Friday, April 26, 2019

9. लोक प्रशासन (Public administration)

लोक प्रशासन

लोक प्रशासन (Public administration) मोटे तौर पर शासकीय नीति (government policy) के विभिन्न पहलुओं का विकास, उन पर अमल एवं उनका अध्ययन है। प्रशासन का वह भाग जो सामान्य जनता के लाभ के लिये होता है, लोकप्रशासन कहलाता है। लोकप्रशासन का संबंध सामान्य नीतियों अथवा सार्वजनिक नीतियों से होता है।

एक अनुशासन के रूप में इसका अर्थ वह जनसेवा है जिसे 'सरकार' कहे जाने वाले व्यक्तियों का एक संगठन करता है। इसका प्रमुख उद्देश्य और अस्तित्व का आधार 'सेवा' है। इस प्रकार की सेवा उठाने के लिए सरकार को जन का वित्तीय बोझ करों और महसूलों के रूप में राजस्व वसूल कर संसाधन जुटाने पड़ते हैं। जिनकी कुछ आय है उनसे कुछ लेकर सेवाओं के माध्यम से उसका समतापूर्ण वितरण करना इसका उद्देश्य है।

किसी भी देश में लोक प्रशासन के उद्देश्य वहां की संस्थाओं, प्रक्रियाओं, कार्मिक-राजनीतिक व्यवस्था की संरचनाओं तथा उस देश के संविधान में व्यक्त शासन के सिद्धातों पर निर्भर होते हैं। प्रतिनिधित्व, उत्तरदायित्व, औचित्य और समता की दृष्टि से शासन का स्वरूप महत्व रखता है, लेकिन सरकार एक अच्छे प्रशासन के माध्यम से इन्हें साकार करने का प्रयास करती है।


प्रशासन

मानव एक सामाजिक प्राणी है। वह सदैव समाज में रहता है। प्रत्येक समाज को बनाये रखने के लिए कोई न कोई राजनीतिक व्यवस्था अवश्य होती है इसलिये यह माना जा सकता है कि उसके लिये समाज तथा राजनीतिक व्यवस्था अनादि काल से अनिवार्य रही है। अरस्तू ने कहा है कि “यदि कोई मनुष्य ऐसा है, जो समाज में न रह सकता हो, या जिसे समाज की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह अपने आप में पूर्ण है, तो वह अवश्य ही एक जंगली जानवर या देवता होगा।” प्रत्येक समाज में व्यवस्था बनाये रखने के लिये कोई न कोई निकाय या संस्था होती है, चाहे उसे नगर-राज्य कहें अथवा राष्ट्र-राज्य। राज्य, सरकार और प्रशासन के माध्यम से कार्य करता है। राज्य के उद्देश्य और नीतियाँ कितनी भी प्रभावशाली, आकर्षक और उपयोगी क्यों नहों, उनसे उस समय तक कोई लाभ नहीं हो सकता, जब तक कि उनको प्रशासन के द्वारा कार्य रूप में परिणित नहीं किया जाये। इसलिये प्रशासन के संगठन, व्यवहार और प्रक्रियाओं का अध्ययन करना आवश्यक हो जाता है।

चार्ल्सबियर्ड ने कहा है कि “कोई भी विषय इतना अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि प्रशासन है। राज्य एवं सरकार का, यहाँ तक कि, स्वयं सभ्यता का भविष्य, सभ्य समाज के कार्यों का निष्पादन करने में सक्षम प्रशासन के विज्ञान, दर्शन और कला के विकास करने की हमारी योग्यता पर निर्भर है।” डॉनहम ने विश्वासपूर्वक बताया कि “यदि हमारी सभ्यता असफल होगी तो यह मुख्यतः प्रशासन की असफलता के कारण होगा। यदि किसी सैनिक अधिकारी की गलती से अणुबम छूट जाये तो तृतीय विश्व युद्ध शुरू हो जायेगा और कुछ ही क्षणों में विकसित सभ्यताओं के नष्ट होनेकी सम्भावनाएँ उत्पन्न हो जायेंगी।”

ज्यों-ज्यों राज्य के स्वरूप और गतिविधियों का विस्तार होता गया है, त्यों-त्यों प्रशासन का महत्त्व बढ़ता गया है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि हम प्रशासन की गोद में पैदा होते हैं, पलते है, बड़े होते हैं, मित्रता करते, एवं टकराते हैं और मर जाते हैं। आज की बढ़ती हुई जटिलताओं का सामना करने में, व्यक्ति एवं समुदाय, अपनी सीमित क्षमताओं और साधनों के कारण, स्वयं को असमर्थपाते हैं। चाहे अकाल, बाढ़, युद्धया मलेरिया की रोकथाम करनेकी समस्या हो अथवा अज्ञान, शोषण, असमानता या भ्रष्टाचार को मिटानेका प्रश्न हो, प्रशासन की सहायता के बिना अधिक कुछ नहीं किया जा सकता। स्थिति यह है कि प्रशासन के अभाव में हमारा अपना जीवन, मृत्यु के समान भयावह और टूटे तारे के समान असहाय लगता है। हम अपने वर्तमान का ही सहारा नहीं समझते, वरन् एक नयी सभ्यता, संस्कृति, व्यवस्था और विश्व के निर्माण का आधार मानतेहैं। हमें अपना भविष्य प्रशासन के हाथों में सौंप देने में अधिक संकोच नहीं होता।

 प्रशासन की आवश्यकता सभी निजी और सार्वजनिक संगठनों को होती है। डिमॉक एवं कोइंग ने कहा है कि “वही (प्रशासन) यह निर्धारण करता है कि हम किस तरह का सामान्य जीवन बितायेंगे और हम अपनी कार्यकुशलताओं के साथ कितनी स्वाधीनताओं का उपभोग करने में समर्थ होंगे।” प्रशासन स्वप्न और उनकी पूर्ति के बीच की दुनिया है। उसे हमारी व्यवस्था, स्वास्थ्य और जीवनशक्ति की कुन्जी माना जा सकता है। जहाँ स्मिथबर्ग, साइमन एवं थॉमसन उसे “सहयोगपूर्ण समूहव्यवहार” का पर्याय मानते हैं, वहाँ मोर्स्टीन मार्क्स के लिये वह “प्रत्येक का कार्य” है। वस्तुतः प्रशासन सभी नियोजित कार्यों में विद्यमान होता है, चाहे वे निजी हों अथवा सार्वजनिक। उसे प्रत्येक जनसमुदाय की सामान्य इच्छाओं की पूर्ति में निरत व्यवस्था माना जा सकता है।

प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था को प्रशासन की आवश्यकता होती है, चाहे वह लोकतंत्रात्मक हो अथवा समाजवादी या तानाशाही। एक दृष्टि से, प्रशासन की आवश्यकता लोकतंत्र से भी अधिक समाजवादी व्यवस्थाओं को रहती है। समाजवादी व्यवस्थाओं के सभी कार्यप्रशासकों द्वारा ही सम्पन्न किये जाते हैं। लोकतंत्रात्मक व्यवस्थाओं में व्यक्ति निजी तौर पर तथा सूचना समुदाय भी सार्वजनिक जीवन में अपना योगदान देते हैं। यद्यपि यह कहा जा सकता है कि प्रशासन का कार्य समाजवाद की अपेक्षा लोकतंत्र में अधिक कठिन होता है।

समाजवाद में प्रशासन पूरी तरह से एक राजनीतिक दल द्वारा नियन्त्रित और निर्देशित समान लक्ष्यों को पूरा करने के लिये समूहों द्वारा सहयोगपूर्ण ढंग से की गयी क्रियाएँ ही प्रशासन है। गुलिक ने सुपरिभाषित उद्देश्यों की पूर्ति को उपलब्ध कराने को प्रशासन कहा है। स्मिथबर्ग, साइमन आदि ने समान लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये सहयोग करने वाले समूहों की गतिविधि को प्रशासन माना है। फिफनर व प्रैस्थस के

मतानुसार, प्रशासन “वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये मानवीय तथा भौतिक साधनों का संगठन एवं संचालन है।” एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका ने उसे “कार्यो के प्रबन्ध अथवा उनको पूरा करनेकी क्रिया” बताया है। नीग्रो के अनुसार, “प्रशासन लक्ष्य की प्राप्ति के लिये मनुष्य तथा सामग्री का उपयोग एवं संगठन है।” व्हाइट के विचारों में, वह “किसी विशिष्ट उद्देश्य अथवा लक्ष्य की प्राप्ति के लिये बहुत से व्यक्तियों का निर्देशन, नियन्त्रण तथा समन्वयन की कला है।”

उपर्युक्तपरिभाषाओं की दृष्टि से, प्रशासन के सामान्य लक्षण अग्रलिखित रूप से बताये जा सकते हैं -

1. मनुष्य तथा भौतिक साधनों का समन्वयन,
2. सामान्य लक्ष्यों अथवा नीति का पूर्वनिर्धारण,
3. संगठन एवंमानवीय सहयोग,
4. मानवीय गतिविधियों का निर्देशन औरनियंत्रण,
5. लक्ष्यों की प्राप्ति।
इन सभी लक्षणों को टीड की परिभाषा में देखा जा सकता है कि “प्रशासन वांछित परिणाम की प्राप्ति के लिये मानव प्रयासों के एकीकरण की समावेशी प्रक्रिया है।”

इन सभी परिभाषाओं में प्रशासन की बड़ी व्यापक व्याख्याएँ की गयी हैं। जब हम केवल सार्वजनिक नीतियों अथवा लोकनीतियों के क्रियान्वयन से संबंधित प्रशासन की बात करते हैं तो इसे “सार्वजनिक प्रशासन” या ‘लोकप्रशासन’ कहा गया है। यहीं लोकप्रशासन सामान्य “प्रशासन” से पृथक् एवं विशिष्ट हो जाता है। लोकप्रशासन के सिद्धान्त एवं कार्यप्रणालियाँ अन्य क्षेत्रों में उपलब्ध प्रशासनों को अधिकाधिक मात्रा में प्रभावित करती जा रही हैं।


लोक प्रशासन का अर्थ एवं परिभाषाएँ

व्हाइट के शब्दों में, लोक प्रशासन में “वे गतिविधियाँ आती हैं जिनका प्रयोजन सार्वजनिक नीति को पूरा करना अथवा क्रियान्वित करना होता है।”

वुडरो विल्सन के अनुसार, “लोकप्रशासन विधि अथवा कानून को विस्तृत एवं क्रमबद्ध रूप में क्रियान्वित करने का काम है। कानून को क्रियान्वित करने की प्रत्येक क्रिया प्रशासकीय क्रिया है।”

डिमॉक ने बताया है कि “प्रशासन का संबंध सरकार के “क्या” और “कैसे” से है। “क्या” से अभिप्राय विषय में निहित ज्ञान से है, अर्थात् वह विशिष्ट ज्ञान, जो किसी भी प्रशासकीय क्षेत्र में प्रशासक को अपना कार्य करनेकी क्षमता प्रदान करता हो। “कैसे” से अभिप्राय प्रबन्ध करनेकी उस कला एवं सिद्धान्तों से है, जिसके अनुसार, सामूहिक योजनाओं को सफलता की ओर ले जाया जाता है।”

हार्वे वाकर ने कहा कि “कानून को क्रियात्मक रूप प्रदान करने के लिये सरकार जो कार्य करती है, वही प्रशासन है।”

विलोबी के मतानुसार, “प्रशासन का कार्यवास्तव में सरकार के व्यवस्थापिका अंग द्वारा घोषित और न्यायपालिका द्वारा निर्मित कानून को प्रशासित करने से सम्बद्ध है।”

पर्सीमेक्वीन ने बताया कि “लोकप्रशासन सरकार के कार्यों से संबंधित होता है, चाहे वे केन्द्र द्वारा सम्पादित हों अथवा स्थानीय निकाय द्वारा।"


 व्यापक गतिविधि (Generic activity) के रूप में वाल्डो ने इसे “बोद्धिकता की उच्च मात्रा युक्त सहयोगपूर्ण मानवीय-क्रिया” कहा है।

सिद्धान्त एवं विश्लेषण की दृष्टि से लोकप्रशासन एवं निजी प्रशासन, सामान्य प्रशासन के ही दो विशिष्ट रूप हैं किन्तु इन दोनों रूपों में मौलिक समानताएँ पायी जाती हैं। वर्तमान समय में, इनके मध्य चली आ रही असमानताएँ क्रमशः कम होती जा रही हैं। इसी प्रकार, प्रबन्धन भी प्रशासन से भिन्न न होकर उसी का संचालन एवं निर्देशात्मक भाग है।


लोक प्रशासन के सिद्धांत और मूल तत्व

लोक प्रशासन का विषय बहुत व्यापक और विविधतापूर्ण है। इसका सिद्धांत अंतः अनुशासनात्मक (इन्टर-डिसिप्लिनरी) है क्योंकि यह अपने दायरे में अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान, प्रबंधशास्त्र और समाजशास्त्र जैसे अनेक सामाजिक विज्ञानों को समेटता है।

लोक प्रशासन या सुशासन के केन्द्रीय तत्व पूरी दुनिया में समान ही हैं - दक्षता, मितव्ययिता और समता उसके मूलाधार हैं। शासन के स्वरूपों, आर्थिक विकास के स्तर, राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों, अतीत के प्रभावों तथा भविष्य संबंधी लक्ष्यों या स्वप्नों के आधार पर विभिन्न देशों की व्यवस्थाओं में अंतर अपरिहार्य हैं। लोकतंत्र में लोक प्रशासन का उद्देश्य ऐसे उचित साधनों द्वारा, जो पारदर्शी तथा सुस्पष्ट हों, अधिकतम जनता का अधिकतम कल्याण है।


लोक प्रशासन: एक व्यावहारिक शास्त्र

अमेरिकी विद्वान वुडरो विल्सन के अनुसार, एक संविधान बनाने की अपेक्षा उसे चलाना अधिक कठिन है। चूंकि संविधान के क्रियान्वयन में प्रशासन की भूमिका होती है इसलिए प्रशासन को एक व्यावहारिक अनुशासन माना जाता है, जिसके गंभीर अध्ययन की आवश्यकता है। विल्सन का मुख्य संदेश था कि, लोक प्रशासन को राजनीति से पृथक किया जाना चाहिए। हालांकि राजनीति प्रशासन के कार्य निर्धारित कर सकती है, फिर भी प्रशानिक अनुशासन को अपने कार्य से विचलित नहीं किया जाना चाहिए।[2] लोक प्रशासन चाहे कला हो या विज्ञान हो, यह एक व्यावहारिक शास्त्र है, जो सर्वव्यापी बन चुके राजनीति और राजकीय कार्यकलापों से गहराई से जुड़ा हुआ है। व्यवहार में भी लोक प्रशासन एक सर्व-समावेशी (आल-इनक्लूसिव) शास्त्र बन चुका है, क्योंकि यह जन्म से लेकर मृत्यु तक (पेंशन, क्षतिपूर्ति, अनुग्रह राशि आदि के रूप में) व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करता है। वास्तव में यह व्यक्ति को उसके जन्म के पहले से भी प्रभावित कर सकता है, जैसे भ्रूण परीक्षण पर प्रतिबंध या महिलाओं और बच्चों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं के प्रावधान जैसी नीतियों के द्वारा।


 प्रशासन और लोक-प्रशासन में अन्तर

'लोक प्रशासन' के अर्थ को भली-भांति समझने के लिए ‘प्रशासन’ और ‘लोक प्रशासन’ में विभेद समझना आवश्यक हैः

        1. प्रशासन                       2. लोक प्रशासन

  • प्रशासन एक सामान्य शब्दावली है जिसका परिप्रेक्ष्य व्यापक है। जबकि लोक प्रशासन का परिप्रेक्ष्य संकुचित है, क्योंकि यह सार्वजनिक नीतियों से ही सम्बन्धित है।
  • प्रशासन का सम्बन्ध कार्यों को सम्पन्न कराने से है जिससे कि निर्धारित लक्ष्य पूरे हो सकें। जबकि लोक प्रशासन दोहरे स्वरूप वाला है। यह अध्ययन, अध्यापन एवं अनुसंधान का शैक्षणिक विषय होने के साथ-साथ क्रियाशील विज्ञान भी है।
  • आमतौर से प्रशासन एक क्रिया (activity) भी है और प्रक्रिया (process) भी है। जबकि लोक प्रशासन का सम्बन्ध सार्वजनिक नीति के निर्माण, क्रियान्वयन से है। यह नीति विज्ञान और प्रक्रिया होती है।
  • प्रशासन एक सार्वलौकिक क्रिया है जिसे समस्त प्रकार के समूह प्रयत्नों में देखा जा सकता है, चाहे वह समूह परिवार, राज्य या अन्य सामाजिक संघ हो। जबकि लोक प्रशासन का सम्बन्ध विशिष्ट रूप से सरकारी क्रियाकलापों से है। इसके अन्तर्गत वे सभी प्रशासन आ सकते हैं जिनका जनता पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है।
  • प्रशासन उन समस्त सामूहिक क्रियाओं का नाम है जो सामान्य लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सहयोगात्मक रूप में प्रस्तुत की जाती है। जबकि लोक प्रशासन सरकार के कार्य का वह भाग है जिसके द्वारा सरकार के उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की प्राप्ति होती है।
  • प्रशासन एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए सहयोगी ढंग से किया जाने वाला कार्य है। लोक प्रशासन ऐसे उद्देश्यों का क्रियान्वयन है, जिन्हें जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों ने निर्धारित किया है। इन उद्देश्यों की प्राप्ति लोक सेवाओं द्वारा सहयोगी ढंग से की जाती है।

  • प्रशासन के अन्तर्गत लोक प्रशासन और निजी प्रशासन प्रशासन दोनों समाविष्ट हैं। जबकि लोक प्रशासन का सम्बन्ध ‘सार्वजनिक’ (जनता से सम्बन्धित) प्रशासन से है।



लोक प्रशासन की प्रकृति और कार्यक्षेत्र


लोकप्रशासन की प्रकृति को लेकर विद्वानों में तीव्र मतभेद है कि लोक प्रशासन को विज्ञान की श्रेणी में रखा जाये अथवा कला की श्रेणी में। इसी मतभेद के आधार पर विद्वानों को चार श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है:

(1) लोक प्रशासन को विज्ञान मानने वाले विचारक।

(2) लोक प्रशासन को विज्ञान न मानने वाले विचारक।

(3) लोक प्रशासन को कला मानने वाले विचारक।

(4) लोक प्रशासन को कला व विज्ञान दोनों की श्रेणी में रखने वाले विचारक।


लोक प्रशासन में मूल्य

वर्तमान समय में लोक प्रशासन की भूमिका अत्यधिक व्यापक एवं जटिल हो गई है। नीति निर्माण की प्रक्रिया और विभिन्न समस्याओं को सुलझाने में प्रशासक स्थाई रूप से भाग लेने लगे हैं। अतः यह आवश्यक है कि सभी प्रशासक निर्णय प्रक्रिया से बेहतर ढंग से परिचित हों। साथ ही उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि समस्या समाधान में मूल्यों एवं तथ्यों की भूमिका क्या हो सकती है। लोक सेवाएं वैध सत्ता पर आधारित हैं जिन्हें कार्यों के संपादन हेतु समुचित अधिकार, आवश्यक सुरक्षा तथा पर्याप्त सुविधा प्रदान की गई है। अतः इन सेवाओं में कार्यरत लोकसेवकों के उत्तरदायित्व भी सुनिश्चित होने चाहिए।
लोक सेवकों को उनके कार्यों एवं व्यावसायिक संहिता सम्बन्धी दिशानिर्देशन लोकसेवा मूल्यों के संतुलित ढांचे द्वारा दिया जाना चाहिए


लोकतान्त्रिक मूल्य -


  • लोक सेवकों द्वारा मंत्रियों को निष्पक्ष एवं ईमानदारीपूर्वक परामर्श देना।
  • लोक सेवकों द्वारा मंत्रिमंडलीय निर्णय का ईमानदारीपूर्वक लागु करवाना।
  • लोक सेवकों द्वारा वैयक्तिक एवं सामूहिक दोनों प्रकार के मंत्रिमंडलीय उत्तरदायित्वों का समर्थन करना।


व्यावसायिक मूल्य -


  • लोक सेवकों द्वारा अपने कार्यों का निष्पादन कानून के दायरे में ही करना।
  • राजनीति से तटस्थ बने रहें।
  • सार्वजनिक धन का सही, प्रभावी व दक्षतापूर्ण प्रयोग सुनिश्चित करें।
  • सरकार में पारदर्शिता के मूल्यों का समावेश करें तथा उचित प्रयास करें।

नैतिक मूल्य -

  • लोक सेवकों को अपने सभी कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए।
  • लोक सेवक अपने सभी कर्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों को निष्ठापूर्वक निभाएं।
  • लोक सेवकों द्वारा लिया जाने वाला प्रत्येक निर्णय सार्वजनिक हित में हो।

सार्वजनिक मूल्य -

  • लोक सेवा में नियुक्ति सम्बन्धी निर्णय योग्यता के आधार पर लिए जाने चाहिए।
  • लोक सेवा संगठनों में सहभागिता, पारदर्शिता एवं संचार व्याप्त होना चाहिए।


प्रशासनिक नीतिशास्त्र

सामान्यतः नीतिशास्त्र का तात्पर्य उन नैतिक मूल्यों से है जो लोगों के व्यवहार को निर्देशित एवं संस्कृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जब इन नैतिक मूल्यों की प्रशासन के सन्दर्भ में परिचर्चा की जाती है तो यह "प्रशासनिक नीतिशास्त्र" कहलाता है। आधुनिक लोकसेवाएं एक पेशे का रूप धारण कर चुकी हैं, अतः प्रशासनिक नीतिशास्त्र की मांग उठने लगी है। जर्मनी वह प्रथम देश है जहाँ लोक सेवाओं का पेशेवर रूप विकसित हुआ और लोकसेवकों के लिए पेशेवर आचार संहिता विकसित हुई। वहीं अमेरिकन लोक प्रशासन में नैतिकता के प्रारम्भ को वहां प्रचलित "लूट पद्धति" (Spoil System ) के सन्दर्भ में जोड़ा जा सकता है, जब इस पद्धति से तंग आकर एक अमेरिकन युवक ने वर्ष 1881 में तत्कालीन अमेरिकन राष्ट्रपति गारफील्ड की हत्या कर दी थी।




लोक प्रशासन के शॉर्ट प्रश्नसमुच्चय--०१


  1. भारतीय लोक प्रशासन संस्थान कहाँ स्थित है ?

