विधि (Law)
विधि (कानून) किसी नियमसंहिता को कहते हैं। विधि प्रायः भलीभांति लिखी हुई संसूचकों (इन्स्ट्रक्शन्स) के रूप में होती है। समाज को सम्यक ढंग से चलाने के लिये विधि अत्यन्त आवश्यक है।
विधि मनुष्य का आचरण के वे सामान्य नियम होते है जो राज्य द्वारा स्वीकृत तथा लागू किये जाते है, जिनका पालन अनिवार्य होता है। पालन न करने पर न्यायपालिका दण्ड देती है। कानूनी प्रणाली कई तरह के अधिकारों और जिम्मेदारियों को विस्तार से बताती है।
विधि शब्द अपने आप में ही विधाता से जुड़ा हुआ शब्द लगता है। आध्यात्मिक जगत में 'विधि के विधान' का आशय 'विधाता द्वारा बनाये हुए कानून' से है। जीवन एवं मृत्यु विधाता के द्वारा बनाया हुआ कानून है या विधि का ही विधान कह सकते है। सामान्य रूप से विधाता का कानून, प्रकृति का कानून, जीव-जगत का कानून एवं समाज का कानून। राज्य द्वारा निर्मित विधि से आज पूरी दुनिया प्रभावित हो रही है। राजनीति आज समाज का अनिवार्य अंग हो गया है। समाज का प्रत्येक जीव कानूनों द्वारा संचालित है।
आज समाज में भी विधि के शासन के नाम पर दुनिया भर में सरकारें नागरिकों के लिये विधि का निर्माण करती है। विधि का उदेश्य समाज के आचरण को नियमित करना है। अधिकार एवं दायित्वों के लिये स्पष्ट व्याख्या करना भी है साथ ही समाज में हो रहे अनैकतिक कार्य या लोकनीति के विरूद्ध होने वाले कार्यो को अपराध घोषित करके अपराधियों में भय पैदा करना भी अपराध विधि का उदेश्य है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1945 से लेकर आज तक अपने चार्टर के माध्यम से या अपने विभिन्न अनुसांगिक संगठनो के माध्यम से दुनिया के राज्यो को व नागरिकों को यह बताने का प्रयास किया कि बिना शांति के समाज का विकास संभव नहीं है परन्तु शांति के लिये सहअस्तित्व एवं न्यायपूर्ण दृष्टिकोण ही नहीं आचरण को जिंदा करना भी जरूरी है। न्यायपूर्ण समाज में ही शांति, सदभाव, मैत्री, सहअस्तित्व कायम हो पाता है।
परिचय
कानून या विधि का मतलब है मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित और संचालित करने वाले नियमों, हिदायतों, पाबंदियों और हकों की संहिता। लेकिन यह भूमिका तो नैतिक, धार्मिक और अन्य सामाजिक संहिताओं की भी होती है। दरअसल, कानून इन संहिताओं से कई मायनों में अलग है। पहली बात तो यह है कि कानून सरकार द्वारा बनाया जाता है लेकिन समाज में उसे सभी के ऊपर समान रूप से लागू किया जाता है। दूसरे, ‘राज्य की इच्छा’ का रूप ले कर वह अन्य सभी सामाजिक नियमों और मानकों पर प्राथमिकता प्राप्त कर लेता है। तीसरे, कानून अनिवार्य होता है अर्थात् नागरिकों को उसके पालन करने के चुनाव की स्वतंत्रता नहीं होती। पालन न करने वाले के लिए कानून में दण्ड की व्यवस्था होती है। लेकिन, कानून केवल दण्ड ही नहीं देता। वह व्यक्तियों या पक्षों के बीच अनुबंध करने, विवाह, उत्तराधिकार, लाभों के वितरण और संस्थाओं को संचालित करने के नियम भी मुहैया कराता है। कानून स्थापित सामाजिक नैतिकताओं की पुष्टि की भूमिका भी निभाता है। चौथे, कानून की प्रकृति ‘सार्वजनिक’ होती है क्योंकि प्रकाशित और मान्यता प्राप्त नियमों की संहिता के रूप में उसकी रचना औपचारिक विधायी प्रक्रियाओं के ज़रिये की जाती है। अंत में कानून में अपने अनुपालन की एक नैतिक बाध्यता निहित है जिसके तहत वे लोग भी कानून का पालन करने के लिए मजबूर होते हैं जिन्हें वह अन्यायपूर्ण लगता है।
राजनीतिक व्यवस्था चाहे लोकतांत्रिक हो या अधिनायकवादी, उसे कानून की किसी न किसी संहिता के आधार पर चलना पड़ता है। लेकिन, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में बदलते समय के साथ अप्रासंगिक हो गये या न्यायपूर्ण न समझे जाने वाले कानून को रद्द करने और उसकी जगह नया बेहतर कानून बनाने की माँग करने का अधिकार होता है। कानून की एक उल्लेखनीय भूमिका समाज को संगठित शैली में चलाने के लिए नागरिकों को शिक्षित करने की भी मानी जाती है। शुरुआत में राजनीतिशास्त्र के केंद्र में कानून का अध्ययन ही था। राजनीतिक दार्शनिक विधि के सार और संरचना के सवाल पर ज़बरदस्त बहसों में उलझे रहे हैं। कानून के विद्वानों को मानवशास्त्र, राजनीतिक अर्थशास्त्र, नैतिकशास्त्र और विधायी मूल्य-प्रणाली का अध्ययन भी करना पड़ता है।
