता है और संचारण नुकसान को कम करता है, जो कि आमतौर पर फेश-टू-फेश प्रशिक्षण के सोपानी मॉडल में अनुभव प्राप्त करता है।



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