(c) नई दिल्ली🎯

2. लोक प्रशासन के अध्ययन का परिचय’ नामक पुस्तक के लेखक है-
(b) एल. डी. व्हाईट ने🎯


3 लोक प्रशासन मूलतः मानवीय सहयोग से सम्बंधित है”-यह कथन है-
(a) वाल्डो का🎯

4. हेनरी फेयोल के अनुसार प्रशासन की प्रधान श्रेणियाँ है-
1.नियोजन
2.संगठन
3.आदेश
4.समन्वय और नियंत्रण
कूट:-
(a) 1, 2 और 3
(b) 2, 3 और 4
(c) 1, 2, 3 और 4🎯
(d) 2 और 3

5. “प्रशासन का वास्तविक सार वह मूल सेवा है जो जनसाधारण के लिए की जाती है।” यह कथन है-
(c) नीग्रो🎯

6. लोक प्रशासन की विशेषताओं के सम्बन्ध में असत्य कथन का चयन कीजिए-

(d) लोक प्रशासन सामाजिक है।🎯

7. लोक प्रशासन में “वे गतिविधियाँ आती हैं जिनका प्रयोजन सार्वजनिक नीति को पूरा करना अथवा क्रियान्वित करना होता है।”-यह कथन है-
(a) व्हाइट🎯

8. कानून को क्रियात्मक रूप प्रदान करने के लिये सरकार जो कार्य करती है, वही प्रशासन है।” -यह कथन है-
(a) हार्वे वाकर🎯

9. नवीन लोक प्रशासन की प्रमुख विशेषता थी ?
1. प्रासंगिकता
2. मूल्य
3. सामाजिक समता
4. परिवर्तन
5. राजनीति-प्रशासन द्विभाजन पर बल
कूट:-
(a) 1,2 और 4
(b) 2,3 और 5
(c) उपर्युक्त सभी
(d) 1,2,3 और 4🎯

10. लोकप्रशासन सरकार के कार्यों से संबंधित होता है, चाहे वे केन्द्र द्वारा सम्पादित हों अथवा स्थानीय निकाय द्वारा।” यह कथन है-
(a) पर्सीमेक्वीन🎯
(b) विल्सन
(c) गुलिक
(d) डिमॉक

11. निम्नलिखित विषय लोक प्रशासन के किस चरण से संबंधित है-
【1】 लोक प्रशासन के अध्ययन क्षेत्र तथा कार्यक्षेत्र के संबंध में उत्पन्न समस्याओं का नवीन रूप में समाधान।
【2】 विकासशील देशों के अनुकूल प्रशासन को विकसित करने का प्रयास
(ब) चतुर्थ चरण🎯


12. लोक प्रशासन के चतुर्थ चरण को प्रायः याद किया जाता है-
【1】 विध्वंसकारी काल
【2】 अंधकार युग
【3】 संदेह के बादल
【4】 पहचान की संकटावस्था
निम्न में से चतुर्थ चरण के संबंध में सत्य है-
(अ) 1 और 3
(ब) 3 और 4
(स) 2 और 4🎯
(द) उपर्युक्त सभी

13. सल्तनतकालीन प्रशासन राजस्व विभाग किस नाम से जाना जाता था?_
(ब) दीवान-ए-विजारत🎯

14. सल्तनतकाल में विदेश विभाग किस नाम से जाना जाता था?
(ब) दीवान-ए-रसालत🎯

15. मुगलकाल में ‘मीरबख्शी’ होता था-
(ब) सैन्य विभाग का अध्यक्ष🎯

16. भारत में मनसबदारी व्यवस्था का जनक माना जाता है-
(ब) अकबर🎯

17. मद्रास में प्रथम नगर निगम की स्थापना कब हुई ?

(ब) 1687🎯

18. मुगल काल में परगने में राजस्व विभाग का अधिकारी किस नाम से जाना जाता था ?
(ब) कानूनगो🎯

19. प्रांतों में उच्च न्यायालयों का गठन कब हुआ ?

(स) 1861🎯

20. गुप्तकाल में राजस्व एकत्र करने वाला अधिकारी कहलाता था-_
(द) ध्रुवाधिकरणीक🎯

21. मौर्यकाल में प्रशासन कितने विभागों बंटा हुआ था ?
(स) 18🎯

22. लोक प्रशासन है-
(a) विशिष्ट राजनीति व्यवस्था का आवश्यक भाग🎯

23. लोक प्रशासन सार्वजानिक नीतियों को लागू करने का कार्य करता है”- यह दी है-

(b) एल. डी. व्हाईट ने🎯


24. लोक प्रशासन की उपस्थिति दर्ज होती है ?
(c) उपर्युक्त दोनों🎯


25. हायरार्की’ का तात्पर्य है-
(a) निम्नतर पर उच्चतर का शासन🎯


26. लोक प्रशासन में ‘लोक’ शब्द से अभिप्राय है-
(d) सरकार से🎯

27. “26.लोक प्रशासन एक दोधारी औजार है, जैसे कैंची की दो धारें।”-लेविस मेरियम के उक्त कथन में ‘दो धारें’ से तात्पर्य है-
(a) पॉस्डकोर्ब सम्बन्धी ज्ञान तथा विषयवस्तु का ज्ञान🎯


28. प्रशासन(Administration) शब्द की उत्पति किस भाषा से हुई है ?
(b) लैटिन🎯

29. प्रशासन और लोक प्रशासन में मूलभूत अन्तर है-
(a) राजनितिक सन्दर्भ का🎯

30. लोक प्रशासन में ‘पोस्डकोर्ब दृष्टिकोण’ के प्रतिपादक है-
(c) लूथर गुलिक🎯

31. पोस्डकोर्ब’ में ‘ओ'(O) का क्रियात्मक अर्थ है-
(b) संगठित करना🎯

32. लोक प्रशासन का प्रमुख उद्देश्य है-
(c) जन कल्याण🎯

33. लोक प्रशासन सार्वजानिक नीतियों को लागू करने का कार्य करता है”- यह दी है-

(b) एल. डी. व्हाईट ने🎯


34. लोक प्रशासन की उपस्थिति दर्ज होती है ?
(c) उपर्युक्त दोनों🎯


35. हायरार्की’ का तात्पर्य है-
(a) निम्नतर पर उच्चतर का शासन🎯


36. लोक प्रशासन में ‘लोक’ शब्द से अभिप्राय है-
(d) सरकार से🎯

37. “26.लोक प्रशासन एक दोधारी औजार है, जैसे कैंची की दो धारें।”-लेविस मेरियम के उक्त कथन में ‘दो धारें’ से तात्पर्य है-
(a) पॉस्डकोर्ब सम्बन्धी ज्ञान तथा विषयवस्तु का ज्ञान🎯


38. प्रशासन(Administration) शब्द की उत्पति किस भाषा से हुई है ?*
(b) लैटिन🎯

39. प्रशासन और लोक प्रशासन में मूलभूत अन्तर है-
(a) राजनितिक सन्दर्भ का🎯


40. लोक प्रशासन में ‘पोस्डकोर्ब दृष्टिकोण’ के प्रतिपादक है-
(c) लूथर गुलिक🎯


41. पोस्डकोर्ब’ में ‘ओ'(O) का क्रियात्मक अर्थ है-
(b) संगठित करना🎯


42. लोक प्रशासन का प्रमुख उद्देश्य है-
(c) जन कल्याण🎯

43. लोक प्रशासन के चतुर्थ चरण की समयावधि है?
(ब) 1948-1970🎯

44. सिद्धान्तों का स्वर्णकाल?
(ब) द्वितीय चरण🎯

45. कार्योन्मुखी दृष्टिकोण के साथ लोगों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की कोशिश।’ लोक प्रशासन के किस चरण की मूल विषय वस्तु थी ?_
(द) पञ्चम चरण🎯

46. लोक प्रशासन के पञ्चम चरण की समयावधि है
(द) 1971-1990🎯

47. लोक प्रशासन के पिता?
(ब) हेवुडरो विल्सन🎯


48. नवीन लोक प्रबन्ध’ शब्द को सर्वप्रथम 1990 में किसने गढ़ा ?
(ब) क्रिस्टोफर हुड🎯

49. मौर्यकाल में प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी?
(ब) ग्राम🎯

50. गुप्तकाल में राजपद था?
(स) वंशानुगत🎯


51. गुप्त साम्राज्य का सबसे बड़ा अधिकारी ,जो राजा द्वारा केंद्रीय प्रांतों में नियुक्त किया जाता था। वह था?
(स) कुमारामात्य🎯


52. गुप्तकाल में ‘विनयस्थितिस्थापक’ होता था-
(स) धार्मिक मामलों का अधिकारी🎯


53. चोल प्रशासन में ‘उदनकुट्टम’ क्या था ?
(द) उच्च पदाधिकारियों की कार्यकारिणी🎯

54. किसके मतानुसार, “प्रशासन का कार्यवास्तव में सरकार के व्यवस्थापिका अंग द्वारा घोषित और न्यायपालिका द्वारा निर्मित कानून को प्रशासित करने से सम्बद्ध है।” यह कथन है-
(c) विलोबी🎯

55. एक विषय के रूप में लोक प्रशासन को कितने चरणों में विभाजित किया जा सकता है –
(स) 6🎯

56. लोक प्रशासन के प्रथम चरण की समयावधि है-
(अ) 1887-1926🎯


57. द्वितीय चरण को प्रायः याद किया जाता है –
【1】 रुढिवादी काल
【2】 मूल्य शून्यता काल
【3】 राजनीति प्रशासन द्वैतभाव
【4】 यांत्रिक दृष्टिकोण काल
【5】 शास्त्रीय दृष्टिकोण का काल
निम्न में असत्य है-
(अ) 1 और 5
(ब) केवल 3🎯
(स) केवल 4
(द) 2 और 5

58. 'PRINCIPAL OF PUBLIC ADMINISTRATION’ इस पुस्तक के प्रकाशन के साथ ही द्वितीय चरण का प्रारम्भ हुआ। इस पुस्तक का प्रकाशन कब हुआ ?
(ब) 1927🎯

59. लोक प्रशासन के तृतीय चरण की समयावधि है-
(स) 1938-1947🎯

60. "अगर कोई विचारधारा है तो निर्णय निर्माण ही प्रशासन का मर्म है और प्रशासनिक विचारधारा की शब्दावली मानव चयन के तर्क और मनोविज्ञान से निकाली जानी चाहिए।" तृतीय चरण से संबंधित यह कथन किस विद्वान का है ?_
(अ) साइमन🎯

61. लोक प्रशासन के किस चरण को ‘अंधकार युग’ के रूप में याद किया जाता है ?
(b) चतुर्थ🎯

62. 'पोस्डकोर्ब' में ‘आर' (R) का क्रियात्मक अर्थ है-
(c) रिपोर्ट देना🎯

63. लोक प्रशासन कभी विज्ञान नहीं बन सकता।”यह विचार किस विद्वान का है ?*
(b) फाइनर🎯

64. प्रशासन अब एक इतना विशाल क्षेत्र है कि प्रशासन का दर्शन जीवन का दर्शन बनाने के करीब आ गया है।” यह कथन है -
(ब) एम. ई.डिमॉक🎯


65. “राज्य हर जगह है, यह शायद ही कोई खाली सी जगह छोड़ता है।” यह कथन है -
(स) एच. फाइनर🎯


66. "प्रशासन सरकार का आधार है। कोई भी सरकार प्रशासन के बिना कायम नहीं रह सकती। प्रशासन के बिना अगर यह अस्तित्व में रह भी पाती है तो यह एक विचार-विमर्श बन जाएगी।” यह कथन है -
(द) पॉल. एच. एपलबी🎯

67. मैक्स वेबर के अनुसार ‘प्रशासन’ का अर्थ है-
(ब) प्रभुत्व🎯

68. लोक प्रशासन के अंतर्गत ‘लोक’ का विशिष्ट अर्थ है
(ब) सरकारी🎯

69. लोक प्रशासन उन सभी कार्यों को कहते हैं जिनका उद्देश्य उपयुक्त सत्ता के द्वारा घोषित की गई नीति को लागू करना या पूरा करना होता है।” यह कथन है -
(ब) एल.डी. व्हाइट🎯

70. ”सरलतम शब्दों में कहा जा सकता है कि प्रशासन एक चेतनापूर्ण ध्येय की सिद्धि के लिए किया जाने वाला नियोजित कार्य है।” यह कथन है -
(स) जैड. ए. वीग🎯

71. "वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मानवीय व भौतिक संसाधनों के संगठन और संचालन को प्रशासन कहते हैं।” यह परिभाषा दी है –
(द) पिफनर🎯

72. 'Administration’ लैटिन भाषा के दो शब्दों ad + ministare से मिलकर बना है जिसका अर्थ है -
(ब) काम करवाना🎯


73. सामान्य प्रयोग में प्रशासन शब्द का अर्थ है -
【1】 मंत्रिमंडल अथवा कोई अन्य सर्वोच्च कार्यकारिणी
【2】 ज्ञान की एक शाखा अथवा शैक्षिक विद्या का नाम
【3】 सार्वजनिक नीति या नीतियों को लागू करने के लिए की जा रही सभी क्रियाएं
【4】 प्रबंधन की कला
निम्न में से सत्य कूट है

(अ) 1,2 और 3
(ब) 1, 2, 3 और 4🎯
(स) 2 और 3
(द) 2, 3 और 4

74. "कानून को विस्तृत एवं क्रमबद्ध रूप से क्रियान्वित करने का नाम ही लोक प्रशासन है। कानून को क्रियान्वित करने की प्रत्येक क्रिया एक प्रशासकीय क्रिया है।" यह परिभाषा दी है -
(अ) वुडरो विल्सन🎯

75. "प्रशासन का वास्तविक सार वह मूल सेवा है जो जनसाधारण के लिए की जाती है।" यह परिभाषा है -_
(द) नीग्रो🎯

76. प्रशासन का संबंध कार्यों को करवाने से, निश्चित उद्देश्य की पूर्ति करने से है।” यह कथन है -_
(ब) लुथर 🎯


77. हेनरी फेयोल के अनुसार प्रशासन की पांच प्रधान श्रेणियां है, उनमें शामिल नहीं है -
【1】 नियोजन
【2】 संगठन
【3】 आदेश
【4】 समन्वय
【5】 नियंत्रण
कूट :-
(अ) 2 और 3
(ब) केवल 2
(स) 2, 4 और 5
(द) उपर्युक्त सभी शामिल है।🎯

78. "यदि हमारी सभ्यता असफल रहती है तो वह मुख्यतः शासन की असफलता के कारण होगी।" यह कथन है -
(अ) डब्ल्यू. बी. डानहम🎯

79. लोकप्रशासन अभी विज्ञान नहीं है ,किंतु विज्ञान बन जाएगा।” इस मान्यता के प्रति आश्वस्त है -
(अ) फिफनर🎯

80. लोक प्रशासन को कला मानने वाले विद्वान हैं -
(स) उपर्युक्त दोनों🎯

81. 'POSDCORB’ में {O} का क्रियात्मक अर्थ है -
(स) संगठित करना🎯

82. प्रशासन का ‘प्रबंधकीय दृष्टिकोण’ यह मानता है कि-
(ब) शासन में केवल उच्च प्रबंधकीय पदाधिकारी सम्मिलित है।🎯

83. प्रशासन के ‘एकीकृत दृष्टिकोण’ की मान्यता है कि -
(स) प्रशासन में सभी कार्मिक सम्मिलित है।🎯

84. लोक प्रशासन में ‘POSDCORB’ दृष्टिकोण के प्रतिपादक है -
(स) लूथर गुलिक🎯

85. 'POSDCORB’ में {P} का अर्थ है -
(अ) PLANNING🎯

86. लोक प्रशासन में समावेश है -
(द) उपरोक्त सभी🎯

87. किस दृष्टिकोण को लोक कल्याणकारी एवं आदर्शवादी दृष्टिकोण भी कहा जाता है -
(स) आधुनिक दृष्टिकोण को🎯

88. लोक प्रशासन कभी विज्ञान नहीं बन सकता।” यह विचार किस विद्वान का है ?
(ब) फाईनर🎯

89. भारत प्रशासनिक सुधार आयोग के अनुसार राज्य सचिवालय कौनसे विभाग के मुख्य सचिव के अधीन होना चाहिए ?
उतर : कार्मिक विभाग

90. जिलाधीश के पद के बारे में निम्न में से कौनसी बाते सही हैं ?
a) इसको वारेन हेस्टिंग्स ने सृजित किया था
b) यह मुगलों के करोड़ी – फौजदार का उत्तराधिकारी हैं
c) दोनों सही हैं
d) दोनों गलत हैं
उत्तर : दोनों सही है

91. छावनी बोर्डों के बारे में निम्न में से कौनसी बात सही नहीं हैं ?
उत्तर : इसका गठन कार्यकारी प्रस्ताव द्वारा किया जाता हैं

92. भारतीय लोक प्रशासनिक संस्थान की स्थापना निम्न में से किसकी सिफारिस पर की गई हैं ?
उत्तर : एपलबी रिपोर्ट

93. नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) के संबंध में निम्न में से कौन-से कथन सही हैं ?
a)वह केवल संसद के प्रति उत्तरदायी होता हैं
b) उसकी सेवा शर्ते भारत सरकार के सचिव के समतुल्य हैं
c)वह किसी कर की निवल प्राप्तियों को प्रमाणित करता हैं
d) उपयुक्त सभी
उत्तर : उपयुक्त सभी

94. मंत्रिमंडल सचिवालय के अंग के रूप में जन-शिकायत निदेशालय की स्थापना किस वर्ष में हुई थी ?
उत्तर : 1988

95. अधिकांश राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा निम्न में से किसकी सलाह पर की जाती हैं ?
a) विधानसभा के विरोधी दल के नेता
b) राज्य उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश
c) विधान परिषद् में विपक्ष का नेता
d) उपरोक्त सभी
उत्तर : उपरोक्त सभी

96. लोक सभा में पहला लोकपाल विधेयक कब रखा गया था ?
उत्तर : 1968

97. निम्न में से कौनसा कार्य केन्द्रीय सतर्कता आयोग द्वारा किया गया हैं ?
उत्तर : संथानम समिति के प्रस्ताव