कानून को रद्द करने और उसकी जगह नया बेहतर कानून बनाने की माँग करने का अधिकार होता है। कानून की एक उल्लेखनीय भूमिका समाज को संगठित शैली में चलाने के लिए नागरिकों को शिक्षित करने की भी मानी जाती है। शुरुआत में राजनीतिशास्त्र के केंद्र में कानून का अध्ययन ही था। राजनीतिक दार्शनिक विधि के सार और संरचना के सवाल पर ज़बरदस्त बहसों में उलझे रहे हैं। कानून के विद्वानों को मानवशास्त्र, राजनीतिक अर्थशास्त्र, नैतिकशास्त्र और विधायी मूल्य-प्रणाली का अध्ययन भी करना पड़ता है।
संविधानसम्मत आधार पर संचालित होने वाले उदारतावादी लोकतंत्रों में ‘कानून के शासन’ की धारणा प्रचलित होती है। इन व्यवस्थाओं में कानून के दायरे के बाहर कोई काम नहीं करता, न व्यक्ति और न ही सरकार। इसके पीछे कानून का उदारतावादी सिद्धांत है जिसके अनुसार कानून का उद्देश्य व्यक्ति पर पाबंदियाँ लगाना न हो कर उसकी स्वतंत्रता की गारंटी करना है। उदारतावादी सिद्धांत मानता है कि कानून के बिना व्यक्तिगत आचरण को संयमित करना नामुमकिन हो जाएगा और एक के अधिकारों को दूसरे के हाथों हनन से बचाया नहीं जा सकेगा। इस प्रकार जॉन लॉक की भाषा में कानून का मतलब है जीवन, स्वतंत्रता और सम्पत्ति की रक्षा के लिए कानून। उदारतावादी सिद्धांत स्पष्ट करता है कि कानून के बनाने और लागू करने के तरीके कौन-कौन से होने चाहिए। उदाहरणार्थ, कानून निर्वाचित विधिकर्त्ताओं द्वारा आपसी विचार-विमर्श के द्वारा किया जाना चाहिए। दूसरे, कोई कानून पिछली तारीख़ से लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि उस सूरत में वह नागरिकों को उन कामों के लिए दण्डित करेगा जो तत्कालीन कानून के मुताबिक किये गये थे। इसी तरह उदारतावादी कानून क्रूर और अमानवीय किस्म की सज़ाएँ देने के विरुद्ध होता है। राजनीतिक प्रभावों से निरपेक्ष रहने वाली एक निष्पक्ष न्यायपालिका की स्थापना की जाती है ताकि कानून की व्यवस्थित व्याख्या करते हुए पक्षकारों के बीच उसके आधार पर फ़ैसला हो सके। मार्क्सवादियों की मान्यता है कि कानून के शासन की अवधारणा व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी करने के नाम पर सम्पत्ति संबंधी अधिकारों की रक्षा करते हुए पूँजीवादी व्यवस्था की सुरक्षा के काम आती है। इसका नतीजा सामाजिक विषमता और वर्गीय प्रभुत्व को बनाये रखने में निकलता है। मार्क्स कानून को राजनीति और विचारधारा की भाँति उस सुपरस्ट्रक्चर या अधिरचना का हिस्सा मानते हैं जिसका बेस या आधार पूँजीवादी उत्पादन की विधि पर रखा जाता है। नारीवादियों ने भी कानून के शासन की अवधारणा की आलोचना की है कि वह लैंगिक निष्पक्षता पर आधारित नहीं है। इसीलिए न्यायपालिका और कानून के पेशे पर पुरुषों का कब्ज़ा रहता है। बहुसंस्कृतिवाद के पैरोकारों का तर्क है कि कानून असल में प्रभुत्वशाली सांस्कृतिक समूहों के मूल्यों और रवैयों की नुमाइंदगी ही करता है। परिणामस्वरूप अल्पसंख्यक और हाशियाग्रस्त समूहों के मूल्य और सरोकार नज़रअंदाज़ किये जाते रहते हैं।
कानून और नैतिकता के बीच अंतर के सवाल पर दार्शनिक शुरू से ही सिर खपाते रहे हैं। कानून का आधार नैतिक प्रणाली में मानने वालों का विश्वास ‘प्राकृतिक कानून’ के सिद्धांत में है। प्लेटो और उनके बाद अरस्तू की मान्यता थी कि कानून और नैतिकता में नज़दीकी रिश्ता होता है। एक न्यायपूर्ण समाज वही हो सकता है जिसमें कानून नैतिक नियमों पर आधारित प्रज्ञा की पुष्टि करते हों। मध्ययुगीन ईसाई विचारक थॉमस एक्विना भी मानते थे कि इस धरती पर उत्तम जीवन व्यतीत करने के लिए नेचुरल लॉ यानी ईश्वर प्रदत्त नैतिकताओं के मुताबिक कानून होने चाहिए। उन्नीसवीं सदी में बुद्धिवाद और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा बढ़ने के कारण प्राकृतिक कानून का सिद्धांत निष्प्रभावी होता चला गया। कानून को नैतिक, धार्मिक और रहस्यवादी मान्यताओं से मुक्त करने की कोशिशें हुईं। जॉन आस्टिन ने ‘विधिक प्रत्यक्षतावाद’ की स्थापना की जिसका दावा था कि कानून का सरोकार किसी उच्चतर नैतिक या धार्मिक उसूल से न हो कर किसी सम्प्रभु व्यक्ति या संस्था से होता है। कानून इसलिए कानून है कि उसका पालन करवाया जाता है और करना पड़ता है। विधिक प्रत्यक्षतावाद की कहीं अधिक व्यावहारिक और नफ़ीस व्याख्या एच.एल.ए. हार्ट की रचना 'द कंसेप्ट ऑफ़ लॉ' (1961) में मिलती है। हार्ट कानून को नैतिक नियमों के दायरे से निकाल कर मानव समाज के संदर्भ में परिभाषित करते हैं। उनके मुताबिक कानून प्रथम और द्वितीयक नियमों का संयोग है। प्रथम श्रेणी के नियमों को 'कानून के सार' की संज्ञा देते हुए हार्ट कहते हैं कि उनका सम्बन्ध सामाजिक व्यवहार के विनियमन से है। जैसे, फ़ौजदारी कानून।
द्वितीय श्रेणी के नियम सरकारी संस्थाओं को हिदायत देते हैं कि कानून किस तरह बनाया जाए, उनका किस तरह कार्यान्वयन किया जाए, किस तरह उसके आधार पर फ़ैसले किये जाएँ और इन आधारों पर किस को हिदायत देते हैं कि कानून किस तरह बनाया जाए, उनका किस तरह कार्यान्वयन किया जाए, किस तरह उसके आधार पर फ़ैसले किये जाएँ और इन आधारों पर किस तरह उसकी वैधता स्थापित की जाए। हार्ट द्वारा प्रतिपादित विधिक प्रत्यक्षतावाद के सिद्धांत की आलोचना राजनीतिक दार्शनिक रोनॉल्ड ड्वॅर्किन ने की है। उनके अनुसार कानून केवल नियमों की संहिता ही नहीं होता और न ही आधुनिक विधि प्रणालियाँ कानून की वैधता स्थापित करने के लिए किसी एक समान तरीके का प्रावधान करती हैं।
कानून और नैतिकता के बीच संबंध की बहस नाज़ियों के अत्याचारों को दण्डित करने वाले न्यूरेम्बर्ग मुकदमे में भी उठी थी। प्रश्न यह था कि क्या उन कामों को अपराध ठहराया जा सकता है जो राष्ट्रीय कानून के मुताबिक किये गये हों? इसके जवाब के लिए प्राकृतिक कानून की अवधारणा का सहारा लिया गया, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति मानवाधिकारों की भाषा में हुई। दरअसल कानून और नैतिकता के रिश्ते का प्रश्न बेहद जटिल है और गर्भपात, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफ़ी, टीवी और फ़िल्मों में दिखाई जाने वाली हिंसा, अपनी कोख किराए पर देने वाली माताओं और जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसे मसलों के सदंर्भ में बार-बार उठती रहती है।
प्रकार
विधि के दो प्रकार हैं-
(1) मौलिक विधि- विधि जो कर्तव्य व अधिकारों की परिभाषा दे।
(2) प्रक्रिया विधि- विधि जो कार्यवाही के प्रक्रमों (प्रोसीजर्स) को निर्धारण करे।
कौनसी विधियाँ, प्रक्रिया हैं-
(क) दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973,
(ख) सिविल प्रक्रिया संहिता 1908,
(ग) भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 आदि प्रक्रिया विधि हैं।
मौलिक विधियाँ निम्न हैं-
(क) भारतीय संविदा अधिनियम,
(ख) भारतीय दण्ड संहिता 1860,
(ग) सम्पत्ति हस्तान्तरण अधिनियम 1882 आदि।
न्यायशास्त्र कानून (विधि) का सिद्धांत और दर्शन है। न्यायशास्त्र के विद्वान अथवा कानूनी दार्शनिक, विधि (कानून) की प्रवृति, कानूनी तर्क, कानूनी प्रणालियां एवं कानूनी संस्थानों का गहन ज्ञान पाने की उम्मीद रखते हैं। आधुनिक न्यायशास्त्र की शुरुआत 18वीं सदी में हुई और प्राकृतिक कानून, नागरिक कानून तथा राष्ट्रों के कानून के सिद्धांतों पर सर्वप्रथम अधिक ध्यान केन्द्रित किया गया। साधारण अथवा सामान्य न्यायशास्त्र को प्रश्नों के प्रकार के द्वारा उन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है अथवा इन प्रश्नों के सर्वोत्तम उत्तर कैसे दिए जायं इस बारे में न्यायशास्त्र के सिद्धांतों अथवा विचारधाराओं के स्कूलों दोनों ही तरीकों से पता लगाकर जिनकी चर्चा विद्वान करना चाहते हैं। कानून का समकालीन दर्शन, जो सामान्य न्यायशास्त्र से संबंधित हैं, समस्याओं की चर्चा मोटे तौर पर दो वर्गों में करता है:
1.) कानून की आंतरिक समस्याएं तथा उसी रूप में न्यायिक प्रणाली
2.) एक विशिष्ट सामाजिक संस्था के रूप में कानून की समस्याएं जैसा कि यह व्यापक राजनीतिक एवं सामाजिक स्थिति को निर्दिष्ट करती है जिसमें यह विद्यमान है।
इन प्रश्नों के उत्तर सामान्य न्याय शास्त्र की विचारधारा के चार प्राथमिक केन्द्रों से मिलते हैं:
कानून के समकालीन दार्शनिक रोनॉल्ड डोर्किन का अध्ययन भी गौरतलब है जिन्होनें न्यायशास्त्र के रचनावादी सिद्धांत की वकालत की है जिसे प्राकृतिक कानून के सिद्धांतों एवं सामान्य न्यायशास्त्र के वस्तुनिष्ठवादी सिद्धांतों के मध्य-मार्ग के रूप में विशेष रूप से चिन्हित किया जा सकता है।