98. निम्नलिखित मे से किन वर्गों के मामलों में न्यायपालिका प्रशासनिक कार्यों में हस्तक्षेप कर सकती हैं ?
a) तथ्यों की खोज में गलती
b) कार्यविधि में गलती
c) विवेकाधिकार का दुरुपयोग
d) उपरोक्त सभी
उत्तर : उपरोक्त सभी

99. प्रशासनिक मंत्रालयों द्वारा तैयार बजटीय आकलनों पर वित्त मंत्रालय की संवीक्षा के लिए सही कथन का चयन करें ?
a) यह मुख्यतया मितव्ययता और धन की उपलब्धता के दृष्टिकोण से की जाती हैं
b) स्थायी प्रभारों के संबंध में यह नाममात्र को होती हैं
c) नई मदों को लेकर यह अधिक विस्तृत होती हैं
d) उपरोक्त सभी
उत्तर : उपरोक्त सभी

100. एकीकृत वित्तीय सलाहकार के संबंध में निम्न में से कौनसा कथन गलत हैं ?
उत्तर : यह उप-सचिव की श्रेणी का होता हैं

101. निम्न में से राष्ट्रीय विकास परिषद् का कार्य क्या हैं ?
a) योजना के लिए संसाधनों का आकलन करना
b) राष्ट्रीय योजना पर विचार करना
C) राष्ट्रीय योजना की समीक्षा करना
d) उपरोक्त सभी
उत्तर : उपरोक्त सभी

102. राज्य सरकार के मुख्य सचिव का कार्य कौनसा नहीं हैं ?
उत्तर : राज्य सिविल सेवकों के प्रोत्साहन का अनिमोदन करना

103.  निम्न में से किस राज्य के नगर निगमों में एकीकृत कार्मिक व्यवस्था लागू हैं ?
उत्तर : आंध्रप्रदेश

104. 73वें संविधान संशोधन ने संवैधानिक अनुमोदन का प्रावधान किया है॥ निम्न में से सही कथन हैं ?
a) पंचायत की त्रि-स्तरीय संरचना के लिए
b) महिलाओं के लिए आरक्षण व्यवस्था के लिए
c) Aऔर B गलत कथन हैं
d) Aऔर B सही कथन हैं
उत्तर : A और B सही कथन हैं

105. 73वें संविधान संशोधन की महत्वपूर्ण विशेषताओं के संदर्भ में सही कथन हैं ?
a) सभी स्तरों पर सदस्यों का सीधा निर्वाचन
b) निर्वाचन कराने का आदेशात्मक प्रावधान
c) मध्यवर्ती एवं जिला स्तर पर सभापति का अप्रत्यक्ष निर्वाचन
d) उपरोक्त सभी
उत्तर : उपरोक्त सभी

106. प्रधानमंत्री कार्यालय/सचिवालय के संबंध में निम्न में से कौनसे कथन सही हैं ?
उत्तर : इससे संबद्ध या इसके अधीन कोई कार्यालय नहीं हैं

107. निम्न में से किन निगमों की लेखा परीक्षा पेशेवर लेखा परीक्षकों द्वारा की जाती हैं परन्तु (CAG) को इनकी संपूरक लेखा परीक्षा करने का अधिकार हैं ?
a) औद्योगिक वित्त निगम
b) केन्द्रीय भंडारण निगम
c) दोनों सही हैं
d) दोनों गलत हैं
उत्तर : दोनों सही हैं

108. निम्न में से कौन-सा सांविधिक निकाय नहीं हैं ?
उत्तर : तुंगभद्रा परियोजना बोर्ड

109. बजट अनुमान तैयार करने में संबंधित विभाग हैं ?
a) वित्त मंत्रालय
b) प्रशासकीय मंत्रालय
c) योजना आयोग
d) उपरोक्त सभी
उत्तर : उपरोक्त सभी

110. कौनसा कार्य संघ लोक सेवा आयोग का नहीं हैं ?
उत्तर : सेवाओं का वर्गीकरण

111. लोक प्रशासन में नागरिक समाज की भूमिका किस रूप में परिलक्षित होती हैं ?
उत्तर : गैर-सरकारी संगठन

112. भारत सरकार के केन्द्रीय सचिवालय में सम्मिलित हैं ?
a) राष्ट्रपति सचिवालय, लोक सभा सचिवालय व मंत्रिमंडल सचिवालय
b) लोक सभा सचिवालय व राज्य सभा सचिवालय
c) भारत सरकार के सभी मंत्रालय व विभाग (सरकार के सचिवों सहित)
d) उपरोक्त सभी
उत्तर : भारत सरकार के सभी मंत्रालय व विभाग (सरकार के सचिवों सहित)

113. जिले में राज्य सरकार का एकमात्र प्रतिनिधि हैं ?
उत्तर : जिलाधीश

114. ”केन्द्रीय सचिवालय” के लिए सही कथन हैं ?
a) एक कार्मिक अभिकरण ( स्टाफ एजेंसी ) हैं
b) प्रधानमंत्री के निर्देशों के अंतर्गत कार्य करता हैं
c) दोनों कथन सही हैं
d) दोनों कथन गलत हैं
उत्तर : दोनों कथन सही हैं

115. ”भारत नियंत्रक एंव महालेखा परीक्षक उत्तरदायी हैं” के लिए सही कथन हैं ?
a) केन्द्रीय सरकार के लेखों के लेखा-परीक्षण का
b) राज्य सरकारों के लेखों के लेखा-परीक्षण का
c) केन्द्रशासित प्रदेशों की सरकार के लेखों के लेखा-परीक्षण का
d) उपरोक्त सभी
उत्तर : उपरोक्त सभी

116. सार्वजनिक उपक्रम समिति क्या हैं, सही कथन का चयन करें ?(
a) 22 सदस्यीय हैं
b) संसद द्वारा रचित हैं
c) दोनों कथन गलत हैं
d) दोनों कथन सही है
उत्तर : दोनों कथन सही है

117. राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठनबंधन की मंत्री परिषद में शामिल होते हैं ?
a) राज्य मंत्री
b) केन्दीय मंत्री
c) उपमंत्री
d) A और B सही हैं
उत्तर : A और B सही हैं

118. निम्न में से कौन-सा लेखा-परीक्षण के बारे में सही कथन नहीं हैं ?
उत्तर : यह खर्च के औचित्य का परीक्षण करता हैं


119. निम्न में से कौन-सा राज्य सचिवालय का विभाग नहीं हैं ?
उत्तर : राजस्व

120. भारतीय संसद के बजट संबंधी अधिकार संविधान के किस अनुच्छेद मे लिखित हैं ?
उत्तर : अनुच्छेद – 112-117

121. राजकोषीय नीति का उद्देश्य क्या हैं ?
उत्तर : आर्थिक विकास की गति तेज करना

122. राजकोषीय घाटा क्या दर्शाता हैं ?
उत्तर : अपने संपूर्ण व्यय के लिए सरकार द्वारा उधार ली जाने वाली पूंजी की अवश्यकता

123. शासकीय उधारी का कितना अंश ब्याज लौटाने के अलावा अन्य खर्चा पूरा करने पर हो रहा होंं ?
उत्तर : प्राथमिक घाटा

124. निम्न में से किस राज्य में लोकायुक्त की नियुक्ति के लिए न्यायिक योग्यता आवश्यक हैं ?
उत्तर : आंध्रप्रदेश

125. ”विधि के प्राधिकार के बिना कोई कर नहीं लगाया या वसूला जाएगा” भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद में यह प्रावधान किया गया हैं ?
उत्तर : अनुच्छेद – 265

126. नियमित बजट पारित होने से पूर्व आगामी वित्त वर्ष के कुछ भाग के लिए अनुमानित व्यय की संसद द्वारा व्यवस्था क्या कहलाती हैं ?
उत्तर : लेखा अनुदान

127. न्यायिक नियंत्रण का मूल उद्देश्य क्या हैं ?
उत्तर : आपराधियों को दंड देना

128. महाराष्ट्र में लोकायुक्त संस्था की स्थापना किस वर्ष हुई थी ?
उत्तर : 1971

129. प्रशासन पर न्यायिक नियंत्रण के संदर्भ में , कुप्राधिकार से आशय हैं ?
उत्तर : अधिकार का दुरुपयोग

130. शून्य काल के बारे में सही वक्तव्यों में कौन-से शामिल नहीं हैं ?
उत्तर : वैधानिक अपील

131. निम्न में से कौनसा सही मेल नहीं हैं ?
उत्तर : विशेष पुलिस अवस्थापन – 1942

132. प्रशासन पर नागरिक नियंत्रण का सबसे कारगर उपाय क्या हैं ?
उत्तर : जनमत

133. संथानम समिति की स्थापना कब हुई थी ?
उत्तर : 1962

134. प्रशासन पर कार्यपालिका के नियंत्रक का सबसे कम प्रभावी उपाय हैं ?
उत्तर : जनमत के लिए अपील

135. संसद में लोकपाल विधेयक निम्न में से किस वर्ष में प्रस्तुत नहीं हुआ था ?
उत्तर : 1985

136. न्यायिक नियंत्रण का मुख्य उद्देश्य निम्न में से कौन-सा हैं ?
उत्तर : नागरिक अधिकार और स्वतंत्रताओं की रक्षा करना

137. जिला प्रशासन के विकासात्मक अभिमुखीकरण की दृष्टि से जिलाधीश की प्रमुख भूमिका मानी जाए ?
उत्तर : एक समन्वयक के रूप में

138. भारत में ऑम्बु्समैन प्रकार की संस्था की स्थापना के लिए सबसे पहले सिफारिस किस समिति ने के थी ?
उत्तर : संथानम समिति

139. निम्न में से कौनसी संसदीय समिति का अध्यक्ष निरपवाद तौर पर शासक दल का होता हैं ?
उत्तर : आकलन समिति

140. सांसदों को प्राप्त निम्नलिखित में से वह कौन-सा उपाय है जो विधिवत रूप से निर्धारत नहीं ?
उत्तर : शून्य काल

141. लोक प्रशासन पर कार्यपालिका के नियंत्रण का निम्न में से कौन-सा उपकरण नहीं हैं ?
उत्तर : कार्यक्षेत्र एजेंसियां

142. प्रशासन पर न्यायिक नियंत्रण किस सिद्धांत से निकलता हैं ?
उत्तर : कानून का शासन

143. निम्न में कौन-सा आपस में मेल नहीं खाता ?
उत्तर : संसदीय आयुक्त – 1969

144. सार्वजनिक उपक्रम समिति का गठन किसकी सिफारिस पर किया गया था ?
उत्तर : कृष्ण मेनन समिति

145. केंद्रीय सतर्कता आयोग की स्थापना निम्न में से किसको सिफारिस पर की गई हैं ?
उत्तर : संथानम समिति

146. लोकायुक्त की संस्था सर्वप्रथम किस राज्य ने गठित की थी ?
उत्तर : महाराष्ट्र

147. लोक सेवकों की हड़ताल पर पूर्ण प्रतिबंध की सिफारिस निम्न में से किसने की थी ?
उत्तर : प्रशासनिक सुधार आयोग

148. भारत में व्हिटले परिषद् की शुरुआत पहले -पहले किसकी सिफारिस पर की गई थी ?
उत्तर : पहला वेतन आयोग

149. केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों की संयुक्त सलाहकार समिति की स्थापना किस वर्ष की गई थी ?
उत्तर : 1966

150. निम्न में से किसका मेल सही नहीं हैं ?
उत्तर : दूसरा वेतन आयोग – 1958

151. इनमें से कौनसा बेमेल हैं ?
उत्तर : रेलवे सेवा (आचरण ) नियम – 1958

152. निम्न में से कौन-सा सिद्धांत मंत्रीय उत्तरदायित्व सिद्धांत का प्रतिरूप हैं ?
उत्तर : अनामिकता

153. निम्न में से कौन-सा सिद्धांत मंत्रीय उत्तरदायित्व सिद्धांत का प्रतिरूप हैं ?
उत्तर : अनामिकता

154. भारतीय संविधान की कौन-सी धारा भारत के राज्य की वाद योग्यता पर विचार करती हैं ?
उत्तर : धारा 300

155. ”सत्ता सौंपने के मामले विरोध पक्ष का मुख्य गढ़ संसद हैं जिसकी आवश्यकता भारतीय प्रशासन की सबसे बड़ी कमी हैं |” यह कथन किसका हैं ?
उत्तर : एप्पलबी रिपोर्ट

156. ग्रेट-ब्रिटेन में संसदीय प्रशासन आयुक्त किस वर्ष में नियुक्त किया गया था ?
उत्तर : 1967

157. भारत के प्रशासनिक स्टाफ़ कॉलेज की स्थापना किसकी सिफारिस पर की गई थी ?
उत्तर : अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद्


158. भर्ती में संघ लोक सेवा आयोग का अंतिम कार्य कौनसा हैं ?
उत्तर : प्रमाणीकरण

159. ब्रिटेन के लोक सेवा मध्यस्थता प्राधिकरण के नमूने पर भारत में मध्यस्थता बोर्ड की स्थापना किसके प्रशासनिक नियंत्रण के अंतर्गत की गई थी ?
उत्तर : श्रम मंत्रालय

160. संयुक्त सलाहकार समिति की राष्ट्रीय परिषद् का अध्यक्ष हैं ?
उत्तर : मंत्रिमंडल सचिव

161. भारत में लोक सेवाओं के वर्गीकरण का निर्धारण किससे होता हैं ?
उत्तर : लोक सेवा नियम, 1930

162. भारतीय पुलिस सेवा में नियुक्ति लोगों की सेवा -शर्ते किस अधिनियन के अधीन हैं ?
उत्तर : अखिल भारतीय सेवा अधिनियम , 1951

163. भारत में लोक सेवकों के आचरण नियमों का समुच निम्न में से किसमें नहीं हैं ?
उत्तर : प्रतिरक्षा सेवा (आचरण ) नियम , 1950

164. लोक सेवकों को दिए जाने वाले प्रमुख दंड कौनसे हैं ?
a) सेवा से हटाना
b) अनिवार्य सेवानिवृति
c) पदावनति करना
d) उपयुक्त सभी
उत्तर : उपयुक्त सभी

165. कौनसी धारा लोक सेवकों के लिए संवैधानिक रक्षापाय सुनिश्चित करती हैं ?
उत्तर : धारा 311

166. भारतीय वन सेना के कर्मचारियों के विरुद्ध आनुशासनिक कार्यवाही करनी का प्राधिकारी कौन हैं ?
उत्तर : भारत का राष्ट्रपति


 167. भारत में उच्चतर लोक सेवाओं में भर्ती की वर्तमान प्रणाली निम्नलिखित में से किस समिति /आयोग की सिफारिस पर आधारित हैं ?
a) सतीशचंद्रा समिति
b) कोठारी समिति
c) एचीशन आयोग
d) उपर्युक्त सभी
उत्तर : उपर्युक्त सभी

168. भारतीय प्रशासनिक सेवा के परिवीक्षाधीनों के प्रशिक्षण की सम्पूर्ण अवधी कितनी होती हैं ?
उत्तर : 24 माह

169. निम्नलिखित में से कौनसा कथन सही नहीं हैं
उत्तर : कोठारी समिति की सिफारिशें वर्ष 1977 में स्वीकार की गई थी

170. संघ लोक सेवा आयोग द्वारा तैयार अभ्यार्थियों की योग्यता क्रम सूची में से अभ्यर्थियों को चुनने का पहला अवसर किसको मिलता हैं ?
उत्तर : विदेश मंत्रालय

171. संयुक्त लोक सेवा आयोग का गठन किसके द्वारा किया जा सकता हैं ?
उत्तर : संसदीय अधिनियम

172. निम्नलिखित में से किस कार्य से संयुक्त लोक सेवा आयोग का संबंध नहीं हैं ?
a) प्रशिक्षण
b) सेवाओं का वर्गीकरण
c) तैनाती
उत्तर : उपरोक्त सभी


173. निम्नलिखित में से किस सेवा के परिवीक्षाधीन अखिल भारतीय और केंद्रीय सेवाओं के परिवीक्षाधीनों के लिए मसूरी में आयोजित संयुक्त आधारभूत प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में शामिल नहीं हैं ?
उत्तर : केंद्रीय सचिवालय सेवा

174. निम्नलिखित में से किन लोक सेवाओं का उल्लेख संविधान में नहीं हैं ?
a) अखिल भारतीय न्यायिक सेवा
b) भारतीय प्रशानिक सेवा
c) भारतीय पुलिस सेवा
d) उपयुक्त सभी
उत्तर : उपयुक्त सभी

175. निम्नलिखित में से कौन-सी केन्द्रीय सेवा नहीं हैं ?
उतर : सहकरिता सेवा

176. भारत में संयुक्त सलाहकार परिषद की स्थापना किसकी सिफारिश पर की गई थी ?
उत्तर : दूसरा वेतन आयोग

177. 6-14 वर्ष की आयु के बच्चों या आश्रितों को शिक्षा के अवसर उपलब्ध के नियम किस संविधान संशोधन के तहत जोड़ा गया?
उत्तर : 86वें संविधान संशोधन 2002 में जोड़ा गया

178. “अखिल भारतीय सेवाओं का जनक” किसे कहा गया हैं ?
उत्तर : सरदार वल्लभ भाई पटेल

179. 1959 में राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी की स्थापना कहा पर हुई थी ?
उत्तर : मसूरी

180. नई योजना के अधीन प्रांरम्भिक परीक्षा पहली बार किस वर्ष हुई थी ?
उत्तर : 1979

181. अखिल भारतीय सेवा के सदस्यों की सेवा-शर्तों का निर्धारण किसके द्वारा होता हैं ?
उत्तर : संसद

182. निम्नलिखित में से सरकारी कर्मचारियों को किस अवकाश पर वेतन नहीं दिया जाता हैं ?
उत्तर : असाधारण अवकाश

183. कर्मचारियों  को कुछ समय विश्राम करने के लिए कौन-सा अवकाश दिया जाता हैं ?
उत्तर : अर्जित अवकाश

184. कोठारी समिति का गठन किस वर्ष किया गया था ?
उत्तर : 1964

185. भारतीय लोक प्रशासन संस्थान क्या कार्य करता हैं ?
a) प्रकाशन
b) प्रशिक्षण
c) अनुसंधान
d) उपयुक्त सभी
उत्तर : उपयुक्त सभी

186. निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों के कर्मचारियों को प्रशिक्षण कहां दिया जाता हैं ?
उत्तर : ए.एस.सी.आई



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Thursday, April 25, 2019

8. राजनीति विज्ञान (Political science)

राजनीति विज्ञान (Political science)

राजनीतिशास्त्र वह विज्ञान है जो मानव के एक राजनीतिक और सामाजिक प्राणी होने के नाते उससे संबंधित राज्य और सरकार दोनों संस्थाओं का अध्ययन करता है।।

राजनीति विज्ञान अध्ययन का एक विस्तृत विषय या क्षेत्र है। राजनीति विज्ञान में ये तमाम बातें शामिल हैं: राजनीतिक चिंतन, राजनीतिक सिद्धान्त, राजनीतिक दर्शन, राजनीतिक विचारधारा, संस्थागत या संरचनागत ढांचा, तुलनात्मक राजनीति, लोक प्रशासन, अंतर्राष्ट्रीय कानून और संगठन आदि।


 परिचय

राजनीति विज्ञान का उद्भव अत्यन्त प्राचीन है। यूनानी विचारक अरस्तू को राजनीति विज्ञान का पितामह कहा जाता है। यूनानी चिन्तन में प्लेटो का आदर्शवाद एवं अरस्तू का बुद्धिवाद समाहित है।

राजनीतिशास्त्र या राजनीति विज्ञान अत्यन्त प्राचीन विषय है। प्रारंभ में इसे स्वतंत्र विषय के रूप में नहीं स्वीकारा गया। राजनीति विज्ञान का अध्ययन नीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, इतिहास, एवं विधिशास्त्र आदि की अवधारणाओं के आधार पर ही करने की परम्परा थी। आधुनिक समय में इसे न केवल स्वतंत्र विषय के रूप में स्वीकारा गया अपितु सामाजिक विज्ञानों के सन्दर्भों में इसका पर्याप्त विकास भी हुआ। राजनीति विज्ञान का अध्ययन आज के सन्दर्भ में पहले की अपेक्षा एक ओर जहां अत्यधिक महत्वपूर्ण है वहीं दूसरी ओर वह अत्यन्त जटिल भी है।