इंग्लिश शब्दावली लैटिन शब्द ज्युरिस्प्रुडेंशिया पर आधारित (व्युत्पन्न) है: ज्यूरिस (juris) जूस (jus) का संबंधकारक (षष्ठी) है जिसका अर्थ है "कानून" एवं प्रुडेंशिया का अर्थ है "ज्ञान". यह शब्द इंग्लिश में सन 1628 में सर्वप्रथम साक्ष्यांकित हुआ[6], ठीक ऐसे समय में जबकि "प्रुडेंश " शब्द का अर्थ "ज्ञान अथवा किसी मामले में प्रवीन दिमाग" अब अप्रचलित हो गया था। हो सकता कि यह शब्द फ्रेंच के ज्यूरिसप्रूडेंस के जरिए आया हो, जो कि पहले से साक्ष्यांकित है।
न्यायशास्त्र का इतिहास
प्राचीन रोम में न्यायशास्त्र अपने इसी अर्थ में विद्यमान था, यद्यपि अपने उद्भव काल में ही यह विषय मॉस मायोरम (पारंपरिक कानून) के जूस एक पेरिटी थी, मौखिक कानून और रीति-रिवाजों की एक संस्था जिसमें "पिता द्वारा पुत्र को" ये कानून और रीति-रिवाज मौखिक तरीके से प्रेषित दिए जाते थे। प्रेटर्स प्राचीन रोमन सामाज्य में निर्वाहित सरकारी न्यायाधीश इस बात का फैसला करते हुए कि क्या एकक मामले एडिक्टों (घोषणा पत्र), मुकदमा चलाये जाने योग्य मामलों की वार्षिक घोषणा के अनुसार अथवा, असाधारण परिस्थितियों में वार्षिक धारणा-पत्र (एडिक्ट) में अतिरिक्त नियम अंतर्भुक्त कर कानून की कार्यकारी संस्था की स्थापना करते थे। तत्पश्चात एक आयुडेक्स (न्यायाधीश के लिए लैटिन नाम) मामले के तथ्यों के अनुसार निदान कर निर्णय करता था।
ऐसी आशा की जाती थी कि उनके वाक्य पारंपरिक प्रथाओं की सरल व्याख्या होनी चाहिए, किन्तु प्रभावी रूप से यह एक ऐसी गतिविधि थी कि मोटे तौर पर कानूनी रीति-रिवाज में परंपरागत तरीके से प्रत्येक मामले पर औपचारिक ढंग से पुनर्विचार करने के अलावा शीघ्र ही नए सामाजिक दृष्टान्तों के आधार पर सामंजस्यपूर्ण ढंग से अनुकूल तरीके से रूपांतरित कर न्यायसंगत व्याख्या बन गई। यह कानून तब नई विकासवादी संस्थानों (क़ानूनी अवधारणाओं) के जरिये लागू कर दिया गया, जबकि यह पारंपरिक परिकल्पना के अनुसार ही बरकरार रहा. प्रेयटर्स (निर्वाचित न्यायाधीश) को ईसापूर्व तीसरी सदी में प्रुडेंट्स के अयाजकीय (जिन्हें याजकवर्ग से बाहर निकाल दिया जाता था) निकाय द्वारा प्रतिस्थापित कर दिए गए। इस निकाय में प्रवेश योग्यता अथवा अनुभव के प्रमाण के आधार पर शर्त सापेक्ष था।
प्राचीन भारतीय वैदिक समाज में, कानून अथवा धर्म, जिसका अनुपालन हिन्दुओं द्वारा किया जाता था, मनु-स्मृति के द्वारा प्रतिपादित था, जो पाप और उसके निराकार के उपायों को परिभाषित करने वाला एक काव्य-संग्रह है। ऐसा कहा जाता है कि इनकी रचना 200 ईसापूर्व से 200 ईस्वीसन के मध्य हुई है। वास्तव में, ये कानून की संहिताएं नहीं हैं किन्तु सामाजिक दायित्वों के प्रति उस युग की कुछ आवश्यक मान्यताएं हैं।
रोमन साम्राज्य के अंतर्गत, कानून के स्कूलों की स्थापना हुई और गतिविधियां लगातार अधिक से अधिक शैक्षणिक (अकादमिक) होती गई। रोमन साम्राज्य के आरंभिक युग से तीसरी शताब्दी के मध्य, कुछ उल्लेखनीय वर्गों द्वारा जिनमें प्रोकुलियंस एवं साविनियंस शामिल थे, एक प्रासंगिक साहित्य की रचना हुई. अध्ययनों की वैज्ञानिक गंभीरता का परिमाण प्राचीनकाल के हिसाब से अभूतपूर्व था तथा बौद्धिक पराकाष्ठा की अनुपम ऊंचाई पर पहुंच गया।
तीसरी सदी के बाद, ज्यूरिस प्रुडेंशिया (न्यायपालिका) अधिक आधिकारिकतंत्रिका गतिविधि हो गई जिसके कुछ उल्लेखनीय लेखक हैं। बाइजेंटाइन साम्राज्य (5वीं सदी) के दौरान, कानूनी अध्ययनों को एक बार फिर गंभीरता से लिया गया और इसी सांस्कृतिक आंदोलन से ही जस्टीनियम के कॉर्पस जूरिस सिविल्स का जन्म हुआ।
दोस्तों आपको यह आर्टिकल कैसा लगा हमें जरुर बताये. आप अपनी राय, सवाल और सुझाव हमें comments के जरिये जरुर भेजे. अगर आपको यह आर्टिकल उपयोगी लगा हो तो कृपया इसे share करे।
आप E-mail के द्वारा भी अपना सुझाव दे सकते हैं। prakashgoswami03@gmail.com
विधि (कानून) किसी नियमसंहिता को कहते हैं। विधि प्रायः भलीभांति लिखी हुई संसूचकों (इन्स्ट्रक्शन्स) के रूप में होती है। समाज को सम्यक ढंग से चलाने के लिये विधि अत्यन्त आवश्यक है।
विधि मनुष्य का आचरण के वे सामान्य नियम होते है जो राज्य द्वारा स्वीकृत तथा लागू किये जाते है, जिनका पालन अनिवार्य होता है। पालन न करने पर न्यायपालिका दण्ड देती है। कानूनी प्रणाली कई तरह के अधिकारों और जिम्मेदारियों को विस्तार से बताती है।