राजनीति विज्ञान का महत्व इस तथ्य से प्रकट होता है कि आज राजनीतिक प्रक्रिया का अध्ययन राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय-दोनों प्रकार की राजनीति को समझने के लिये आवश्यक है। प्रक्रिया के अध्ययन से ही वास्तविक राजनीति एवं उनके भीतर अवस्थित तथ्यों का ज्ञान संभव है। राजनीति विज्ञान की जटिलता उनके अतिव्यापी रूप व उनसे उत्पन्न स्वरूप एवं प्रकृति से जुड़ी हुई है। आज राजनीति विज्ञान ’राजनीतिक’ व गैर राजनीतिक दोनों प्रकार के तत्वों से सम्बंधित है। राजनीतिक तत्व प्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक प्रक्रिया को संचालित करते है और इस दृष्टि से राजनीति विज्ञान के अन्तर्गत राज्य सरकार, सरकारी संस्थाओं, चुनाव प्रणाली व राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। गैर राजनीतिक तत्व अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक प्रक्रिया को चलाने में योगदान देते हैं और इस कारण राजनीति की सही समझ इनको समन्वित करके ही प्राप्त की जा सकती है। इसी उद्धेश्य से राजनीतिक अध्ययन में समाज, अर्थव्यवस्था, धर्म, संस्कृति, भूगोल, विज्ञान व तकनीकी, मनोविज्ञान व इतिहास जैसे सहयोगी तत्वों को पर्याप्त महत्व दिया जाता है।

यूनानी विचारकों के समय से लेकर आधुनिक काल तक के विभिन्न चिन्तकों, सिद्धान्तवेत्ताओं और विश्लेषकों के योगदानों से राजनीति विज्ञान के रूप, अध्ययन सामग्री एवं उसकी परम्पराएॅ समय-समय पर परिवर्तित होती रही हैं। तद्नुरूप इस विषय का निरन्तर विकास होता रहा हैं। इस विकासक्रम में राजनीति विज्ञान के अध्ययन के सम्बन्ध में दो प्रमुख दृष्टिकोणों का उदय हुआ है : परम्परागत दृष्टिकोण एवं आधुनिक दृष्टिकोण। पारम्परिक या परम्परागत दृष्टिकोण राज्य-प्रधानता का परिचय देता है जबकि आधुनिक दृष्टिकोण प्रक्रिया-प्रधानता का।


 राजनीति विज्ञान का परम्परागत दृष्टिकोण

ईसा पूर्व छठी सदी से 20वीं सदी में लगभग द्वितीय महायुद्ध से पूर्व तक जिस राजनीतिक दृष्टिकोण (political approach) का प्रचलन रहा है, उसे अध्ययन सुविधा की दृष्टि से 'परम्परागत राजनीतिक दृष्टिकोण' कहा जाता है। इसे आदर्शवादी या शास्त्रीय दृष्टिकोण भी कहा जाता है।

परम्परागत राजनीतिक सिद्धांत के निर्माण व विकास में अनेक राजनीतिक विचारकों का योगदान रहा है यथा- प्लेटो, अरस्तू, सिसरो, सन्त अगस्टीन, एक्विनास, लॉक, रूसो, मॉन्टेस्क्यू, कान्ट, हीगल, ग्रीन आदि। आधुनिक युग में भी अनेक विद्वान परम्परागत दृष्टिकोण के समर्थक माने जाते है जैसे- लियो स्ट्रॉस, ऐरिक वोगोलिन, ऑकसॉट, हन्ना आरेण्ट आदि।

प्राचीन यूनान व रोम में राजनीतिक सिद्धान्त के निर्माण के लिये दर्शनशास्त्र, नीतिशास्त्र, तर्कशास्त्र, इतिहास व विधि की अवधारणाओं को आधार बनाया गया था किन्तु मध्यकाल में मुख्यतः ईसाई धर्मशास्त्रीय दृष्टिकोण को राजनीतिक सिद्धान्त के निर्माण का आधार बनाया गया। 16वीं सदी में पुनर्जागरण आन्दोलन ने बौद्धिक राजनीतिक चेतना को जन्म दिया साथ ही राष्ट्र-राज्य अवधारणा को जन्म दिया। 18 वीं सदी की औद्योगिक क्रांति ने राजनीतिक सिद्धान्त के विकास को नई गति प्रदान की। इंग्लैण्ड की गौरवपूर्ण क्रांति, फ्रांस व अमेरिका की लोकतांत्रिक क्रांतियों ने परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्त का विकास ’उदारवादी लोकतांत्रिक राजनीतिक सिद्धांत’ के रूप में किया।

 परम्परागत राजनीतिक दृष्टिकोण ने राजनीतिक सिद्धान्त के निर्माण के लिये मुख्यतः दार्शनिक, तार्किक नैतिक, ऐतिहासिक व विधिक पद्धतियों को अपनाया है। 19वीं सदी से इसने विधिक, संवैधानिक, संस्थागत, विवरणात्मक एवं तुलनात्मक पद्धतियों पर विशेष बल दिया है। 20वीं सदी के प्रारंभ से ही परम्परागत दृष्टिकोण ने राजनीतिक सिद्धान्त के निर्माण के लिये एक नई दृष्टि अपनाई जो अतीत की तुलना में अधिक यथार्थवादी थी। परम्परागत राजनीतिक विज्ञान में सरकार एवं उसके वैधानिक अंगों के बाहर व्यवहार में सरकार की नीतियों एवं निर्णयों को प्रभावित करने वाले सामाजिक राजनीतिक तथ्यों के अध्ययन पर बल दिया। राजनीतिक दल एवम् दबाबसमूहों के साथ-साथ औपचारिक संगठनों के अध्ययन पर बल दिया। इसने उन सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों एवं आन्दोलनों के अध्ययन पर भी बल दिया जो स्पष्टतः सरकार के औपचारिक संगठन से बाहर तो होते हैं किन्तु उसकी नीतियों एवं कार्यक्रमों को प्रभावित करते हैं।


अर्थ एवं परिभाषा

’राजनीति’ का पर्यायवाची अंग्रेजी शब्द 'पॉलिटिक्स' यूनानी भाषा के 'पॉलिस' (Polis) शब्द से बना है जिसका अर्थ 'नगर’ अथवा ’राज्य’ है। प्राचीन यूनान में प्रत्येक नगर एक स्वतंत्र राज्य के रूप में संगठित होता था और पॉलिटिक्स शब्द से उन नगर राज्यों से सम्बंधित शासन की विद्या का बोध होता था। धीरे-धीरे नगर राज्यों (सिटी स्टेट्स) का स्थान राष्ट्रीय राज्योंं (Nation-State) ने ले लिया अतः राजनीति भी राज्य के विस्तृत रूप से सम्बंधित विद्या हो गई।

 आधुनिक युग में जब संसार प्रत्येक विषय के वैज्ञानिक व व्यवस्थित अध्ययन की ओर झुक रहा है, राज्य से सम्बंधित विषयों का अध्ययन राजनीति शास्त्र अथवा राजनीति विज्ञान कहा जाता है। परम्परागत राजनीति विज्ञान के विद्वानों ने राजनीति विज्ञान की भिन्न-भिन्न परिभाषाएॅ दी हैं। इन परिभाषाओं की निम्नांकित शीर्षकों के अन्तर्गत व्याख्या की जा सकती हैः-

(१) राजनीति विज्ञान राज्य का अध्ययन है- अनेक राजनीतिशास्त्रियों की मान्यता है कि प्राचीन काल से ही राजनीति विज्ञान राज्य नामक संस्था के अध्ययन का विषय है। विद्वानों की मान्यता है कि प्राचीन काल से आधुनिक काल तक राजनीति विज्ञान का ’केन्द्रीय तत्व’ राज्य ही रहा है। अतः राजनीति विज्ञान में राज्य का ही अध्ययन किया जाना चाहिये। प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री ब्लुंशली के अनुसार राजनीति शास्त्र वह विज्ञान है जिसका संबंध राज्य से है और जो यह समझने का प्रयत्न करता है कि राज्य के आधारभूत तत्व क्या है, उसका आवश्यक स्वरूप क्या है, उसकी किन-किन विविध रूपों में अभिव्यक्ति होती है तथा उसका विकास कैसे हुआ।’ जर्मन लेखक गैरिस का कथन है कि राजनीति शास्त्र में, शक्ति की संस्था के रूप में, राज्य के समस्त संबंधों, उसकी उत्पत्ति, उसके मूर्त रूप (भूमि एवं निवासी), उसके प्रयोजन, उसके नैतिक महत्व, उसकी आर्थिक समस्याओं, उसके अस्तित्व की अवस्थाओं उसके वित्तीय पहलू, उद्धेश्य आदि पर विचार किया जाता है। डाक्टर गार्नर के अनुसार ’’राजनीति शास्त्र का प्रारंभ तथा अन्त राज्य के साथ होता है।’’ डाक्टर जकारिया का कथन है कि ’’राजनीति शास्त्र व्यवस्थित रूप में उन आधारभूत सिद्धान्तों का निरूपण करता है जिनके अनुसार समष्टि रूप में राज्य का संगठन होता है और प्रभुसत्ता का प्रयोग किया जाता है।’

उपर्युक्त सभी परिभाषाओं से स्पष्ट है कि राजनीति विज्ञान का केन्द्रीय विषय राज्य है। इसका कारण प्लेटो व अरस्तू के समय से चली आ रही यह मान्यता है कि राज्य का अस्तित्व कुछ पवित्र लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये है।

(२) राजनीति विज्ञान सरकार का अध्ययन है - कुछ राजनीतिशास्त्रियों की राय में राजनीति विज्ञान में राज्य का नहीं अपितु सरकार का अध्ययन किया जाना चाहिये। उनका मत है कि राज्य मनुष्यों का ही संगठन विशेष है तथा उसकी क्रियात्मक अभिव्यक्ति सरकार के माध्यम से होती है। उनका तर्क है कि राज्य एक अमूर्त संरचना है जबकि सरकार एक मूर्त एवं प्रत्यक्ष संस्था है और सरकार ही सम्प्रभुता का प्रयोग करती है। सरकार ही राज्य का वह यन्त्र होता है जिसके द्वारा उसके उद्देश्य तथा प्रयोजन कार्यरूप में परिणित होते हैं। अतः राजनीति विज्ञान में सरकार का ही अध्ययन होना चाहिये। सीले के अनुसार ’’राजनीति विज्ञान शासन के तत्वों का अनुसंधान उसी प्रकार करता है जैसे सम्पत्ति शास्त्र सम्पत्ति का, जीवविज्ञान जीवन का, अंकगणित अंकों का तथा रेखागणित स्थान एवं लम्बाई-चौड़ाई का करता है।’’ लीकॉक ने इस सन्दर्भ में संक्षिप्त एवं सारगर्भित परिभाषा दी है- ‘‘राजनीति विज्ञान सरकार से सम्बंधित शास्त्र है।’’


(३) राजनीति विज्ञान राज्य एवं सरकार दोनों का अध्ययन है- परम्परागत राजनीति विज्ञान के कुछ विद्वानों की मान्यता है कि केवल राज्य या केवल सरकार की दृष्टि से दी गई परिभाषाएॅ अपूर्ण हैं। वस्तुतः राज्य एवं सरकार का परस्पर घनिष्ठ संबंध है और इनमें से किसी एक के अभाव में दूसरे का अध्ययन ही नहीं किया जा सकता है। यदि राज्य अमूर्त संरचना है तो सरकार इसे मूर्त व भौतिक रूप प्रदान करती है तथा इसी प्रकार यदि राज्य प्रभुसत्ता को धारण करने वाला है तो सरकार उस प्रभुसत्ता का उपभोग करती है। अतः राजनीति विज्ञान के अन्तर्गत इन दोनों का ही अध्ययन किया जाना चाहिये। पॉल जैनेट के अनुसार ’’राजनीति विज्ञान सामाजिक विज्ञानों का वह अंग है जिसमें राज्य के आधार तथा सरकार के सिद्धान्तों पर विचार किया जाता है।’’ डिमॉक के अनुसार राजनीति विज्ञान का संबंध राज्य तथा उसके साधन सरकार से है।’’ गिलक्राइस्ट ने संक्षिप्त परिभाषा देते हुये कहा है कि ’’राजनीति विज्ञान राज्य व सरकार की सामान्य समस्याओं का अध्ययन करता है।’’

(४) राजनीति विज्ञान मानव तत्व के सन्दर्भ में अध्ययन है- कुछ राजनीतिशास्त्री उपरोक्त परिभाषाओं को पूर्ण नहीं मानते क्योंकि इन परिभाषाओं में मानव तत्व की उपेक्षा की गई है। इनकी मान्यता है कि राज्य या सरकार का अध्ययन बिना मानव के उद्देश्यहीन एवं महत्वहीन है क्योंकि इनका निर्माण मानव के हित के लिये ही हुआ है अतः मानव-तत्व का अध्ययन अनिवार्य है। प्रोफेसर लास्की की अनुसार ‘‘राजनीति शास्त्र के अध्ययन का संबंध संगठित राज्यों से सम्बंधित मनुष्यों के जीवन से है।’’ राजनीति शास्त्र के प्रसंग में मानव तत्व का महत्व व्यक्त करते हुये एन्साइक्लोपीडिया ऑफ सोशल साइन्सेज में हरमन हेलर ने तो यहाँ तक कहा है कि ’’राजनीति शास्त्र के सर्वांगीण स्वरूप का निर्धारण उसकी मनुष्य विषयक मौलिक मान्यताओं द्वारा होता है।’’ वस्तुतः इसका अर्थ यह है कि राजनीति विज्ञान एक ऐसा सामाजिक विज्ञान है जिसके अन्तर्गत इस तथ्य का भी अध्ययन किया जाता है कि किसी संगठित राजनीतिक समाज में स्वयं मनुष्य की स्थिति क्या है। राजनीति विज्ञान व्यक्ति के अधिकार व स्वतन्त्रताओं के अध्ययन के साथ समाज के विभिन्न समुदायों व वर्गों के प्रति सरकार की नीतियों का भी अध्ययन करता है।

अतः राजनीति विज्ञान की परिभाषा हम ऐसे शास्त्र के रूप में कर सकते है जिसका संबंध उसके राज्य नामक संगठन से होता है और जिसके अन्तर्गत स्वभावतः सरकार का भी विस्तृत अध्ययन सम्मिलित होता हैं संक्षेप में राजनीति विज्ञान के अन्तर्गत राज्य, सरकार तथा अन्य सम्बंधित संगठनों व संस्थाओं का, मानव के राजनीतिक जीवन के संदर्भ में अध्ययन किया जाता है।


राजनीति विज्ञान से सम्बंधित परम्परागत परिभाषायें निम्न प्रवृत्तियां इंगित करती है-

  1. अपने पारम्परिक सन्दर्भ में राजनीति विज्ञान राज्य व सरकार दोनों का अध्ययन करता है।
  2. राजनीति विज्ञान का राज्य विषयक अध्ययन मूलतः संस्थात्मक है क्योंकि उसमें केन्द्रीय महत्व राज्य अथवा सरकार का है, अन्य तत्व मात्र सांयोगिक है।
  3. राजनीति विज्ञान औपचारिक रूप से राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन करते हुये राज्य के संविधान में निहित कानूनी वास्तविकता को अध्ययन का आधार बनाता है।
  4. परम्परागत राजनीति विज्ञान राजनीतिक प्रक्रियाओं के अध्ययन की अपेक्षा राज्य की नीतियों के अध्ययन पर बल देता है।



राजनीति विज्ञान का क्षेत्र

जिस प्रकार राजनीति विज्ञान की परिभाषा विभिन्न विचारकों ने विभिन्न प्रकार से की है, उसी प्रकार उसके क्षेत्र को भिन्न-भिन्न लेखकों ने विभिन्न शब्दों में व्यक्त किया है। उदाहरणार्थ फ्रांसीसी विचारक ब्लुंशली के अनुसार ’’राजनीति विज्ञान का संबंध राज्य के आधारों से है वह उसकी आवश्यक प्रकृति, उसके विविध रूपों, उसकी अभिव्यक्ति तथा उसके विकास का अध्ययन करता है।’’ डॉ॰ गार्नर के अनुसार ’’ इसकी मौलिक समस्याओं में साधारणतः प्रथम राज्य की उत्पत्ति और उसकी प्रकृति का अनुसंधान, द्वितीय राजनीतिक संस्थाओं की प्रगति, उसके इतिहास तथा उनके स्वरूपों का अध्ययन, तथा तृतीय, जहां तक संभव हो, इसके आधार पर राजनैतिक और विकास के नियमों का निर्धारण करना सम्मिलित है। गैटेल ने राजनीति शास्त्र के क्षेत्र का विस्तृत वर्णन करते हुये लिखा है कि ‘‘ऐतिहासिक दृष्टि से राजनीति शास्त्र राज्य की उत्पत्ति, राजनीतिक संस्थाओं के विकास तथा अतीत के सिद्धान्तों का अध्ययन करता है।... वर्तमान का अध्ययन करने में यह विद्यमान राजनीतिक संस्थाओं तथा विचारधाराओं का वर्णन, उनकी तुलना तथा वर्गीकरण करने का प्रयत्न करता है। परिवर्तनशील परिस्थितियों तथा नैतिक मापदण्डों के आधार पर राजनीतिक संस्थाओं तथा क्रियाकलापों को अधिक उन्नत बनाने के उद्धेश्य से राजनीति शास्त्र भविष्य की ओर भी देखता हुआ यह भी विचार करता है कि राज्य कैसा होना चाहिये।’’


राजनीति शास्त्र के क्षेत्र के विषय में उपरोक्त परिभाषाओं से तीन विचारधाराएँ सामने आती है-
  1. प्रथम राज्य को राजनीति विज्ञान का प्रतिपाद्य विषय मानती है,
  2. द्वितीय विचारधारा सरकार पर ही ध्यान केन्द्रित करती है
  3. तृतीय विचारधारा राज्य व सरकार दोनों को राजनीति विज्ञान का प्रतिपाद्य विषय मानती है।

परम्परागत राजनीति विज्ञान का क्षेत्र निर्धारण करने हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ की यूनेस्को द्वारा सितम्बर 1948 में विश्व के प्रमुख राजनीतिशास्त्रियों का सम्मेलन अयोजित किया गया जिसमें परम्परागत राजनीति विज्ञान के क्षेत्र के अन्तर्गत निम्नलिखित अध्ययन विषय शामिल किये जाने का निर्णय किया गया-

(१) राजनीति के सिद्धान्त- अतीत और वर्तमान के राजनीतिक सिद्धान्तों एवं विचारों का अध्ययन।

(२) राजनीतिक संस्थाएँ - संविधान, राष्ट्रीय सरकार, प्रादेशिक व स्थानीय शासन का सरल व तुलनात्मक अध्ययन।

(३) राजनीतिक दल, समूह एवं लोकमत- राजनीतिक दल एवं दबाब समूहों का राजनीतिक व्यवहार, लोकमत तथा शासन में नागरिकों के भाग लेने की प्रक्रिया का अध्ययन।

(४) अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति, अन्तर्राष्ट्रीय विधि, अन्तर्राष्ट्रीय संगठन तथा अन्तर्राष्ट्रीय प्रशासन का अध्ययन।


परम्परागत राजनीति विज्ञान की विशेषताएँ

परम्परागत राजनीति विज्ञान दर्शन एवं कल्पना पर आधारित है। परम्परावादी विचारक अधिकांशतः दर्शन से प्रभावित रहे हैं। इन विचारकों ने मानवीय जीवन के मूल्यों पर ध्यान दिया हैं। इनके चिन्तन की प्रणाली निगमनात्मक है। परम्परागत राजनीति विज्ञान में प्लेटो का विशेष महत्व है। प्लेटो के अतिरिक्त रोमन विचारक सिसरो और मध्ययुग में संत ऑगस्टाइन के चिन्तन में परम्परागत राजनीति विज्ञान की स्पष्ट झलक मिलती हैं। आधुनिक युग में परम्परागत राजनीति विज्ञान के प्रबल समर्थको की काफी संख्या है। रूसो, काण्ट, हीगल, ग्रीन, बोसांके, लास्की, ओकशॉट एवं लियोस्ट्रास की रचनाओं में प्लेटो के विचारों की स्पष्ट झलक दिखाई देती है।



राजनीति विज्ञान का आधुनिक दृष्टिकोण

आधुनिक काल में परम्परागत राजनीति विज्ञान की अध्ययन सामग्री एवं राज्य संबंधी धारणओं की कटु आलोचना हुई है। आलोचकों के अनुसार राज्य व राजनीतिक संस्थाओं की परिधि से परे भी कुछ प्रक्रियाएँ एवं एक परिवेश देखने को मिलता है जिसके अध्ययन की उपेक्षा राजनीति विज्ञान की गरिमा व उपयोगिता के लिये अनर्थकारी है।

इस मत के प्रतिवादक यह मानते है कि सभी समाज विज्ञानों की प्रेरणा स्रोत व अध्ययन का केन्द्र बिन्दु मानव-व्यवहार है और राजनीति विज्ञान सामान्यतः मानव व्यवहार के राजनीतिक पहलू का अध्ययन है। द्वितीय महायुद्ध से पूर्व कतिपय राजनीतिक विचारक राजनीति विज्ञान के अध्ययन में मनुष्य की राजनीतिक प्रक्रियाओं एवं गतिविधियों को प्रमुख स्थान दिये जाने के प्रति आग्रहशील रहे। बाल्टर वैजहॉट, वुडरो विल्सन, लार्ड ब्राइस आदि ने राजनीति के यथार्थवादी अध्ययन पर बल दिया। ग्राहम वालास, आर्थर बैन्टले, कैटलिन और लासवैल ने मानव एवं उसके व्यवहार के अध्ययन पर बल दिया। चार्ल्स मैरियम ने 1925 की अमरीकी राजनीति विज्ञान एशोसियेशन के सम्मेलन में राजनीति विज्ञान के अध्ययन के लिये वैज्ञानिक तकनीकों एवं प्रविधियों के विकास एवं प्रयोग पर बल दिया। 1930 में लासवैल ने अपनी पुस्तक ‘साइको-पैथौलॉजी एण्ड पॉलिटिक्स’ में राजनीतिक घटनाओं एवं क्रियाओं की व्याख्या के लिये फ्राइड के मनोविज्ञान को आधार बनाया।

 द्वितीय महायुद्ध के पूर्व अमेरिका का शिकागो विश्वविद्यालय व्यवहारवादी राजनीति विज्ञान का कार्यक्षेत्र बन चुका था। परम्परागत राजनीति विज्ञान से आधुनिक राजनीति विज्ञान तक की विकास प्रक्रिया में द्वितीय महायुद्ध की घटना का विशेष महत्व है जिसके बाद की दुनिया पूर्व की दुनिया से राजनीतिक संरचना, औद्योगिक विकास, वैज्ञानिक व तकनीकी उपलब्धियों तथा सैन्य क्षमता की दृष्टि से अत्यधिक भिन्न थी। विश्वस्तर पर हुये इस गंभीर परिवर्तन ने मानव समाज व संस्कृति की परम्परागत अवधारणाओं के स्थान पर नई अवधारणाओं को जन्म दिया। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् इस वातावरण में चार्ल्स मैरियम के अपनी रचना ’न्यू आस्पेक्ट ऑफ पॉलिटिक्स’ में राजनीति विज्ञान के अध्ययन हेतु नवीन एवं वैज्ञानिक तकनीकों के प्रयोग का पूर्ण समर्थन किया।

उपरोक्त पृष्ठभूमि में 1960 के दशक में अमेरिका के शिकागो विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्रियों ने राजनीति विज्ञान को दार्शनिक पद्धति से मुक्त करने एवं उसके अध्ययन को अधिक से अधिक वैज्ञानिक बनाने का प्रयत्न किया। राजनीति विज्ञान को सामाजिक विज्ञान मानते हुये इसके अध्ययन को पूर्ण बनाने हेतु समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र, मानवशास्त्र जैसे समाज विज्ञानों की वैज्ञानिक पद्धतियों को अपनाना उचित समझा। इन वैज्ञानिकों में डेविड ईस्टन, कैटलिन, लासवैल आदि प्रमुख है।


 राजनीति विज्ञान का अर्थ एवं परिभाषा


राजनीति विज्ञान की आधुनिक अवधारणाओं की दृष्टि से जार्ज कैटलिन, डेविड ईस्टन, हैराल्ड लासवैल व काप्लान विशेष उल्लेखनीय है। इन विद्वानों ने राजनीति विज्ञान संबंधी अपने कथ्यों में राजनीति के वास्तविक एवं व्यावहारिक सन्दर्भों पर बल देते हुये उसे शक्ति, प्रभाव, राजनीतिक औचित्य एवं सत्ता का अध्ययन माना है।

आधुनिक दृष्टिकोण के समर्थक राजनीति शास्त्रियों द्वारा राजनीति विज्ञान के बारे में जो विचार प्रस्तुत किये हैं उनको निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है-

(१) राजनीति विज्ञान मानव क्रियाओं का अध्ययन है- राजनीति विज्ञान के आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार राजनीति विज्ञान मानव के राजनीतिक व्यवहार एवं क्रियाओं का अध्ययन करता है। मानव व्यवहार को गैर राजनीतिक-कारक भी प्रभावित करते है। इन सभी कारकों का राजनीति विज्ञान में अध्ययन किया जाता है। ए. हर्ड एवं एस. हंटिग्टन का कथन है ’’राजनीतिक व्यवहारवाद शासन को मानव और उसके समुदायों के कार्यों की एक प्रक्रिया के रूप में स्वीकारता है। हस्जार व स्टीवेन्सन का यह विचार है कि ’’राजनीति विज्ञान अपने अध्ययन क्षेत्र में प्राथमिक रूप में व्यक्तियों के पारस्परिक व सामूहिक तथा राज्य एवं राज्यों के मध्य प्रकट शक्ति संबंधों से सम्बंधित है।


(२) राजनीति विज्ञान शक्ति का अध्ययन है- कैटलिन व लासवैल इस विचार के समर्थक है। दोनों के विवेचन का मुख्य आधार मनोविज्ञान है। कैटलिन ने 1927-28 में राज्य के स्थान पर मनुष्य के राजनीतिक क्रिया कलाप के अध्ययन पर बल देते हुये राजनीति को प्रभुत्व एवं नियंत्रण के लिये किये जाने वाला संघर्ष बताया है। उसके मतानुसार संघर्ष का मूल स्रोत मानव की यह इच्छा रही है कि दूसरे लोग उसका अस्तित्व मानें। 1962 में अपनी पुस्तक सिस्टेमैटिक पॉलिटिक्स में कैटलिन ने लिखा है- नियंत्रण भावना के कारण जो कार्य किये जाते है तथा नियंत्रण की भावना पर आधारित संबंधों की इच्छाओं के कारण जिस ढाँचे व इच्छाओं का निर्माण होता है, राजनीति शास्त्र का संबंध उन सबसे है। अन्य शक्तिवादी विचारक लासवैल की मान्यता है कि समाज में कतिपय मूल्यों व मूल्यवान व्यक्तियों की प्राप्ति के लिये हर व्यक्ति अपना प्रभाव डालने की चेष्टा करता हैं तथा प्रभाव चेष्टा में शक्ति भाव निहित रहता है। अतः लासवैल के अनुसार 'राजनीति शास्त्र का अभीष्ट वह राजनीति है जो बतलाये कि कौन, क्या, कब और कैसे प्राप्त करता है।' उसके अनुसार राजनीतिक क्रियाकलाप का प्रारंभ उस परिस्थिति से होता है जिसमें कर्ता विभिन्न मूल्यों की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करता है तथा शक्ति जिसकी आवश्यक शर्त होती है।

(३) राजनीति विज्ञान राज-व्यवस्थाओं का अध्ययन है- इस दृष्टिकोण के समर्थक डेविड ईस्टन, आमण्ड, आर. केगन आदि है। यह दृष्टिकोण राजनीति विज्ञान को समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण में परिभाषित करता हैं। इनकी मान्यता है कि सम्पूर्ण समाज स्वयं में एक व्यवस्था है और राज व्यवस्था इस सम्पूर्ण समाज व्यवस्था की एक उपव्यवस्था है तथा वह उसके एक अभिन्न भाग के रूप में होती है। राज्य व्यवस्था में अनेक क्रियाशील संरचनाएॅ होती हैं जैसे संविधान सरकार के अंग, राजनीतिक दल, दबाब समूह, लोकमत एवं निर्वाचन एवं मानव-व्यववहार इस व्यवस्था का अभिन्न भाग है। संक्षेप में इन विद्वानों की मान्यता है कि राजनीति विज्ञान सम्पूर्ण समाज व्यवस्था के अंग के रूप में राज-व्यवस्था की इन संरचनाओं की पारस्परिक क्रियाओं एवं संबंधों तथा मानव के राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन करता है। राजनीति विज्ञान राजव्यवस्था के अध्ययन के अन्तर्गत निम्न तथ्यों पर अधिक बल देता है -संपूर्ण समाज व्यवस्था के अंग के रूप में राजनीतिक प्रक्रिया का अध्ययन, व्यवस्था की संरचना एवं समूहों के पारस्परिक संबंधों का अध्ययन।

(४) राजनीति विज्ञान निर्णय प्रक्रिया का अध्ययन है- इस दृष्टिकोण के समर्थक राजनीतिशास्त्री यह मानते है कि राजनीति विज्ञान सरकार का अध्ययन करते हुये समाज या राज्य में विद्यमान परिस्थितियों के सन्दर्भ में सरकार या शास्त्र के नीति संबंधी निर्णय लेने की प्रक्रिया का भी अध्ययन करता है। इस कारण राजनीति विज्ञान ऐसा विज्ञान है जो किसी शासन की नीति-प्रक्रिया एवं उसके द्वारा नीति निर्माण का अध्ययन करता है विशेषकर इन दोनों को प्रभावित करने वाले कारकों के संदर्भ में, इस दृष्टिकोण की मान्यता है कि मानव प्रकृति के सन्दर्भ में सरकार द्वारा नीति निर्माण-प्रक्रिया का का अध्ययन किया जाना चाहिए। वास्तविक राजनीतिक जीवन
में शासन के नाम पर निर्णय लेने का कार्य स्वयं व्यक्ति करते हैं और इसलिये निर्णय निर्माण प्रक्रिया पर निर्णयकर्ताओं के व्यक्तित्व, अभिरूचि संस्कृति, धर्म, राजनीतिक विचारधारा, मानसिक स्तर निर्णय लेने की शक्ति आदि तत्वोंं का व्यापक प्रभाव पड़ता है।

अतः यह कहा जा सकता है कि आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार राजनीति विज्ञान मनुष्य के सामाजिक राजनीतिक जीवन का अध्ययन करता है। इसके अन्तर्गत राजनीतिक प्रक्रियाओं के साथ साथ राजनीतिक संगठनों का भी अध्ययन किया जाता है। पिनॉक एवं स्मिथ के अनुसार क्या है (यथार्थ) तथा क्या होना चाहिये (आदर्श) और इन दोनों के बीच यथासंभव समन्वय कैसे प्राप्त किया जाये, इस दृष्टि से हम सरकार तथा राजनीतिक प्रक्रिया के व्यवस्थित अध्ययन को राजनीति विज्ञान कहते है।


राजनीति विज्ञान के क्षेत्र

आधुनिक युग में राजनीति विज्ञान का क्षेत्र अत्यधिक विकसित है। शक्ति व प्रभाव के सन्दर्भ में राजनीति की सर्वव्यापकता ने उसे हर तरफ पहुंचा दिया है और न केवल सामाजिक बल्कि व्यक्गित जीवन के भी लगभग सभी पक्ष राजनीतिक व्यवस्था के अधीन है। राजनीति की सर्वव्यापकता ने जहाँ एक तरफ राजनीतिक व्याख्याओं की लोकधर्मिता सिद्ध की है वहीं उसने राजनीतिक क्या है, इस संबंध में अस्पष्टता व भ्रम भी पैदा किया हैं। इसके बावजूद राजनीतिक विज्ञान के क्षेत्र को राज्यप्रधान व राज्येतर सन्दर्भों में भलीभांति समझा जा सकता है।
 राज्यप्रधान संदर्भ में राज्य की अवधारणाओं- समाजवाद, लोकतंत्र इत्यादि, सरकार या संगठन संविधान वर्णित व वास्तविक व्यवहार संबंधी, सरकारी पद व संस्थाओं के पारस्परिक संबंध, निर्वाचन, व्यवस्थापिका व न्यायपालिका के संगठनात्मक व प्रयोगात्मक पक्ष तथा राज्य की व्याख्या से सम्बंधित राजनीतिक विचारधारा व अवधारणाएॅ, उत्पत्ति के, राज्य क्रियाशीलता के सिद्धान्त, राज्य-परक विचारधाराएँ स्वतंत्रता, समानता, अधिकार इत्यादि।

राज्येत्तर सन्दर्भ में राजनीति की प्रक्रियात्मक वास्तविकता, राजनीति व्यवस्था के विभिन्न दृष्टिकोण, राज्येत्तर संस्थाएॅ जैसे राजनीतिक दल, दबाव व हित समूह, गैर राज्य-प्रक्रियाएॅ व उनका विस्तार, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक वास्तविकताएॅ तथा जटिलताएॅ इत्यादि आती हैं। प्रतिनिधित्व के सिद्वान्तों व विधियों को भी इसी सन्दर्भ में समझा जा सकता है।

राजनीति विज्ञान के अध्ययन क्षेत्र के बारे में आधुनिक दृष्टिकोण की कुछ आधारभूत मान्यताऐं हैं जैसे- अध्ययन क्षेत्र के निर्धारण में यथार्थपरक दृष्टिकोण अपनाना, राजनीतिक विज्ञान की विषय वस्तु को अन्तर-अनुशासनात्मक दृष्टिकोण के अन्तर्गत समझा जाये, राजनीति विज्ञान के अध्ययन में वैज्ञानिक पद्धति व उपागमों को प्रयोग में लाया जाये।

आधुनिक दृष्टिकोण के अनुसार राजनीति विज्ञान के क्षेंत्र को निम्न बिंदुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है-

(१) मानव के राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन- आधुनिक दृष्टिकोण मानव के राजनीतिक व्यवहार के अध्ययन पर बल देता है। यद्यपि पर मानव व्यवहार को प्रभावित करने बल्कि गैर-राजनीतिक तत्वों का भी अध्ययन करता है उसकी मान्यता है कि मानव व्यवहार को यथार्थ रूप में समझने के लिये उन सभी गैर राजनीतिक भावनाओं, मान्यताओं एवं शक्तियों के अध्ययन को सम्मिलित किया जाये जो मानव के राजनीतिक व [25/04, 2:14 pm] Prakash Goswami: जाये जो मानव के राजनीतिक व्यवहार को प्रभावित करते है।

(२) विभिन्न अवधारणाओं का अध्ययन - आधुनिक राजनीति विज्ञान मुख्यतः शक्ति, प्रभाव, सत्ता, नियंत्रण, निर्णय प्रक्रिया आदि का वैज्ञानिक अध्ययन करता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार ये ऐसी अवधारणाऐं है जिनकी पृष्ठभूमि में ही राजनीतिक संस्थाएॅ कार्य करती है। राजनीतिशास्त्री इन्हीं अवधारणाओं के परिप्रेक्ष्य में राजनीतिक संस्थाओं का अध्ययन करते है। इसी कारण इस प्रकार के अध्ययन को सत्ताओं का अनौपचारिक अध्ययन कहा गया है।

(३) राजनीति विज्ञान समस्याओं एवं संघर्षों का अध्ययन - आधुनिक राजनीतिशास्त्री यथा प्रोफेसर डायक एवं पीटर ओडगार्ड राजनीति शास्त्र को सार्वजनिक समस्याओं व संघर्षों का अध्ययन क्षेत्र में शामिल करते है। उनके मत में मूल्यों एवं साधनों की सीमितता के कारण उनके वितरण की समस्या पैदा होने से तनाव व राजनीति का प्रारंभ हो जाता है। वह राजनीतिक दलों के अतिरिक्त विभिन्न व्यक्तियों व समूहों में तक में फैल जाती हैं। प्रोफेसर डायक ने राजनीति को सार्वजनिक समस्याओं पर परस्पर विरोधी इच्छाओं वाले पात्रों के संघर्ष की राजनीति कहा है। पीटर ओडीगार्ड की मान्यता है कि इस संघर्ष में राजनीति के अलावा अन्य बाह्यतत्वों का नियंत्रण नहीं होना चाहिये।

(४) सार्वजनिक सहमति व सामान्य अभिमत का अध्ययन - कुछ विद्वानों के मत में राजनीति विज्ञान सार्वजनिक समस्याओं पर सहमति व सामान्य अभिमत का अध्ययन है। उनके विचार में संघर्ष संघर्ष के लिए ही नहीं वरन सामान्य सहमति व सामान्य अभिमत को प्रभावित करने के लिये होता है। इसीलिये एडवर्ड वेनफील्ड ने कहा है कि ‘किसी मसले को संघर्षमय बनाने अथवा सुलझाने वाली गतिविधियों (समझौता वार्ता, तर्क-वितर्क, विचार विमर्श शक्ति प्रयोग आदि) सभी राजनीति का अंग है।’

उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि आधुनिक दृष्टिकोण के विद्धानों में राजनीति विज्ञान के क्षेत्र के संबंध में कुछ मतभेद होने के बावजूद कुछ आधारभूत बातों पर सहमति है, जैसे सभी की मान्यता है कि राजनीति विज्ञान का अध्ययन क्षेत्र यथार्थवादी हो, इसके अध्ययन में अंतर-अनुशासनात्मक दृष्टिकोण व वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग होना चाहिए। हालांकि यह सत्य है कि आधुनिक राजनीतिशास्त्रियों का राजनीति विज्ञान में वैज्ञानिक प्रामाणिकता व सुनिश्चितता का दावा अभी पूर्ण नहीं हुआ है। इसी कारण पिनॉक एवं स्मिथ ने आधुनिक दृष्टिकोण में कुछ संशोधन को स्वीकार करते हुए राजनीति विज्ञान के अध्ययन में व्यावहारिक राजनीति के अध्ययन के साथ ही राजनीतिक संस्थाओं के संगठनात्मक एवं मूल्यात्मक अध्ययन को उचित स्थान देने की बात कही है


 समाज विज्ञानों से सम्बन्ध

अरस्तु के अनुसार मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक जीवन के समस्त आयाम (सांस्कृतिक, सामाजिक, नैतिक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक, राजनीतिक) उसकी जीवन शैली को सम्पन्न करते हैं। मानक जीवन की धुरी पर इन आयामों के सभी नियामक विषय परस्पर जुड़कर सतत परिचालित है। राजनीति इन सभी आयामों को समन्वित करने का महत्वपूर्ण कार्य करती है।

राजनीति विज्ञान एवं अन्य सामाजिक विज्ञानों की घनिष्ठता के कारण ही राजनीति विज्ञान के अध्ययन में प्राचीन काल से अन्तर-अनुशासनात्मक अध्ययन की परम्परा रही है। प्राचीन यूनानी विचारक प्लेटो, अरस्तू की रचनाओं में दर्शन व आचारशास्त्र से राजनीति की घनिष्ठता स्पष्ट होती है। मध्ययुगीन विचारक सेण्ट आगस्टाइन व टॉमस एक्वीनास की रचनाओं में धर्मशास्त्र व नीतिशास्त्र के साथ राजनीति की घनिष्ठता प्रकट होती है।

16वीं सदी अर्थात् आधुनिक युग के प्रारम्भ के विद्वान मैकियावली ने इतिहास का अपने वैचारिक आधार में प्रयोग किया। उसके बाद हाब्स ने ज्यामिति, यांत्रिकी तथा चिकित्साविज्ञान के तथ्यों व सिद्धान्तों का उपयोग किया। रूसो व मॉन्टेस्क्यू ने राजनीति व भूगोल की घनिष्ठता को स्पष्ट किया। 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध व 19वीं सदी के प्रारम्भिक काल में राजनीति विज्ञान व अन्य समाज विज्ञानों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध स्वीकारने में बाधा आयी क्योंकि इस काल में विभिन्न विज्ञानों द्वारा अपने को पूर्ण एवं स्वतंत्र विज्ञान मानने पर बल दिया गया। किन्तु 19वीं सदी के मध्यकाल से पुनः इस तथ्य को स्वीकारा जाने लगा कि सभी समाज विज्ञानों में घनिष्ठ सम्बन्ध होते है। कार्ल मार्क्स एवं आगस्त काम्टे ने सामाजिक विज्ञानों की घनिष्ठता पर बल दिया।