विधि शब्द अपने आप में ही विधाता से जुड़ा हुआ शब्द लगता है। आध्यात्मिक जगत में 'विधि के विधान' का आशय 'विधाता द्वारा बनाये हुए कानून' से है। जीवन एवं मृत्यु विधाता के द्वारा बनाया हुआ कानून है या विधि का ही विधान कह सकते है। सामान्य रूप से विधाता का कानून, प्रकृति का कानून, जीव-जगत का कानून एवं समाज का कानून। राज्य द्वारा निर्मित विधि से आज पूरी दुनिया प्रभावित हो रही है। राजनीति आज समाज का अनिवार्य अंग हो गया है। समाज का प्रत्येक जीव कानूनों द्वारा संचालित है।
आज समाज में भी विधि के शासन के नाम पर दुनिया भर में सरकारें नागरिकों के लिये विधि का निर्माण करती है। विधि का उदेश्य समाज के आचरण को नियमित करना है। अधिकार एवं दायित्वों के लिये स्पष्ट व्याख्या करना भी है साथ ही समाज में हो रहे अनैकतिक कार्य या लोकनीति के विरूद्ध होने वाले कार्यो को अपराध घोषित करके अपराधियों में भय पैदा करना भी अपराध विधि का उदेश्य है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1945 से लेकर आज तक अपने चार्टर के माध्यम से या अपने विभिन्न अनुसांगिक संगठनो के माध्यम से दुनिया के राज्यो को व नागरिकों को यह बताने का प्रयास किया कि बिना शांति के समाज का विकास संभव नहीं है परन्तु शांति के लिये सहअस्तित्व एवं न्यायपूर्ण दृष्टिकोण ही नहीं आचरण को जिंदा करना भी जरूरी है। न्यायपूर्ण समाज में ही शांति, सदभाव, मैत्री, सहअस्तित्व कायम हो पाता है।
परिचय
कानून या विधि का मतलब है मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित और संचालित करने वाले नियमों, हिदायतों, पाबंदियों और हकों की संहिता। लेकिन यह भूमिका तो नैतिक, धार्मिक और अन्य सामाजिक संहिताओं की भी होती है। दरअसल, कानून इन संहिताओं से कई मायनों में अलग है। पहली बात तो यह है कि कानून सरकार द्वारा बनाया जाता है लेकिन समाज में उसे सभी के ऊपर समान रूप से लागू किया जाता है। दूसरे, ‘राज्य की इच्छा’ का रूप ले कर वह अन्य सभी सामाजिक नियमों और मानकों पर प्राथमिकता प्राप्त कर लेता है। तीसरे, कानून अनिवार्य होता है अर्थात् नागरिकों को उसके पालन करने के चुनाव की स्वतंत्रता नहीं होती। पालन न करने वाले के लिए कानून में दण्ड की व्यवस्था होती है। लेकिन, कानून केवल दण्ड ही नहीं देता। वह व्यक्तियों या पक्षों के बीच अनुबंध करने, विवाह, उत्तराधिकार, लाभों के वितरण और संस्थाओं को संचालित करने के नियम भी मुहैया कराता है। कानून स्थापित सामाजिक नैतिकताओं की पुष्टि की भूमिका भी निभाता है। चौथे, कानून की प्रकृति ‘सार्वजनिक’ होती है क्योंकि प्रकाशित और मान्यता प्राप्त नियमों की संहिता के रूप में उसकी रचना औपचारिक विधायी प्रक्रियाओं के ज़रिये की जाती है। अंत में कानून में अपने अनुपालन की एक नैतिक बाध्यता निहित है जिसके तहत वे लोग भी कानून का पालन करने के लिए मजबूर होते हैं जिन्हें वह अन्यायपूर्ण लगता है।
राजनीतिक व्यवस्था चाहे लोकतांत्रिक हो या अधिनायकवादी, उसे कानून की किसी न किसी संहिता के आधार पर चलना पड़ता है। लेकिन, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में बदलते समय के साथ अप्रासंगिक हो गये या न्यायपूर्ण न समझे जाने वाले कानून को रद्द करने और उसकी जगह नया बेहतर कानून बनाने की माँग करने का अधिकार होता है। कानून की एक उल्लेखनीय भूमिका समाज को संगठित शैली में चलाने के लिए नागरिकों को शिक्षित करने की भी मानी जाती है। शुरुआत में राजनीतिशास्त्र के केंद्र में कानून का अध्ययन ही था। राजनीतिक दार्शनिक विधि के सार और संरचना के सवाल पर ज़बरदस्त बहसों में उलझे रहे हैं। कानून के विद्वानों को मानवशास्त्र, राजनीतिक अर्थशास्त्र, नैतिकशास्त्र और विधायी मूल्य-प्रणाली का अध्ययन भी करना पड़ता है।
कानून को रद्द करने और उसकी जगह नया बेहतर कानून बनाने की माँग करने का अधिकार होता है। कानून की एक उल्लेखनीय भूमिका समाज को संगठित शैली में चलाने के लिए नागरिकों को शिक्षित करने की भी मानी जाती है। शुरुआत में राजनीतिशास्त्र के केंद्र में कानून का अध्ययन ही था। राजनीतिक दार्शनिक विधि के सार और संरचना के सवाल पर ज़बरदस्त बहसों में उलझे रहे हैं। कानून के विद्वानों को मानवशास्त्र, राजनीतिक अर्थशास्त्र, नैतिकशास्त्र और विधायी मूल्य-प्रणाली का अध्ययन भी करना पड़ता है।