20 वीं सदी के प्रारम्भ के साथ ही राजनीति विज्ञान की अन्य विज्ञानों से घनिष्ठता प्रायः निर्विवाद रूप से स्वीकारी जाने लगी। व्यवहारवाद एवं उत्तर-व्यवहारवाद ने अन्तर-अनुशासनात्मक अध्ययन की अनिवार्यता को स्थापित किया। इस विकास में अमेरिकी राजनीति विज्ञानियों, विशेषकर शिकागो स्कूल के राजनीति विज्ञानियों, का प्रमुख योगदान रहा है। केटलिन, चार्ल्स मेरियम, गॉस्वेल, लासवेल, डेविड ईस्टन, स्टुअर्ट राइस, वी.ओ. की। (जूनियर) आदि ने अनुभववादी प्रमाणों के आधार पर अन्तर-अनुशासनात्मक अध्ययनों को पुख्ता किया। पॉल जेनेट ने लिखा है-

’’राजनीति शास्त्र का राजनीतिक अर्थव्यवस्था या अर्थशास्त्र से गहरा सम्बन्ध है’, इसका कानून से सम्बन्ध है चाहे वह प्राकृतिक हो या मानवीय जो कि नागरिकों के आपसी संबन्धों को नियमित करता है, वह इतिहास से सम्बन्धित है जो कि इसको आवश्यकता के अनुसार ’तथ्य’ देता है, इसका ‘तत्व ज्ञान’ या दर्शनशास्त्र और विशेषकर नैतिकता या आचार से सम्बन्ध है जो कि इसको ‘सिद्धान्त’ देता है।
सारांश यह है कि समाजशास्त्रों में पारस्परिक अर्न्तनिर्भरता पायी जाती है। कोई भी एक समाज विज्ञान समाज का उचित एवं समग्र अध्ययन नहीं कर सकता। इसलिए तमाम समाजशास्त्र आपस में सम्बन्धित हैं और अन्तर्शास्त्रीय अध्ययन पद्धति ने फिर से समाजशास्त्रों के इस सम्बन्ध को उभार दिया है। आज राजनैतिक अर्थशास्त्र (पॉलिटिकल इकोनॉमी), राजनैतिक नैतिकता (पॉलिटिकल मौरेलिटी), राजनैतिक इतिहास (पॉलिटिकल हिस्ट्री), राजनैतिक समाजशास्त्र (पॉलिटिकल सोशियोलॉजी), राजनैतिक मनोविज्ञान (पॉलिटिकल साइकोलॉजी), तथा राजनैतिक भूगोल (political geography) आदि विभिन्न राजनीति विज्ञान की नई शाखाओं का खुलना इस बात का प्रतीक है कि राजनीति विज्ञान अन्य समाज विज्ञानों से सम्बन्ध स्थापित किये बिना नहीं चल सकता।


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Wednesday, April 24, 2019

7. भाषाविज्ञान (Linguistics)

भाषाविज्ञान (Linguistics)


भाषाविज्ञान भाषा के अध्ययन की वह शाखा है जिसमें भाषा की उत्पत्ति, स्वरूप, विकास आदि का वैज्ञानिक एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाता है। भाषाविज्ञान, भाषा के स्वरूप, अर्थ और सन्दर्भ का विश्लेषण करता है। भाषा के दस्तावेजीकरण और विवेचन का सबसे प्राचीन कार्य ६ठी शताब्दी के महान भारतीय वैयाकरण पाणिनि ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ अष्टाध्यायी में किया है।

भाषा विज्ञान के अध्ययेता 'भाषाविज्ञानी' कहलाते हैं। भाषाविज्ञान, व्याकरण से भिन्न है। व्याकरण में किसी भाषा का कार्यात्मक अध्ययन (functional description) किया जाता है जबकि भाषाविज्ञानी इसके आगे जाकर भाषा का अत्यन्त व्यापक अध्ययन करता है। अध्ययन के अनेक विषयों में से आजकल भाषा-विज्ञान को विशेष महत्त्व दिया जा रहा है।


भाषा विज्ञान के अनेक नाम


भाषा-सम्बन्धी इस अध्ययन को यूरोप में आज तक अनेक नामों और संज्ञाओं से अभिहित किया जाता रहा है। सर्वप्रथम इस अध्ययन को फिलोलॉजी (Philology) शब्द के आगे विशेषण के रूप में एक शब्द जोड़ा गया- (Comparative) तब इसे ‘‘कम्पैरेटिव फिलोलॉजी’’ (Comparative Philology) कह कर पुकारा गया। उन्नीसवीं शताब्दी तक व्याकरण तथा भाषा-विषयक अध्ययन को प्रायः एक ही समझा जाता था। अतः इसे विद्वानों ने 'कम्पैरेटिव ग्रामर' नाम भी दिया। फ्रांस में इसको लैंगिस्तीक् (Linguistique) नाम दिया गया। फ्रांस में भाषा सम्बन्धी कार्य अधिक होने के कारण उन्नीसवीं सदी में सम्पूर्ण यूरोप में ही "Linguistique" अथवा "Linguistics" नाम ही प्रचलित रहा है। इसके अतिरिक्त 'साइंस ऑफ लैंग्वेज', ‘ग्लौटोलेजी’ (Glottology) आदि अन्य नाम भी इस विषय को प्रकट करने के लिए काम में आये। आज इन सभी नामों में से ‘‘लिंग्विस्टिक्स’’, ‘‘फिलोलॉजी’’ (Philology) मात्र ही प्रयोग में लाए जाते हैं।

भारतवर्ष में इन सभी यूरोपीय नामों के अतिरिक्त हिन्दी भाषा में जो नाम प्रयोग में लाए जाते हैं वे इस प्रकार हैं- ‘‘भाषा-शास्त्र’’, ‘‘भाषा-तत्त्व’’, ‘‘भाषा-विज्ञान’’, तथा ‘‘तुलनात्मक भाषा-विज्ञान’’ आदि। इन सभी नामों में से सर्व प्रचलित नाम ‘‘भाषा-विज्ञान’’ है। इन नाम में प्राचीन और नवीन सभी नामों का समाहार-सा हुआ जान पड़ता है। अतः यही नाम इस शास्त्र के लिए सर्वथा उपयुक्त प्रतीत होता है।




 इतिहास


अपने वर्तमान स्वरूप में भाषा विज्ञान पश्चिमी विद्वानों के मस्तिष्क की देन कहा जाता है। अति प्राचीन काल से ही भाषा-सम्बन्धी अध्ययन की प्रवृत्ति संस्कृत-साहित्य में पाई जाती है। ‘शिक्षा’ नामक वेदांग में भाषा सम्बन्धी सूक्ष्म चर्चा उपलब्ध होती है। ध्वनियों के उच्चारण- अवयव, स्थान, प्रयत्न आदि का इन ग्रन्थों में विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। ‘प्रातिशाख्य’ एवं निरूक्त में शब्दों की व्युत्पत्ति, धातु, उपसर्ग-प्रत्यय आदि विषयों पर वैज्ञानिक विश्लेषण भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन कहा जा सकता है। भर्तृहरि के ग्रन्थ ‘वाक्य पदीय’ के अन्तर्गत ‘शब्द’ के स्वरूप का सूक्ष्म, गहन एवं व्यापक चिन्तन उपलब्ध होता है। वहाँ शब्द को ‘ब्रह्म’ के रूप में परिकल्पित किया गया है और उसकी ‘अक्षर’ संज्ञा बताई गई है। प्रकारान्तर से यह एक भाषा-अध्ययन समबन्धी ग्रन्थ ही है।

संस्कृत साहित्य में दर्शन एवं साहित्यशास्त्रीय ग्रन्थों में भी हमें ‘शब्द’ ’अर्थ’, ‘रस’ ‘भाव’ के सूक्ष्म विवेचन के अन्तर्गत भाषा वैज्ञानिक चर्चाओं के ही संकेत प्राप्त होते हैं। संस्कृत-साहित्य में यत्र-तत्र उपलब्ध होने वाली भाषा-विचार-विषयक सामग्री ही निश्चित रूप से वर्तमान भाषा-विज्ञान की आधारशिला कही जा सकती है।

आधुनिक विषय के रूप में भाषा-विज्ञान का सूत्रपात यूरोप में सन 1786 ई0 में सर विलियम जोन्स नामक विद्वान द्वारा किया गया माना जाता है। संस्कृत भाषा के अध्ययन के प्रसंग में सर विलियम जोन्स ने ही सर्वप्रथम संस्कृत, ग्रीक और लैटिन भाषा का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए इस संभावना को व्यक्त किया था कि संभवतः इन तीनों भाषाओं के मूल में कोई एक भाषा रूप ही आधार बना हुआ है। अतः इन तीनों भाषाओं (संस्कृत, ग्रीक और लैटिन) के बीच एक सूक्ष्म संबंध सूत्र अवश्य विद्यमान है। भाषाओं का इस प्रकार का तुलनात्मक अध्ययन ही आधुनकि भाषा-विज्ञान के क्षेत्र का पहला कदम बना।


सामान्य परिचय

'भाषा-विज्ञान' नाम में दो पदों का प्रयोग हुआ है। 'भाषा' तथा 'विज्ञान'। भाषा-विज्ञान को समझने से पूर्व इन दोनों शब्दों से परिचित होना आवश्यक प्रतीत होता है।

‘भाषा’ शब्द संस्कृत की ‘‘भाष्’’ धातु से निष्पन्न हुआ है। जिसका अर्थ है-व्यक्त वाक (व्यक्तायां वाचि)। ‘विज्ञान’ शब्द में ‘वि’ उपसर्ग तथा ‘ज्ञा’ धातु से ‘ल्युट्’ (अन) प्रत्यय लगाने पर बनता है। सामान्य रूप से ‘भाषा’ का अर्थ है ‘बोल चाल की भाषा या बोली’ तथा ‘विज्ञान’ का अर्थ है ‘विशेष ज्ञान’, किन्तु ‘भाषा-विज्ञान’ शब्द में प्रयुक्त इन दोनों पदों का स्पष्ट और व्यापक अर्थ समझ लेने पर ही हम इस नाम की सारगर्भिताको जानने में सफल होंगे। अतः हम यहाँ इन दोनों पदों के विस्तृत अर्थ को स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं।

भाषाःमानव एक सामाजिक प्राणी है। समाज में अपने भावों और विचारों को एक दूसरे तक पहुंचाने की आवश्यकता चिरकाल से अनुभव की जाती रही है। इस प्रकार भाषा का अस्तित्त्व मानव समाज में अति प्राचीन सिद्ध होता है। मानव के सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान का प्रकाशन करने के लिए, सभ्यता और संस्कृति के इतिहास को जानने के लिए भाषा एक महत्त्वपूर्ण साधन का कार्य करती है। हमारे पूर्वपुरुषों से सभी साधारण और असाधारण अनुभव हम भाषा के माध्यम से ही जान सके हैं। हमारे सभी सद्ग्रन्थों और शास्त्रों से मिलने वाला ज्ञान भाषा पर ही निर्भर है। महाकवि दण्डी ने अपने महान ग्रन्थ ‘काव्यादर्श’ में भाषा की महत्ता सूचित करते हुए लिखा हैः-

इदधतमः कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयम्।
यदि शब्दाह्नयं ज्योत्तिरासंसारं न दीप्यते।।

अर्थात् यह सम्पूर्ण भुवन अंधकारपूर्ण हो जाता, यदि संसार में शब्द-स्वरूप ज्योति अर्थात् भाषा का प्रकाश न होता। स्पष्ट ही है कि यह कथन मानव भाषा को लक्ष्य करके ही कहा गया है। पशु-पक्षी भावों को प्रकट करने के लिए जिन ध्वनियों का आश्रय लेते हैं वे उनके भावों का वहन करने के कारण उनके लिए भाषा हो सकती हैं किन्तु मानव के लिए अस्पष्ट होने के कारण विद्वानों ने उसे ‘अव्यक्त वाक्’ कहा है, जो भाषा-विज्ञान की दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं रखती। क्योंकि ‘अव्यक्त वाक्’ में शब्द और अर्थ दोनों ही अस्पष्ट बने रहते हैं। मनुष्य भी कभी-कभी अपने भावों को प्रकट करने के लिए अंग-भंगिमा, भ्रू-संचालन, हाथ-पाँव-मुखाकृति आदि के संकेतों का प्रयोग करते हैं परन्तु वह भाषा के रूप में होते हुए भी ‘व्यक्त वाक्’ नहीं है। मानव भाषा की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वह ‘व्यक्त वाक्’ अर्थात् शब्द और अर्थ की स्पष्टता लिए हुए होती है। महाभाष्य के रचयिता पतंजलि के अनुसार ‘व्यक्त वाक्’ का अर्थ भाषा के वर्णनात्मक होने से है।

यह सत्य है कि कभी-कभी संकेतों और अंगभंगिमाओं की सहायता से भी हमारे भाव और विचारों का प्रेषण बड़ी सरलता से हो जाता है। इस प्रकार वे चेष्टाएँ भाषा के प्रतीक बन जाती हैं किन्तु मानव भावों को प्रकट करने का सबसे उपयुक्त साधन वह वर्णनात्मक भाषा है जिसे ‘व्यक्त वाक्’ की संज्ञा प्रदान की गई है। इस में विभिन्न अर्थों को प्रकट करने के लिए कुछ निश्चित् उच्चरित या कथित ध्वनियों का आश्रय लिया जाता है। अतः भाषा हम उन शब्दों के समूह को कहते हैं जो विभिन्न अर्थों के संकेतों से सम्पन्न होते हैं। जिनके द्वारा हम अपने मनोभाव सरलता से दूसरों के प्रति प्रकट कर सकते हैं। इस प्रकार भाषा की परिभाषा करते हुए हम उसे मानव-समाज में विचारों और भावों का आदान-प्रदान करने के लिए अपनाया जाने वाला एक माध्यम कह सकते हैं जो मानव के उच्चारण अवयवों से प्रयत्नपूर्वक निःसृत की गई ध्वनियों का सार्थक आधार लिए रहता है। वो ध्वनि-समूह शब्द का रूप तब लेते हैं जब वे किसी अर्थ से जुड़ जाते हैं। सम्पूर्ण ध्वनि-व्यापार अर्थात् शब्द-समूह अपने अर्थ के साथ एक ‘यादृच्छिक’ सम्बंध पर आधारित होता है। ‘यादृच्छिक’ का अर्थ है पूर्णतया कल्पित। संक्षेप में विभिन्न अर्थों में व्यक्त किये गए मुख से उच्चरित उस शब्द समूह को हम भाषा कहते हैं जिसके द्वारा हम अपने भाव और विचार दूसरों तक पहुँचाते हैं।

भाषा-विज्ञान के अध्ययन के लाभ

भाषा-विज्ञान के अध्ययन से हमें अनेक लाभ होते हैं, जैसे-
अपनी चिर-परिचित भाषा के विषय में जिज्ञासा की तृप्ति या शंकाओं का निर्मूलन।

2. ऐतिहासिक तथा प्रागैतिहासिक संस्कृति का परिचय।

3. किसी जाति या सम्पूर्ण मानवता के मानसिक विकास का परिचय।

4. प्राचीन साहित्य का अर्थ, उच्चारण एवं प्रयोग सम्बन्धी अनेक समस्याओं का समाधान।

5. विश्व के लिए एक भाषा का विकास।

6. विदेशी भाषाओं को सीखने में सहायता।

7. अनुवाद करने वाली तथा स्वयं टाइप करने वाली एवं इसी प्रकार की मशीनों के विकास और निर्माण में सहायता।

8. भाषा, लिपि आदि में सरलता, शुद्धता आदि की दृष्टि से परिवर्तन-परिवर्द्धन में सहायता।

इन सभी लाभों की दृष्टि से आज के युग में भाषा-विज्ञान को एक अत्यन्त उपयोगी विषय माना जा रहा है और उसके अध्ययन के क्षेत्र में नित्य नवीन विकास हो रहा है।


भाषाविज्ञान : कला है या विज्ञान

भाषा एक प्राकृतिक वस्तु है जो मानव को ईश्वरीय वरदान के रूप में मिली हुई है। भाषा का निर्माण मनुष्य के मुख से स्वाभाविक रूप में निःसृत ध्वनियों (वर्णों) के द्वारा होता है। भाषा का सामान्य ज्ञान इसके बोलने और सुनने वाले सभी को हो जाता है। यही भाषा का सामान्य ज्ञान कहलाता है। इसके आगे, भाषा कब बनी, कैसे बनी ? इसका प्रारम्भिक एवं प्राचीन स्वरूप क्या था ? इसमें कब-कब, क्या-क्या परिवर्तन हुए और उन परिवर्तनों के क्या कारण हैं ? अथवा कुल मिलाकर भाषा कैसे विकसित हुई ? उस विकास के क्या कारण हैं ? कौन सी भाषा किस दूसरी भाषा से कितनी समानता या विषमता रखती है ? यह सब भाषा का विशेष ज्ञान या ‘भाषा-विज्ञान’ कहा जाएगा। इसी भाषा-विज्ञान के विशेष रूप अर्थात् भाषा विज्ञान को आज अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण विषय मान लिया गया है।

भाषा-विज्ञान जब अध्ययन के विषयों में बड़ी-बड़ी कक्षाओं के पाठ्यक्रमों के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया तो सर्वप्रथम यह एक स्वाभाविक प्रश्न उत्पन्न हुआ कि भाषा-विज्ञान को कला के अन्तर्गत गिना जाए या विज्ञान में। अर्थात् भाषा-विज्ञान कला है अथवा विज्ञान है। अध्ययन की प्रक्रिया एवं निष्कर्षों को लेकर निश्चय किया जाने लगा कि वस्तुतः उसे भौतिक विज्ञान, एवं रसायन विज्ञान आदि की भाँति विशुद्ध विज्ञान माना जाए अथवा चित्र, संगीत, मूर्ति, काव्य आदि कलाओं की भाँति कला के रूप में स्वीकार किया जाए।


भाषा-विज्ञान कला नहीं है

कला का सम्बन्ध मानव-जाति वस्तुओं या विषयों से होता है। यही कारण है कि कला व्यक्ति प्रधान या पूर्णतः वैयक्तिक होती है। व्यक्ति सापेक्ष होने के साथ-साथ किसी देश विशेष और काल-विशेष का भी कला पर प्रभाव रहता है। इसका अभिप्राय यह है कि किसी काल में कला के प्रति जो मूल्य रहते हैं उनमें कालान्तर में नये-नये परिवर्तन उपस्थित हो जाते हैं तथा वे किसी दूसरे देश में भी मान लिए जाएँ, यह भी आवश्यक नहीं है। एक व्यक्ति को किसी वस्तु में उच्च कलात्मक अभिव्यक्ति लग रही है। किन्तु दूसरे को वह इस प्रकार की न लग रही हो। अतः कला की धारणा प्रत्येक व्यक्ति की भिन्न-भिन्न हुआ करती है।

कला का सम्बन्ध मानव हृदय की रागात्मिक वृत्ति से होता है। उसमें व्यक्ति की सौन्दर्यानुभूति का पुट मिला रहता है। कला का उद्देश्य भी सौन्दर्यानुभूति कराना, या आनन्द प्रदान करना है, किसी वस्तु का तात्विक विश्लेषण करना नहीं। कला के स्वरूप की इन सभी विशेषताओं की कसौटी पर परखने से ज्ञात होता है कि भाषा-विज्ञान कला नहीं है। क्योंकि उसका सम्बन्ध हृदय की सरसता-वृत्ति से न होकर बुद्धि की तत्त्वग्राही दृष्टि से होता है। भाषा-विज्ञान का उद्देश्य सौन्दर्यानुभूति कराना या मनोरंजन कराना भी नहीं है। वह तो हमारे बौद्धिक चिन्तन को प्रखर बनाता है। भाषा के अस्तित्व का तात्त्विक मूल्यांकन करता है। उसका दृष्टिकोण बुद्धिवादी है। भाषा-विज्ञान के निष्कर्ष किसी व्यक्ति, राष्ट्र या काल के आधार पर परिवर्तित नहीं होते हैं तथा भाषा-विज्ञान के अध्ययन का मूल आधार जो भाषा है वह मानवकृत पदार्थ नहीं है। अतः भाषा-विज्ञान को हम कला के क्षेत्र में नहीं गिन सकते। भाषा-विज्ञान की उपयोगिता इसमें है कि वह भाषा सिखाने की कला का ज्ञान कराता है। इसी कारण स्वीट ने व्याकरण को भाषा को कला तथा विज्ञान दोनों कहा है। भाषा का शुद्ध उच्चारण, प्रभावशाली प्रयोग कला की कोटि में रखे जा सकते हैं।


भाषाविज्ञान : विज्ञान है

 भाषा-विज्ञान को कला की सीमा में नहीं रखा जा सकता, यह निश्चय हो जाने पर यह प्रश्न उठता है कि क्या भाषा-विज्ञान, भौतिक-शास्त्र, रसायन-विज्ञान आदि विषयों की भाँति पूर्णतः विज्ञान है ?

अनेक विद्वानों की धारणा में भाषा-विज्ञान विशुद्ध विज्ञान नहीं है। उनकी धारणा के अनुसार अभी भाषा-विज्ञान के सभी प्रयोग पूर्णता को प्राप्त नहीं हुए हैं और उसके निष्कर्षों को इसीलिए अंतिम निष्कर्ष नहीं कहा जा सकता। इसके साथ ही भाषा-विज्ञान के सभी निष्कर्ष विज्ञान की भाँति सार्वभौमिक और सार्वकालिक भी नहीं है।

जिस प्रकार गणित शास्त्र में 2 + 2 = 4 सार्वकालिक, विकल्परहित निष्कर्ष है जो सर्वत्र स्वीकार किया जाता है, भाषा-विज्ञान के पास इस प्रकार के विकल्प-रहित निर्विवाद निष्कर्ष नहीं है। विज्ञान में तथ्यों का संकलन और विश्लेषण होता है और ध्वनि के नियम अधिकांशतः विकल्परहित ही हैं, अतः कुछ विद्वानों के अनुसार भाषा-विज्ञान को मानविकी (कला) एवं विज्ञान के मध्य में रखा जा सकता है।

विचार करने पर हम देखते हैं कि विज्ञान की आज की दु्रत प्रगति में प्रत्येक विशेष ज्ञान अपने आगामी ज्ञान के सामने पुराना और अवैज्ञानिक सिद्ध होता जा रहा है। नित्य नवीन आविष्कारों के आज के युग में वैज्ञानिक दृष्टि नित्य सूक्ष्म से सूक्ष्मतर और नवीन से नव्यतर होती चली जा रही है। आज के विकसित ज्ञान-क्षेत्र को देखते हुए कई वैज्ञानिक मान्यताएँ पुरानी और फीकी पड़ गई है। न्यूटन का प्रकाश सिद्धान्त भी अब सन्देह की दृष्टि से देखा जाने लगा है। इससे यह सिद्ध होता हो जाता है कि नूतन ज्ञान के प्रकाश में पुरातन ज्ञान भी विज्ञान के क्षेत्र से बाहर कर दिया जाता है।

अतः विशुद्ध ज्ञान की दृष्टि से विचार करने पर भाषा-विज्ञान को हम विज्ञान के ही सीमा-क्षेत्र में पाते हैं। भाषा-विज्ञान निश्चय ही एक विज्ञान है जिसके अन्तर्गत हम भाषा का विशेष ज्ञान प्राप्त करते हैं। यह सही है कि अभी तक भाषा-विज्ञान का वैज्ञानिक स्तर पर पूर्णतः विकास नहीं हो पाया है। यही कारण है कि प्रसिद्ध ग्रिम-नियम के आगे चल कर ग्रासमान और वर्नर को उसमें सुधार करना पड़ा है। उक्त सुधारों से पूर्व ग्रिम का ध्वनि नियम निश्चित् नियम ही माना जाता था और सुधारों के बाद भी वह निश्चित् नियम ही माना जाता है। इस प्रकार नये ज्ञान के प्रकाश में पुराने सिद्धान्तों का खण्डन होने से विज्ञान का कोई विरोध नहीं है। वास्तव में यही शुद्ध विज्ञान है।

सन् 1930 के बाद जहाँ वर्णनात्मक भाषा-विज्ञान को पुनः महत्त्व प्राप्त हुआ, वहाँ तब से लेकर आज तक द्रुत गति में विकास हुआ है। जब से ध्वनि के क्षेत्र में यंत्रों की सहायता से नये-नये परीक्षण प्रारम्भ हुए हैं तथा प्राप्त निष्कर्ष पूरी तरह नियमित होने लगे हैं, तब से ही भाषा-विज्ञान धीरे-धीरे प्रगति करता हुआ विज्ञान की श्रेणी में माना जाने लगा है।

विज्ञान की एक बड़ी विशेषता है उसका प्रयोगात्मक होना। अमेरिकी विद्वान् बलूम फील्ड़ (सन् 1933 ई0) के बाद अमेरिकी भाषा विज्ञानियों ने ध्वनि-विज्ञान एवं रूप-विज्ञान आदि के साथ भाषा-विज्ञान की एक नवीन पद्धति के रूप में प्रायोगिक भाषा-विज्ञान का बड़ी तीव्रता के साथ विकास किया है। इस पद्धति के अन्तर्गत भाषा-विज्ञान प्रयोगशालाओं का विषय बनता जा रहा है और उसके लिए अनेक यंत्रों का अविष्कार हो गया है। यह देख कर निश्चित रूप में इस विषय को विज्ञान ही कहा जाएगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

आजकल जबकि समाज-विज्ञान, मनोविज्ञान आदि शास्त्रीय विषयों के लिए जहाँ विज्ञान शब्द का प्रयोग करने की परम्परा चल पड़ी है तब शुद्ध कारण-कार्य परम्परा पर आधारित भाषा-विज्ञान को विज्ञान कहना किसी भी दृष्टि से अनुचित नहीं ठहराया जा सकता।


भाषा-विज्ञान की परिभाषा

 डॉ॰ श्यामसुन्दर दास ने अपने ग्रन्थ भाषा रहस्य में लिखा है-

“भाषा-विज्ञान भाषा की उत्पत्ति, उसकी बनावट, उसके विकास तथा उसके ह्रास की वैज्ञानिक व्याख्या करता है।”
मंगल देव शास्त्री (तुलनात्मक भाषाशास्त्र) के शब्दों में-

”भाषा-विज्ञान उस विज्ञान को कहते हैं जिसमें (क) सामान्य रूप से मानवी भाषा (ख) किसी विशेष भाषा की रचना और इतिहास का और अन्ततः (ग) भाषाओं या प्रादेशिक भाषाओं के वर्गों की पारस्परिक समानताओं और विशेषताओं का तुलनात्मक विचार किया जाता है।”
डॉ॰ भोलानाथ तिवारी के ‘भाषा-विज्ञान’ ग्रन्थ में यह परिभाषा इस प्रकार दी गई है-

“जिस विज्ञान के अन्तर्गत वर्णनात्मक, ऐतिहासिक और तुलनात्मक अध्ययन के सहारे भाषा की उत्पत्ति, गठन, प्रकृति एवं विकास आदि की सम्यक् व्याख्या करते हुए, इन सभी के विषय में सिद्धान्तों का निर्धारण हो, उसे भाषा विज्ञान कहते हैं।”

ऊपर दी गई सभी परिभाषाओं पर विचार करने से ज्ञात होता है कि उनमें परस्पर कोई अन्तर नहीं है। डॉ॰ श्यामसुन्दर दास की परिभाषा में जहाँ केवल भाषाविज्ञान पर ही दृष्टि केन्द्रित रही है वहीँ मंगलदेव शास्त्री एवं भोलानाथ तिवारी ने अपनी परिभाषाओं में भाषा विज्ञान के अध्ययन के प्रकारों को भी समाहित कर लिया है। परिभाषा वह अच्छी होती है जो संक्षिप्त हो और स्पष्ट हो। इस प्रकार हम भाषा-विज्ञान की एक नवीन परिभाषा इस प्रकार दे सकते हैं- “जिस अध्ययन के द्वारा मानवीय भाषाओं का सूक्ष्म और विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाए, उसे भाषा-विज्ञान कहा जाता है।”

 दूसरे शब्दों में भाषा-विज्ञान वह है जिसमें मानवीय भाषाओं का सूक्ष्म और व्यापक वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है।


व्याकरण और भाषा-विज्ञान में अन्तर

(क) व्याकरण शास्त्र में किसी भाषा विशेष के नियम बताए जाते हैं अतः उसका दृष्टिकोण एक भाषा पर केन्द्रित रहता है किन्तु भाषा-विज्ञान में तुलना के लिए अन्य भाषाओं के नियम, अध्ययन का आधार बनाए जाते हैं। इस प्रकार व्याकरण का क्षेत्र सीमित है और भाषा-विज्ञान का व्यापक।
(ख) व्याकरण वर्णन-प्रधान है। वह किसी भाषा के नियम तथा साधु रूप सामने रख देता है। व्याकरण भाषा के व्यावहारिक पक्ष का संकेत करता है उसके कारण व इतिहास की कोई विवेचना नहीं करता। संस्कृत की गम् धातु (गतः) से हिन्दी में गया बना है। परन्तु ‘जाना’, ‘जाता’ आदि शब्द ‘या’ धातु से बने हैं। इसी कारण गया शब्द को भी इसी के साथ जोड़ दिया गया है। व्याकरण की दृष्टि से कभी ‘एक दश’ शुद्ध शब्द रहा होगा परन्तु कालान्तर में ‘द्वादश’ की नकल पर ‘एकादश’ का प्रचलन हो गया। व्याकरण तो प्रचलित रूप बतला कर चुप हो जाएगा पर भाषा-विज्ञान इससे भी आगे जाएगा, वह बताएगा कि इसके पीछे मुण्डा आदि आसपास की भाषाओं का प्रभाव है। इस प्रकार भाषा-विज्ञान व्याकरण का भी व्याकरण है।
 (ग) भाषा-विज्ञान जहाँ भाषा के विकास का कारण समझाता है वहाँ व्याकरण प्रचलित शब्द को ‘साधु प्रयोग’ कहकर भाषा-विज्ञान का अनुगमन करता जाता है। इस प्रकार व्याकरण भाषा विज्ञान का अनुगामी है। भाषा-विज्ञान में ध्वनि-विचार के अन्तर्गत हिन्दी के अधिकांश शब्द व्यंजनांत माने जाने लगे हैं जैसे ‘राम’ शब्द का उच्चारण ‘राम’ न होकर राम् है किन्तु व्याकरण अभीतक अकारांत मानता चला आ रहा है।
(घ) भाषा-विज्ञान में भाषा के जो परिवर्तन उसका विकास माने जाते हैं वे व्याकरण में उसकी भ्रष्टता कहे जाते हैं। यही कारण है कि संस्कृत के बाद प्राकृत (= बिगड़ी हुई) आदि नाम दिये गये। भाषा-विज्ञान ‘धर्म’ शब्द के ‘धम्म’ या ‘धरम’ हो जाने को उसका विकास कहता है और व्याकरण उसे विकार कहता है।

साहित्य और भाषा-विज्ञान

भाषा के प्रचलित वर्तमान स्वरूप को छोड़ कर शेष सारी अध्ययन सामग्री भाषा-विज्ञान को साहित्य से ही उपलब्ध होती है। यदि आज हमारे सामने संस्कृत, ग्रीक और अवेस्ता साहित्य न होता तो भाषा-विज्ञान कभी यह जानने में सफल न होता कि ये तीनों भाषाएँ किसी एक मूल भाषा से निकली हैं। इसी प्रकार आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक का हिन्दी साहित्य हमारे सामने न होता तो भाषा-विज्ञान हिन्दी भाषा के ऐतिहासिक विकास का अध्ययन किस प्रकार कर पाता।
भाषा-विज्ञान किसी प्रकार से भी भाषा का अध्ययन करे उसे पग-पग पर साहित्य की सहायता लेनी पड़ती है। बुन्देलखण्ड के नटखट बालकों के मुंह से यह सुन कर-

ओना मासी धम
बाप पढ़े ना हम

व्याकरण कहता है कि यह क्या बला है, प्राचीन साहित्य का अध्ययन ही उसे बतलाएगा कि शाकटायन के प्रथम सूत्र ‘ऊँ नमः सिद्धम्’ का ही यह बिगड़ा हुआ रूप है।

साहित्य भी भाषा-विज्ञान की सहायता से अपनी अनेक समस्याओं का समाधान खोजने में सफल हो जाता है। डॉ॰ वासुदेव शरण अग्रवाल ने भाषा-विज्ञान के सिद्धान्तों के आधार पर जायसीकृत ‘पद्मावत’ के बहुत से शब्दों को उनके मूल रूपों से जोड़ कर उनके अर्थों को स्पष्ट किया है। साथ ही शुद्ध पाठ के निर्धारण में भी इससे पर्याप्त सहायता ली है। अतः साहित्य और भाषा-विज्ञान दोनों एक दूसरे के सहायक हैं।


मनोविज्ञान और भाषा-विज्ञान

भाषा हमारे भावों-विचारों अर्थात् मन का प्रतिबिम्ब होती है अतः भाषा की सहायता से बहुत से समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। विशेष रूप से अर्थविज्ञान तो मनोविज्ञान पर पूरी तरह से आधारित है। वाक्य-विज्ञान के अध्ययन में भी मनोविज्ञान से पर्याप्त सहायता मिलती है। कभी-कभी ध्वनि-परिवर्तन का कारण जानने के लिए भी मनोविज्ञान हमारी सहायता करता है। भाषा की उत्पत्ति तथा प्रारम्भिक रूप की जानकारी में भी बाल-मनोविज्ञान तथा अविकसित लोगों का मनोविज्ञान हमारी सहायता करता है।

मनोविज्ञान को भी अपनी चिकित्सा-पद्धति में रोगी की ऊलजलूल बातों का अर्थ जानने के लिए भाषा-विज्ञान से सहायता लेनी पड़ती है। अतः भाषा-विज्ञान की सहायता से एक मनोविज्ञानी रोगी की मनोग्रन्थियों का पता लगाने में सफल हो सकता है। भाषा-विज्ञान और मनोविज्ञान के घनिष्ठ सम्बन्धों के कारण ही आजकल भाषा मनोविज्ञान (Linguistic Psychology) या साइकोलिंगिंवस्टिक्स (Psycholinguistics) नामक एक नयी अध्ययन-पद्धति का विकास हो रहा है।


शरीर-विज्ञान और भाषा-विज्ञान

भाषा मुख से निकलने वाली ध्वनि को कहते हैं अतः भाषा-विज्ञान में हवा भीतर से कैसे चलती है, स्वरयंत्र, स्वरतंत्री, नासिकाविवर, कौवा, तालु, दाँत, जीभ, ओंठ, कंठ, मूर्द्धा तथा नाक के कारण उसमें क्या परिवर्तन होते हैं तथा कान द्वारा कैसे ध्वनि ग्रहण की जाती है, इन सबका अध्ययन करना पड़ता है। इसमें शरीर-विज्ञान ही उसकी सहायता करता है। लिखित भाषा का ग्रहण आँख द्वारा होता है और इस प्रक्रिया का अध्ययन भी भाषा-विज्ञान के अन्तर्गत ही होता है। इसके लिए भी उसे शरीर विज्ञान का ऋणी होना पड़ता है।


भूगोल और भाषा-विज्ञान

भाषा-विज्ञान और भूगोल का भी-गहरा सम्बन्ध है। कुछ लोगों के अनुसार किसी स्थान की भौगोलिक परिस्थितियों का उसकी भाषा पर गहरा प्रभाव पड़ता है। किसी स्थान में बोली जाने वाली भाषा में वहाँ के पेड़-पौधे, पक्षी, जीव-जन्तु एवं अन्न आदि के लिए शब्द अवश्य मिलते हैं परन्तु यदि उनमें से किसी की समाप्ति हो जाए तो उसका नाम वहाँ की भाषा से भी जुदा हो जाता हैं। ‘सोमलता’ शब्द का प्रयोग आज हमारी भाषा में नहीं होता। इस लोप का कारण सम्भवतः भौगोलिक ही है। किसी स्थान में एक भाषा का दूर तक प्रसार न होना, भाषा में कम विकास होना तथा किसी स्थान में बहुत सी बोलियों का होना भी भौगोलिक परिस्थितियों का ही परिणाम होता है। दुर्गम पर्वतों पर रहने वाली जातियों का परस्पर कम सम्पर्क होने के कारण उनकी बोली प्रसार नहीं कर पाती। नदियों के आर-पार रहने वाले लोगों की बोली-भाषा सामान्य भाषा से हट कर भिन्न होती है।

देशों, नगरों, नदियों तथा प्रान्तों आदि के नामों का भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन करने में भूगोल बड़ी मनोरंजक सामग्री प्रदान करता है।

अर्थ-विचार के क्षेत्र में भी भूगोल भाषा-विज्ञान की सहायता करता है। ‘उष्ट्र’ का अर्थ भैंसा से ऊँट कैसे हो गया तथा ‘सैंधव’ का अर्थ घोड़ा और नमक ही क्यों हुआ, आदि समस्याओं पर विचार करने में भी भूगोल सहायता करता है। भाषा-विज्ञान की एक शाखा भाषा-भूगोल की अध्ययन-पद्धति तो ठीक भूगोल की ही भाँति होती है। इसी प्रकार किसी स्थान के प्रागौतिहासिक काल के भूगोल का अध्ययन करने में भाषा-विज्ञान भी पर्याप्त सहायक होता है।

इतिहास और भाषा-विज्ञान

इतिहास का भी भाषा-विज्ञान से घनिष्ठ सम्बन्ध है। इतिहास के तीन रूपों (१) राजनीतिक इतिहास, (२) धार्मिक इतिहास, (३) सामाजिक इतिहास-को लेकर यहाँ भाषा-विज्ञान से उसका सम्बन्ध दिखलाया जा रहा है-

(क) राजनीतिक इतिहास : किसी देश में अन्य देश का राज्य होना उन दोनों ही देशों की भाषाओं को प्रभावित करता है। हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में अंग्रेजी के कई हजार शब्दों का प्रवेश तथा अंग्रेजी भाषा में कई हजार भारतीय भाषाओं के शब्दों का प्रवेश भारत की राजनीतिक पराधीनता या दोनों देशों के परस्पर सम्बन्ध का परिणाम है। हिन्दी में अरबी, फारसी, तुर्की, पुर्तगाली शब्दों के आने के कारणों को जानने के लिए भी हमें राजनीतिक इतिहास का सहारा लेना पड़ता है।

(ख) धार्मिक इतिहास : भारत में हिन्दी-उर्दू-समस्या धर्म या साम्प्रदायिकता की ही देन है। धर्म का भाषा से घनिष्ठ सम्बन्ध है। धर्म का रूप बदलने पर भाषा का रूप भी बदल जाता है। यज्ञ का लोक-धर्म से उठ जाना ही वह कारण है जिससे आज हमारी भाषा से यज्ञ-सम्बन्धी अनेक शब्दों का लोप हो चुका है। व्यक्तियों के नामों पर भी धर्म का प्रभाव पड़ता है। हिन्दू की भाषा में संस्कृत शब्दों की बहुलता होगी तो एक मुसलमान की भाषा में अरबी-फारसी के शब्दों की प्रचुरता देखने को मिलेगी। इसी प्रकार बहुत-सी प्राचीन धार्मिक गुत्थियों को भाषा-विज्ञान की सहायता से सुलझाया जा सकता है। धर्म के बल पर कभी-कभी कोई बोली अन्य बोलियों को पीछे छोड़कर विशेष महत्त्व पा जाती है। मध्य युग में अवधी और ब्रज के विशेष महत्त्व का कारण हमें धार्मिक इतिहास में ही प्राप्त होता है।