संविधानसम्मत आधार पर संचालित होने वाले उदारतावादी लोकतंत्रों में ‘कानून के शासन’ की धारणा प्रचलित होती है। इन व्यवस्थाओं में कानून के दायरे के बाहर कोई काम नहीं करता, न व्यक्ति और न ही सरकार। इसके पीछे कानून का उदारतावादी सिद्धांत है जिसके अनुसार कानून का उद्देश्य व्यक्ति पर पाबंदियाँ लगाना न हो कर उसकी स्वतंत्रता की गारंटी करना है। उदारतावादी सिद्धांत मानता है कि कानून के बिना व्यक्तिगत आचरण को संयमित करना नामुमकिन हो जाएगा और एक के अधिकारों को दूसरे के हाथों हनन से बचाया नहीं जा सकेगा। इस प्रकार जॉन लॉक की भाषा में कानून का मतलब है जीवन, स्वतंत्रता और सम्पत्ति की रक्षा के लिए कानून। उदारतावादी सिद्धांत स्पष्ट करता है कि कानून के बनाने और लागू करने के तरीके कौन-कौन से होने चाहिए। उदाहरणार्थ, कानून निर्वाचित विधिकर्त्ताओं द्वारा आपसी विचार-विमर्श के द्वारा किया जाना चाहिए। दूसरे, कोई कानून पिछली तारीख़ से लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि उस सूरत में वह नागरिकों को उन कामों के लिए दण्डित करेगा जो तत्कालीन कानून के मुताबिक किये गये थे। इसी तरह उदारतावादी कानून क्रूर और अमानवीय किस्म की सज़ाएँ देने के विरुद्ध होता है। राजनीतिक प्रभावों से निरपेक्ष रहने वाली एक निष्पक्ष न्यायपालिका की स्थापना की जाती है ताकि कानून की व्यवस्थित व्याख्या करते हुए पक्षकारों के बीच उसके आधार पर फ़ैसला हो सके। मार्क्सवादियों की मान्यता है कि कानून के शासन की अवधारणा व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी करने के नाम पर सम्पत्ति संबंधी अधिकारों की रक्षा करते हुए पूँजीवादी व्यवस्था की सुरक्षा के काम आती है। इसका नतीजा सामाजिक विषमता और वर्गीय प्रभुत्व को बनाये रखने में निकलता है। मार्क्स कानून को राजनीति और विचारधारा की भाँति उस सुपरस्ट्रक्चर या अधिरचना का हिस्सा मानते हैं जिसका बेस या आधार पूँजीवादी उत्पादन की विधि पर रखा जाता है। नारीवादियों ने भी कानून के शासन की अवधारणा की आलोचना की है कि वह लैंगिक निष्पक्षता पर आधारित नहीं है। इसीलिए न्यायपालिका और कानून के पेशे पर पुरुषों का कब्ज़ा रहता है। बहुसंस्कृतिवाद के पैरोकारों का तर्क है कि कानून असल में प्रभुत्वशाली सांस्कृतिक समूहों के मूल्यों और रवैयों की नुमाइंदगी ही करता है। परिणामस्वरूप अल्पसंख्यक और हाशियाग्रस्त समूहों के मूल्य और सरोकार नज़रअंदाज़ किये जाते रहते हैं।
कानून और नैतिकता के बीच अंतर के सवाल पर दार्शनिक शुरू से ही सिर खपाते रहे हैं। कानून का आधार नैतिक प्रणाली में मानने वालों का विश्वास ‘प्राकृतिक कानून’ के सिद्धांत में है। प्लेटो और उनके बाद अरस्तू की मान्यता थी कि कानून और नैतिकता में नज़दीकी रिश्ता होता है। एक न्यायपूर्ण समाज वही हो सकता है जिसमें कानून नैतिक नियमों पर आधारित प्रज्ञा की पुष्टि करते हों। मध्ययुगीन ईसाई विचारक थॉमस एक्विना भी मानते थे कि इस धरती पर उत्तम जीवन व्यतीत करने के लिए नेचुरल लॉ यानी ईश्वर प्रदत्त नैतिकताओं के मुताबिक कानून होने चाहिए। उन्नीसवीं सदी में बुद्धिवाद और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा बढ़ने के कारण प्राकृतिक कानून का सिद्धांत निष्प्रभावी होता चला गया। कानून को नैतिक, धार्मिक और रहस्यवादी मान्यताओं से मुक्त करने की कोशिशें हुईं। जॉन आस्टिन ने ‘विधिक प्रत्यक्षतावाद’ की स्थापना की जिसका दावा था कि कानून का सरोकार किसी उच्चतर नैतिक या धार्मिक उसूल से न हो कर किसी सम्प्रभु व्यक्ति या संस्था से होता है। कानून इसलिए कानून है कि उसका पालन करवाया जाता है और करना पड़ता है। विधिक प्रत्यक्षतावाद की कहीं अधिक व्यावहारिक और नफ़ीस व्याख्या एच.एल.ए. हार्ट की रचना 'द कंसेप्ट ऑफ़ लॉ' (1961) में मिलती है। हार्ट कानून को नैतिक नियमों के दायरे से निकाल कर मानव समाज के संदर्भ में परिभाषित करते हैं। उनके मुताबिक कानून प्रथम और द्वितीयक नियमों का संयोग है। प्रथम श्रेणी के नियमों को 'कानून के सार' की संज्ञा देते हुए हार्ट कहते हैं कि उनका सम्बन्ध सामाजिक व्यवहार के विनियमन से है। जैसे, फ़ौजदारी कानून।
द्वितीय श्रेणी के नियम सरकारी संस्थाओं को हिदायत देते हैं कि कानून किस तरह बनाया जाए, उनका किस तरह कार्यान्वयन किया जाए, किस तरह उसके आधार पर फ़ैसले किये जाएँ और इन आधारों पर किस को हिदायत देते हैं कि कानून किस तरह बनाया जाए, उनका किस तरह कार्यान्वयन किया जाए, किस तरह उसके आधार पर फ़ैसले किये जाएँ और इन आधारों पर किस तरह उसकी वैधता स्थापित की जाए। हार्ट द्वारा प्रतिपादित विधिक प्रत्यक्षतावाद के सिद्धांत की आलोचना राजनीतिक दार्शनिक रोनॉल्ड ड्वॅर्किन ने की है। उनके अनुसार कानून केवल नियमों की संहिता ही नहीं होता और न ही आधुनिक विधि प्रणालियाँ कानून की वैधता स्थापित करने के लिए किसी एक समान तरीके का प्रावधान करती हैं।
कानून और नैतिकता के बीच संबंध की बहस नाज़ियों के अत्याचारों को दण्डित करने वाले न्यूरेम्बर्ग मुकदमे में भी उठी थी। प्रश्न यह था कि क्या उन कामों को अपराध ठहराया जा सकता है जो राष्ट्रीय कानून के मुताबिक किये गये हों? इसके जवाब के लिए प्राकृतिक कानून की अवधारणा का सहारा लिया गया, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति मानवाधिकारों की भाषा में हुई। दरअसल कानून और नैतिकता के रिश्ते का प्रश्न बेहद जटिल है और गर्भपात, वेश्यावृत्ति, पोर्नोग्राफ़ी, टीवी और फ़िल्मों में दिखाई जाने वाली हिंसा, अपनी कोख किराए पर देने वाली माताओं और जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसे मसलों के सदंर्भ में बार-बार उठती रहती है।
प्रकार
विधि के दो प्रकार हैं-
(1) मौलिक विधि- विधि जो कर्तव्य व अधिकारों की परिभाषा दे।
(2) प्रक्रिया विधि- विधि जो कार्यवाही के प्रक्रमों (प्रोसीजर्स) को निर्धारण करे।
कौनसी विधियाँ, प्रक्रिया हैं-
(क) दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973,
(ख) सिविल प्रक्रिया संहिता 1908,
(ग) भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 आदि प्रक्रिया विधि हैं।
मौलिक विधियाँ निम्न हैं-
(क) भारतीय संविदा अधिनियम,
(ख) भारतीय दण्ड संहिता 1860,
(ग) सम्पत्ति हस्तान्तरण अधिनियम 1882 आदि।
न्यायशास्त्र कानून (विधि) का सिद्धांत और दर्शन है। न्यायशास्त्र के विद्वान अथवा कानूनी दार्शनिक, विधि (कानून) की प्रवृति, कानूनी तर्क, कानूनी प्रणालियां एवं कानूनी संस्थानों का गहन ज्ञान पाने की उम्मीद रखते हैं। आधुनिक न्यायशास्त्र की शुरुआत 18वीं सदी में हुई और प्राकृतिक कानून, नागरिक कानून तथा राष्ट्रों के कानून के सिद्धांतों पर सर्वप्रथम अधिक ध्यान केन्द्रित किया गया। साधारण अथवा सामान्य न्यायशास्त्र को प्रश्नों के प्रकार के द्वारा उन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है अथवा इन प्रश्नों के सर्वोत्तम उत्तर कैसे दिए जायं इस बारे में न्यायशास्त्र के सिद्धांतों अथवा विचारधाराओं के स्कूलों दोनों ही तरीकों से पता लगाकर जिनकी चर्चा विद्वान करना चाहते हैं। कानून का समकालीन दर्शन, जो सामान्य न्यायशास्त्र से संबंधित हैं, समस्याओं की चर्चा मोटे तौर पर दो वर्गों में करता है:
1.) कानून की आंतरिक समस्याएं तथा उसी रूप में न्यायिक प्रणाली
2.) एक विशिष्ट सामाजिक संस्था के रूप में कानून की समस्याएं जैसा कि यह व्यापक राजनीतिक एवं सामाजिक स्थिति को निर्दिष्ट करती है जिसमें यह विद्यमान है।
इन प्रश्नों के उत्तर सामान्य न्याय शास्त्र की विचारधारा के चार प्राथमिक केन्द्रों से मिलते हैं:
- प्राकृतिक कानून एक ऐसी धारणा है कि वैधानिक शासकों की शक्ति के लिए तर्कसंगत वस्तुनिष्ठ सीमाएं हैं। कानून की बुनियाद (मूल सिद्धांतों) तक मानवीय विचार शक्ति के सहारे पहुंचना आसान है और प्रकृति के इन कानूनों के माध्यम से ही मनुष्य द्वारा रचित कानूनों को भुई जितना हो सकता था उतना बल मिला.
- प्राकृतिक कानून के विपयार्प्त व्यक्तिरेक (परस्पर विरोधामस में), न्यायिक वस्तुनिष्ठवाद (प्रत्यक्षवाद), मत का पोषण करता है कि कानून और नैतिकता के बीच कोई संबंध नहीं है और इसीलिए कुछ मूलभूत सामाजिक तथ्यों से कानून को ताकत मिलती हैं हालांकि वस्तुनिष्ठ्वादियों में इस बार में मतभेद है कि वे तथ्य आखिर हैं क्या.