(ग) सामाजिक इतिहास : सामाजिक व्यवस्था तथा हमारी परम्पराएँ भी भाषा को प्रभावित करती हैं। भाषा की सहायता से किसी जाति के सामाजिक इतिहास का ज्ञान भी सरलता से प्राप्त किया जा सकता है। भारतीय समाज में पारिवारिक सम्बन्धों को विशेष महत्त्व दिया जाता है। इसलिए भारतीय भाषाओं में, माँ-बाप, बहन-भाई, चाचा, मौसा, फूफा, बुआ, मौसी, साला, बहनोई, साढ़ू, साली, सास-ससुर जैसे अनेक शब्दों का प्रयोग किया जाता है किन्तु यूरोपीय समाज में इन सभी सम्बन्धों के लिए केवल अंकल, आंट, मदर, फादर, ब्रदर, सिस्टर जैसे शब्द ही है जिनमें कुछ ‘इन लॉ’ आदि शब्द जोड़ जाड़ कर अभिव्यक्ति की जाती है। अतः भाषा-विज्ञान के अध्ययन में सामाजिक इतिहास पूरी सहायता करता है। इसी प्रकार सामाजिक व्यवस्था में शब्दों का किस प्रकार निर्माण हो जाया करता है इस पर भाषा-विज्ञान प्रकाश डालता है। किसी समाज की भाषा में मिलने वाले शब्दों से उसकी समाज-व्यवस्था का परिचय प्राप्त होता है। समाज में संयुक्त-परिवार व्यवस्था है, विशाल कुटुम्ब व्यवस्था है या एकल परिवार व्यवस्था है इस बात का उसमें व्यवहार किए गए शब्दों से पता चलता है।

भाषाविज्ञान तथा ज्ञान के अन्य क्षेत्र

भाषाविज्ञान के अध्ययन में तर्कशास्त्र, भौतिकशास्त्र एवं मानव-शास्त्र जैसे अन्य ज्ञान के क्षेत्र भी बड़ी सहायता पहुंचाते हैं। मनुष्य में अनेक प्रकार के अंधविश्वास घर कर लेते हैं जिनका उसकी भाषा पर प्राभाव पड़ता है। भारतीय सामज में स्त्रियाँ अपने पति का नाम घुमा-फिराकर लेती है, सीधा-स्पष्ट नहीं। रात्रि में विशाल कीड़ों का नाम नहीं लिया जाता है। वे अपने लड़के का नाम मांगे (मांगा हुआ), छेदी (उसकी नाक छेद कर), बेचू (उसे दो-चार पैसे में किसी के हाथ बेच कर), घुरहू (कूड़ा), कतवारू (कूड़ा) अलिचार (कूड़ा) या लेंढ़ा (रड्डी), आदि रखते हैं। अंधविश्वासों के अतिरिक्त अन्य बहुत सी सामाजिक-मनोविज्ञान से सम्बद्ध गुत्थियों के स्पष्टीकरण के लिए मानव-विज्ञान की शाखा-प्रशाखाओं का सहारा लेना पड़ता है।

इस प्रकार ज्ञान के अनेक क्षेत्र- संस्कृति-अध्ययन, शिक्षाशास्त्र, सांख्यिकी, पाठ-विज्ञान - आदि भाषा विज्ञान से गहरा सम्बन्ध रखते हैं।

 भाषाविज्ञान के क्षेत्र

मानव की भाषा का जो क्षेत्र है वही भाषा-विज्ञान का क्षेत्र है। संसारभर के सभ्य-असभ्य मनुष्यों की भाषाओं और बोलियों का अध्ययन भाषा-विज्ञान के अन्तर्गत किया जाता है। इस प्रकार भाषा-विज्ञान केवल सभ्य-साहित्यिक भाषाओं का ही अध्ययन नहीं करता अपितु असभ्य-बर्बर-असाहित्यिक बोलियों का, जो प्रचलन में नहीं है, अतीत के गर्व में खोई हुई हैं उन भाषाओं का भी अध्ययन इसके अन्तर्गत होता है।


भाषा-विज्ञान के अध्ययन के विभाग

विषय-विभाजन की दृष्टि से भाषाविज्ञान को भाषा-संरचना (व्याकरण) एवं 'अर्थ का अध्ययन' (semantics) में बांटा जाता है। इसमें भाषा का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विश्लेषण और वर्णन करने के साथ ही विभिन्न भाषाओं के बीच तुलनात्मक अध्ययन भी किया जाता है। भाषाविज्ञान के दो पक्ष हैं- तात्त्विक और व्यवहारिक।

तात्त्विक भाषाविज्ञान में भाषा का ध्वनिसम्भार (स्वरविज्ञान और ध्वनिविज्ञान (फ़ोनेटिक्स)), व्याकरण (वाक्यविन्यास व आकृति विज्ञान) एवं शब्दार्थ (अर्थविज्ञान) का अध्ययन किया जाता है।

व्यवहारिक भाषाविज्ञान में अनुवाद, भाषा शिक्षण, वाक-रोग निर्णय और वाक-चिकित्सा, इत्यादि आते हैं।
इसके अतिरिक्त भाषाविज्ञान का ज्ञान-विज्ञान की अन्यान्य शाखाओं के साथ गहरा संबंध है। इससे समाजभाषाविज्ञान, मनोभाषाविज्ञान, गणनामूलक भाषाविज्ञान (computational lingustics), आदि इसकी विभिन्न शाखाओं का विकास हुआ है। भाषाविज्ञान के गौण क्षेत्र निम्नलिखित हैं-

1. भाषा की उत्पत्ति : भाषा-विज्ञान का सबसे प्रथम, स्वाभाविक, महत्त्वपूर्ण किन्तु विचित्र प्रश्न भाषा की उत्पत्ति का है। इस पर विचार करके विद्वानों ने अनेक सिद्धान्तों का निर्माण किया है। यह एक अध्ययन का रोचक विषय है जो भाषा के जीवन के साथ जुड़ा हुआ है।
2. भाषाओं का वर्गीकरण : भाषा के प्राचीन विभाग (वाक्य, रूप, शब्द, ध्वनि एवं अर्थ) के आधार पर हम संसार भर की सभी भाषाओं का अध्ययन करके उन्हें विभिन्न कुलों या वर्गों में विभाजित करते हैं।
3. अन्य क्षेत्र : भाषा के अध्ययन के भाषा-भूगोल, भाषा-कालक्रम विज्ञान, भाषा पर आधारित प्रागैतिहासिक खोज, लिपि-विज्ञान, भाषा की प्रकृति, भाषा के विकास के कारण आदि अन्य अनेक क्षेत्र हैं।


तात्त्विक भाषाविज्ञान के प्रक्षेत्र


  • स्वनविज्ञान (Phonetics) : मानव के स्वर-यंत्र द्वारा उत्पन्न स्वनियों का अध्ययन
  • स्वनिमविज्ञान (Phonology) : किसी भाषा के स्वनिमों का अध्यन
  • रूपविज्ञान (morphology) : शब्दों के आन्तरिक संरचना का अध्ययन
  • वाक्यविन्यास या वाक्यविज्ञान (syntax) : वाक्य का निर्माण करने वाली शाब्दिक इकाइयों (lexical units) के बीच परस्पर सम्बन्धों का अध्ययन
  • अर्थविज्ञान (semantics) : शब्दों एवं कथनों के अर्थ का अध्ययन

शैली (style)

  • प्रायोगिक भाषाविज्ञान (pragmatics)

वाक्य-विज्ञान : भाषा में सारा विचार-विनिमय वाक्यों के आधार पर किया जाता है। भाषा-विज्ञान के जिस विभाग में इस पर विचार किया जाता है उसे वाक्य-विचार या वाक्य-विज्ञान कहते हैं। इसके तीन रूप हैं-

(१) वर्णनात्मक (descriptive)
(२) ऐतिहासक वाक्य-विज्ञान (Historical)
(३) तुलनात्मक वाक्य-विज्ञान (Comparative)
वाक्य-रचना का सम्बंध बोलनेवाले समाज के मनोविज्ञान से होता है। इसलिए भाषा-विज्ञान की यह शाखा बहुत कठिन है।

रूप-विज्ञान : वाक्य की रचना पदों या रूपों के आधार पर होती है। अतः वाक्य के बाद पद या रूप का विचार महत्त्वपूर्ण हो जाता है। रूप-विज्ञान के अन्तर्गत धातु, उपसर्ग, प्रत्यय आदि उन सभी उपकरणों पर विचार करना पड़ता है जिनसे रूप बनते हैं।

शब्द-विज्ञान : रूप या पद का आधार शब्द है। शब्दों पर रचना या इतिहास इन दो दृष्टियों से विचार किया जा सकता है। किसी व्यक्ति या भाषा का विचार भी इसके अन्तर्गत किया जाता है। कोश-निर्माण तथा व्युत्पत्ति-शास्त्र शब्द-विज्ञान के ही विचार-क्षेत्र की सीमा में आते हैं। भाषा के शब्द समूह के आधार पर बोलने वाले का सांस्कृतिक इतिहास जाना जा सकता है।

ध्वनि-विज्ञान : शब्द का आधार है ध्वनि। ध्वनि-विज्ञान के अन्तर्गत ध्वनियों का अनेक प्रकार से अध्ययन किया जाता है। इसके अन्तर्गत ध्वनि-शास्त्र (Phonetics) एक अलग से उपविभाग है जिसमें ध्वनि उत्पन्न करने वाले अंगों-मुख-विवर, नासिका-विवर, स्वर तंत्री, ध्वनि यंत्र के साथ-साथ सुनने की प्रक्रिया का भी अध्ययन किया जाता है। इस अध्ययन के दो रूप हैं-ऐतिहासिक और दूसरा तुलनात्मक। ग्रिम नियम का सम्बन्ध इसी से है।

अर्थ-विज्ञान : वाक्य का बाहरी अंग ध्वनि पर समाप्त हो जाता है यह भाषा का बाहरी कलेवर है इसके आगे उसकी आत्मा का क्षेत्र प्रारम्भ होता है जिसे हम अर्थ कहते हैं। अर्थ-रहित शब्द आत्मारहित शरीर की भाँति व्यर्थ होता है। अतः अर्थ भाषा का एक महत्त्वपूर्ण अंग होता है। अर्थ-विज्ञान में शब्दों के अर्थों का विकास तथा उसके कारणों पर विचार किया जाता है।


भाषाविज्ञान के अध्ययन की पद्धतियाँ अथवा प्रकार

किसी भी अध्ययन को हम वैज्ञानिक तब कहते हैं जब उसमें एक निश्चित प्रक्रिया को अपना कर चलते हैं। भाषा विज्ञान भी किसी भाषा के कारण-कार्यपरक युक्तिपूर्ण विवेचन-विश्लेषण के लिए कुछ निश्चित प्रक्रियाओं में बंध कर चलता है। इन्हीं प्रक्रियाओं के आधार पर अभी तक भाषा-विज्ञान के पाँच प्रकार के अध्ययन हमें प्राप्त होते हैं-

सामान्यतया भाषा का अध्ययन निम्नांकित दृष्टियों से किया जाता है :


वर्णनात्मक पद्धति

वर्णात्मक पद्धति द्वारा एक ही काल की किसी एक भाषा के स्वरूप का विश्लेषण किया जाता है। इसके लिए इसमें उन सिद्धांतों पर प्रकाश डाला जाता, जिनके आधार पर भाषा-विशेष की रचनागत विशेषताओँ को स्पष्ट किया जा सके। ध्यातव्य है कि इस पद्धति में एक साथ विभिन्न कालों को भाषा का समावेश नहीं किया जा सकता, क्योंकि हर काल की भाषा के विश्लेषण के लिए पृथक्-पृथक् सिद्धांतों का प्रयोजन पड़ेगा।

पाणिनि न केवल भारत के, अपितु संसार के सबसे बड़े भाषाविज्ञानी हैं, जिन्होंने वर्णनात्मक रूप में भाषा का विशद एवं व्यापक अध्ययन किया। कात्यायन एवं पतंजलि भी इसी कोटि में आते हैं। ग्रीक विद्वानों में थ्रैक्स, डिस्कोलस तथा इरोडियन ने भी इस क्षेत्र में उल्लेख्य कार्य किया था।

पाणिनि से पूर्ण प्रभावित होकर ब्लूमफील्ड (अमरीका) ने सन् १९३२ ई. में 'लैंग्वेज' नामक अपना ग्रन्थ प्रकाशित करवाकर वर्णनात्मक भाषाविज्ञान के विकास का मार्ग प्रशस्त किया। इधर पश्चिमी देशों - विशेषकर अमरीका में वर्णनात्मक भाषाविज्ञान का आशातीत विकास हुआ है।


ऐतिहासिक पद्धति या कालक्रमिक पद्धति (diachronic linguistics)

किसी भाषा मे विभिन्न कालों में परिवर्तनों पर विचार करना एवं उन परिवर्तनों के सम्बन्ध में सिद्धांतो का निर्माण ही ऐतिहासिक भाषाविज्ञान (Historical linguistics) का उद्देश्य होता है। वर्णनात्मक पद्धति का मूल अन्तर यह है कि वर्णनात्मक पद्धति जहाँ एककालिक है, वहाँ ऐतिहासिक पद्धति द्विकालिक।

संकृत भाषा की प्राचीनता ने ऐतिहासिक पद्धति की ओर भाषाविज्ञानियों का ध्यान आकृष्ट किया। 'फिलॉलोजी' का मुख्य प्रतिपाद्य प्राचीन ग्रन्थों की भाषाओं का तुलनातमक अध्ययन ही था। मुख्यतः संस्कृत, जर्मन, ग्रीक, लॉतिन जैसी भाषाओं पर ही विद्वानों का ध्यान केन्द्रित रहा। फ्रेडरिक औगुस्ट वुल्फ ने सन् १७७७ ई. में ही ऐतिहासिक पद्धति की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया था।

वस्तुतः, किसी भी भाषा के विकासात्मक रूप को समझने के लिए ऐतिहासिक पद्धति का सहारा लेंना ही पड़ेगा। पुरानी हिन्दी अथवा मध्यकालीन हिन्दी और आधुनिक हिन्दी में क्या परिवर्तन हुआ है, इसे ऐतिहासिक पद्धति द्वारा ही स्पष्ट किया जा सकता है।


तुलनात्मक पद्धति

तुलनात्मक पद्धति द्वारा दो या दो से अधिक भाषाओं की तुलना की जाती है। इसे मिश्रित पद्धति भी कह सकते हैं, क्योंकि विवरणात्मक पद्धति तथा ऐतिहासिक पद्धति दोनों का आधार लिया जाता है। विवरण के लिए किसी एक काल को निश्चित करना होता है और तुलना के लिए कम-से-कम दो भाषाओं की अपेक्षा होती है। इस प्रकार, तुलनात्मक पद्धति को वर्णनात्मक पद्धति और ऐतिहासिक पद्धति का योग कहा जा सकता है। तुलनात्मक पद्धति किन्हीं दो भाषाओं पर लागू हो सकती है। जैसे, भारतीय भाषाओं - भोजपुरी आदि में भी परस्पर तुलना की जाती है या फिर हिन्दी-अंगरेजी, हिन्दी-रूसी, हिन्दी-फारसी का भी तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है। अर्थात् इसमें क्षेत्रगत सीमा नहीं है।

विलियम जोन्स (१७४६-१७९४तक), फ्रांस बॉप्प (१७९१-१८६७), मैक्समूलर (१८२३-१९००), कर्टिअस (१८२०-१८८५), औगुस्ट श्लाइखर (१८२३-१८६८) प्रभृति विद्वानों ने तुलनात्मक भाषाविज्ञान के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। पर, अबतक तुलनात्मक भाषाविज्ञान में उन सिद्धांतों की बड़ी कमी है, जिनके आधार पर दो भिन्न भाषाओं का वर्गीकरण वैज्ञानिक नहीं बन सका।


संरचनात्मक (गठनात्मक) पद्धति

संरचनात्मक पद्धति वर्णनात्मक पद्धति की अगली कड़ी है। अमरीका में इस पद्धति का विशेष प्रचार हो रहा है। इसमें यांत्रिक उपकरणों को अधिक महत्त्व दिया जा रहा है, जिससे अनुवाद करने में विशेष सुविधा होगी। जैलिग हैरिस ने 'मेथेड्स इन स्ट्रक्चरल लिंग्युस्टिक्स ' नामक पुस्तक लिखकर इस पद्धति को विकसित किया।

भाषाविज्ञान का प्रयोगात्मक पक्ष

विज्ञान की अन्य शाखाओं के समान भाषाविज्ञान के भी प्रयोगात्मक पक्ष हैं, जिनके लिये प्रयोग की प्रणालियों और प्रयोगशाला की अपेक्षा होती है। भिन्न-भिन्न यांत्रिक प्रयोगों के द्वारा उच्चारणात्मक स्वनविज्ञान (articulatory phonetics), भौतिक स्वनविज्ञान (acoustic phonetics) और श्रवणात्मक स्वनविज्ञान (auditory phonetics) का अध्ययन किया जाता है। इसे प्रायोगिक स्वनविज्ञान, यांत्रिक स्वनविज्ञान या प्रयोगशाला स्वनविज्ञान भी कहते हैं। इसमें दर्पण जैसे सामान्य उपकरण से लेकर जटिलतम वैद्युत उपकरणों का प्रयोग हो रहा है। परिणामस्वरूप भाषाविज्ञान के क्षेत्र में गणितज्ञों, भौतिकशास्त्रियों और इंजीनियारों का पूर्ण सहयोग अपेक्षित हो गया है। कृत्रिम तालु और कृत्रिम तालु प्रोजेक्टर की सहायता से व्यक्तिविशेष के द्वारा उच्चारित स्वनों के उच्चारण स्थान की परीक्षा की जाती है। कायमोग्राफ स्वानों का घोषणत्व और प्राणत्व निर्धारण करने अनुनासिकता और कालमात्रा जानने के लिये उपयोगी है।

लैरिंगो स्कोप से स्वरयंत्र (काकल) की स्थिति का अध्ययन किया जाता है। एंडोस्कोप लैरिंगोस्कोप का ही सुधरा रूप है। ऑसिलोग्राफ की तरंगें स्वनों के भौतिक स्वरूप को पर्दे पर या फिल्म पर अत्यंत स्पष्टता से अंकित कर देती है। यही काम स्पेक्टोग्राफ या सोनोग्राफ द्वारा अधिक सफलता से किया जाता है। स्पेक्टोग्राफ जो चित्र प्रस्तुत करता है उन्हें पैटर्न प्लेबैक द्वारा फिर से सुना जा सकता है। स्पीचस्ट्रेचर की सहायता से रिकार्ड की हुई सामग्री को धीमी गति से सुना जा सकता है। इनके अतिरिक्त और भी छोटे बड़े यंत्र हैं, जिनसे भाषावैज्ञानिक अध्ययन में पर्याप्त सहायता ली जा रही है।

फ्रांसीसी भाषावैज्ञानिकों में रूइयो ने स्वनविज्ञान के प्रयोगों के विषय में (Principes phonetique experiment, Paris, 1924) ग्रंथ लिखा था। लंदन में प्रो॰ फर्थ ने विशेष तालुयंत्र का विकास किया। स्वरों के मापन के लिये जैसे स्वरत्रिकोण या चतुष्कोण की रेखाएँ निर्धारित की गई हैं, वैसे ही इन्होंने व्यंजनों के मापन के लिये आधार रेखाओं का निरूपण किया, जिनके द्वारा उच्चारण स्थानों का ठीक ठीक वर्णन किया जा सकता है। डेनियल जांस और इडा वार्ड ने भी अंग्रेजी स्वनविज्ञान पर महत्वपूर्ण कार्य किया है। फ्रांसीसी, जर्मन और रूसी भाषाओं के स्वनविज्ञान पर काम करने वालों में क्रमश: आर्मस्ट्राँग, बिथेल और बोयानस मुख्य हैं। सैद्धांतिक और प्रायोगिक स्वनविज्ञान पर समान रूप से काम करनेवाले व्यक्तियों में निम्नलिखित मुख्य हैं: स्टेटसन (मोटर फोनेटिक्स 1928), नेगस (द मैकेनिज्म ऑव दि लेरिंग्स,1919) पॉटर, ग्रीन और कॉप (विजिबुल स्पीच), मार्टिन जूस (अकूस्टिक फोनेटिक्स, 1948), हेफनर (जनरल फोनेटिक्स 1948), मौल (फंडामेंटल्स ऑव फोनेटिक्स, 1963) आदि।

इधर एक नया यांत्रिक प्रयास आरंभ हुआ है जिसका संबंध शब्दावली, अर्थतत्व तथा व्याकरणिक रूपों से है। यांत्रिक अनुवाद के लिए वैंद्युत कम्प्यूटरों का उपयोग वैज्ञानिक युग की एक विशेष देन है। यह अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान का अत्यंत रोचक और उपादेय विषय है।




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