- कानूनी यथार्थवाद न्यायशास्त्र का तीसरा सिद्धांत है जिसका यह तर्क है कि वास्तव जगत उसी कानून का व्यवहार करता है जो वह निर्धारित करता है कि कानून क्या है, वही कानून जिसमें जिसमें बल होता है और इसी कारण विधायक, न्यायाधीश तथा कार्यकारी अधिकारी इस बल का व्यवहार करते हैं।
- '''विवेचनात्मक कानून अध्ययन''' न्यायशास्त्र का नवीनतम सिद्धांत है जो 1970 के दशकों में विकसित हुआ है जो प्राथमिक तौर पर एक नकारात्मक अभिधारणा थी कि कानून व्यापक रूप से विरोधामासी है और प्रभावशाली सामाजिक वर्ग के नीतिगत लक्ष्यों की अभिव्यक्ति के रूप में सबसे अच्छी तरह विश्लेषित किया जा सकता है।
कानून के समकालीन दार्शनिक रोनॉल्ड डोर्किन का अध्ययन भी गौरतलब है जिन्होनें न्यायशास्त्र के रचनावादी सिद्धांत की वकालत की है जिसे प्राकृतिक कानून के सिद्धांतों एवं सामान्य न्यायशास्त्र के वस्तुनिष्ठवादी सिद्धांतों के मध्य-मार्ग के रूप में विशेष रूप से चिन्हित किया जा सकता है।
इंग्लिश शब्दावली लैटिन शब्द ज्युरिस्प्रुडेंशिया पर आधारित (व्युत्पन्न) है: ज्यूरिस (juris) जूस (jus) का संबंधकारक (षष्ठी) है जिसका अर्थ है "कानून" एवं प्रुडेंशिया का अर्थ है "ज्ञान". यह शब्द इंग्लिश में सन 1628 में सर्वप्रथम साक्ष्यांकित हुआ[6], ठीक ऐसे समय में जबकि "प्रुडेंश " शब्द का अर्थ "ज्ञान अथवा किसी मामले में प्रवीन दिमाग" अब अप्रचलित हो गया था। हो सकता कि यह शब्द फ्रेंच के ज्यूरिसप्रूडेंस के जरिए आया हो, जो कि पहले से साक्ष्यांकित है।
न्यायशास्त्र का इतिहास
प्राचीन रोम में न्यायशास्त्र अपने इसी अर्थ में विद्यमान था, यद्यपि अपने उद्भव काल में ही यह विषय मॉस मायोरम (पारंपरिक कानून) के जूस एक पेरिटी थी, मौखिक कानून और रीति-रिवाजों की एक संस्था जिसमें "पिता द्वारा पुत्र को" ये कानून और रीति-रिवाज मौखिक तरीके से प्रेषित दिए जाते थे। प्रेटर्स प्राचीन रोमन सामाज्य में निर्वाहित सरकारी न्यायाधीश इस बात का फैसला करते हुए कि क्या एकक मामले एडिक्टों (घोषणा पत्र), मुकदमा चलाये जाने योग्य मामलों की वार्षिक घोषणा के अनुसार अथवा, असाधारण परिस्थितियों में वार्षिक धारणा-पत्र (एडिक्ट) में अतिरिक्त नियम अंतर्भुक्त कर कानून की कार्यकारी संस्था की स्थापना करते थे। तत्पश्चात एक आयुडेक्स (न्यायाधीश के लिए लैटिन नाम) मामले के तथ्यों के अनुसार निदान कर निर्णय करता था।
ऐसी आशा की जाती थी कि उनके वाक्य पारंपरिक प्रथाओं की सरल व्याख्या होनी चाहिए, किन्तु प्रभावी रूप से यह एक ऐसी गतिविधि थी कि मोटे तौर पर कानूनी रीति-रिवाज में परंपरागत तरीके से प्रत्येक मामले पर औपचारिक ढंग से पुनर्विचार करने के अलावा शीघ्र ही नए सामाजिक दृष्टान्तों के आधार पर सामंजस्यपूर्ण ढंग से अनुकूल तरीके से रूपांतरित कर न्यायसंगत व्याख्या बन गई। यह कानून तब नई विकासवादी संस्थानों (क़ानूनी अवधारणाओं) के जरिये लागू कर दिया गया, जबकि यह पारंपरिक परिकल्पना के अनुसार ही बरकरार रहा. प्रेयटर्स (निर्वाचित न्यायाधीश) को ईसापूर्व तीसरी सदी में प्रुडेंट्स के अयाजकीय (जिन्हें याजकवर्ग से बाहर निकाल दिया जाता था) निकाय द्वारा प्रतिस्थापित कर दिए गए। इस निकाय में प्रवेश योग्यता अथवा अनुभव के प्रमाण के आधार पर शर्त सापेक्ष था।
प्राचीन भारतीय वैदिक समाज में, कानून अथवा धर्म, जिसका अनुपालन हिन्दुओं द्वारा किया जाता था, मनु-स्मृति के द्वारा प्रतिपादित था, जो पाप और उसके निराकार के उपायों को परिभाषित करने वाला एक काव्य-संग्रह है। ऐसा कहा जाता है कि इनकी रचना 200 ईसापूर्व से 200 ईस्वीसन के मध्य हुई है। वास्तव में, ये कानून की संहिताएं नहीं हैं किन्तु सामाजिक दायित्वों के प्रति उस युग की कुछ आवश्यक मान्यताएं हैं।
रोमन साम्राज्य के अंतर्गत, कानून के स्कूलों की स्थापना हुई और गतिविधियां लगातार अधिक से अधिक शैक्षणिक (अकादमिक) होती गई। रोमन साम्राज्य के आरंभिक युग से तीसरी शताब्दी के मध्य, कुछ उल्लेखनीय वर्गों द्वारा जिनमें प्रोकुलियंस एवं साविनियंस शामिल थे, एक प्रासंगिक साहित्य की रचना हुई. अध्ययनों की वैज्ञानिक गंभीरता का परिमाण प्राचीनकाल के हिसाब से अभूतपूर्व था तथा बौद्धिक पराकाष्ठा की अनुपम ऊंचाई पर पहुंच गया।
तीसरी सदी के बाद, ज्यूरिस प्रुडेंशिया (न्यायपालिका) अधिक आधिकारिकतंत्रिका गतिविधि हो गई जिसके कुछ उल्लेखनीय लेखक हैं। बाइजेंटाइन साम्राज्य (5वीं सदी) के दौरान, कानूनी अध्ययनों को एक बार फिर गंभीरता से लिया गया और इसी सांस्कृतिक आंदोलन से ही जस्टीनियम के कॉर्पस जूरिस सिविल्स का जन्म हुआ।
दोस्तों आपको यह आर्टिकल कैसा लगा हमें जरुर बताये. आप अपनी राय, सवाल और सुझाव हमें comments के जरिये जरुर भेजे. अगर आपको यह आर्टिकल उपयोगी लगा हो तो कृपया इसे share करे।
आप E-mail के द्वारा भी अपना सुझाव दे सकते हैं। prakashgoswami03@gmail.com